मौलाना हसरत मोहानी (अंग्रेज़ी: Maulana Hasrat Mohani, मूल
नाम- सैयद फ़ज़्लुल्हसन, जन्म-1 जनवरी, 1875, उन्नाव, उत्तर प्रदेश;
मृत्यु- 13 मई, 1951 कानपुर) भारत की आज़ादी की लड़ाई के सच्चे सिपाही होने
के साथ-साथ शायर, पत्रकार, राजनीतिज्ञ और ब्रिटिश भारत के सांसद थे।
जीवन परिचय
मौलाना हसरत मोहानी 'इन्कलाब ज़िन्दाबाद' का नारा देने वाले आज़ादी के
सच्चे सिपाही थे, उनका वास्तविक नाम 'सैयद फ़ज़्लुल्हसन' और उपनाम 'हसरत'
था। वे उत्तर प्रदेश के ज़िला उन्नाव के मोहान गांव में पैदा हुये थे
इसलिये 'मौलाना हसरत मोहानी' के नाम से मशहूर हुए। इनका उपनाम इतना
प्रसिद्ध हुआ कि लोग इनका वास्तविक नाम भूल गए।
शिक्षा
इनकी आरंभिक शिक्षा घर पर ही हुई थी। ये बहुत ही होशियार और मेहनती
विद्यार्थी थे और उन्होंने राज्य स्तरीय परीक्षा में टॉप किया था। बाद में
उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में पढ़ाई की जहाँ उनके कालेज के साथी
मौलाना मोहम्मद अली जौहर और मौलाना शौक़त अली आदि थे। अलीगढ़ के छात्र दो
दलों में बँटे हुए थे। एक दल देशभक्त था और दूसरा दल स्वार्थभक्त था। ये
प्रथम दल में सम्मिलित होकर उसकी प्रथम पंक्ति में आ गए। यह तीन बार कॉलेज
से निर्वासित हुए। उन्होंने सन 1903 ई. में बी. ए. परीक्षा उत्तीर्ण की थी।
इसके अंर्तगत इन्होंने एक पत्रिका 'उर्दुएमुअल्ला' भी निकाली और नियमित
रूप से स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग लेने लगे। यह कई बार जेल गए तथा देश
के लिए बहुत कुछ बलिदान किया। उन्होंने एक खद्दर भण्डार भी खोला, जो खूब
चला।
ग़ज़ल तथा कविता
हसरत मोहानी ने लखनऊ के प्रसिद्ध शायर और अपने उस्ताद तसलीम लखनवी और नसीम
देहलवी से शायरी की शिक्षा हासिल की। हसरत ने उर्दू ग़ज़ल को एक नितांत नए
तथा उन्नतिशील मार्ग पर मोड़ दिया है। उर्दू कविता में स्त्रियों के प्रति
जो शुद्ध और लाभप्रद दृष्टिकोण दिखलाई देता है, प्रेयसी जो सहयात्री तथा
मित्र रूप में दिखाई पड़ती है तथा समय से टक्कर लेती हुई अपने प्रेमी के
साथ सहदेवता तथा मित्रता दिखलाती ज्ञात होती है, वह बहुत कुछ हसरत ही की
देन है। उनकी कुछ खास किताबें 'कुलियात-ए-हसरत', 'शरहे कलामे ग़ालिब',
'नुकाते-ए-सुखन', 'मसुशाहदाते ज़िन्दां' आदि बहुत मशहूर हुयीं। उस्ताद
ग़ुलाम अली द्वारा गाई गई उनकी ग़ज़ल 'चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद
है' भी बहुत मशहूर हुई जिसे बाद में फिल्म निकाह में फिल्माया गया।
उन्होंने ग़ज़लों में ही शासन, समाज तथा इतिहास की बातों का ऐसे सुंदर ढंग
से उपयोग किया है कि उसका प्राचीन रंग अपने स्थान पर पूरी तरह बना हुआ है।
उनकी ग़ज़लें अपनी पूरी सजावट तथा सौंदर्य को बनाए रखते हुए भी ऐसा माध्यम
बन गई हैं कि जीवन की सभी बातें उनमें बड़ी सुंदरता से व्यक्त की जा सकती
है। उन्हें सहज में 'उन्नतशील ग़ज़लों का प्रवर्तक कहा जा सकता है। हसरत ने
अपना सारा जीवन कविता करने तथा स्वतंत्रता के संघर्ष में प्रयत्न एवं कष्ट
उठाने में व्यतीत किया। साहित्य तथा राजनीति का सुंदर सम्मिलित कराना
कितना कठिन है, ऐसा जब विचार उठता है, तब स्वत: हसरत की कविता पर दृष्टि
जाती है। इनकी कविता का संग्रह 'कुलियात-ए-हसरत' के नाम से प्रकाशित है।
आज़ादी में मुख्य भूमिका
हमारे देश की आज़ादी की लड़ाई में इस देश में रहने वाली हिन्दू, मुस्लिम,
सिक्ख आदि सभी क़ौमों के लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था और न सिर्फ
हिस्सा लिया बल्कि कुरबानियँ भी दीं। इन आज़ादी के सिपाहियों ने जंग में
ख़ास भूमिका ही अदा नहीं की बल्कि बहुत भारी क़ीमत अदा की। हालांकि इस जंग
ने हिन्दुस्तानी आवाम को नीचे से ऊपर तक, आम आदमी से लेकर असरदार तबकों तक
को एक प्लेटफार्म पर इकट्ठा कर जोड़ने का काम किया और इस एकता ने भारत की
ब्रिटिश सरकार के सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी, लेकिन हमारे देश
के उस समय के बादशाहों और राजाओं, आम किसान और मजदूरों, धर्मगुरुओं, साधु
सन्तों, धार्मिक विद्वानों और मौलानाओं को, जंगे आज़ादी में हिस्सा लेने की
वजह से, सख्त सजाएं भुगतनी पड़ी। सैंकड़ों ज़ागीरदारों की जागीरें छीन ली
गई और उलेमाओं यानि इस्लामी धर्म गुरुओं को माल्टा के ठन्डे इलाक़ों की
जेलों में और अंडमान निकोबार द्वीप समूह के निर्जन स्थानों में सजा भुगतने
के लिये मजबूर होना पड़ा। मौलाना हसरत मोहानी ने भी अंग्रेजों से कभी
समझौता नहीं किया और इन आज़ादी के सिपाहियों की तरह खुशी-खुशी तकलीफें और
सजाएं भुगतीं।
आज़ादी के दीवाने
हसरत मोहानी आज़ादी के बहुत बड़े दीवाने थे और ख़ासकर भारत की आज़ादी से उन्हें बहुत प्यार था। वे बालगंगाधर राव को बड़े सम्मान से तिलक महाराज कहते थे और उनके बहुत बड़े प्रशंसक थे क्योंकि उन्होंने कहा था कि आज़ादी मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। उनकी
पत्नी निशातुन्निसा बेगम, जो हमेशा परदे में रहती थीं, ने भी अपने पति के
साथ आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था। मौलाना हसरत मोहानी आज़ादी की
लड़ाई में इस तरह घुलमिल गये थे कि उनके लिये कि इस राह में मिलने वाले
दुख-दर्द, राहत-खुशी एक जैसे थे। वे हर तरह के हालात में अपने आप को खुश
रखना जानते थे। उन्होंने बहुत थोड़ी सी आमदनी से, कभी कभी बिना आमदनी के,
गुज़ारा किया। वे अंग्रेजों द्वारा कई बार जेल में डाले गये लेकिन उफ़ तक न
की और अपना रास्ता नहीं बदला। उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि वे अंजाम
की फिक्र किये बिना, जो सच समझते थे कह देते थे। सच की क़ीमत पर वह कोई
समझौता नहीं करते थे।
कांग्रेस से सम्बन्ध
मौलाना हसरत मोहानी कालेज के ज़माने में ही आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो
गये थे। किसी तरह का समझौता न करने की आदत और नजरिये की वजह से उन्हें
कालेज के दिनों में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। कालेज से निकलने
के बाद उन्होंने एक उर्दू मैगजीन 'उर्दू ए मोअल्ला' निकालना शुरू की जिसमें
वे जंगे आज़ादी की हिमायत में सियासी लेख लिखा करते थे। सन 1904 में वे
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गये और सूरत सत्र 1907 में
प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित रहे। वे कांग्रेस के अधिवेषणों और सत्रों की
रिपोर्ट और समाचार अपनी मैगजीन उर्दू ए मुअल्ला में प्रकाशित करते रहते थे।
उन्होंने कलकत्ता, बनारस, मुम्बई आदि में आयोजित होने वाले कई कांग्रेसी
सत्रों की रिपोर्ट अपनी मैगजीन उर्दू ए मुअल्ला में प्रकाशित की थीं। सूरत
के कांग्रेस सेशन 1907 में जब शान्तिपसन्द लोगों के नरम दल और भारत की पूरी
आज़ादी की हिमायत करने वाले गरम दल का विवाद उठ खड़ा हुआ तो उन्होंने तिलक
के साथ कांग्रेस छोड़ दी और वे मुस्लिम लीग की तरह कांग्रेस से भी नफरत
करने लगे।
पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव
एक दिलचस्प बात यह है कि मौलाना हसरत मोहानी ने अहमदाबाद में 1921 के सत्र
में भारत के पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा जबकि महात्मा गाँधी उस वक्त इसके
लिये तैयार नहीं थे और अंग्रेजों के अधीन होम रूल के समर्थक थे। इस वजह से
मौलाना अपना प्रस्ताव पास कराने में कामयाब नहीं हुये। इसी प्रकार मुस्लिम
लीग के अहमदाबाद सेशन में उन्होंने अपने भाषण के दौरान पूर्ण स्वराज का का
प्रस्ताव पेश किया था हालांकि इसे मंजूर कराने में वे कामयाब नहीं हुये।
बीसवीं सदी के शुरू में हसरत मोहानी ने अलीगढ़ में सविनय अवज्ञा आन्दोलन की
हिमायत में स्वदेशी स्टोर शुरू किया। उन्होंने यह स्टोर उस वक्त शुरू किया
जब ब्रिटिश सरकार ने उनकी मैगजीन पर पाबन्दी लगा दी। मौलाना स्वदेशी
आन्दोलन के इतने बड़े हिमायती थे कि उन्होंने दिसम्बर की ठन्डी रात में भी,
अपने साथी मौलाना सुलेमान नदवी के ऑफिस में निवास के दौरान, विदेशी कम्बल
इस्तेमाल करने से मना कर दिया। मौलाना सुलेमान नदवी ने खुद इस घटना का
वर्णन किया।
'इंक़लाब ज़िन्दाबाद' का नारा
आज भी हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अगर कोई आन्दोलन या
मूवमेंट चलता है तो 'इंक़लाब ज़िन्दाबाद' का नारा उसका खास हिस्सा होता है।
हमारे देश की कोई भी सियासी पार्टी या कोई संगठन अपनी मांगों के लिये
मुजाहरे और प्रदर्शन करता हैं तो इस नारे का इस्तेमाल आन्दोलन में जान फूंक
देता है। भारत की आज़ादी की लड़ाई में तो यह नारा उस लड़ाई की जान हुआ
करता था और जब भी, जहाँ भी यह नारा बुलन्द होता था आज़ादी के दीवानों में
जोश का तू़फ़ान भर देता था। इन्कलाब जिन्दाबाद का यह नारा आज़ादी के
अज़ीमुश्शान सिपाही मौलाना हसरत मोहानी का दिया हुआ है। भारत की आज़ादी में
बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले हिन्दुस्तानी रहनुमाओं और मुजाहिदों की
फेहरिस्त में मौलाना हसरत मोहानी का नाम सरे फेहरिस्त शामिल है। उन्होंने
इंक़लाब ज़िन्दाबाद का नारा देने के अलावा टोटल फ्रीडम यानि पूर्ण स्वराज्य
यानि भारत के लिये पूरी तरह से आज़ादी की मांग की हिमायत की थी।
ईमानदार और सच्चे मुसलमान
हकीकत में, देशभक्त होने के साथ-साथ, मौलाना हसरत मौलाना बहुत सारी खूबियों
के मालिक थे। वे साहित्यकार, शायर, पत्रकार, इस्लामी विद्वान, समाजसेवक और
उसूलपरस्त राजनीतिज्ञ थे। वे बहुत काबिल, ईमानदार और सच्चे मुसलमान थे
लेकिन उन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा को भी आगे बढ़ाया। वे भारत में
कम्युनिस्ट पार्टी के फाउन्डर मेम्बरों में से एक थे। वे भगवान श्रीकृष्ण
के भी प्रशंसक थे। हिन्दुस्तान पाकिस्तान के बंटवारे के बाद उन्होंने
पाकिस्तान के बजाय हिन्दुस्तान में रहना पसन्द किया, किन्तु पाकिस्तान में
भी लोग उन्हें उसी सम्मान से देखते हैं जिस तरह हिन्दुस्तान में उन्हें
सम्मान दिया जाता है।
निधन
हसरत मोहानी की मृत्यु 13 मई, सन 1951 ई. को कानपुर में हुई थी। इनके
इन्तक़ाल के बाद 1951 में कराची पाकिस्तान में हसरत मोहानी मेमोरियल
सोसायटी, हसरत मोहानी मेमोरियल लाईब्रेरी और ट्रस्ट बनाये गये। उनके वर्षी
पर हर साल इस ट्रस्ट और हिन्दुस्तान पाकिस्तान के अन्य संगठनों द्वारा उनकी
याद में सभायें और विचार गोश्ठियॉ आयोजित की जाती हैं। कराची पाकिस्तान
में हसरत मोहानी कालोनी, कोरांगी कालोनी हैं और कराची के व्यवसायिक इलाके
में बहुत बडे़ रोड का नाम उनके नाम पर रखा गया है।
आज मौलाना हसरत मोहानी साहब की १४६ वीं जयंती के अवसर पर हम सब उनको नमन करते हैं |