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रविवार, 31 जनवरी 2021

परमवीर अमर शहीद मेजर सोमनाथ शर्मा की ९८ वीं जयंती


मेजर सोमनाथ शर्मा (जन्म: 31 जनवरी, 1923 - मृत्यु: 3 नवम्बर 1947) भारतीय सेना की कुमाऊँ रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कंपनी-कमांडर थे जिन्होंने अक्टूबर-नवम्बर, 1947 के भारत-पाक संघर्ष में अपनी वीरता से शत्रु के छक्के छुड़ा दिये। उन्हें भारत सरकार ने मरणोपरान्त परमवीर चक्र से सम्मानित किया। परमवीर चक्र पाने वाले ये प्रथम व्यक्ति हैं। 

जीवन परिचय

मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी, 1923 को जम्मू में हुआ था। इनके पिता मेजर अमरनाथ शर्मा भी सेना में डॉक्टर थे और आर्मी मेडिकल सर्विस के डायरेक्टर जनरल के पद से सेवामुक्त हुए थे। मेजर सोमनाथ की शुरुआती स्कूली शिक्षा अलग-अलग जगह होती रही, जहाँ इनके पिता की पोस्टिंग होती थी। लेकिन बाद में उनकी पढ़ाई शेरवुडा, नैनीताल में हुई। मेजर सोमनाथ बचपन से ही खेल कूद तथा एथलेटिक्स में रुचि रखते थे।

 

पिता और मामा का प्रभाव


मेजर सोमनाथ का कीर्तिमान एक गौरव की बात भले ही हो, उसे आश्चर्यजनक इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उनके परिवार में फौजी संस्कृति एक परम्परा के रूप में चलती रही थी। इनके पिता यदि चाहते तो एक डॉक्टर के रूप में लाहौर में अपनी प्रैक्टिस जमा सकते थे, किंतु उन्होंने इच्छापूर्वक भारतीय सेनिकों की सेवा करना चुना। पिता के अतिरिक्त मेजर सोमनाथ पर अपने मामा की गहरी छाप पड़ी। उनके मामा लैफ्टिनेंट किशनदत्त वासुदेव 4/19 हैदराबादी बटालियन में थे तथा 1942 में मलाया में जापानियों से लड़ते शहीद हुए थे।

सेना में प्रवेश

मेजर सोमनाथ ने अपना सैनिक जीवन 22 फरवरी, 1942 से शुरू किया जब इन्होंने चौथी कुमायूं रेजिमेंट में बतौर कमीशंड ऑफिसर प्रवेश लिया। उनका फौजी कार्यकाल शुरू ही दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हुआ और वह मलाया के पास के रण में भेज दिये गये। पहले ही दौर में इन्होंने अपने पराक्रम के तेवर दिखाए और वह एक विशिष्ट सैनिक के रूप में पहचाने जाने लगे।
माता-पिता के नाम एक खत
दिसम्बर 1941 में सोमनाथ ने अपने माता-पिता को एक पत्र लिखा था, जो सबके लिए एक आदर्श की मिसाल बन गया था। इन्होंने लिखा था:-
"मैं अपने सामने आए कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। यहाँ मौत का क्षणिक डर जरूर है, लेकिन जब मैं गीता में भगवान कृष्ण के वचन को याद करता हूँ तो वह डर मिट जाता है। भगवान कृष्ण ने कहा था कि आत्मा अमर है, तो फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि शरीर है या नष्ट हो गया। पिताजी मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ, लेकिन मैं अगर मर गया, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैं एक बहादुर सिपाही की मौत मरूँगा। मरते समय मुझे प्राण देने का कोई दु:ख नहीं होगा। ईश्वर आप सब पर अपनी कृपा बनाए रखे।"


3 नवम्बर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को कश्मीर घाटी के बदगाम मोर्चे पर जाने का हुकुम दिया गया। 3 नवम्बर को प्रकाश की पहली किरण फूटने से पहले मेजर सोमनाथ बदगाम जा पहुँचे और उत्तरी दिशा में उन्होंने दिन के 11 बजे तक अपनी टुकड़ी तैनात कर दी। तभी दुश्मन की क़रीब 500 लोगों की सेना ने उनकी टुकड़ी को तीन तरफ से घेरकर हमला किया और भारी गोला बारी से सोमनाथ के सैनिक हताहत होने लगे। अपनी दक्षता का परिचय देते हुए सोमनाथ ने अपने सैनिकों के साथ गोलियां बरसाते हुए दुश्मन को बढ़ने से रोके रखा। इस दौरान उन्होंने खुद को दुश्मन की गोली बारी के बीच बराबर खतरे में डाला और कपड़े की पट्टियों की मदद से हवाई जहाज को ठीक लक्ष्य की ओर पहुँचने में मदद की।

 

अंतिम शब्द


इस दौरान, सोमनाथ के बहुत से सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और सैनिकों की कमी महसूस की जा रही थी। सोमनाथ बायाँ हाथ चोट खाया हुआ था और उस पर प्लास्टर बंधा था। इसके बावजूद सोमनाथ खुद मैग्जीन में गोलियां भरकर बंदूक धारी सैनिकों को देते जा रहे थे। तभी एक मोर्टार का निशाना ठीक वहीं पर लगा, जहाँ सोमनाथ मौजूद थे और इस विस्फोट में ही वो शहीद हो गये। सोमनाथ की प्राण त्यागने से बस कुछ ही पहले, अपने सैनिकों के लिए ललकार थी:-
"दुश्मन हमसे केवल पचास गज की दूरी पर है। हमारी गिनती बहुत कम रह गई है। हम भयंकर गोली बारी का सामना कर रहे हैं फिर भी, मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और अपनी आखिरी गोली और आखिरी सैनिक तक डटा रहूँगा।"
परमवीर अमर शहीद मेजर सोमनाथ शर्मा की ९८ वीं जयंती पर हम सब उन को शत शत नमन करते हैं !! 

जय हिन्द !!

जय हिन्द की सेना !!

रविवार, 24 जनवरी 2021

डा. होमी जहांगीर भाभा की ५५ वीं पुण्यतिथि

 
परिचय
 
डा. होमी जहांगीर भाभा (30 अक्टूबर, 1909 - 24 जनवरी, 1966) भारत के एक प्रमुख वैज्ञानिक और स्वप्नदृष्टा थे जिन्होंने भारत के परमाणु उर्जा कार्यक्रम की कल्पना की थी। उन्होने मुट्ठी भर वैज्ञानिकों की सहायता से मार्च 1944 में नाभिकीय उर्जा पर अनुसन्धान आरम्भ किया। उन्होंने नाभिकीय विज्ञान में तब कार्य आरम्भ किया जब अविछिन्न शृंखला अभिक्रिया का ज्ञान नहीं के बराबर था और नाभिकीय उर्जा से विद्युत उत्पादन की कल्पना को कोई मानने को तैयार नहीं था। उन्हें 'आर्किटेक्ट ऑफ इंडियन एटॉमिक एनर्जी प्रोग्राम' भी कहा जाता है। 
 
भाभा का जन्म मुम्बई के एक सभ्रांत पारसी परिवार में हुआ था। उनकी कीर्ति सारे संसार में फैली। भारत वापस आने पर उन्होंने अपने अनुसंधान को आगे बढ़ाया। भारत को परमाणु शक्ति बनाने के मिशन में प्रथम पग के तौर पर उन्होंने 1945 में मूलभूत विज्ञान में उत्कृष्टता के केंद्र टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआइएफआर) की स्थापना की। डा. भाभा एक कुशल वैज्ञानिक और प्रतिबद्ध इंजीनियर होने के साथ-साथ एक समर्पित वास्तुशिल्पी, सतर्क नियोजक, एवं निपुण कार्यकारी थे। वे ललित कला व संगीत के उत्कृष्ट प्रेमी तथा लोकोपकारी थे। 1947 में भारत सरकार द्वारा गठित परमाणु ऊर्जा आयोग के प्रथम अध्यक्ष नियुक्त हुए। १९५३ में जेनेवा में अनुष्ठित विश्व परमाणुविक वैज्ञानिकों के महासम्मेलन में उन्होंने सभापतित्व किया। भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के जनक का २४ जनवरी सन १९६६ को एक विमान दुर्घटना में निधन हो गया था।
 
शिक्षा
 
उन्होंने मुंबई से कैथड्रल और जॉन केनन स्कूल से पढ़ाई की। फिर एल्फिस्टन कॉलेज मुंबई और रोयाल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस से बीएससी पास किया। मुंबई से पढ़ाई पूरी करने के बाद भाभा वर्ष 1927 में इंग्लैंड के कैअस कॉलेज, कैंब्रिज इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने गए। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में रहकर सन् 1930 में स्नातक उपाधि अर्जित की। सन् 1934 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से उन्होंने डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। जर्मनी में उन्होंने कास्मिक किरणों पर अध्ययन और प्रयोग किए। हालांकि इंजीनियरिंग पढ़ने का निर्णय उनका नहीं था। यह परिवार की ख्वाहिश थी कि वे एक होनहार इंजीनियर बनें। होमी ने सबकी बातों का ध्यान रखते हुए, इंजीनियरिंग की पढ़ाई जरूर की, लेकिन अपने प्रिय विषय फिजिक्स से भी खुद को जोड़े रखा। न्यूक्लियर फिजिक्स के प्रति उनका लगाव जुनूनी स्तर तक था। उन्होंने कैंब्रिज से ही पिता को पत्र लिख कर अपने इरादे बता दिए थे कि फिजिक्स ही उनका अंतिम लक्ष्य है।
 
उपलब्धियां
 
देश आजाद हुआ तो मशहूर वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने दुनिया भर में काम कर रहे भारतीय वैज्ञानिकों से अपील की कि वे भारत लौट आएं। उनकी अपील का असर हुआ और कुछ वैज्ञानिक भारत लौटे भी। इन्हीं में एक थे मैनचेस्टर की इंपीरियल कैमिकल कंपनी में काम करने वाले होमी नौशेरवांजी सेठना। अमेरिका की मिशिगन यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएशन करने वाले सेठना में भाभा को काफी संभावनाएं दिखाई दीं। ये दोनों वैज्ञानिक भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने के अपने कार्यक्रम में जुट गए। यह कार्यक्रम मूल रूप से डॉ. भाभा की ही देन था, लेकिन यह सेठना ही थे, जिनकी वजह से डॉ. भाभा के निधन के बावजूद न तो यह कार्यक्रम रुका और न ही इसमें कोई बाधा आई।
 
उनकी इसी लगन का नतीजा था कि 1974 में सेठना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को बताया कि उन्होंने शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट की तैयारियां पूरी कर ली है। यह भी पूछा कि क्या वे इस सिस्टम को शुरू कर सकते हैं? इसके साथ ही उन्होंने यह भी बता दिया कि एक बार सिस्टम शुरू होने के बाद इसे रोकना संभव नहीं होगा, ऐसे में अगर वे मना कर देंगी तो उसे नहीं सुना जा सकेगा क्योंकि तब विस्फोट होकर ही रहेगा। इंदिरा गांधी की हरी झंडी मिलते ही तैयारियां शुरू हो गई। अगले ही दिन, 18 मई को सेठना ने कोड वर्ड में इंदिरा गांधी को संदेश भेजा- बुद्ध मुस्कराए। भारत का यह परमाणु विस्फोट इतना गोपनीय था कि अमेरिका के संवेदनशील उपग्रह तक उसकी थाह नहीं पा सके थे। इस विस्फोट से कुछ महाशक्तियां और पड़ोसी देश जरूर बैचेन हुए। लेकिन डॉ़ सेठना की सोच बिल्कुल स्पष्ट थी कि हमारा देश परमाणु शक्ति संपंन्न हो। वे नहीं चाहते थे कि भारत अपने आगे बढ़ने की राह समझौतों से बनाए।
 
डॉ़ होमी भाभा ने डॉ़ सेठना को भारत लौटने के बाद बहुत सोच-समझ कर केरल के अलवाए स्थित इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड का प्रमुख बनाया था, जहां उन्हाने मोनोज़ाइट रेत से दुर्लभ नाभिकीय पदार्थो के अंश निकाले। उस दौरान वे कनाडा-भारत रिएक्टर (सायरस) के प्रॉजेक्ट मैनेजर भी रहे। इसके बाद डॉ़ सेठना ने 1959 में ट्रांबे स्थित परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान में प्रमुख वैज्ञानिक अधिकारी पद का कार्यभार संभाला। यह प्रतिष्ठान आगे चल कर भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र बना। वहां उन्हाने नाभिकीय ग्रेड का यूरेनियम तैयार करने के लिए थोरियम संयंत्र का निर्माण कराया। उनके अथक प्रयास और कुशल नेतृत्व से 1959 में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र में प्लूटोनियम पृथक करने के प्रथम संयंत्र का निर्माण संभव हो सका। इसके डिजाइन और निर्माण का पूरा काम भारतीय वैज्ञानिकों और इंजीनियरों ने ही किया। उल्लेखनीय है कि आगे चल कर इसी संयंत्र में पृथक किए गए प्लूटोनियम से वह परमाणु युक्ति तैयार की गई जिसके विस्फोट से 18 मई 1974 को पोखरण में ‘बुद्घ मुस्कराए’। डॉ़ सेठना के मार्गदर्शन में ही 1967 में जादूगुड़ा (झारखंड) से यूरेनियम हासिल करने का संयंत्र लगा। डॉ़ सेठना ने तारापुर के परमाणु रिऐक्टरों के लिए यूरेनियम ईंधन के विकल्प के रूप में मिश्र-ऑक्साइड ईंधन का भी विकास किया। पोखरण में परमाणु विस्फोट के बाद अमेरिका ने यूरेनियम की आपूर्ति पर रोक लगा दी थी, हालांकि ये रिऐक्टर अमेरिका निर्मित ही थे। वह तो भला हो फ्रांस का कि उसने आड़े समय पर यूरेनियम देकर हमारी मदद कर दी अन्यथा डॉ़ सेठना तो मिश्र-ऑक्साइड से तारापुर के परमाणु रिऐक्टर को चलाने की तैयारी कर चुके थे। डॉ़ सेठना स्वावलंबन में विश्वास रखते थे और किसी भी काम को पूरा करने के लिए किसी के अहसान की जरूरत महसूस नहीं करते थे। वैज्ञानिक काम में उन्हें राजनैतिक दखल कतई पसंद नहीं थी।
वे परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण इस्तेमाल के प्रबल हिमायती थे। वे परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग पर 1958 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा जेनेवा में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के उप-सचिव रहे। वे संयुक्त राष्ट्र की वैज्ञानिक सलाहकार समिति के सदस्य थे और 1966 से 1981 तक अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की वैज्ञानिक सलाहकार समिति के भी सदस्य रहे। डॉ़ सेठना अनेक संस्थानों के अध्यक्ष और निदेशक भी रहे। वे 1966 में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के निदेशक नियुक्त हुए और 1972 से 1983 तक परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष रहे। इस पद पर होमी भाभा के बाद वे ही सबसे अधिक समय तक रहे। इस दौरान उन्हाने भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को नई गति प्रदान की। उन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण और पद्मविभूषण जैसे तमाम बड़े अलंकरणों से नवाजा गया। आज अगर भारत को एक परमाणु शक्ति के रूप में दुनिया भर में मान्यता मिली है, तो इसमें डॉ. भाभा के बाद सबसे ज्यादा योगदान डॉ. सेठना का ही है। डॉक्टर भाभा के नेतृत्व में भारत में एटॉमिक एनर्जी कमीशन की स्थापना की गई। उनके एटॉमिक एनर्जी के विकास के लिए समर्पित प्रयासों का ही परिणाम था कि भारत ने वर्ष 1956 में ट्रांबे में एशिया का पहले एटोमिक रिएक्टर की स्थापना की गई। केवल यही नहीं, डॉक्टर भाभा वर्ष 1956 में जेनेवा में आयोजित यूएन कॉफ्रेंस ऑन एटॉमिक एनर्जी के चेयरमैन भी चुने गए थे।
 
 
आज भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के जनक डा. होमी जहांगीर भाभा की ५५ वीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते हैं |

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह जी की १२९ वीं जयंती

ठाकुर रोशन सिंह (अंग्रेजी:Roshan Singh), (जन्म:२२ जनवरी १८९२ - मृत्यु:१९ दिसम्बर १९२७) असहयोग आन्दोलन के दौरान उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में हुए गोली-काण्ड में सजा काटकर जैसे ही शान्तिपूर्ण जीवन बिताने घर वापस आये कि हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन में शामिल हो गये। यद्यपि ठाकुर साहब ने काकोरी काण्ड में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लिया था फिर भी आपके आकर्षक व रौबीले व्यक्तित्व को देखकर काकोरी काण्ड के सूत्रधार पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल व उनके सहकारी अशफाक उल्ला खाँ के साथ १९ दिसम्बर १९२७ को फाँसी दे दी गयी। ये तीनों ही क्रान्तिकारी उत्तर प्रदेश के शहीदगढ़ कहे जाने वाले जनपद शाहजहाँपुर के रहने वाले थे। इनमें ठाकुर साहब आयु के लिहाज से सबसे बडे, अनुभवी, दक्ष व अचूक निशानेबाज थे।
 
संक्षिप्त जीवन परिचय
 
कान्तिकारी ठाकुर रोशन सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के ख्यातिप्राप्त जनपद शाहजहाँपुर में कस्बा फतेहगंज से १० किलोमीटर दूर स्थित गाँव नबादा में २२ जनवरी १८९२ को हुआ था। आपकी माता जी का नाम कौशल्या देवी एवं पिता जी का ठाकुर जंगी सिंह था। पूरा परिवार आर्य समाज से अनुप्राणित था। आप पाँच भाई-बहनों में सबसे बडे थे। असहयोग आन्दोलन में उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर और बरेली जिले के ग्रामीण क्षेत्र में आपने अद्भुत योगदान दिया था। यही नहीं, बरेली में हुए गोली-काण्ड में एक पुलिस वाले की रायफल छीनकर जबर्दस्त फायरिंग शुरू कर दी थी जिसके कारण हमलावर पुलिस को उल्टे पाँव भागना पडा। मुकदमा चला और ठाकुर रोशन सिंह को सेण्ट्रल जेल बरेली में दो साल वामशक्कत कैद (Rigorous Imprisonment) की सजा काटनी पडी थी।
 
बिस्मिल के सम्पर्क में
 
बरेली गोली-काण्ड में सजायाफ्ता रोशन सिंह की भेंट सेण्ट्रल जेल बरेली में कानपुर निवासी पंडित रामदुलारे त्रिवेदी से हुई जो उन दिनों पीलीभीत में शुरू किये गये असहयोग आन्दोलन के फलस्वरूप ६ महीने की सजा भुगतने बरेली सेण्ट्रल जेल में रखे गये थे। गान्धी जी द्वारा सन १९२२ में हुए चौरी चौरा काण्ड के विरोध स्वरूप असहयोग आन्दोलन वापस ले लिये जाने पर पूरे हिन्दुस्तान में जो प्रतिक्रिया हुई उसके कारण ठाकुर साहब ने भी राजेन्द्र नाथ लाहिडी़, रामदुलारे त्रिवेदी व सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य आदि के साथ शाहजहाँपुर शहर के आर्य समाज पहुँच कर राम प्रसाद बिस्मिल से गम्भीर मन्त्रणा की जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कोई बहुत बडी क्रान्तिकारी पार्टी बनाने की रणनीति तय हुई। इसी रणनीति के तहत ठाकुर रोशनसिंह को पार्टी में शामिल किया गया था। ठाकुर साहब पक्के निशानेबाज (Clay Pigeon Shooting Expert) थे यहाँ तक कि उडती हुई चिडिया को खेल-खेल में ही मार गिराते थे।
 
बमरौली डकैती
 
१९२२ की गया कांग्रेस में जब पार्टी दो फाड हो गई और मोतीलाल नेहरू एवम देशबन्धु चितरंजन दास ने अपनी अलग से स्वराज पार्टी बना ली। ये सभी लोग पैसे वाले थे जबकि क्रान्तिकारी पार्टी के पास संविधान, विचार-धारा व दृष्टि के साथ-साथ उत्साही नवयुवकों का बहुत बडा संगठन था। हँ, अगर कोई कमी थी तो वह कमी पैसे की थी। इस कमी को दूर करने के लिये आयरलैण्ड के क्रान्तिकारियों का रास्ता अपनाया गया और वह रास्ता था डकैती का। इस कार्य को पार्टी की ओर से ऐक्शन नाम दिया गया। ऐक्शन के नाम पर पहली डकैती पीलीभीत जिले के एक गाँव बमरौली में २५ दिसम्बर १९२४ को क्रिस्मस के दिन एक खण्डसारी (शक्कर के निर्माता) व सूदखोर (ब्याज पर रुपये उधार देने वाले) बल्देव प्रसाद के यहाँ डाली गयी। इस पहली डकैती में ४००० रुपये और कुछ सोने-चाँदी के जेवरात क्रान्तिकारियों के हाथ लगे। परन्तु मोहनलाल पहलवान नाम का एक आदमी, जिसने डकैतों को ललकारा था, ठाकुर रोशन सिंह की रायफल से निकली एक ही गोली में ढेर हो गया। सिर्फ मोहनलाल की मौत ही ठाकुर रोशन सिंह की फाँसी की सजा का कारण बनी।
 
काकोरी काण्ड का मुकदमा
 
९ अगस्त १९२५ को काकोरी स्टेशन के पास जो सरकारी खजाना लूटा गया था उसमें ठाकुर रोशन सिंह शामिल नहीं थे, यह हकीकत है किन्तु इन्हीं की आयु (३६ वर्ष) के केशव चक्रवर्ती (छद्म नाम), जरूर शामिल थे जो बंगाल की अनुशीलन समिति के सदस्य थे, फिर भी पकडे बेचारे रोशन सिंह गये। चूकि रोशन सिंह बमरौली डकैती में शामिल थे ही और इनके खिलाफ सारे साक्ष्य भी मिल गये थे अत: पुलिस ने सारी शक्ति ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी की सजा दिलवाने में ही लगा दी और केशव चक्रवर्ती को खो़जने का कोई प्रयास ही नहीं किया। सी०आई०डी० के कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन राम प्रसाद बिस्मिल पर बार-बार यह दबाव डालते रहे कि बिस्मिल किसी भी तरह अपने दल का सम्बन्ध बंगाल के अनुशीलन दल या रूस की बोल्शेविक पार्टी से बता दें परन्तु बिस्मिल टस से मस न हुए। आखिरकार रोशन सिंह को दफा १२० (बी) और १२१(ए) के तहत ५-५ वर्ष की बामशक्कत कैद और ३९६ के अन्तर्गत सजाये-मौत अर्थात् फाँसी की सजा दी गयी। इस फैसले के खिलाफ जैसे अन्य सभी ने उच्च न्यायालय, वायसराय व सम्राट के यहाँ अपील की थी वैसे ही रोशन सिंह ने भी अपील की; परन्तु नतीजा वही निकला- ढाक के तीन पात।
 
फाँसी से पूर्व लिखा खत
 
ठाकुर साहब ने ६ दिसम्बर १९२७ को इलाहाबाद स्थित मलाका (नैनी) जेल की काल-कोठरी से अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था:
"इस सप्ताह के भीतर ही फाँसी होगी। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपको मोहब्बत का बदला दे। आप मेरे लिये रंज हरगिज न करें। मेरी मौत खुशी का बाइस (कारण) होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना जरूर है। दुनिया में बदफैली करके अपने को बदनाम न करे और मरते वक्त ईश्वर की याद रहे;यही दो बातें होनी चाहिये और ईश्वर की कृपा से मेरे साथ ये दोनों बातें हैं। इसलिये मेरी मौत किसी प्रकार अफसोस के लायक नहीं है। दो साल से बाल-बच्चों से अलग रहा हूँ। इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला। इससे मेरा मोह छूट गया और कोई वासना बाकी न रही। मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्ट भरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिन्दगी जीने के लिये जा रहा हूँ। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युद्ध में प्राण देता है उसकी वही गति होती है जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों की।"
पत्र समाप्त करने के पश्चात उसके अन्त में उन्होंने अपना यह शेर भी लिखा था:
"जिन्दगी जिन्दा-दिली को जान ऐ रोशन!
वरना कितने ही यहाँ रोज फना होते हैं।"
 
फाँसी वाले दिन के हालात
 
फाँसी से पहली रात ठाकुर साहब कुछ घण्टे सोये फिर देर रात से ही ईश्वर-भजन करते रहे। १९ दिसम्बर १९२७ प्रात:काल शौचादि से निवृत्त हो यथानियम स्नान ध्यान किया कुछ देर गीता-पाठ में लगायी फिर पहरेदार से कहा-"चलो।" वह हैरत से देखने लगा यह कोई आदमी है या देवता! ठाकुर साहब ने अपनी काल-कोठरी को प्रणाम किया और गीता हाथ में लेकर निर्विकार भाव से फाँसी घर की ओर चल दिये। फाँसी के फन्दे को चूमा फिर जोर से तीन वार वन्दे मातरम् का उद्घोष किया और वेद-मन्त्र - "ओ३म् विश्वानि देव सवितुर दुरितानि परासुव यद भद्रम तन्नासुव" - का जाप करते हुए फन्दे से झूल गये।
 
इलाहाबाद में नैनी स्थित मलाका जेल के फाटक पर हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष युवा बाल-वृद्ध एकत्र थे ठाकुर साहब के अन्तिम दर्शन करने व उनकी अन्त्येष्टि में शामिल होने के लिये। जैसे ही उनका शव जेल कर्मचारी बाहर लाये वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने नारा लगाया - "रोशन सिंह! अमर रहें!!" भारी जुलूस की शक्ल में शवयात्रा निकली और गंगा यमुना के संगम तट पर जाकर रुकी जहाँ वैदिक रीति से उनका अन्तिम संस्कार किया गया। फाँसी के बाद ठाकुर साहब के चेहरे पर एक अद्भुत शान्ति दृष्टिगोचर हो रही थी। मूँछें वैसी की वैसी ही थीं बल्कि गर्व से कुछ ज्यादा ही तनी हुई लग रहीं थीं जैसा कि इस चित्र में भी दिख रहा है। ठाकुर साहब को मरते दम तक बस एक ही मलाल था कि उन्हें फाँसी दे दी गयी, कोई बात नहीं। क्योंकि उन्होंने तो जिन्दगी का सारा सुख उठा लिया, परन्तु बिस्मिल, अशफाक और लाहिडी - जिन्होंने जीवन का एक भी ऐशो - आराम नहीं देखा उनको इस बेरहम बरतानिया सरकार ने फाँसी पर क्याँ लटकाया? क्या उसके मन जरा भी दया का भाव नहीं आया?
 
इलाहाबाद में मूर्ति
 
इलाहाबाद की नैनी स्थित मलाका जेल के फाँसी घर के सामने अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह की आवक्ष प्रतिमा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके अप्रतिम योगदान का उल्लेख करते हुए लगायी गयी है। वर्तमान समय में इस स्थान पर अब एक मेडिकल कालेज स्थापित हो चुका है। मूर्ति के नीचे ठाकुर साहब की कही गयी ये पंक्तियाँ भी अंकित हैं -
जिन्दगी जिन्दा-दिली को जान ऐ रोशन!
वरना कितने ही यहाँ रोज फना होते हैं। 
 
आज अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह जी की १२९ वीं जयंती के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते हैं |

गुरुवार, 21 जनवरी 2021

इंडियन इंडिपेंडेस लीग के जनक : रासबिहारी बोस की ७६ वीं पुण्यतिथि


भारत के महान क्रान्तिकारी एवं स्वतंत्रता-संग्राम-नेता : रासबिहारी बोस

रासबिहारी बोस (बांग्ला: রাসবিহারী বসু, जन्म:२५ मई, १८८६ - मृत्यु: २१ जनवरी, १९४५) भारत के एक क्रान्तिकारी नेता थे जिन्होने ब्रिटिश राज के विरुद्ध गदर षडयंत्र एवं आजाद हिन्द फौज के संगठन का कार्य किया। इन्होंने न केवल भारत में कई क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, अपितु विदेश में रहकर भी वह भारत को स्वतन्त्रता दिलाने के प्रयास में आजीवन लगे रहे। दिल्ली में तत्कालीन वायसराय लार्ड चार्ल्स हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाने, गदर की साजिश रचने और बाद में जापान जाकर इंडियन इंडिपेंडेस लीग और आजाद हिंद फौज की स्थापना करने में रासबिहारी बोस की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यद्यपि देश को स्वतन्त्र कराने के लिये किये गये उनके ये प्रयास सफल नहीं हो पाये, तथापि स्वतन्त्रता संग्राम में उनकी भूमिका का महत्व बहुत ऊँचा है।

जीवन 

रासबिहारी बोस का जन्म २५ मई, १८८६ को बंगाल में बर्धमान जिले के सुबालदह गाँव में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा चन्दननगर में हुई, जहाँ उनके पिता विनोद बिहारी बोस नियुक्त थे। रासबिहारी बोस बचपन से ही देश की स्वतन्त्रता के स्वप्न देखा करते थे और क्रान्तिकारी गतिविधियों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। प्रारम्भ में रासबिहारी बोस ने देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान में कुछ समय तक हेड क्लर्क के रूप में काम किया। उसी दौरान उनका क्रान्तिकारी जतिन मुखर्जी की अगुआई वाले युगान्तर नामक क्रान्तिकारी संगठन के अमरेन्द्र चटर्जी से परिचय हुआ और वह बंगाल के क्रान्तिकारियों के साथ जुड़ गये। बाद में वह अरबिंदो घोष के राजनीतिक शिष्य रहे जतीन्द्रनाथ बनर्जी उर्फ निरालम्ब स्वामी के सम्पर्क में आने पर संयुक्त प्रान्त, (वर्तमान उत्तर प्रदेश), और पंजाब के प्रमुख आर्य समाजी क्रान्तिकारियों के निकट आये।
दिल्ली में जार्ज पंचम के १२ दिसंबर १९११ को होने वाले दिल्ली दरबार के बाद जब वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की दिल्ली में सवारी निकाली जा रही थी तो उसकी शोभायात्रा पर वायसराय लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाने में रासबिहारी की प्रमुख भूमिका रही थी। अमरेन्द्र चटर्जी के एक शिष्य बसन्त कुमार विश्वास ने उन पर बम फेंका लेकिन निशाना चूक गया। इसके बाद ब्रिटिश पुलिस रासबिहारी बोस के पीछे लग गयी और वह बचने के लिये रातों-रात रेलगाडी से देहरादून खिसक लिये और आफिस में इस तरह काम करने लगे मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। अगले दिन उन्होंने देहरादून के नागरिकों की एक सभा बुलायी, जिसमें उन्होंने वायसराय पर हुए हमले की निन्दा भी की। इस प्रकार उन पर इस षडयन्त्र और काण्ड का प्रमुख सरगना होने का किंचितमात्र भी सन्देह किसी को न हुआ। १९१३ में बंगाल में बाढ़ राहत कार्य के दौरान रासबिहारी बोस जतिन मुखर्जी के सम्पर्क में आये, जिन्होंने उनमें नया जोश भरने का काम किया। रासबिहारी बोस इसके बाद दोगुने उत्साह के साथ फिर से क्रान्तिकारी गतिविधियों के संचालन में जुट गये। भारत को स्वतन्त्र कराने के लिये उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गदर की योजना बनायी। फरवरी १९१५ में अनेक भरोसेमंद क्रान्तिकारियों की सेना में घुसपैठ कराने की कोशिश की गयी।

जापान में 

युगान्तर के कई नेताओं ने सोचा कि यूरोप में युद्ध होने के कारण चूँकि अभी अधिकतर सैनिक देश से बाहर गय् हुये हैं, अत: शेष बचे सैनिकों को आसानी से हराया जा सकता है लेकिन दुर्भाग्य से उनका यह प्रयास भी असफल रहा और कई क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। ब्रिटिश खुफिया पुलिस ने रासबिहारी बोस को भी पकड़ने की कोशिश की लेकिन वह उनके हत्थे नहीं चढ़े और भागकर विदेश से हथियारों की आपूर्ति के लिये जून १९१५ में राजा पी. एन. टैगोर के छद्म नाम से जापान के शहर शंघाई में पहुँचे और वहाँ रहकर भारत देश की आजादी के लिये काम करने लगे। इस प्रकार उन्होंने कई वर्ष निर्वासन में बिताये। जापान में भी रासबिहारी बोस चुप नहीं बैठे और वहाँ के अपने जापानी क्रान्तिकारी मित्रों के साथ मिलकर देश की स्वतन्त्रता के लिये निरन्तर प्रयास करते रहे। उन्होंने जापान में अंग्रेजी के अध्यापन के साथ लेखक व पत्रकार के रूप में भी काम प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने वहाँ न्यू एशिया नाम से एक समाचार-पत्र भी निकाला। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने जापानी भाषा भी सीखी और १६ पुस्तकें लिखीं। ब्रिटिश सरकार अब भी उनके पीछे लगी हुई थी और वह जापान सरकार से उनके प्रत्यर्पण की माँग कर रही थी, इसलिए वह लगभग एक साल तक अपनी पहचान और आवास बदलते रहे। १९१६ में जापान में ही रासबिहारी बोस ने प्रसिद्ध पैन एशियाई समर्थक सोमा आइजो और सोमा कोत्सुको की पुत्री से विवाह कर लिया और १९२३ में वहाँ की नागरिकता ले ली । जापान में वह पत्रकार और लेखक के रूप में रहने लगे। जापानी अधिकारियों को भारतीय राष्ट्रवादियों के पक्ष में खड़ा करने और देश की आजादी के आन्दोलन को उनका सक्रिय समर्थन दिलाने में भी रासबिहारी बोस की अहम भूमिका रही। उन्होंने २८ मार्च १९४२ को टोक्यो में एक सम्मेलन बुलाया जिसमें इंडियन इंडीपेंडेंस लीग की स्थापना का निर्णय किया गया। इस सम्मेलन में उन्होंने भारत की आजादी के लिए एक सेना बनाने का प्रस्ताव भी पेश किया।

आई०एन०ए० का गठन


२२ जून १९४२ को रासबिहारी बोस ने बैंकाक में लीग का दूसरा सम्मेलन बुलाया, जिसमें सुभाष चंद्र बोस को लीग में शामिल होने और उसका अध्यक्ष बनने के लिए आमन्त्रित करने का प्रस्ताव पारित किया गया। जापान ने मलय और बर्मा के मोर्चे पर कई भारतीय युद्धबन्दियों को पकड़ा था। इन युद्धबन्दियों को इण्डियन इण्डिपेण्डेंस लीग में शामिल होने और इंडियन नेशनल आर्मी (आई०एन०ए०) का सैनिक बनने के लिये प्रोत्साहित किया गया। आई०एन०ए० का गठन रासबिहारी बोस की इण्डियन नेशनल लीग की सैन्य शाखा के रूप में सितम्बर १९४२ को किया गया। बोस ने एक झण्डे का भी चयन किया जिसे आजाद नाम दिया गया। इस झण्डे को उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के हवाले किया। रासबिहारी बोस शक्ति और यश के शिखर को छूने ही वाले थे कि जापानी सैन्य कमान ने उन्हें और जनरल मोहन सिंह को आई०एन०ए० के नेतृत्व से हटा दिया लेकिन आई०एन०ए० का संगठनात्मक ढाँचा बना रहा। बाद में इसी ढाँचे पर सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के नाम से आई०एन०एस० का पुनर्गठन किया। 
 
निधन
 
भारत को ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्ति दिलाने की जी-तोड़ मेहनत करते हुए किन्तु इसकी आस लिये हुए २१ जनवरी, १९४५ को इनका निधन हो गया। उनके निधन से कुछ समय पहले जापानी सरकार ने उन्हें आर्डर आफ द राइजिंग सन के सम्मान से अलंकृत भी किया था।

आज स्व॰ श्री रासबिहारी बोस जी की ७६ वीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते है !
 
जय हिन्द !!!

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

७३ वां भारतीय सेना दिवस - १५ जनवरी २०२१

 
फील्ड मार्शल कोडंडेरा मडप्पा करिअप्पा
आज १५ जनवरी है ... आज ही दिन सन १९४८ मे फील्ड मार्शल कोडंडेरा मडप्पा करिअप्पा ने भारतीय सेना के पहले कमांडर इन चीफ़ के रूप मे कार्यभार संभाला था ... तब से ले कर आज तक हर साल १५ जनवरी को भारतीय सेना अपना सेना दिवस मनाती आई है ! हर साल इस दिन भारतीय सेना का हर एक जवान राष्ट्र के प्रति अपने समर्पण की कसम को दोहराता है और एक बार फिर मुस्तैदी से तैनात हो जाता है राष्ट्र सेवा के लिए ! इस दिन की शुरुआत दिल्ली के अमर जवान ज्योति पर शहीदों को सलामी दे कर की जाती है ! इस साल भारतीय सेना अपना ७३ वां सेना दिवस मना रही है ! 


सैनिक.... आखिर एक सैनिक की क्या पहचान है। देश के लिए मर मिटनें का जज्बा लिए एक वीर सैनिक जब देश पर शहीद होनें निकल पडता है तो फ़िर उस समय न वह देश में फ़ैले भ्रष्टाचार के बारे में सोचता है और न ही किसी राजनीतिक नफ़े नुकसान का आंकलन ही करता है। अब साहब हैरानी तब होती है जब अपनें समाज के ही कुछ "बुद्धिजीवी" अपनी ही सेना पर ही व्यंग्य कस देते है वह भी ऐसा जिसके बारे में सोच कर भी हैरानी होती है । अजी जनाब सेना क्या करती है जानना है तो फ़िर ज़रा समाचार पत्र पर नज़र डालिए... 

अगर प्रिंस खड्डे में गिरे तो निकालनें के लिए सेना, मुम्बई में बाढ आ जाए तो सेना, कोई भी आपदा आए तो सेना, अजी अगर नेताओं की सुरक्षा हो तो सेना, अगर कहीं जाना हो तो सेना, अगर आपकी तीर्थ यात्रा हो तो सेना, आपकी ट्रेन फ़ंसे तो सेना और आपके पुल टूटे तो सेना.. जब सरकारी ठेकेदार कामनवेल्थ का ब्रिज गिरा दे तब उसे चौबीस घंटे में खडा करे सेना.. अजी जनाब सेना से आप कुछ भी करा लीजिए आज तक सेना नें मना किया है? तो फ़िर ऐसे में नेताओं की तरह सेना पर बयान बाज़ी से बचिए... ज़िम्मेदारी का परिचय दीजिए और सेना की कद्र कीजिए। 

आज ७३ वें सेना दिवस के मौके पर डा ॰ हरिवंशराय बच्चन की कविता यहाँ सांझा कर रहा हूँ !



चल मरदाने, सीना ताने,
हाथ हिलाते, पांव बढाते,
मन मुस्काते, गाते गीत ।

एक हमारा देश, हमारा वेश, 

हमारी कौम, हमारी मंज़िल, 
हम किससे भयभीत ।

चल मरदाने, सीना ताने,
हाथ हिलाते, पांव बढाते,
मन मुस्काते, गाते गीत ।

हम भारत की अमर जवानी,
सागर की लहरें लासानी,
गंग-जमुन के निर्मल पानी,
हिमगिरि की ऊंची पेशानी
सबके प्रेरक, रक्षक, मीत ।

चल मरदाने, सीना ताने,
हाथ हिलाते, पांव बढाते,
मन मुस्काते, गाते गीत ।

जग के पथ पर जो न रुकेगा,
जो न झुकेगा, जो न मुडेगा,
उसका जीवन, उसकी जीत ।

 

चल मरदाने, सीना ताने,
हाथ हिलाते, पांव बढाते,
मन मुस्काते, गाते गीत । 
- डा ॰ हरिवंशराय बच्चन 


 जय हिन्द ... जय हिन्द की सेना !!!

मंगलवार, 12 जनवरी 2021

महान क्रान्तिकारी सूर्य सेन "मास्टर दा" की ८७ वीं पुण्यतिथि

आज 12 जनवरी है ... आज ही के दिन सन 1934 मे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी सूर्य सेन को चटगांव विद्रोह का नेतृत्व करने के कारण अंग्रेजों द्वारा मेदिनीपुर जेल में फांसी दे दी गई थी | 


22 मार्च 1894 मे जन्मे सूर्य सेन ने इंडियन रिपब्लिकन आर्मी की स्थापना की थी और चटगांव विद्रोह का सफल नेतृत्व किया। वे नेशनल हाईस्कूल में सीनियर ग्रेजुएट शिक्षक के रूप में कार्यरत थे और लोग प्यार से उन्हें "मास्टर दा" कहकर सम्बोधित करते थे।

सूर्य सेन के पिता का नाम रमानिरंजन सेन था। चटगांव के नोआपारा इलाके के निवासी सूर्य सेन एक अध्यापक थे। १९१६ में उनके एक अध्यापक ने उनको क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित किया जब वह इंटरमीडियेट की पढ़ाई कर रहे थे और वह अनुशिलन समूह से जुड़ गये। बाद में वह बहरामपुर कालेज में बी ए की पढ़ाई करने गये और जुगन्तर से परिचित हुए और जुगन्तर के विचारों से काफी प्रभावित रहे।

चटगांव विद्रोह

 
इंडियन रिपब्लिकन आर्मी की चटगाँव शाखा के अध्यक्ष चुने जाने के बाद मास्टर दा अर्थात सूर्यसेन ने काउंसिल की बैठक की जो कि लगभग पाँच घंटे तक चली तथा उसमे निम्नलिखित कार्यक्रम बना-
  • अचानक शस्त्रागार पर अधिकार करना।
  • हथियारों से लैस होना।
  • रेल्वे की संपर्क व्यवस्था को नष्ट करना।
  • अभ्यांतरित टेलीफोन बंद करना।
  • टेलीग्राफ के तार काटना।
  • बंदूकों की दूकान पर कब्जा।
  • यूरोपियनों की सामूहिक हत्या करना।
  • अस्थायी क्रांतिकारी सरकार की स्थापना करना।
  • इसके बाद शहर पर कब्जा कर वहीं से लड़ाई के मोर्चे बनाना तथा मौत को गले लगाना।
मास्टर दा ने संघर्ष के लिए १८ अप्रैल १९३० के दिन को निश्चित किया। आयरलैंड की आज़ादी की लड़ाई के इतिहास में ईस्टर विद्रोह का दिन भी था- १८ अप्रैल, शुक्रवार- गुडफ्राइडे। रात के आठ बजे। शुक्रवार। १८ अप्रैल १९३०। चटगाँव के सीने पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध सशस्त्र युवा-क्रांति की आग लहक उठी।
 
चटगाँव क्रांति में मास्टर दा का नेतृत्व अपरिहार्य था। मास्टर दा के क्रांतिकारी चरित्र वैशिष्ट्य के अनुसार उन्होंने जवान क्रांतिकारियों को प्रभावित करने के लिए झूठ का आश्रय न लेकर साफ़ तौर पर बताया था कि वे एक पिस्तौल भी उन्हें नहीं दे पाएँगे और उन्होंने एक भी स्वदेशी डकैती नहीं की थी। आडंबरहीन और निर्भीक नेतृत्व के प्रतीक थे मास्टर दा।


अभी हाल के ही सालों मे चटगांव विद्रोह और मास्टर दा को केन्द्रित कर 2 फिल्में भी आई है - "खेलें हम जी जान से" और  "चटगांव"|
मेरा आप से अनुरोध है अगर आप ने यह फिल्में नहीं देखी है तो एक बार जरूर देखें और जाने क्रांति के उस गौरवमय इतिहास और उस के नायकों के बारे मे जिन के बारे मे अब शायद कहीं नहीं पढ़ाया जाता !

"मास्टर दा" को उनकी ८७ वीं पुण्यतिथि पर हमारा शत शत नमन !


इंकलाब ज़िंदाबाद !!!

सोमवार, 11 जनवरी 2021

भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व.लाल बहादुर शास्त्री जी की 55 वीं पुण्यतिथि

"देश के प्रति निष्ठा सभी निष्ठाओं से पहले आती है और यह पूर्ण निष्ठा है क्योंकि इसमें कोई प्रतीक्षा नहीं कर सकता कि बदले में उसे क्या मिलता है।"
- लाल बहादुर शास्त्री
 
 
 
भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व.लाल बहादुर शास्त्री जी को उनकी 55 वीं पुण्यतिथि पर शत शत नमन |
 
 
 
 
जय जवान ...
 
 
जय किसान ...


जय हिन्द  !!!

रविवार, 3 जनवरी 2021

परमवीर चक्र विजेता नायाब सूबेदार / आनरेरी कैप्टन बाना सिंह की ७२ वीं वर्षगांठ

 

नायब सूबेदार  / आनरेरी कैप्टन बाना सिंह
 (अंग्रेज़ी:Naib Subedar Bana Singh, जन्म: 3 जनवरी, 1949 काद्‌याल गाँव, जम्मू और कश्मीर) परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय सैन्य अधिकारी है। इन्हें यह सम्मान सन 1987 में मिला। पाकिस्तान के साथ भारत की चार मुलाकातें युद्धभूमि में तो हुई हीं, कुछ और भी मोर्चे हैं, जहाँ हिन्दुस्तान के बहादुरों ने पाकिस्तान के नापाक मंसूबों पर पानी फेर कर रख दिया। सियाचिन का मोर्चा भी इसी तरह का एक मोर्चा है, जिस ने 8 जम्मू एंड कश्मीर लाइट इंफेंटरी के नायब सूबेदार बाना सिंह को उन की चतुराई, पराक्रम और साहस के लिए परमवीर चक्र दिलवाया।

जीवन परिचय
बहादुर नायब सूबेदार बाना सिंह का जन्म 3 जनवरी 1949 को जम्मू और कश्मीर के काद्‌याल गाँव में हुआ था। 6 जनवरी 1969 को उनका फौजी जीवन शुरू हुआ थ और वह अपनी इस यूनिट में आए थे। सियाचिन में जो चौकी बाना सिंह ने फतह की, उनका नाम बाद में 'बाना पोस्ट' रख दिया गया। बाना सिंह ने इस कार्यवाही के लिए परमवीर चक्र पाया। उन्होंने कारगिल की लड़ाई का हाल भी जाना-सुना। उस समय तक वह फौज की सेवा में कार्यरत थे।

फौजी जीवन
सियाचिन के बारे में दूर बैठकर केवल कल्पना ही की जा सकती है, वह भी शायद बहुत सही ढंग से नहीं। समुद्र तट से 21 हजार एक सौ तिरपन फीट की ऊचाँई पर स्थित पर्वत श्रणी, जहाँ 40 से 60 किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से बर्फानी हवाएँ चलती ही रहती हैं और जहाँ का अधिकतम तापमान -35° C सेल्सियस होता है वहाँ की स्थितियों के बारे में क्या अंदाज लगाया जा सकता है। लेकिन यह सच है कि यह भारत के लिए एक महत्त्वपूर्ण जगह है। दरअसल, 1949 में कराची समझौते के बाद, जब युद्ध विराम रेखा खींची गई थी, तब उसका विस्तार, जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में उत्तर की तरफ खोर से लेकर दक्षिण की ओर मनावर तक था। इस तरह यह रेखा उत्तर की तरफ NJ9842 के हिमशैलों (ग्लेशियर्स) की तरह जाती है। इस क्षेत्र में घास का एक तिनका तक नहीं उगता है, साँस लेना तक सर्द मौसम के कारण बेहद कठिन है। लेकिन कुछ भी हो, यह ठिकाना ऐसा है जहाँ भारत, पाकिस्तान और चीन की सीमाएँ मिलती है, इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से इसका विशेष महत्त्व है।

हमेशा की तरह अतिक्रमण और उकसाने वाली कार्यवाही पाकिस्तान द्वारा ही यहाँ भी की गई। पहले तो उसने सीमा तय होते समय 5180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र जो भारत का होता उसे चीन की सीमा में खिसका दिया। इसके अलावा वह उस क्षेत्र में विदेशी पर्वतारोहियों को और वैज्ञानिक परीक्षणों के लिए बाहर के लोगों को भी बुलवाता रहता है, जब कि वह उसका क्षेत्र नहीं हैं। इसके अतिरिक्त भी उसकी ओर से अनेक ऐसी योजनाओं की खबर आती रहती है जो अतिक्रमण तथा आपत्तिजनक कही जा सकती है। यहाँ हम जिस प्रसंग का जिक्र विशेष रूप से कर रहे हैं, वह वर्ष 1987 का है। इसमें पाकिस्तान ने सियाचिन ग्लेशियर पर, भारतीय सीमा के अन्दर अपनी एक चौकी बनाने का आदेश अपनी सेनाओं को दे दिया। वह जगह मौसम को देखते हुए, भारत की ओर से भी आरक्षित थी। वहाँ पर पाकिस्तान सैनिकों ने अपनी चौकी खड़ी की और 'कायद चौकी' का नाम दिया। यह नाम पाकिस्तान के जनक कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना के नाम पर रखा गया था।

उस चौकी की संरचना समझना भी बड़ा रोचक है। वह चौकी, ग्लेशियर के ऊपर एक दुर्ग की तरह बनाई गई, जिसके दोनों तरह 1500 फीट ऊँची बर्फ की दीवारें थीं। इसे पाकिस्तान ने अपनी यह चौकी 'कायद' बड़ी चुनौती की तरह, भारत की सीमा के भीतर बनाई थी, जिसे अतिक्रमण के अलावा कोई और नाम नहीं दिया जा सकता। जाहिर है, भारत के लिए इस घटना की जानकारी पाकर चुप बैठना सम्भव नहीं था। भारतीय सेना ने यह प्रस्ताव बनाया कि हमें इस चौकी को वहाँ से हटाकर उस पर अपना कब्जा कर लेना है। इस प्रस्ताव के जवाब में नायब सूबेदार बाना सिंह ने खुद आगे बढ़कर यह कहा कि वह इस काम को जाकर पूरा करेंगे। वह 8 जम्मू कश्मीर लाइट इंफेस्टरी में नायब सूबेदार थे। उन्हें इस बात की इजाज़त दे दी गई। नायब सूबेदार बाना सिंह ने अपने साथ चार साथी और लिए और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ लिए। योजना के अनुसार बटालियन के दूसरे लोग पाकिस्तान दुश्मन के सैनिकों को उलझा कर रखे रहे और उधर बाना सिंह और उनके साथियों ने उस चौकी तक पहुँचने का काम शुरू कर दिया।

'कायद पोस्ट' की सपाट दीवार पर, जो कि बर्फ की बनीं थी, उस पर चढ़ना बेहद कठिन और जोखिम भरा काम था। इसके पहले भी कई बार इस दीवार पर चढ़ने ने की कोशिश हिन्दुस्तानी सैनिकों की थी और नाकाम रहे थे। रात का तापमान शून्य से भी तीस डिग्री नीचे गिरा हुआ था। तेज हवाएँ चल रही थी। पिछले तीन दिनों से लगातार जबरदस्त बर्फ गिर रही थी। भयंकर सर्दी के कारण बन्दूकें भी ठीक काम नहीं कर रहीं थीं। खैर, अँधेरे का फायदा उठाते हुए बाना सिंह और उनकी टीम आगे बढ़ी रही थी। रास्ते में उन्हें उन भारतीय बहादुरों के शव भी पड़े दिख रहे थे जिन्होंने यहां पहुँचने के रास्ते में प्राण गँवाए थे। क्यों कि इस से पहले २४ और २५ जून को भी पोस्ट पर कब्जे की ऐसी ही कोशिशें की गई थी | जैसे-तैसे बाना सिंह अपने साथियों को लेकर ठीक ऊपर तक पहुँचने में कामयाब हो गये। वहाँ पहुँच कर उसने अपने दल को दो हिस्सें में बाँटकर दो दिशाओं में तैनात किया और फिर उस 'कायद पोस्ट' पर ग्रेनेड फेंकने शुरू किया। वहाँ बने बंकरों में ग्रेनेड ने अपना काम दिखाया। साथ ही दूसरे दल के जवानों ने दुश्मन के सैनिकों को, जोकि उस चौकी पर थे, बैनेट से मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया। वहां पर पाकिस्तान के स्पेंशल सर्विस ग्रुप (SSG) के कमांडो तैनात थे, जो इस अचानक हमले में मारे गए और कुछ चौकी छोड़कर भाग निकले। कुछ ही देर में वह चौकी दुश्मनों के हाथ से भारतीय बहादुरों के हाथ में आ गई। मोर्चा फतह हुआ था। बाना सिंह समेत उनका दल सही सलामत उस पर काबिज हो गया और पोस्ट पर तिरंगा लहरा दिया गया |
(जानकारी भारतकोष से साभार)

७२ वीं वर्षगांठ के अवसर पर नायब सूबेदार / आनरेरी कैप्टन बाना सिंह जी को एक चटक सैलूट |
 
जय हिन्द !!!
 
जय हिन्द की सेना !!!

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

'इंक़लाब ज़िन्दाबाद' का नारा देने वाले क्रांतिकारी शायर - मौलाना हसरत मोहानी की १४६ वीं जयंती

 

मौलाना हसरत मोहानी (अंग्रेज़ी: Maulana Hasrat Mohani, मूल नाम- सैयद फ़ज़्लुल्हसन, जन्म-1 जनवरी, 1875, उन्नाव, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 13 मई, 1951 कानपुर) भारत की आज़ादी की लड़ाई के सच्चे सिपाही होने के साथ-साथ शायर, पत्रकार, राजनीतिज्ञ और ब्रिटिश भारत के सांसद थे।
 
जीवन परिचय
मौलाना हसरत मोहानी 'इन्कलाब ज़िन्दाबाद' का नारा देने वाले आज़ादी के सच्चे सिपाही थे, उनका वास्तविक नाम 'सैयद फ़ज़्लुल्हसन' और उपनाम 'हसरत' था। वे उत्तर प्रदेश के ज़िला उन्नाव के मोहान गांव में पैदा हुये थे इसलिये 'मौलाना हसरत मोहानी' के नाम से मशहूर हुए। इनका उपनाम इतना प्रसिद्ध हुआ कि लोग इनका वास्तविक नाम भूल गए। 
 
शिक्षा
इनकी आरंभिक शिक्षा घर पर ही हुई थी। ये बहुत ही होशियार और मेहनती विद्यार्थी थे और उन्होंने राज्य स्तरीय परीक्षा में टॉप किया था। बाद में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में पढ़ाई की जहाँ उनके कालेज के साथी मौलाना मोहम्मद अली जौहर और मौलाना शौक़त अली आदि थे। अलीगढ़ के छात्र दो दलों में बँटे हुए थे। एक दल देशभक्त था और दूसरा दल स्वार्थभक्त था। ये प्रथम दल में सम्मिलित होकर उसकी प्रथम पंक्ति में आ गए। यह तीन बार कॉलेज से निर्वासित हुए। उन्होंने सन 1903 ई. में बी. ए. परीक्षा उत्तीर्ण की थी। इसके अंर्तगत इन्होंने एक पत्रिका 'उर्दुएमुअल्ला' भी निकाली और नियमित रूप से स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग लेने लगे। यह कई बार जेल गए तथा देश के लिए बहुत कुछ बलिदान किया। उन्होंने एक खद्दर भण्डार भी खोला, जो खूब चला।
 
ग़ज़ल तथा कविता
हसरत मोहानी ने लखनऊ के प्रसिद्ध शायर और अपने उस्ताद तसलीम लखनवी और नसीम देहलवी से शायरी की शिक्षा हासिल की। हसरत ने उर्दू ग़ज़ल को एक नितांत नए तथा उन्नतिशील मार्ग पर मोड़ दिया है। उर्दू कविता में स्त्रियों के प्रति जो शुद्ध और लाभप्रद दृष्टिकोण दिखलाई देता है, प्रेयसी जो सहयात्री तथा मित्र रूप में दिखाई पड़ती है तथा समय से टक्कर लेती हुई अपने प्रेमी के साथ सहदेवता तथा मित्रता दिखलाती ज्ञात होती है, वह बहुत कुछ हसरत ही की देन है। उनकी कुछ खास किताबें 'कुलियात-ए-हसरत', 'शरहे कलामे ग़ालिब', 'नुकाते-ए-सुखन', 'मसुशाहदाते ज़िन्दां' आदि बहुत मशहूर हुयीं। उस्ताद ग़ुलाम अली द्वारा गाई गई उनकी ग़ज़ल 'चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है' भी बहुत मशहूर हुई जिसे बाद में फिल्म निकाह में फिल्माया गया। उन्होंने ग़ज़लों में ही शासन, समाज तथा इतिहास की बातों का ऐसे सुंदर ढंग से उपयोग किया है कि उसका प्राचीन रंग अपने स्थान पर पूरी तरह बना हुआ है। उनकी ग़ज़लें अपनी पूरी सजावट तथा सौंदर्य को बनाए रखते हुए भी ऐसा माध्यम बन गई हैं कि जीवन की सभी बातें उनमें बड़ी सुंदरता से व्यक्त की जा सकती है। उन्हें सहज में 'उन्नतशील ग़ज़लों का प्रवर्तक कहा जा सकता है। हसरत ने अपना सारा जीवन कविता करने तथा स्वतंत्रता के संघर्ष में प्रयत्न एवं कष्ट उठाने में व्यतीत किया। साहित्य तथा राजनीति का सुंदर सम्मिलित कराना कितना कठिन है, ऐसा जब विचार उठता है, तब स्वत: हसरत की कविता पर दृष्टि जाती है। इनकी कविता का संग्रह 'कुलियात-ए-हसरत' के नाम से प्रकाशित है। 
 
आज़ादी में मुख्य भूमिका
हमारे देश की आज़ादी की लड़ाई में इस देश में रहने वाली हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख आदि सभी क़ौमों के लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था और न सिर्फ हिस्सा लिया बल्कि कुरबानियँ भी दीं। इन आज़ादी के सिपाहियों ने जंग में ख़ास भूमिका ही अदा नहीं की बल्कि बहुत भारी क़ीमत अदा की। हालांकि इस जंग ने हिन्दुस्तानी आवाम को नीचे से ऊपर तक, आम आदमी से लेकर असरदार तबकों तक को एक प्लेटफार्म पर इकट्ठा कर जोड़ने का काम किया और इस एकता ने भारत की ब्रिटिश सरकार के सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी, लेकिन हमारे देश के उस समय के बादशाहों और राजाओं, आम किसान और मजदूरों, धर्मगुरुओं, साधु सन्तों, धार्मिक विद्वानों और मौलानाओं को, जंगे आज़ादी में हिस्सा लेने की वजह से, सख्त सजाएं भुगतनी पड़ी। सैंकड़ों ज़ागीरदारों की जागीरें छीन ली गई और उलेमाओं यानि इस्लामी धर्म गुरुओं को माल्टा के ठन्डे इलाक़ों की जेलों में और अंडमान निकोबार द्वीप समूह के निर्जन स्थानों में सजा भुगतने के लिये मजबूर होना पड़ा। मौलाना हसरत मोहानी ने भी अंग्रेजों से कभी समझौता नहीं किया और इन आज़ादी के सिपाहियों की तरह खुशी-खुशी तकलीफें और सजाएं भुगतीं।
 
आज़ादी के दीवाने
हसरत मोहानी आज़ादी के बहुत बड़े दीवाने थे और ख़ासकर भारत की आज़ादी से उन्हें बहुत प्यार था। वे बालगंगाधर राव को बड़े सम्मान से तिलक महाराज कहते थे और उनके बहुत बड़े प्रशंसक थे क्योंकि उन्होंने कहा था कि आज़ादी मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। उनकी पत्नी निशातुन्निसा बेगम, जो हमेशा परदे में रहती थीं, ने भी अपने पति के साथ आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था। मौलाना हसरत मोहानी आज़ादी की लड़ाई में इस तरह घुलमिल गये थे कि उनके लिये कि इस राह में मिलने वाले दुख-दर्द, राहत-खुशी एक जैसे थे। वे हर तरह के हालात में अपने आप को खुश रखना जानते थे। उन्होंने बहुत थोड़ी सी आमदनी से, कभी कभी बिना आमदनी के, गुज़ारा किया। वे अंग्रेजों द्वारा कई बार जेल में डाले गये लेकिन उफ़ तक न की और अपना रास्ता नहीं बदला। उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि वे अंजाम की फिक्र किये बिना, जो सच समझते थे कह देते थे। सच की क़ीमत पर वह कोई समझौता नहीं करते थे। 
 
कांग्रेस से सम्बन्ध
मौलाना हसरत मोहानी कालेज के ज़माने में ही आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गये थे। किसी तरह का समझौता न करने की आदत और नजरिये की वजह से उन्हें कालेज के दिनों में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। कालेज से निकलने के बाद उन्होंने एक उर्दू मैगजीन 'उर्दू ए मोअल्ला' निकालना शुरू की जिसमें वे जंगे आज़ादी की हिमायत में सियासी लेख लिखा करते थे। सन 1904 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गये और सूरत सत्र 1907 में प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित रहे। वे कांग्रेस के अधिवेषणों और सत्रों की रिपोर्ट और समाचार अपनी मैगजीन उर्दू ए मुअल्ला में प्रकाशित करते रहते थे। उन्होंने कलकत्ता, बनारस, मुम्बई आदि में आयोजित होने वाले कई कांग्रेसी सत्रों की रिपोर्ट अपनी मैगजीन उर्दू ए मुअल्ला में प्रकाशित की थीं। सूरत के कांग्रेस सेशन 1907 में जब शान्तिपसन्द लोगों के नरम दल और भारत की पूरी आज़ादी की हिमायत करने वाले गरम दल का विवाद उठ खड़ा हुआ तो उन्होंने तिलक के साथ कांग्रेस छोड़ दी और वे मुस्लिम लीग की तरह कांग्रेस से भी नफरत करने लगे। 
 
पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव
एक दिलचस्प बात यह है कि मौलाना हसरत मोहानी ने अहमदाबाद में 1921 के सत्र में भारत के पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा जबकि महात्मा गाँधी उस वक्त इसके लिये तैयार नहीं थे और अंग्रेजों के अधीन होम रूल के समर्थक थे। इस वजह से मौलाना अपना प्रस्ताव पास कराने में कामयाब नहीं हुये। इसी प्रकार मुस्लिम लीग के अहमदाबाद सेशन में उन्होंने अपने भाषण के दौरान पूर्ण स्वराज का का प्रस्ताव पेश किया था हालांकि इसे मंजूर कराने में वे कामयाब नहीं हुये। बीसवीं सदी के शुरू में हसरत मोहानी ने अलीगढ़ में सविनय अवज्ञा आन्दोलन की हिमायत में स्वदेशी स्टोर शुरू किया। उन्होंने यह स्टोर उस वक्त शुरू किया जब ब्रिटिश सरकार ने उनकी मैगजीन पर पाबन्दी लगा दी। मौलाना स्वदेशी आन्दोलन के इतने बड़े हिमायती थे कि उन्होंने दिसम्बर की ठन्डी रात में भी, अपने साथी मौलाना सुलेमान नदवी के ऑफिस में निवास के दौरान, विदेशी कम्बल इस्तेमाल करने से मना कर दिया। मौलाना सुलेमान नदवी ने खुद इस घटना का वर्णन किया। 
 
'इंक़लाब ज़िन्दाबाद' का नारा
आज भी हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अगर कोई आन्दोलन या मूवमेंट चलता है तो 'इंक़लाब ज़िन्दाबाद' का नारा उसका खास हिस्सा होता है। हमारे देश की कोई भी सियासी पार्टी या कोई संगठन अपनी मांगों के लिये मुजाहरे और प्रदर्शन करता हैं तो इस नारे का इस्तेमाल आन्दोलन में जान फूंक देता है। भारत की आज़ादी की लड़ाई में तो यह नारा उस लड़ाई की जान हुआ करता था और जब भी, जहाँ भी यह नारा बुलन्द होता था आज़ादी के दीवानों में जोश का तू़फ़ान भर देता था। इन्कलाब जिन्दाबाद का यह नारा आज़ादी के अज़ीमुश्शान सिपाही मौलाना हसरत मोहानी का दिया हुआ है। भारत की आज़ादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले हिन्दुस्तानी रहनुमाओं और मुजाहिदों की फेहरिस्त में मौलाना हसरत मोहानी का नाम सरे फेहरिस्त शामिल है। उन्होंने इंक़लाब ज़िन्दाबाद का नारा देने के अलावा टोटल फ्रीडम यानि पूर्ण स्वराज्य यानि भारत के लिये पूरी तरह से आज़ादी की मांग की हिमायत की थी। 
 
ईमानदार और सच्चे मुसलमान
हकीकत में, देशभक्त होने के साथ-साथ, मौलाना हसरत मौलाना बहुत सारी खूबियों के मालिक थे। वे साहित्यकार, शायर, पत्रकार, इस्लामी विद्वान, समाजसेवक और उसूलपरस्त राजनीतिज्ञ थे। वे बहुत काबिल, ईमानदार और सच्चे मुसलमान थे लेकिन उन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा को भी आगे बढ़ाया। वे भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के फाउन्डर मेम्बरों में से एक थे। वे भगवान श्रीकृष्ण के भी प्रशंसक थे। हिन्दुस्तान पाकिस्तान के बंटवारे के बाद उन्होंने पाकिस्तान के बजाय हिन्दुस्तान में रहना पसन्द किया, किन्तु पाकिस्तान में भी लोग उन्हें उसी सम्मान से देखते हैं जिस तरह हिन्दुस्तान में उन्हें सम्मान दिया जाता है। 
 
निधन
हसरत मोहानी की मृत्यु 13 मई, सन 1951 ई. को कानपुर में हुई थी। इनके इन्तक़ाल के बाद 1951 में कराची पाकिस्तान में हसरत मोहानी मेमोरियल सोसायटी, हसरत मोहानी मेमोरियल लाईब्रेरी और ट्रस्ट बनाये गये। उनके वर्षी पर हर साल इस ट्रस्ट और हिन्दुस्तान पाकिस्तान के अन्य संगठनों द्वारा उनकी याद में सभायें और विचार गोश्ठियॉ आयोजित की जाती हैं। कराची पाकिस्तान में हसरत मोहानी कालोनी, कोरांगी कालोनी हैं और कराची के व्यवसायिक इलाके में बहुत बडे़ रोड का नाम उनके नाम पर रखा गया है।
 (जानकारी व चित्र भारतकोष से साभार)
 
आज मौलाना हसरत मोहानी साहब की १४६ वीं जयंती के अवसर पर हम सब उनको नमन करते हैं |

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