उज्जैन के चर्चित सभरवाल हत्याकांड के छह आरोपियों को बरी करते हुए नागपुर के न्यायाधीश ने जो टिप्पणी की उसका सीधा अर्थ है कि इस मामले में जानबूझकर न्याय नहीं होने दिया गया। ध्यान रहे कि न्यायाधीश ने न केवल यह कहा कि वह गवाहों के मुकरने और सबूतों के अभाव में पीड़ित पक्ष के साथ न्याय कर पाने में असमर्थ हैं, बल्कि यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष ने अपना कर्तव्य सही तरह नहीं निभाया। इसके साथ ही सरकारी वकील भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि मध्य प्रदेश सरकार ने तनिक भी मदद नहीं की। इस सबसे देश में यही संदेश गया कि इस कांड की जांच के नाम पर लीपापोती की गई। यह संदेश आम जनता को व्यथित करने और पुलिस के प्रति उसके भरोसे को डिगाने वाला है। यद्यपि प्रो. एचएस सभरवाल के परिजन नागपुर अदालत के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कह रहे हैं, लेकिन फिलहाल यह कहना कठिन है कि इस मामले में शीर्ष अदालत पीड़ित पक्ष को कोई राहत दे सकेगी या नहीं? इस मामले में न्याय न हो सकने का संदेश सामने आना इसलिए और अधिक पीड़ादायी है, क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने पीड़ित पक्ष को न्याय दिलाने के लिए इस प्रकरण की सुनवाई मध्य प्रदेश से महाराष्ट्र स्थानांतरित की थी। ऐसा लगता है कि ऐसा करते हुए इस पर ध्यान नहीं दिया गया कि जांच तो उस मध्य प्रदेश पुलिस को ही करनी है जिसके रवैये से क्षुब्ध होकर सभरवाल के परिजन सुप्रीम कोर्ट गए और उसने मामले को महाराष्ट्र स्थानांतरित कर दिया। यह मामला इसकी ओर संकेत कर रहा है कि यदि किसी मामले में पुलिस ने अपना काम सही तरह न किया हो तो मुकदमे को दूसरे राज्य में स्थानांतरित करने से भी कुछ हासिल होने वाला नहीं है।
बेहतर होगा कि हमारे नीति-नियंता उन परिस्थितियों पर विचार करें जिनके चलते सभरवाल कांड की सुनवाई करते हुए न्यायाधीश को यह टिप्पणी करनी पड़ी कि आरोपी भले ही दोषी हों, लेकिन साक्ष्य के अभाव में वह उन्हें सजा नहीं दे सकते। चूंकि यह एक प्रोफेसर की कथित हत्या का मामला था और आरोपी एक राजनीतिक दल विशेष से संबद्ध छात्र संगठन के सदस्य थे इसलिए वह मीडिया में जोरदारी से उछला और अंतत: मामले को स्थानांतरित किया गया, लेकिन क्या यह किसी से छिपा है कि इस तरह के न जाने कितने मामले सुर्खियों से दूर होंगे? उनके संदर्भ में देश-दुनिया को यह संदेश भी नहीं जाता होगा कि अमुक-अमुक मामले में न्याय नहीं हुआ। यह भी ध्यान रहे कि सभी इतने समर्थ नहीं होते कि वे पुलिस के रवैये के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सकें। प्रश्न यह है कि ऐसे आम लोगों को न्याय कैसे मिलेगा? बेहतर हो कि इस मामले की नए सिरे से जांच-पड़ताल हो ताकि वस्तुस्थिति सामने आ सके। यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि मध्य प्रदेश सरकार के साथ-साथ अन्य और बहुत से लोगों का मानना है कि छात्रों से हुई झड़प में प्रो. सभरवाल की मौत महज एक हादसा थी। सच क्या है, यह किसी उच्च स्तरीय जांच से ही सामने आ सकता है। यह ठीक नहीं कि इस मामले में राजनीतिक दल दलगत हितों के आधार पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। प्रो. सभरवाल की मौत के लिए कौन दोषी है और कौन नहीं, यह राजनीतिक दल नहीं तय कर सकते। चूंकि यह काम जांच एजेंसियों और न्यायपालिका का है इसलिए उन्हे करने देना चाहिए।
लेकिन महाराज न्यायपालिका और जांच एजेंसियों में भी तो इन्हीं लोगों के चापलूस बैठे हैं या फ़िर उन्हें काम करने की आजादी नहीं है। हम भी इंतजार कर रहे हैं न्याय का, न्यायपालिका से नहीं तो ऊपर वाले से ही सही।
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