तब दूरदर्शन के शुरूआती दिन थे। कुछ बड़े शहरों में ही टी.वी.टॉवर थे, लेकिन दूरदर्शन की ललक सब के मन में.... तब बहुत कम घर थे जहाँ टेलिविज़न था। हमारे घर भी तभी टैक्सला का बड़ा श्वेत-श्याम टीवी आया। कुछ दिखने के नाम पर केवल झिलमिलाहट और बीच-बीच में कभी अस्पष्ट तो कभी स्पष्ट चित्र दिखाई दे जाता। इस चित्र को भी देखने के लिए छत पर हवाई जहाज सरीखा एंटीना लगाना पड़ता।
हमारे घर जब टीवी आया तब मैं छोटी ही थी। हाथ ठेले पर रखा टीवी जब हमारे घर आया तो उसका किसी मेहमान की तरह स्वागत हुआ। स्वागत करने हम बच्चा पार्टी पहले ही गेट पर खड़े थे। जैसे ही ठेला आया, मैंने सबसे पहले मोहल्ले के अन्य घरों पर एक विहंगम दृष्टि डाली ये देखने के लिए की लोगों ने हमारे घर टीवी आते देखा या नहीं?
उस वक्त जिन घरों में टीवी था वे कुछ विशिष्ट हो गए थे।
हाँतो छत पर बड़ा सा एंटीना लगना पड़ता, और यदि फिर भी तस्वीर न दिखाई पड़े तो एक आदमी को ऊपर चढ़ कर एंटीना घुमाना भी पड़ता था। ऐसा में ऊपर चढा व्यक्ति बार बार पूछ्ता 'आया?' और नीचे बताने के लिए तैनात व्यक्ति बताता की अभी नहीं, और थोड़ा घुमाओ, या बस-बस अब आने लगा। दूरदर्शन की सभाएँ आकाशवाणी की तरह तय थीं, सो सभा आरम्भ होने के पाँच मिनट पहले से ही टीवी खोल दिया जाता। पहले स्क्रीन पर खड़ी धारियां दिखाई देती रहती, फिर दूरदर्शन का मोनो सिग्नेचर ट्यून के साथ घूमता हुआ प्रकट होता। कितना रोमांचक था ये।
सिलसिलेवार कार्यक्रम, गिनती के सीरियल,वो भी पूरे बारह एपिसोड में ख़त्म हो जाने वाले।
मुशायरा, कवि सम्मलेन , बेहतरीन टेलीफिल्म्स ,चित्रहार , पत्रों का कार्यक्रम सुरभि, समाचार, खेती-किसानी क्या नहीं था! फिर शुरू हुआ पहला सोप ऑपेरा हमलोग कोई भूल सकता है क्या? उसके बाद तो एक से बढ़ कर एक सीरियल दूरदर्शन ने दिए। वो बुनियाद हो या प्रथम-प्रतिश्रुति, मालगुडी डेज़ हो या ये जो है ज़िन्दगी, रामायण हो या महाभारत......कितने नाम!!! आज इतने चैनल्स हैं जो दिन-रात केवल सीरियल ही दिखा रहे हैं लेकिन कर पाये रामायण-महाभारत या हम लोग जैसा कमाल? भारत एक खोज या चाणक्य जैसा धारावाहिक दिखने का माद्दा है इनमें? फूहड़ और बेसिर पैर की कहानियों के अलावा और कुछ भी नहीं है अब। ऐसी कहानियाँ जो वास्तविकता से कोसों दूर होती हैं। ऐसा एक भी चैनल आज नहीं है, जो अपने किसी भी धारावाहिक के ज़रिये कर्फ्यू जैसा सनाका खींच सके। याद है न रामायण और महाभारत के प्रसारण का समय? जिन घरों में टीवी नहीं था वे पड़ोसियों के यहाँ जाकर ये धारावाहिक देखते थे। रविवार के दिन हमें भी ड्राइंगरूम में अतिरिक्त व्यवस्था करनी होती थी। उस पर भी दर्शकों की संख्या इतनी अधिक होती थी, की हम लोगों को ही बैठने की जगह नहीं मिलती थी।
आज चैनलों की इतनी भीड़ है, की टीवी देखने की इच्छा ही ख़त्म हो गई। आधुनिकता के नाम पर फूहड़ता परोसते धारावाहिक...........ऐसे में दूरदर्शन की बहुत याद आती है।
( ऊपर का लेख वंदना दुबे अवस्थी जी के ब्लॉग से लिया है , इस से बढ़िया भूमिका मेरी समझ में नहीं आ रही थी | उनको को धन्यवाद | )
यहाँ टाईम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित एक लेख आप सब के पेश कर रहा हूँ जो एक बेहद लोकप्रिय सीरियल की यादे ताज़ा करवा देगा | और वोह सीरियल था "हम लोग" | इस सीरियल को ७ जुलाई ,१९८४ को पहेली बार दूरदर्शन पर दिखाया गया था | २५ साल हो गए है पर आज भी यादे ताज़ा है |
पूरे दिन में हमारे साथ जो जो होता है उसका ही एक लेखा जोखा " बुरा भला " के नाम से आप सब के सामने लाने का प्रयास किया है | यह जरूरी नहीं जो हमारे साथ होता है वह सब " बुरा " हो, साथ साथ यह भी एक परम सत्य है कि सब " भला " भी नहीं होता | इस ब्लॉग में हमारी कोशिश यह होगी कि दिन भर के घटनाक्रम में से हम " बुरा " और " भला " छांट कर यहाँ पेश करे |
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"रूकावट के लिए खेद है " .....को केसे भूल गए जनाब ......
जवाब देंहटाएंआपने बिल्कुल सही फरमाया। टी.वी. एंटीना सेट करने की बात तो बिल्कुल सजीव है। उस दौर के सीरियल हमारे जहन में इस कदर बस गए हैं कि उन्हें लेकर नॉस्टेल्जिक हो जाना स्वाभाविक है।
जवाब देंहटाएंकुछ पुरानी यादें ताजा हो गईं इस बहाने।
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही राजीव जी "रूकावट के लिए खेद" तो रोज़मर्रा कि बोलचाल में भी अपना एक मुकाम बना चूका है |
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