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रविवार, 27 नवंबर 2011

उस्ताद सुलतान खान का निधन

जाने माने सारंगी वादक और शास्त्रीय गायक उस्ताद सुलतान खान का रविवार को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। खान 71 साल के थे और पिछले दो महीने से बीमार चल रहे थे। वे अपने पीछे परिवार में संगीत की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र साबिर खान को छोड़ गए हैं। उस्ताद खान को वर्ष 2010 में देश के प्रतिष्ठित पद्म भूषण सम्मान से नवाजा गया था।
मीठे साजों में शुमार सारंगी के फनकार खान ने 'पिया बसंती रे' और 'अलबेला सजन आयो रे' जैसे मशहूर गीतों में भी अपनी आवाज दी। उनके परिवार के सदस्यों ने कहा कि पद्म भूषण से सम्मानित खान जोधपुर के सारंगी वादकों के परिवार से ताल्लुक रखते थे। वह पिछले कुछ समय से डायलिसिस पर थे। उन्हें कल जोधपुर में सुपुर्द-ए-खाक किया जाएगा।
सारंगी वादन के क्षेत्र में नई जान फूंकने का श्रेय खान को ही जाता है। उनकी अपने वाद्य पर गजब की पकड़ थी लेकिन उनकी आवाज भी उतनी ही सुरीली थी। वह 11 वर्ष की आयु में ही पंडित रविशंकर के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुति दे चुके थे। यह पेशकश उन्होंने वर्ष 1974 में जॉर्ज हैरीसन के 'डार्क हॉर्स व‌र्ल्ड टूर' में दी थी। खान राजस्थान के सारंगी वादकों के परिवार में जन्मे। शुरुआत में उन्होंने अपने पिता उस्ताद गुलाम खान से तालीम ली। बाद में उन्होंने इंदौर घराने के जाने माने शास्त्रीय गायक उस्ताद अमीर खां से संगीत के हुनर सीखे।
खुद को सारंगी वादक के तौर पर स्थापित करने के बाद उस्ताद सुल्तान खान ने लता मंगेशकर, खय्याम, संजय लीला भंसाली जैसी फिल्म जगत की हस्तियों और पश्चिमी देशों के संगीतकारों के साथ काम किया।

फिल्म 'हम दिल दे चुके सनम' में आपका गया हुआ 'अलबेला सजन घर आयो री' बेहद मकबूल हुआ था ... इस गाने में आपने शंकर महादेवन के साथ जुगलबंदी की थी !

लीजिये पेश है उनका एक ओर बेहद मकबूल गीत ...

"कटे नाही रात मोरी ... पिया तोरे कारण ..."  


मैनपुरी के सभी संगीत प्रेमियों की ओर से खान साहब को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !

रविवार, 20 नवंबर 2011

शेर ऐ मैसूर के जन्मदिन पर विशेष

'मैसूर के शेर' के नाम से मशहूर और कई बार अंग्रेजों को धूल चटा देने वाले टीपू सुल्तान राकेट के अविष्कारक तथा कुशल योजनाकार भी थे।
उन्होंने अपने शासनकाल में कई सड़कों का निर्माण कराया और सिंचाई व्यवस्था के भी पुख्ता इंतजाम किए। टीपू ने एक बांध की नींव भी रखी थी। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने टीपू सुल्तान को राकेट का अविष्कारक बताया था। [देवनहल्ली वर्तमान में कर्नाटक का कोलर जिला] में 20 नवम्बर 1750 को जन्मे टीपू सुल्तान हैदर अली के पहले पुत्र थे।
इतिहासकार जीके भगत के अनुसार बहादुर और कुशल रणनीतिकार टीपू सुल्तान अपने जीते जी कभी भी ईस्ट इंडिया साम्राज्य के सामने नहीं झुके और फिरंगियों से जमकर लोहा लिया। मैसूर की दूसरी लड़ाई में अंग्रेजों को खदेड़ने में उन्होंने अपने पिता हैदर अली की काफी मदद की।
टीपू ने अपनी बहादुरी के चलते अंग्रेजों ही नहीं, बल्कि निजामों को भी धूल चटाई। अपनी हार से बौखलाए हैदराबाद के निजाम ने टीपू से गद्दारी की और अंग्रेजों से मिल गया।
मैसूर की तीसरी लड़ाई में अंग्रेज जब टीपू को नहीं हरा पाए तो उन्होंने मैसूर के इस शेर के साथ मेंगलूर संधि के नाम से एक सममझौता कर लिया, लेकिन फिरंगी धोखेबाज निकले। ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद के निजाम के साथ मिलकर चौथी बार टीपू पर जबर्दस्त हमला बोल दिया और आखिरकार 4 मई 1799 को श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए टीपू शहीद हो गए।
मैसूर के इस शेर की सबसे बड़ी ताकत उनकी रॉकेट सेना थी। रॉकेटों के हमलों ने अंग्रेजों और निजामों को तितर-बितर कर दिया था। टीपू की शहादत के बाद अंग्रेज रंगपट्टनम से निशानी के तौर पर दो रॉकेटों को ब्रिटेन स्थित वूलविच म्यूजियम आर्टिलरी गैलरी में प्रदर्शनी के लिए ले गए।
 

भारत माता के इस 'शेर' को सभी मैनपुरी वासीयों का शत शत नमन !

सोमवार, 14 नवंबर 2011

बाल दिवस के २ अलग अलग रूप

आज बाल दिवस है ... पर इतने सालों के बाद भी पूरे देश में ... यह सामान रूप से नहीं मनाया जाता ... २ चित्र दिखता हूँ आपको ... अपनी बात सिद्ध करने के लिए ...

भोपाल में रविवार, 13 नवंबर को बाल दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित कार्यक्रम में नन्हे बच्चों ने चाचा नेहरू को पुष्प अर्पित किए।
झारखंड के पश्चिम सिंहभूम के चक्रधरपुर में बाल दिवस की पूर्व संध्या पर ताश के 52 पत्तों में अपना भविष्य तलाशते बच्चे। 

    
साफ़ साफ़ समझ में आता है कि इस में किसकी गलती है ... एक जगह सारे तामझाम किये जाते है इस सालाना दिखावे के लिए वही दूसरी किसको भी इतनी फुर्सत नहीं है कि थोडा सा दिखावा ही कर जाता इन बच्चो के सामने ...

बुधवार, 9 नवंबर 2011

आज के ज़माने की A B C D

आज के ज़माने की A B C D
आज अमित कुमार श्रीवास्तव जी की फेसबुक प्रोफाइल पर यह चित्र देखा तो सोचा आप सब को भी यहाँ दिखा दूँ  ... आपका भी नया ज्ञान मिल जाए और हमारी भी एक पोस्ट तैयार हो जाए ... है कि नहीं ???

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

हमारा नया रूप

लीजिये साहब पेश है हमारा नया अवतार एक कार्टून के रूप में ... सुरेश शर्मा जी कार्टूनिस्ट और उनके पुत्र सैम ने अपना जादू चला हमारा रूप बदला है ... आप भी देखिये और अपनी अपनी राय दीजिये ...

शनिवार, 5 नवंबर 2011

महान गायक भूपेन हजारिका का निधन

विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . .. . . . 
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई, निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यूँ. . . . 
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . .. 
अनपढ़ जन अक्षरहीन अनगिन जन खाद्यविहीन निद्रवीन देख मौन हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..

व्यक्ति रहित व्यक्ति केन्द्रित सकल समाज व्यक्तित्व रहित निष्प्राण समाज को छोडती न क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..

रुतस्विनी क्यूँ न रही ? तुम निश्चय चितन नहीं प्राणों में प्रेरणा प्रेरती न क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..

उन्मद अवनी कुरुक्षेत्र बनी गंगे जननी नव भारत में भीष्म रूपी सूत समरजयी जनती नहीं हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..
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महान गायक भूपेन हजारिका नहीं रहे। मुंबई के एक अस्पताल में शनिवार को उनका निधन हो गया। हजारिका पिछले काफी समय से बीमार थे और यहां अस्पताल में भर्ती थे।  


आपको सभी मैनपुरी वासियों की ओर से शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि ! 

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

१०५ वी जयंती पर विशेष - आवाज अलग, अंदाज अलग... - पृथ्वीराज कपूर

3 November 1906 – 29 May 1972
पृथ्वीराज कपूर की संवाद अदायगी की आज भी लोग दाद देते हैं, हालांकि कई बार उन्हें अलग आवाज की वजह से परेशान भी होना पड़ा..
जब 1931 में फिल्मों ने बोलना शुरू किया, तो फिल्म 'आलम आरा' में पृथ्वीराज कपूर की आवाज को लोगों ने दोष-युक्त बताया। बाद में वे लोग ही उनकी संवाद अदायगी के कायल हो गये। पृथ्वीराज कपूर ने जब फिल्मों में प्रवेश किया, तब फिल्में मूक होती थीं। मूक फिल्मों के इस दौर में कलाकार की आवाज के बजाय इस बात को महत्व दिया जाता था कि वह दिखने में कैसा है और उसकी भाव-भंगिमा कैसी है? तब सिर्फ सुंदरता पर ही नहीं, इस बात पर भी ध्यान दिया जाता था कि उसके शरीर की बनावट कैसी है और यदि वह ठीक डीलडौल का है, तो उसे प्रभावशाली माना जाता था।
पृथ्वीराज कपूर का जन्म अविभाजित भारत के पेशावर में 3 नवंबर 1906 को हुआ था। घर में किसी चीज की कमी नहीं थी। हां, एक दुख उन्हें तीन साल की उम्र में जरूर मिला और वह यह कि उनकी मां दुनिया से चल बसीं। पेशावर से ही उन्होंने ग्रेजुएशन किया। स्कूल और कॉलेज के समय से ही उनका नाटकों में मन लगने लगा था। स्कूल में आठ साल की उम्र में अभिनय किया और कॉलेज में नाटक 'राइडर्स टू द सी' में मुख्य महिला चरित्र निभाया। रंगमंच को उन्होंने अपनाया लाहौर में रहते हुए, लेकिन पढ़े-लिखे होने के कारण उन्हें नाटक मंडली में काम नहीं मिला।
पृथ्वीराज कपूर अच्छे और संस्कारी खानदान से थे न कि अखाड़े से, लेकिन डीलडौल में किसी पहलवान से कम नहीं थे। शारीरिक डीलडौल और खूबसूरती की बदौलत 1929 में इंपीरियल कंपनी ने उन्हें अपनी मूक फिल्म 'चैलेंज' में काम दिया। इसके कुछ समय बाद ही बोलती फिल्मों का दौर शुरू हो गया। मूक फिल्मों में काम करने वाले कई कलाकारों के पास संवाद अदायगी के हुनर और अच्छी आवाज का अभाव था। पृथ्वीराज कपूर भी अपवाद नहीं थे। 'आलम आरा' में पृथ्वीराज कपूर की आवाज को आलोचकों ने दोष-युक्त बताया, लेकिन पृथ्वीराज कपूर ने हार नहीं मानी। उन्होंने इस दोष को सुधारा और अपनी दमदार आवाज के बल पर लगभग चालीस साल इंडस्ट्री में टिके रहे। बीच में खुद की नाटक कंपनी बनाई और लगे पूरी दुनिया घूमने।



पृथ्वीराज कपूर की सफलता की एक खास वजह थी उनका राजसी व्यक्तित्व। कई भूमिकाओं में तो उनके राजसी व्यक्तित्व के सामने उनकी आवाज गौण हो गई। 'विद्यापति', 'सिकंदर', 'महारथी कर्ण, 'विक्रमादित्य' जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं। 
अकबर के रूप में
अकबर की भूमिका अनेक कलाकारों ने की है, लेकिन उनकी कभी चर्चा नहीं हुई। अकबर का नाम आते ही सिनेमा प्रेमियों की नजर के सामने आ जाते हैं 'मुगल-ए-आजम' के पृथ्वीराज कपूर। यही आलम उनके द्वारा निभाई गई सिकंदर की भूमिका का भी है।
सिकंदर के रूप में
1968 में पृथ्वीराज कपूर अभिनीत फिल्म 'तीन बहूरानियां' रिलीज हुई। एस. एस. वासन इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक थे। उनकी भूमिका एक परिवार के सर्वेसर्वा की थी, इसीलिए वासन ने पृथ्वीराज कपूर का चुनाव किया। इस भूमिका में उनकी आवाज से कोई परेशानी न हो, इसलिए उनके संवाद अभिनेता विपिन गुप्ता की आवाज में डब करवाए गए।
1957 में आई फिल्म 'पैसा' का निर्देशन करने वाले पृथ्वीराज कपूर ने तमाम चर्चित नाटकों में अभिनय किया। उन्होंने कुल 82 फिल्मों में अभिनय किया। अपने कॅरियर के दौरान ही उन्होंने मुंबई में 1944 में पृथ्वी थियेटर की स्थापना की। उन्हें राज्यसभा का सदस्य भी बनाया गया। 1972 में उन्हें सिनेमा के क्षेत्र में योगदान के लिए दादा साहब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया। आज पृथ्वीराज कपूर को गुजरे हुए 38 साल से अधिक वक्त हो चुके हैं। वह 29 मई 1972 को इस दुनिया से चले गए, लेकिन आज भी जब हम उनकी फिल्में देखते हैं, तो यह नहीं लगता कि पृथ्वीराज कपूर हमसे दूर चले गए हैं। 
 (जागरण से साभार)
आज उनकी १०५ वी जयंती के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते है ! 

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