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सोमवार, 31 मार्च 2014

बुरा भला ने पूरे किए ५ साल


लो जी आज आप सब का यह ब्लॉग 'बुरा भला' पूरे ५ साल का हो गया है | ३१ मार्च २००९ को युही बनाये इस ब्लॉग को आप सब का भरपूर प्यार मिला ... और आगे भी मिलता रहेगा ... यही आशा है !

तो हो जाए पार्टी ???










अब क्यों कि 'बुरा भला' मेरा सब से पहला ब्लॉग है सो यह भी कहा जा सकते है एक ब्लॉगर के रूप में आज मेरा भी जन्मदिन है ... ;-)

यहाँ इस ब्लॉग की सब से पहली पोस्ट का लिंक दे रहा हूँ :- 
 
वेदना

खुशनसीब हूँ इस ब्लोगिंग के मार्फत ही आप सब से मिलना हुआ ... कुछ बहुत अच्छे दोस्त मिले ... कुछ लोगो से गिले शिकवे भी रहे ... है भी ... और शायद रहे भी ... पर फिर भी ब्लोगिंग बेहद रास आई ... इस मे कोई शक नहीं है !

५ साल कैसे और कब बीत गए पता ही नहीं चला ! ऐसे ही स्नेह बनाएँ रखें यही अनुरोध है !

आपकी और अपनी ओर से ...

हैप्पी बर्थड़े 'बुरा भला' 

शनिवार, 29 मार्च 2014

आज भड़की थी प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की ज्वाला


आज २९ मार्च है ... आज ही के दिन सन १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत मंगल पाण्डेय ने विद्रोह की शुरुआत की थी |
जब गाय व सुअर कि चर्बी लगे कारतूस इस्तमाल मे लेने का आदेश हुआ तब बैरकपुर छावनी में बंगाल नेटिव इन्फैण्ट्री की ३४वीं रेजीमेण्ट में सिपाही मंगल पाण्डेय ने मना करते हुए विरोध जताया इसके परिणाम स्वरूप उनके हथियार छीन लिये जाने व वर्दी उतार लेने का फौजी हुक्म हुआ। 

मंगल पाण्डेय ने उस आदेश को मानने से इनकार कर दिया और २९ मार्च सन् १८५७ को उनकी राइफल छीनने के लिये आगे बढे अंग्रेज अफसर मेजर ह्यूसन पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण करने से पूर्व उन्होंने अपने अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान भी किया था किन्तु कोर्ट मार्शल के डर से जब किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया तो उन्होंने अपनी ही रायफल से उस अंग्रेज अधिकारी मेजर ह्यूसन को मौत के घाट उतार दिया जो उनकी वर्दी उतारने और रायफल छीनने को आगे आया था। 

इसके बाद मंगल पाण्डेय को अंग्रेज सिपाहियों ने पकड लिया। उन पर कोर्ट मार्शल द्वारा मुकदमा चलाकर ६ अप्रैल १८५७ को मौत की सजा सुना दी गयी। कोर्ट मार्शल के अनुसार उन्हें १८ अप्रैल १८५७ को फाँसी दी जानी थी, परन्तु इस निर्णय की प्रतिक्रिया कहीं विकराल रूप न ले ले, इसी कूट रणनीति के तहत क्रूर ब्रिटिश सरकार ने मंगल पाण्डेय को निर्धारित तिथि से दस दिन पूर्व ही ८ अप्रैल सन् १८५७ को फाँसी पर लटका कर मार डाला।

भारत के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इस अग्रदूत अमर शहीद मंगल पाण्डेय जी को हम सब शत शत नमन करते है !!

बुधवार, 26 मार्च 2014

जन्मदिन मुबारक मेरे कार्तिक

कल कार्तिक का ७ वां जन्मदिन था पर पूरे दिन व्यस्त रहने के कारण ब्लॉग पर आना न हो पाया ... खैर कोई बात नहीं ... इतनी भी देर नहीं हुई है कि मैं उसे आप सब के प्यार से वंचित रखूँ |

तो आप सब भी हमारे साथ साथ कार्तिक को अपना स्नेहाशीष दीजिये |


जन्मदिन मुबारक मेरे कार्तिक !!

शनिवार, 15 मार्च 2014

संदीप उन्नीकृष्णन अमर रहे

मेजर संदीप उन्नीकृष्णन (15 मार्च 1977 - 28 नवम्बर 2008)
अशोक चक्र (मरणोपरांत)
 

संदीप उन्नीकृष्णन (15 मार्च 1977 -28 नवम्बर 2008) भारतीय सेना में एक मेजर थे, जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड्स (एनएसजी) के कुलीन विशेष कार्य समूह में काम किया. वे नवम्बर 2008 में मुंबई के हमलों में आतंकवादियों से लड़ते हुए शहीद हुए। उनकी बहादुरी के लिए उन्हें 26 जनवरी 2009 को भारत के सर्वोच्च शांति समय बहादुरी पुरस्कार, अशोक चक्र से सम्मानित किया गया.

"उपर मत आना, मैं उन्हें संभाल लूंगा", ये संभवतया उनके द्वारा अपने साथियों को कहे गए अंतिम शब्द थे, ऐसा कहते कहते ही वे ऑपरेशन ब्लैक टोरनेडो के दौरान मुंबई के ताज होटल के अन्दर सशस्त्र आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो गए.

बाद में, एनएसजी के सूत्रों ने स्पष्ट किया कि जब ऑपरेशन के दौरान एक कमांडो घायल हो गया, मेजर उन्नीकृष्णन ने उसे बाहर निकालने की व्यवस्था की और खुद ही आतंकवादियों से निपटना शुरू कर दिया. आतंकवादी भाग कर होटल की किसी और मंजिल पर चले गए और उनका सामना करते करते मेजर उन्नीकृष्णन गंभीर रूप से घायल हो गए और वीरगति को प्राप्त हुए।

परिवार

संदीप उन्नीकृष्णन बैंगलोर में स्थित एक नायर परिवार से थे, यह परिवार मूल रूप से चेरुवनूर, कोजिकोडे जिला, केरल से आकर बैंगलोर में बस गया था. वे सेवानिवृत्त आईएसआरओ अधिकारी के. उन्नीकृष्णन और धनलक्ष्मी उन्नीकृष्णन के इकलौते पुत्र थे.

बचपन

मेजर उन्नीकृष्णन ने अपने 14 साल फ्रैंक एंथोनी पब्लिक स्कूल, बैंगलोर में बिताये, 1995 में आईएससी विज्ञान विषय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की. वे अपने सहपाठियों के बीच बहुत लोकप्रिय थे, वे सेना में जाना चाहते थे, यहां तक कि क्र्यू कट में भी स्कूल जरूर जाते थे. एक अच्छे एथलीट (खिलाडी) होने के कारण, वे स्कूल की गतिविधियों और खेल के आयोजनों में बहुत सक्रिय रूप से हिस्सा लेते थे. उनके अधिकांश एथलेटिक रिकॉर्ड, उनके स्कूल छोड़ने के कई साल बाद तक भी टूट नहीं पाए. अपनी ऑरकुट प्रोफाइल में उन्होंने अपने आप को फिल्मों के लिए पागल बताया.

कम उम्र से ही साहस के प्रदर्शन के अलावा उनका एक नर्म पक्ष भी था, वे अपने स्कूल के संगीत समूह के सदस्य भी थे.

सेना कैरियर

संदीप 1995 में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (National Defence Academy) (एनडीए) में शामिल हो गए. वे एक कैडेट थे, ओस्कर स्क्वाड्रन (नंबर 4 बटालियन) का हिस्सा थे और एनडीए के 94 वें कोर्स के स्नातक थे. उन्होंने कला (सामाजिक विज्ञान विषय) में स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी.

उनके एनडीए के मित्र उन्हें एक "निः स्वार्थ", "उदार" और "शांत व सुगठित" व्यक्ति के रूप में याद करते हैं.

उनके खुश मिजाज़ चेहरे पर एक दृढ और सख्त सैनिक का मुखौटा स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था, इसी तरह से उनके पतली काया के पीछे एक सुदृढ़, कभी भी हार ना मानने वाली एक भावना छिपी थी, इन गुणों को एनडीए में आयोजित कई प्रशिक्षण शिविरों और देश के बाहर होने वाली प्रतिस्पर्धाओं में देखा गया, जिनमें उन्होंने हिस्सा लिया था.

उन्हें 12 जुलाई 1999 को बिहार रेजिमेंट (इन्फेंट्री) की सातवीं बटालियन का लेफ्टिनेंट आयुक्त किया गया. हमलों और चुनौतियों का सामना करने के लिए दो बार उन्हें जम्मू और कश्मीर तथा राजस्थान में कई स्थानों पर भारतीय सेना में नियुक्त किया, इसके बाद उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड्स में शामिल होने के लिए चयनित किया गया. प्रशिक्षण के पूरा होने पर, उन्हें जनवरी 2007 में एनएसजी का विशेष कार्य समूह (एसएजी) सौंपा गया और उन्होंने एनएसजी के कई ऑपरेशन्स में भाग लिया.

वे एक लोकप्रिय अधिकारी थे, जिन्हें उनके वरिष्ठ और कनिष्ठ दोनों ही पसंद करते थे. सेना के सबसे कठिन कोर्स, 'घातक कोर्स' (कमांडो विंग (इन्फैंट्री स्कूल), बेलगाम में) के दौरान वे शीर्ष स्थान पर रहे, उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारीयों से "प्रशिक्षक ग्रेडिंग" और प्रशस्ति अर्जित की. संभवतया यही कारण था या बहादुरी के लिए उनका जुनून था कि उन्होंने एनएसजी कमांडो सेवा को चुना, जिसमें वे 2006 में प्रतिनियुक्ति पर शामिल हुए थे.

जुलाई 1999 में ऑपरेशन विजय के दौरान पाकिस्तानी सैन्य दलों के द्वारा भारी तोपों के हमलों और छोटी बमबारी के जवाब में उन्होंने आगे की पोस्ट्स में तैनात रहते हुए धैर्य और दृढ संकल्प का प्रदर्शन किया.

31 दिसंबर 1999 की शाम को, मेजर संदीप ने छह सैनिकों एक टीम का नेतृत्व किया और शत्रु से 200 मीटर की दूरी पर एक पोस्ट बना ली. इस दौरान वे शत्रु के प्रत्यक्ष प्रेक्षण और आग के चलते काम कर रहे थे.

ऑपरेशन ब्लैक टोरनेडो

26 नवम्बर 2008 की रात, दक्षिणी मुंबई की कई प्रतिष्ठित इमारतों पर आतंकवादियों ने हमला किया. इनमें से एक इमारत जहां आतंकवादियों ने लोगों को बंधक बना लिया, वह 100 साल पुराना ताज महल पेलेस होटल था.

ताज महल होटल के इस ऑपरेशन में मेजर उन्नीकृष्णन को 51 तैनात एसएजी का टीम कमांडर नियुक्त किया गया, ताकि इमारत को आतंकवादियों से छुड़ाया जा सके और बंधकों को बचाया जा सके. उन्होंने 10 कमांडो के एक समूह में होटल में प्रवेश किया और सीढियों से होते हुए छठी मंजिल पर पहुंच गए. सीढियों से होकर निकलते समय, उन्होंने पाया कि तीसरी मंजिल पर आतंकवादी हैं. आतंकवादियों ने कुछ महिलाओं को एक कमरे में बंधक बना लिया था और इस कमरे को अन्दर से बंद कर लिया था. दरवाजे को तोड़ कर खोला गया, इसके बाद आतंकवादियों ने एक राउंड गोलीबारी की जिसमें कमांडो सुनील यादव घायल हो गए. वे मेजर उन्नीकृष्णन के प्रमुख सहयोगी थे.

मेजर उन्नीकृष्णन ने सामने से टीम का नेतृत्व किया और आतंकवादियों के साथ उनकी भयंकर मुठभेड़ हुई. उन्होंने सुनील यादव को बाहर निकालने की व्यवस्था की और अपनी सुरक्षा को ताक पर रखकर आतंकवादियों का पीछा किया, इसी दौरान आतंकवादी होटल की किसी और मंजिल पर चले गए, और इस दौरान संदीप निरंतर उनका पीछा करते रहे. इसके बाद हुई मुठभेड़ में उन्हें पीछे से गोली लगी, वे गंभीर रूप से घायल हो गए और अंत में चोटों के सामने झुक गए.

अंतिम संस्कार

उन्नीकृष्णन के अंतिम संस्कार में, शोक में लिप्त लोगों ने जोर जोर से चिल्ला कर कहा "लॉन्ग लाइव् मेजर उन्नीकृष्णन", "संदीप उन्नीकृष्णन अमर रहे". हजारों लोग एनएसजी कमांडो मेजर उन्नीकृष्णन के बैंगलोर के घर के बाहर खड़े होकर उन्हें श्रद्धांजली दे रहे थे. मेजर संदीप उन्नीकृष्णन का अंतिम संस्कार पूरे सैनिक सम्मान के साथ किया गया.



आज अमर शहीद संदीप उन्नीकृष्णन की ३७ वीं जयंती के अवसर पर हम उनको शत शत नमन करते है |

जय हिन्द !!!

जय हिन्द की सेना !!!

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

होली हित मे जारी

होली हित मे जारी 


आप मे से जिस किसी भी सज्जन के पास श्री गब्बर सिंह जी का फोन नंबर हो ... कृपया उन्हें बता दें कि इस साल होली १६ और १७ मार्च को खेली जाएगी|
 
इस जानकारी के आभाव मे उन जैसा होली प्रेमी नाहक परेशान हो रहा है|

गुरुवार, 13 मार्च 2014

१३ मार्च १९४० को लिया गया था जलियाँवाला नरसंहार का बदला

आज १३ मार्च है ... आज ही के दिन सन १९४० मे अमर शहीद ऊधम सिंह जी ने लंदन मे माइकल ओडवायर को मौत के घाट उतार कर जलियाँवाला नरसंहार का बदला लिया था !


लोगों में आम धारणा है कि ऊधम सिंह ने जनरल डायर को मारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया था, लेकिन भारत के इस सपूत ने डायर को नहीं, बल्कि माइकल ओडवायर को मारा था जो अमृतसर में बैसाखी के दिन हुए नरसंहार के समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था।
ओडवायर के आदेश पर ही जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में सभा कर रहे निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई थीं। ऊधम सिंह इस घटना के लिए ओडवायर को जिम्मेदार मानते थे।
26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में जन्मे ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी, जिसे उन्होंने अपने सैकड़ों देशवासियों की सामूहिक हत्या के 21 साल बाद खुद अंग्रेजों के घर में जाकर पूरा किया।
इतिहासकार डा. सर्वदानंदन के अनुसार ऊधम सिंह सर्वधर्म समभाव के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आजाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है।
ऊधम सिंह अनाथ थे। सन 1901 में ऊधम सिंह की माता और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया। इस घटना के चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी।
ऊधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था, जिन्हें अनाथालय में क्रमश: ऊधम सिंह और साधु सिंह के रूप में नए नाम मिले।
अनाथालय में ऊधम सिंह की जिंदगी चल ही रही थी कि 1917 में उनके बड़े भाई का भी देहांत हो गया और वह दुनिया में एकदम अकेले रह गए। 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।
डा. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी तथा रोलट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियांवाला बाग में लोगों ने 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा रखी जिसमें ऊधम सिंह लोगों को पानी पिलाने का काम कर रहे थे।
माइकल ओडवायर

ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर
इस सभा से तिलमिलाए पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडवायर ने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर को आदेश दिया कि वह भारतीयों को सबक सिखा दे। इस पर जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग को घेर लिया और मशीनगनों से अंधाधुंध गोलीबारी कर दी, जिसमें सैकड़ों भारतीय मारे गए।
जान बचाने के लिए बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएं में छलांग लगा दी। बाग में लगी पट्टिका पर लिखा है कि 120 शव तो सिर्फ कुएं से ही मिले।
आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या 379 बताई गई, जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए थे। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या 1500 से अधिक थी, जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डाक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से अधिक थी। राजनीतिक कारणों से जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों की सही संख्या कभी सामने नहीं आ पाई।
इस घटना से वीर ऊधम सिंह तिलमिला गए और उन्होंने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओडवायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली। ऊधम सिंह अपने काम को अंजाम देने के उद्देश्य से 1934 में लंदन पहुंचे। वहां उन्होंने एक कार और एक रिवाल्वर खरीदी तथा उचित समय का इंतजार करने लगे।
गिरफ्तारी के तुरंत बाद का चित्र 
भारत के इस योद्धा को जिस मौके का इंतजार था, वह उन्हें 13 मार्च 1940 को उस समय मिला, जब माइकल ओडवायर लंदन के काक्सटन हाल में एक सभा में शामिल होने के लिए गया।
ऊधम सिंह ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवाल्वर के आकार में काटा और उनमें रिवाल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए। सभा के अंत में मोर्चा संभालकर उन्होंने ओडवायर को निशाना बनाकर गोलियां दागनी शुरू कर दीं।
ओडवायर को दो गोलियां लगीं और वह वहीं ढेर हो गया। अदालत में ऊधम सिंह से पूछा गया कि जब उनके पास और भी गोलियां बचीं थीं, तो उन्होंने उस महिला को गोली क्यों नहीं मारी जिसने उन्हें पकड़ा था। इस पर ऊधम सिंह ने जवाब दिया कि हां ऐसा कर मैं भाग सकता था, लेकिन भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है।
31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में ऊधम सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया जिसे उन्होंने हंसते हंसते स्वीकार कर लिया। ऊधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते। 31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने ऊधम सिंह के अवशेष भारत को सौंप दिए। ओडवायर को जहां ऊधम सिंह ने गोली से उड़ा दिया, वहीं जनरल डायर कई तरह की बीमारियों से घिर कर तड़प तड़प कर बुरी मौत मारा गया।
भारत माँ के इस सच्चे सपूत को हमारा शत शत नमन |

इंकलाब ज़िंदाबाद !!!

बुधवार, 5 मार्च 2014

अम्मा ... हैप्पी बर्थड़े !!

पिछले दिनों अम्मा की एक पुरानी तस्वीर मिली आज उनके जन्मदिन पर वही सांझा कर रहा हूँ |


हैप्पी बर्थड़े ... अम्मा !!

सोमवार, 3 मार्च 2014

जमशेदजी टाटा की १७५ वीं जयंती पर विशेष

जमशेदजी टाटा (३ मार्च, १८३९ - १९ मई, १९०४) ) भारत के महान उद्योगपति तथा विश्वप्रसिद्ध औद्योगिक घराने टाटा समूह के संस्थापक थे।

आरम्भिक जीवन

उनका जन्म सन १८३९ में गुजरात के एक छोटे से कस्बे नवसेरी में हुआ थाउनके पिता जी का नाम नुसीरवानजी था व उनकी माता जी का नाम जीवनबाई टाटा था । पारसी पादरियों के अपने खानदान में नुसीरवानजी पहले व्यवसायी थे । भाग्य उन्हें बंबई ले आया जहाँ उन्होने व्यवसाय ( धंधे ) में कदम रखा । जमशेदजी 14 साल की नाज़ुक उम्र में ही उनका साथ देने लगे । जमशेदजी ने एल्फिंस्टन कालेज (Elphinstone College) में प्रवेश लिया और अपनी पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने हीरा बाई दबू से विवाह कर लिया था । वे 1858 में स्नातक हुए और अपने पिता के व्यवसाय से पूरी तरह जुड़ गए।

उद्योग का आरम्भ

वह दौर बहुत कठिन था। अंग्रेज अत्यंत बर्बरता से 1857 कि क्रान्ति को कुचलने में सफल हुए थे। 29 साल ककी आयु तक जमशेदजी अपने पिता जी के साथ ही काम करते रहे । 1868 में उन्होने 21000 रुपयों के साथ अपना खुद का व्यवसाय शुरू किया । सबसे पहले उन्होने एक दिवालिया तेल कारखाना ख़रीदा और उसे एक रुई के कारखाने में तब्दील कर दिया और उसका नाम बदल कर रखा - एलेक्जेंडर मिल (Alexender Mill) ! दो साल बाद उन्होने इसे खासे मुनाफे के साथ बेच दिया । इस पैसे के साथ उन्होंने नागपुर में 1874 में एक रुई का कारखाना लगाया । महारानी विक्टोरिया ने उन्ही दिनों भारत की रानी का खिताब हासिल किया था और जमशेदजी ने भी वक़्त को समझते हुए कारखाने का नाम इम्प्रेस्स मिल ( Empress Mill ) (Empress का मतलब ‘महारानी’ ) रखा ।

महान दूरदर्शी

जमशेदजी एक अलग ही व्यक्तित्व के मालिक थे । उन्होंने ना केवल कपड़ा बनाने के नए नए तरीक़े ही अपनाए बल्कि अपने कारखाने में काम करने वाले श्रमिकों का भी खूब ध्यान रखा। उनके भले के लिए जमशेदजी ने अनेक नई व बेहतर श्रम-नीतियाँ अपनाई । इस नज़र से भी वे अपने समय से कहीँ आगे थे । सफलता को कभी केवल अपनी जागीर नही समझा , बल्कि उनके लिए उनकी सफलता उन सब की थी जो उनके लिए काम करते थे। जमशेद जी के अनेक राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी नेताओं से नजदीकी संबंध थे , इन में प्रमुख थे , दादाभाई नौरोजी और फिरोजशाह मेहता । जमशेदजी पर और उनकी सोच पर इनका काफी प्रभाव था।
उनका मानना था कि आर्थिक स्वतंत्रता ही राजनीतिक स्वतंत्रता का आधार है। जमशेद जी के दिमाग में तीन बडे विचार थे - एक , अपनी लोहा व स्टील कंपनी खोलना ; दूसरा, एक जगत प्रसिद्ध अध्ययन केंद्र स्थापित करना ; व तीसरा , एक जलविद्युत परियोजना (Hydro-electric plant) लगाना । दुर्भाग्यवश उनके जीवन काल में तीनों में से कोई भी सपना पूरा ना हो सका । पर वे बीज तो बो ही चुके थे, एक ऐसा बीज जिसकी जड़ें उनकी आने वाली पीढ़ी ने अनेक देशों में फैलायीं । जो एक मात्र सपना वे पूरा होता देख सके वह था - होटल ताज महल । यह दिसंबर 1903 में 4,21,00,000 रुपये के शाही खर्च से तैयार हुआ । इसमे भी उन्होने अपनी राष्ट्रवादी सोच को दिखाया था । उन दिनों स्थानीय भारतीयों को बेहतरीन यूरोपियन होटलों में घुसने नही दिया जाता था । ताजमहल होटल इस दमनकारी नीति का करारा जवाब था ।
1904 में जर्मनी में उन्होने अपनी अन्तिम सांस ली ।

भारत के औद्योगिक विकास में योगदान

भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में जमशेदजी का योग असाधारण महत्व रखता है। इन्होंने भारतीय औद्योगिक विकास का मार्ग ऐसे समय में प्रशस्त किया जब उस दिशा में केबल यूरोपीय, विशेषत: अंग्रेज, ही कुशल समझे जाते थे। इंग्लैड की प्रथम यात्रा से लौटकर इन्होंने चिंचपोकली के एक तेल मिल को कताई बुनाई मिल में परिवर्तित कर औद्योगिक जीवन का सूत्रपात किया। किंतु अपनी इस सफलता से उन्हें पूर्ण संतोष न मिला। पुन: इंग्लैंड की यात्रा की। वहाँ लंकाशायर के से बारीक वस्त्र की उत्पादनविधि और उसके लिए उपयुक्त जलवायु का अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने नागपुर को चुना और वहाँ वातानुकूलित सूत मिलों की स्थापना की। इस तरह लंकाशायर का जलवायु कृत्रिम साधनों से नागपुर की मिलों में उपस्थित कर दिया।
औद्योगिक विकास कार्यों में जमशेदजी यहीं नहीं रुके। देश के सफल औद्योगीकरण के लिए उन्होंने इस्पात कारखानों की स्थापना की महत्वपूर्ण योजना बनाई। ऐसे स्थानों की खोज की जहाँ लोहे की खदानों के साथ कोयला और पानी सुविधा से प्राप्त हो सके। अंतत: आपने बिहार के जंगलों में सिंहभूमि जिले में वह स्थान (इस्पात की दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त) खोज निकाला।
जमशेद जी की अन्य बड़ी उल्लेखनीय योजनाओं में पश्चिमी घाटों के तीव्र धाराप्रपातों से बिजली उत्पन्न करनेवाला विशाल उद्योग है जिसकी नींव ८ फरवरी, १९११ को लानौली में गवर्नर द्वारा रखी गई। इससे बंबई की समूची विद्युत् आवश्यकताओं की पूर्ति होने लगी।
इन विशाल योजनाओं को कार्यान्वित करने के साथ ही टाटा ने पर्यटकों की सुविधा के लिए बंबई में ताजमहल होटल खड़ा किया जो पूरे एशिया में अपने ढंग का अकेला है।
सफल औद्योगिक और व्यापारी होने के अतिरिक्त सर जमशेदजी उदार चित्त के व्यक्ति थे। वे औद्योगिक क्रांति के अभिशाप से परिचित थे और उसके कुपरिणामों से अपने देशवासियों, विशेषत: मिल मजदूरों को बचाना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने मिलों की चहारदीवारी के बाहर उनके लिए पुस्तकालयों, पार्कों, आदि की व्यवस्था के साथ-साथ दवा आदि की सुविधा भी उन्हें प्रदान की।


भारत के महान दूरदर्शी  उद्योगपति जमशेदजी टाटा को उनकी १७५ वीं जयंती पर शत शत नमन |

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