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शनिवार, 28 सितंबर 2013

शहीद - ए - आजम सरदार भगत सिंह जी की १०६ वीं जयंती




उसे यह फ़िक्र है हरदम,
नया तर्जे-जफ़ा क्या है?
हमें यह शौक देखें,
सितम की इंतहा क्या है?
दहर से क्यों खफ़ा रहे,
चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही,
आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमान हूँ,
ए-अहले-महफ़िल,
चरागे सहर हूँ,
बुझा चाहता हूँ।
मेरी हवाओं में रहेगी,
ख़यालों की बिजली,
यह मुश्त-ए-ख़ाक है फ़ानी,
 
रहे रहे न रहे।
 
- शहीद - ए - आजम सरदार भगत सिंह जी

 
 शहीद - ए - आजम सरदार भगत सिंह जी को उनकी १०६ वीं जयंती के अवसर पर शत शत नमन !
 इंकलाब ज़िंदाबाद !!!

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

हैप्पी बर्थड़े ... जिम्मी पाजी

भारत की 1983 विश्व कप जीत के नायक पूर्व आलराउंडर मोहिंदर अमरनाथ जी का आज जन्मदिन है !
अमरनाथ ने 1969 से 1988 तक चले अपने करियर में 69 टेस्ट मैच में 4378 रन बनाए। उन्होंने इसके अलावा 85 एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैचों में 1924 रन भी जोड़े। उन्हें 1983 विश्व कप के सेमीफाइनल और फाइनल में मैन आफ द मैच चुना गया था।
अमरनाथ ने 1969 में बिल लारी की अगुवाई वाली आस्ट्रेलियाई टीम के खिलाफ टेस्ट मैचों में पदार्पण किया। वह 1981-82 में रणजी खिताब जीतने वाली दिल्ली टीम के कप्तान भी थे। स्वतंत्र भारत के पहले टेस्ट कप्तान और मोहिंदर के पिता लाला अमरनाथ 1994 में शुरू हुए इस पुरस्कार को हासिल करने वाले पहले क्रिकेटर थे। उन्होंने बांग्लादेश और मोरक्को की राष्ट्रीय टीमों के अलावा राजस्थान की रणजी ट्राफी टीम को कोचिंग भी दी।
आज भी अमरनाथ क्रिकेट कों एक कमेंटेटर के रूप में अपना योगदान दे रहे है |


सभी क्रिकेट प्रेमियों की ओर से मोहिंदर अमरनाथ जी को जन्मदिन की बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !

सोमवार, 23 सितंबर 2013

अमर शहीद वीरांगना प्रीतिलता वादेदार की ८१ वीं पुण्यतिथि

प्रीतिलता वादेदार (बांग्ला : প্রীতিলতা ওয়াদ্দেদার) (5 मई 1911 – 23 सितम्बर 1932) भारतीय स्वतंत्रता संगाम की महान क्रान्तिकारिणी थीं। वे एक मेधावी छात्रा तथा निर्भीक लेखिका भी थी। वे निडर होकर लेख लिखती थी।

परिचय

प्रीतिलता वादेदार का जन्म 5 मई 1911 को तत्कालीन पूर्वी भारत (और अब बंगला देश ) में स्थित चटगाँव के एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता नगरपालिका के क्लर्क थे। वे चटगाँव के डॉ खस्तागिर शासकीय कन्या विद्यालय की मेघावी छात्रा थीं। उन्होने सन् १९२८ में मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की। इसके बाद सन् १९२९ में उन्होने ढाका के इडेन कॉलेज में प्रवेश लिया और इण्टरमिडिएट परीक्षा में पूरे ढाका बोर्ड में पाँचवें स्थान पर आयीं। दो वर्ष बाद प्रीतिलता ने कोलकाता के बेथुन कॉलेज से दर्शनशास्त्र से स्नातक परीक्षा उत्तिर्ण की। कोलकाता विश्वविद्यालय के ब्रितानी अधिकारियों ने उनकी डिग्री को रोक दिया। उन्हें ८० वर्ष बाद मरणोपरान्त यह डिग्री प्रदान की गयी। जब वे कॉलेज की छात्रा थीं, रामकृष्ण विश्वास से मिलने जाया करतीं थी जिन्हें बाद में फांसी की सजा हुई। उन्होने निर्मल सेन से युद्ध का प्रशिक्षण लिया था।
स्कूली जीवन में ही वे बालचर - संस्था की सदस्य हो गयी थी। वहा उन्होंने सेवाभाव और अनुशासन का पाठ पढ़ा। बालचर संस्था में सदस्यों को ब्रिटिश सम्राट के प्रति एकनिष्ट रहने की शपथ लेनी होती थी। संस्था का यह नियम प्रीतिलता को खटकता था। उन्हें बेचैन करता था। यही उनके मन में क्रान्ति का बीज पनपा था। बचपन से ही वह रानी लक्ष्मी बाई के जीवन - चरित्र से खूब प्रभावित थी,  उन्होंने 'डॉ खस्तागिर गवर्मेंट गर्ल्स स्कूल चटगाँव से मैट्रिक की परीक्षा उच्च श्रेणी में पास किया। फिर इडेन कालेज ढाका से इंटरमिडीएट की परीक्षा और ग्रेजुएशन नेथ्यून कालेज कलकत्ता से किया। यही उनका सम्पर्क क्रान्तिकारियो से हुआ। शिक्षा उपरान्त उन्होंने परिवार की मदद के लिए एक पाठशाला में नौकरी शुरू की। लेकिन उनकी दृष्टि में केवल कुटुंब ही नही था , पूरा देश था। देश की स्वतंत्रता थी। पाठशाला की नौकरी करते हुए उनकी भेट प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्य सेन से हुई।प्रीतिलता उनके दल की सक्रिय सदस्य बनी। पहले भी जब वे ढाका में पढ़ते हुए छुट्टी में चटगाँव आती थी तब उनकी क्रान्तिकारियो से मुलाक़ात होती थी और अपने साथ पढने वाली सहेलियों से तकरार करती थी कि वे क्रांतिकारी अत्यंत डरपोक है। लेकिन सूर्यसेन से मिलने पर उनकी क्रान्तिकारियो के विषय में गलतफहमी दूर हो गयी। एक नया विश्वास कायम हो गया। वह बचपन से ही न्याय के लिए निर्भीक विरोध के लिए तत्पर रहती थी। स्कूल में पढ़ते हुए उन्होंने शिक्षा विभाग के एक आदेश के विरुद्ध दूसरी लडकियों के साथ मिलकर विरोध किया था। इसीलिए उन सभी लडकियों को स्कूल से निकाल दिया गया।प्रीतिलता जब सूर्यसेन से मिली तब वे अज्ञातवास में थे। उनका एक साथी रामकृष्ण विश्वास कलकत्ता के अलीपुर जेल में था। उनको फांसी की सज़ा सुनाई गयी थी। उनसे मिलना आसान नही था।लेकिन प्रीतिलता उनसे कारागार में लगभग चालीस बार मिली।और किसी अधिकारी को उन पर सशंय भी नही हुआ। यह था , उनकी बुद्धिमत्ता और बहादुरी का प्रमाण। इसके बाद वे सूर्यसेन के नेतृत्त्व कि इन्डियन रिपब्लिकन आर्मी में महिला सैनिक बनी। पूर्वी बंगाल के घलघाट में क्रान्तिकारियो को पुलिस ने घेर लिया था घिरे हुए क्रान्तिकारियो में अपूर्व सेन , निर्मल सेन , प्रीतिलता और सूर्यसेन आदि थे।सूर्यसेन ने लड़ाई करने का आदेश दिया।अपूर्वसेन और निर्मल सेन शहीद हो गये।सूर्यसेन की गोली से कैप्टन कैमरान मारा गया। सूर्यसेन और प्रीतिलता लड़ते - लड़ते भाग गये।क्रांतिकारी सूर्यसेन पर 10 हजार रूपये का इनाम घोषित था।दोनों एक सावित्री नाम की महिला के घर गुप्त रूप से रहे। वह महिला क्रान्तिकारियो को आश्रय देने के कारण अंग्रेजो का कोपभाजन बनी।सूर्यसेन ने अपने साथियो का बदला लेने की योजना बनाई। योजना यह थी की पहाड़ी की तलहटी में यूरोपीय क्लब पर धावा बोलकर नाच - गाने में मग्न अंग्रेजो को मृत्यु का दंड देकर बदला लिया जाए।प्रीतिलता के नेतृत्त्व में कुछ क्रांतिकारी वह पहुचे। २३ सितम्बर १९३२ की रात इस काम के लिए निश्चित की गयी।हथियारों से लैस प्रीतिलता ने आत्म सुरक्षा के लिए पोटेशियम साइनाइड नामक विष भी रख लिया था। पूरी तैयारी के साथ वह क्लब पहुची।बाहर से खिड़की में बम लगाया। क्लब की इमारत बम के फटने और पिस्तौल की आवाज़ से कापने लगी। नाच - रंग के वातावरण में एकाएक चीखे सुनाई देने लगी।13 अंग्रेज जख्मी हो गये और बाकी भाग गये।इस घटना में एक यूरोपीय महिला मारी गयी।थोड़ी देर बाद उस क्लब से गोलीबारी होने लगी। प्रीतिलता के शरीर में एक गोली लगी।वे घायल अवस्था में भागी लेकिन फिर गिरी और पोटेशियम सायनाइड खा लिया। उस समय उनकी उम्र 21 साल थी। इतनी कम उम्र में उन्होंने झांसी की रानी का रास्ता अपनाया और उन्ही की तरह अंतिम समय तक अंग्रेजो से लड़ते हुए स्वंय ही मृत्यु का वरण कर लिया प्रीतिलता के आत्म बलिदान के बाद अंग्रेज अधिकारियों को तलाशी लेने पर जो पत्र मिले उनमे छपा हुआ पत्र था। 

इस पत्र में छपा था की " चटगाँव शस्त्रागार काण्ड के बाद जो मार्ग अपनाया जाएगा , वह भावी विद्रोह का प्राथमिक रूप होगा। यह संघर्ष भारत को पूरी स्वतंत्रता मिलने तक जारी रहेगी। "

पिछले सालों मे आई हुई २ फिल्मों मे इन के बारे मे दिखाया गया था ... फिल्में थी - खेलें हम जी जान से और चटगाँव |

अमर शहीद वीरांगना प्रीतिलता वादेदार जी को उनकी ८१ वीं पुण्यतिथि पर हम सब का शत शत नमन !!

रविवार, 22 सितंबर 2013

दूसरी पुण्यतिथि पर विशेष ... एक था 'टाइगर'

भारत के पूर्व क्रिकेट कप्तान मंसूर अली खान पटौदी का बृहस्पतिवार, 22/09/2011 की शाम को निधन हो गया था । उन्हें फेफड़ों में संक्रमण के कारण सर गंगा राम अस्पताल में भर्ती कराया गया था। नवाब पटौदी गुजरे जमाने की मशहूर अभिनेत्री शर्मिला टैगोर के पति और सैफ अली खान के पिता थे।
भारत के लिए 46 टेस्ट खेल चुके पटौदी देश के सबसे युवा और सफल कप्तानों में से रहे । उन्होंने 40 टेस्ट मैचों की भारत की अगुवाई की। पटौदी ने 34.91 की औसत से 2793 रन बनाए । उन्होंने अपने करियर में छह शतक और 16 अर्धशतक जमाए ।
अपनी कलात्मक बल्लेबाजी से अधिक कप्तानी के कारण क्रिकेट जगत में अमिट छाप छोड़ने वाले मंसूर अली खां पटौदी ने भारतीय क्रिकेट में नेतृत्व कौशल की नई मिसाल और नए आयाम जोड़े थे। वह पटौदी ही थे जिन्होंने भारतीय खिलाड़ियों में यह आत्मविश्वास जगाया था कि वे भी जीत सकते हैं। पटौदी का जन्म भले ही पांच जनवरी 1941 को भोपाल के नवाब परिवार में हुआ था लेकिन उन्होंने हमेशा विषम परिस्थितियों का सामना किया। चाहे वह निजी जिंदगी हो या फिर क्रिकेट। तब 11 साल के जूनियर पटौदी ने क्रिकेट खेलनी शुरू भी नहीं की थी कि ठीक उनके जन्मदिन पर उनके पिता और पूर्व भारतीय कप्तान इफ्तिखार अली खां पटौदी का निधन हो गया था। इसके बाद जब पटौदी ने जब अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में खेलना शुरू किया तो 1961 में कार दुर्घटना में उनकी एक आंख की रोशनी चली गई। इसके बावजूद वह पटौदी का जज्बा और क्रिकेट कौशल ही था कि उन्होंने भारत की तरफ से न सिर्फ 46 टेस्ट मैच खेलकर 34.91 की औसत से 2793 रन बनाए बल्कि इनमें से 40 मैच में टीम की कप्तानी भी की।
पटौदी भारत के पहले सफल कप्तान थे। उनकी कप्तानी में ही भारत ने विदेश में पहली जीत दर्ज की। भारत ने उनकी अगुवाई में नौ टेस्ट मैच जीते जबकि 19 में उसे हार मिली। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि पटौदी से पहले भारतीय टीम ने जो 79 मैच खेले थे उनमें से उसे केवल आठ में जीत मिली थी और 31 में हार। यही नहीं इससे पहले भारत विदेशों में 33 में से कोई भी टेस्ट मैच नहीं जीत पाया था। यह भी संयोग है कि जब पटौदी को कप्तानी सौंपी गई तब टीम वेस्टइंडीज दौरे पर गई। नियमित कप्तान नारी कांट्रैक्टर चोटिल हो गए तो 21 वर्ष के पटौदी को कप्तानी सौंपी गई। वह तब सबसे कम उम्र के कप्तान थे। यह रिकार्ड 2004 तक उनके नाम पर रहा। पटौदी 21 साल 77 दिन में कप्तान बने थे। जिंबाब्वे के तातैंडा तायबू ने 2004 में यह रिकार्ड अपने नाम किया था।
टाइगर के नाम से मशहूर पटौदी की क्रिकेट की कहानी देहरादून के वेल्हम स्कूल से शुरू हुई थी लेकिन अभी उन्होंने क्रिकेट खेलना शुरू किया था कि उनके पिता का निधन हो गया। इसके बाद जूनियर पटौदी को सभी भूल गए। इसके चार साल बाद ही अखबारों में उनका नाम छपा जब विनचेस्टर की तरफ से खेलते हुए उन्होंने अपनी बल्लेबाजी से सभी को प्रभावित किया। अपने पिता के निधन के कुछ दिन ही बाद पटौदी इंग्लैंड आ गए थे। वह जिस जहाज में सफर कर रहे थे उसमें वीनू मांकड़, फ्रैंक वारेल, एवर्टन वीक्स और सनी रामादीन जैसे दिग्गज क्रिकेटर भी थे। वारेल का तब पता नहीं था कि वह जिस बच्चे से मिल रहे हैं 10 साल बाद वही उनके साथ मैदान पर टास के लिए उतरेगा।
नेतृत्व क्षमता उनकी रगों में बसी थी। विनचेस्टर के खिलाफ उनका करियर 1959 में चरम पर था जबकि वह कप्तान थे। उन्होंने तब स्कूल क्रिकेट में डगलस जार्डिन का रिकार्ड तोड़ा था। पटौदी ने इसके बाद दिल्ली की तरफ से दो रणजी मैच खेले और दिसंबर 1961 में इंग्लैंड के खिलाफ फिरोजशाह कोटला मैदान पर पहला टेस्ट मैच खेलने का मौका मिला। यह मैच बारिश से प्रभावित रहा था। 


 टाइगर पटौदी को उनकी दूसरी पुण्यतिथि पर शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि ! 

बुधवार, 18 सितंबर 2013

अमर शहीद मदनलाल ढींगरा जी की १३० वीं जयंती


मदनलाल ढींगरा ( जन्म: १८ सितम्बर १८८३ - फाँसी: १७ अगस्त, १९०९)

मदनलाल ढींगरा भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अप्रतिम क्रान्तिकारी थे।
वे इंग्लैण्ड में अध्ययन कर रहे थे जहाँ उन्होने विलियम हट कर्जन वायली नामक एक ब्रिटिश अधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी।
यह घटना बीसवीं शताब्दी में भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की कुछेक प्रथम घटनाओं में से एक है।
इसी क्रान्तिकारी घटना से भयाक्रान्त होकर अंग्रेजों ने मोहनदास करमचन्द गान्धी को महात्मा के वेष में दक्षिण अफ्रीका से बुलाकर भारत भिजवाने की रणनीति अपनायी |

आरम्भिक जीवन

मदनलाल ढींगरा का जन्म १८ सितम्बर,सन् १८८३ को पंजाब प्रान्त के एक सम्पन्न हिन्दू परिवार में हुआ था। उनके पिता दित्तामल जी सिविल सर्जन थे और अंग्रेजी रंग में पूरी तरह रंगे हुए थे किन्तु माताजी अत्यन्त धार्मिक एवं भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण महिला थीं।
उनका परिवार अंग्रेजों का विश्वासपात्र था और जब मदनलाल को भारतीय स्वतन्त्रता सम्बन्धी क्रान्ति के आरोप में लाहौर के एक कालेज से निकाल दिया गया तो परिवार ने मदनलाल से नाता तोड़ लिया।
मदनलाल को जीवन यापन के लिये पहले एक क्लर्क के रूप में, फिर एक तांगा-चालक के रूप में और अन्त में एक कारखाने में श्रमिक के रूप में काम करना पड़ा। कारखाने में श्रमिकों की दशा सुधारने हेतु उन्होने यूनियन (संघ) बनाने की कोशिश की किन्तु वहाँ से भी उन्हें निकाल दिया गया।
कुछ दिन उन्होंने मुम्बई में काम किया फिर अपनी बड़े भाई की सलाह पर सन् १९०६ में उच्च शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैण्ड चले गये जहाँ उन्होंने यूनिवर्सिटी कालेज लन्दन में यान्त्रिक प्रौद्योगिकी (Mechanical Engineering) में प्रवेश ले लिया।
विदेश में रहकर अध्ययन करने के लिये उन्हें उनके बड़े भाई ने तो सहायता दी ही, इंग्लैण्ड में रह रहे कुछ राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं से भी आर्थिक मदद मिली थी।

सावरकर के सानिध्य में

लन्दन में ढींगरा भारत के प्रख्यात राष्ट्रवादी विनायक दामोदर सावरकर एवं श्यामजी कृष्ण वर्मा के सम्पर्क में आये।
वे लोग ढ़ींगरा की प्रचण्ड देशभक्ति से बहुत प्रभावित हुए। ऐसा विश्वास किया जाता है कि सावरकर ने ही मदनलाल को अभिनव भारत नामक क्रान्तिकारी संस्था का सदस्य बनाया और हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया।
मदनलाल इण्डिया हाउस में रहते थे जो उन दिनों भारतीय विद्यार्थियों के राजनैतिक क्रियाकलापों का केन्द्र हुआ करता था।
ये लोग उस समय खुदीराम बोस, कन्हाई लाल दत्त, सतिन्दर पाल और काशी राम जैसे क्रान्तिकारियों को मृत्युदण्ड दिये जाने से बहुत क्रोधित थे।
कई इतिहासकार मानते हैं कि इन्ही घटनाओं ने सावरकर और ढींगरा को सीधे बदला लेने के लिये विवश किया।

कर्जन वायली का वध

१ जुलाई सन् १९०९ की शाम को इण्डियन नेशनल ऐसोसिएशन के वार्षिकोत्सव में भाग लेने के लिये भारी संख्या में भारतीय और अंग्रेज इकठे हुए।

जैसे ही भारत सचिव के राजनीतिक सलाहकार सर विलियम हट कर्जन वायली अपनी पत्नी के साथ हाल में घुसे, ढींगरा ने उनके चेहरे पर पाँच गोलियाँ दागी; इसमें से चार सही निशाने पर लगीं।

उसके बाद ढींगरा ने अपने पिस्तौल से स्वयं को भी गोली मारनी चाही किन्तु उन्हें पकड़ लिया गया।

अभियोग

२३ जुलाई १९०९ को ढींगरा के केस की सुनवाई पुराने बेली कोर्ट में हुई। अदालत ने उन्हें मृत्युदण्ड का आदेश दिया और १७ अगस्त सन् १९०९ को फाँसी पर लटका कर उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी। मदनलाल मर कर भी अमर हो गये।
 
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अप्रतिम क्रान्तिकारी - मदनलाल ढींगरा जी की १३० वीं जयंती पर हम सब उन्हें शत शत नमन करते है ! 

वन्दे मातरम् !!

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

'अमर' अंकल पई की ८४ वीं जयंती

अनंत पई
अनंत पई (17 सितम्बर 1929, कार्कल, कर्नाटक — 24 फरवरी 2011, मुंबई), जो अंकल पई के नाम से लोकप्रिय थे, भारतीय शिक्षाशास्री और कॉमिक्स, ख़ासकर अमर चित्र कथा श्रृंखला, के रचयिता थे । इंडिया बुक हाउज़ प्रकाशकों के साथ 1967 में शुरू की गई इस कॉमिक्स श्रृंखला के ज़रिए बच्चों को परंपरागत भारतीय लोक कथाएँ, पौराणिक कहानियाँ और ऐतिहासिक पात्रों की जीवनियाँ बताई गईं । 1980 में टिंकल नामक बच्चों के लिए पत्रिका उन्होंने रंग रेखा फ़ीचर्स, भारत का पहला कॉमिक और कार्टून सिंडिकेट, के नीचे शुरू की. 1998 तक यह सिंडिकेट चला, जिसके वो आख़िर तक निदेशक रहे ।
दिल का दौरा पड़ने से 24 फरवरी 2011 को शाम के 5 बजे अनंत पई का निधन हो गया ।
आज अमर चित्र कथा सालाना लगभग तीस लाख कॉमिक किताबें बेचता है, न सिर्फ़ अंग्रेजी में बल्कि 20 से अधिक भारतीय भाषाओं में । 1967 में अपनी शुरुआत से लेकर आज तक अमर चित्र कथा ने 10 करोड़ से भी ज़्यादा प्रतियाँ बेची हैं । 2007 में अमर चित्र कथा ACK Media द्वारा ख़रीदा गया ।

शुरुआती ज़िन्दगी और शिक्षा

कर्नाटक के कार्कल शहर में जन्मे अनंत के माता पिता का देहांत तभी हो गया था, जब वो महज दो साल के थे । वो 12 साल की उम्र में मुंबई आ गए । मुंबई विश्वविद्यालय से दो डिग्री लेने वाले पई का कॉमिक्स की तरफ़ रुझान शुरु से था लेकिन अमर चित्रकथा की कल्पना तब हुई, जब वो टाइम्स ऑफ इंडिया के कॉमिक डिवीजन से जुड़े ।

'अमर चित्र कथा'

इण्डियन बुक हाउस द्वारा प्रकाशित 'अमर चित्र कथा' 1967 से भारत का मनोरंजन करने के साथ -साथ उसे नैतिकता सिखाती आई है. इन चित्र कथाओ को शुरू करने का श्रेय जाता है श्री अनंत पई जी को. राज कॉमिक्स के लिए काम कर चुके श्री दिलीप कदम जी और स्वर्गीय श्री प्रताप मुलिक जी अमर चित्र कथा के लिए भी कला बना चुके है .
अमर चित्र कथा की मुख्य आधार होती थी लोक कथाएँ, इतिहास, पौराणिक कथाएँ, महान हस्तियों की जीवनियाँ, किवदंतियां, आदि. इनका लगभग 20 भारतीय और 10 विदेशी भाषाओ मे अनुवाद हो चुका है. लगभग 3 दशको अमर चित्र कथा देश भर मे छाई रही और अब भी इनकी प्रतियाँ प्रमुख पुस्तक की दुकानों पर मिल जायेंगी.
2007 मे ACK Media ने अमर चित्र कथा के अधिकार ले लिए और सितम्बर 2008 मे उन्होंने अमर चित्र कथा पर एक नई वेब साईट आरम्भ की.
भारतीय कॉमिक्स को लोकप्रिय और उनके माध्यम से आम लोगो तक संदेश पहुँचाने वाली अमर चित्र कथा हमेशा यूँ ही अमर रहेंगी ठीक जैसे अंकल पई अमर हो गए है !

आज उनकी ८४ वीं जयंती के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते है !

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

देश के सब से बड़े अनशन सत्याग्रही - जतिंद्र नाथ दास

जतिंद्र नाथ दास (27 अक्टूबर 1904 - 13 सितम्बर 1929)
जतिंद्र नाथ दास (27 अक्टूबर 1904 - 13 सितम्बर 1929), उन्हें जतिन दास के नाम से भी जाना जाता है, एक महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी थे | लाहौर जेल में भूख हड़ताल के 63 दिनों के बाद जतिन दास की मौत के सदमे ने पूरे भारत को हिला दिया था | स्वतंत्रता से पहले अनशन या भूख हड़ताल से शहीद होने वाले एकमात्र व्यक्ति जतिन दास हैं... जतिन दास के देश प्रेम और अनशन की पीड़ा का कोई सानी नहीं है |
जतिंद्र नाथ दास का जन्म कोलकाता में हुआ था, वह बंगाल में एक क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति में शामिल हो गए | जतिंद्र बाबू  ने 1921 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भी भाग लिया था ! नवम्बर 1925 में कोलकाता में विद्यासागर कॉलेज में बी.ए. का अध्ययन कर रहे जतिन दास को राजनीतिक गतिविधियों के लिए गिरफ्तार किया गया था और मिमेनसिंह सेंट्रल जेल में कैद किया गया था ... वहाँ  वो राजनीतिक कैदियों से दुर्व्यवहार के खिलाफ भूख हड़ताल पर चले गए, 20 दिनों के बाद जब जेल अधीक्षक ने माफी मांगी तो जतिन दास ने अनशन का त्याग किया था | जब उनसे भारत के अन्य भागों में क्रांतिकारियों द्वारा संपर्क किया गया तो पहले तो उन्होने मना कर दिया फिर वह सरदार भगत सिंह के समझाने पर उनके संगठन लिए बम बनाने और क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लेने पर सहमत हुए | 14 जून 1929 को उन्हें क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए गिरफ्तार किया गया था और लाहौर षडयंत्र केस के तहत लाहौर जेल में कैद किया गया था |
लाहौर जेल में, जतिन दास ने अन्य क्रांतिकारी सेनानियों के साथ भूख हड़ताल शुरू कर दी, भारतीय कैदियों और विचाराधीन कैदियों के लिए समानता की मांग की, भारतीय कैदियों के लिए वहां सब दुखदायी था - जेल प्रशासन द्वारा उपलब्ध कराई गई वर्दियां कई कई दिनों तक नहीं धुलती थी, रसोई क्षेत्र और भोजन पर चूहे और तिलचट्टों का कब्जा रहता था, कोई भी पठनीय सामग्री जैसे अखबार या कोई कागज आदि नहीं प्रदान किया गया था, जबकि एक ही जेल में अंग्रेजी कैदियों की हालत विपरीत थी ... क़ैद मे होते हुये भी उनको सब सुख सुविधा दी गई थी !
जेल में जतिन दास और उनके साथियों की भूख हड़ताल अवैध नजरबंदियों के खिलाफ प्रतिरोध में एक महत्वपूर्ण कदम था ... यह यादगार भूख हड़ताल 13 जुलाई 1929 को शुरू हुई और 63 दिनों तक चली| जेल अधिकारीयों ने जबरन जतिन दास और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को खिलाने की कोशिश की, उन्हें मारा पीटा गया और उन्हें पीने के पानी के सिवाय कुछ भी नहीं दिया गया वो भी तब जब इस भूख हड़ताल को तोड़ने के उन के सारे प्रयास विफल हो गए, जतिन दास ने पिछले 63 दिनों से कुछ नहीं खाया था ऊपर से बार बार जबरन खिलाने पिलाने की अनेकों कोशिशों के कारण वो और कमज़ोर हो गए थे | इन सब का नतीजा यह हुआ कि भारत माँ के यह वीर सपूत 13 सितंबर 1929 को शहीद हो गए पर अँग्रेज़ो के खिलाफ उनकी 63 दिन लंबी भूख हड़ताल आखरी दम तक अटूट रही !
उनके पार्थिव शरीर को रेल द्वारा लाहौर से कोलकाता के लिए ले जाया गया... हजारों लोगों इस सच्चे शहीद को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए रास्ते के स्टेशनो की तरफ दौड़ पड़े ... बताते है कि उनके अंतिम संस्कार के समय कोलकाता में दो मील लंबा जुलूस अंतिम संस्कार स्थल तक उनके पार्थिव शरीर के साथ साथ ,'जतिन दास अमर रहे' ... 'इंकलाब ज़िंदाबाद' , के नारे लगते हुये चला !

आज अमर शहीद जतिन नाथ दास जी की ८४ वीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते है !

इंकलाब ज़िंदाबाद !!!

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

'बाघा जतीन' की ९८ वीं पुण्यतिथि

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जतींद्रनाथ मुखर्जी

जतीन्द्रनाथ मुखर्जी 
 उपनाम : बाघा जतीन
जन्मस्थल : कायाग्राम, कुष्टिया जिला बांग्लादेश
मृत्युस्थल: बालेश्वर,ओड़ीशा
आन्दोलन: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
प्रमुख संगठन: युगांतर


बाघा जतीन ( बांग्ला में বাঘা যতীন (उच्चारणः बाघा जोतिन) ( ०७ दिसम्बर, १८७९ - १० सितम्बर , १९१५) के बचपन का नाम जतीन्द्रनाथ मुखर्जी (जतीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय) था। वे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कार्यकारी दार्शनिक क्रान्तिकारी थे। वे युगान्तर पार्टी के मुख्य नेता थे। युगान्तर पार्टी बंगाल में क्रान्तिकारियों का प्रमुख संगठन थी।


प्रारंभिक जीवन

जतींद्र नाथ मुखर्जी का जन्म जैसोर जिले में सन् १९७९ ईसवी में हुआ था। पाँच वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया। माँ ने बड़ी कठिनाई से उनका लालन-पालन किया। १८ वर्ष की आयु में उन्होंने मैट्रिक पास कर ली और परिवार के जीविकोपार्जन हेतु स्टेनोग्राफी सीखकर कलकत्ता विश्वविद्यालय से जुड़ गए। वह बचपन से हई बड़े बलिष्ठ थे। सत्यकथा है कि २७ वर्ष की आयु में एक बार जंगल से गुजरते हुए उनकी मुठभेड़ एक बाघ (रॉयल बेन्गाल टाइगर) से हो गयी। उन्होंने बाघ को अपने हंसिये से मार गिराया था। इस घटना के बाद जतींद्र नाथ "बाघा जतीन" नाम से विख्यात हो गए थे।

 

क्रांतिकारी जीवन

उन्हीं दिनों अंग्रेजों ने बंग-भंग की योजना बनायी। बंगालियों ने इसका विरोध खुल कर किया। जतींद्र नाथ मुखर्जी का नया खून उबलने लगा। उन्होंने साम्राज्यशाही की नौकरी को लात मार कर आन्दोलन की राह पकड़ी। सन् १९१० में एक क्रांतिकारी संगठन में काम करते वक्त जतींद्र नाथ 'हावड़ा षडयंत्र केस' में गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें साल भर की जेल काटनी पड़ी।
जेल से मुक्त होने पर वह 'अनुशीलन समिति' के सक्रिय सदस्य बन गए और 'युगान्तर' का कार्य संभालने लगे। उन्होंने अपने एक लेख में उन्हीं दिनों लिखा था-' पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देसी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीवनयापन का अवसर देना हमारी मांग है।' क्रांतिकारियों के पास आन्दोलन के लिए धन जुटाने का प्रमुख साधन डकैती था। दुलरिया नामक स्थान पर भीषण डकैती के दौरान अपने ही दल के एक सहयोगी की गोली से क्रांतिकारी अमृत सरकार घायल हो गए। विकट समस्या यह खड़ी हो गयी कि धन लेकर भागें या साथी के प्राणों की रक्षा करें! अमृत सरकार ने जतींद्र नाथ से कहा कि धन लेकर भागो। जतींद्र नाथ इसके लिए तैयार न हुए तो अमृत सरकार ने आदेश दिया- 'मेरा सिर काट कर ले जाओ ताकि अंग्रेज पहचान न सकें।' इन डकैतियों में 'गार्डन रीच' की डकैती बड़ी मशहूर मानी जाती है। इसके नेता जतींद्र नाथ मुखर्जी थे। विश्व युद्ध प्रारंभ हो चुका था। कलकत्ता में उन दिनों राडा कम्पनी बंदूक-कारतूस का व्यापार करती थी। इस कम्पनी की एक गाडी रास्ते से गायब कर दी गयी थी जिसमें क्रांतिकारियों को ५२ मौजर पिस्तौलें और ५० हजार गोलियाँ प्राप्त हुई थीं। ब्रिटिश सरकार हो ज्ञात हो चुका था कि 'बलिया घाट' तथा 'गार्डन रीच' की डकैतियों में जतींद्र नाथ का हाथ था।

 

अंतिम समय

सन् १९१० में बाघा जतिन

९ सितंबर १९१५ को पुलिस ने जतींद्र नाथ का गुप्त अड्डा 'काली पोक्ष' (कप्तिपोद) ढूंढ़ निकाला। जतींद्र नाथ साथियों के साथ वह जगह छोड़ने ही वाले थे कि राज महन्ती नमक अफसर ने गाँव के लोगों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशश की। बढ़ती भीड़ को तितरबितर करने के लिए जतींद्र नाथ ने गोली चला दी। राज महन्ती वहीं ढेर हो गया। यह समाचार बालासोर के जिला मजिस्ट्रेट किल्वी तक पहुंचा दिया गया। किल्वी दल बल सहित वहाँ आ पहुंचा। यतीश नामक एक क्रांतिकारी बीमार था। जतींद्र उसे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। चित्तप्रिय नामक क्रांतिकारी उनके साथ था। दोनों तरफ़ से गोलियाँ चली। चित्तप्रिय वहीं शहीद हो गया। वीरेन्द्र तथा मनोरंजन नामक अन्य क्रांतिकारी मोर्चा संभाले हुए थे। इसी बीच जतींद्र नाथ का शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था। वह जमीन पर गिर कर 'पानी-पानी' चिल्ला रहे थे। मनोरंजन उन्हें उठा कर नदी की और ले जाने लगा। तभी अंग्रेज अफसर किल्वी ने गोलीबारी बंद करने का आदेश दे दिया। गिरफ्तारी देते वक्त जतींद्र नाथ ने किल्वी से कहा- 'गोली मैं और चित्तप्रिय ही चला रहे थे। बाकी के तीनों साथी बिल्कुल निर्दोष हैं। 'इसके अगले दिन भारत की आज़ादी के इस महान सिपाही ने अस्पताल में सदा के लिए आँखें मूँद लीं।।

 भारत माता के इस 'बाघ' अमर क्रांतिकारी स्व ॰ बाघा जतीन जी को शत शत नमन !
इंकलाब ज़िंदाबाद !!!

रविवार, 8 सितंबर 2013

गंगा से सवाल पूछने वाले को सादर नमन

विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . .. . . . 
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई, निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यूँ. . . . 
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . .. 
अनपढ़ जन अक्षरहीन अनगिन जन खाद्यविहीन निद्रवीन देख मौन हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..

व्यक्ति रहित व्यक्ति केन्द्रित सकल समाज व्यक्तित्व रहित निष्प्राण समाज को छोडती न क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..

रुतस्विनी क्यूँ न रही ? तुम निश्चय चितन नहीं प्राणों में प्रेरणा प्रेरती न क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..

उन्मद अवनी कुरुक्षेत्र बनी गंगे जननी नव भारत में भीष्म रूपी सूत समरजयी जनती नहीं हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . .. 

गंगा से सवाल पूछने वाले स्व ॰ श्री भूपेन हजारिका को उनकी ८७ वीं जयंती पर शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !

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