भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता से भाग लेने वाले राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन अपने उदार चरित्र और सादगीपूर्ण जीवन के लिए विख्यात थे तथा हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलवाने में उनकी भूमिका को काफी महत्वपूर्ण माना जाता है।
सामाजिक जीवन में टंडन के महत्वपूर्ण योगदान के कारण उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से 1961 में सम्मानित किया गया। टंडन के व्यक्तित्व का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष उनका विधाई जीवन था, जिसमें वह आजादी के पूर्व एक दशक से अधिक समय तक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष रहे। वह संविधान सभा, लोकसभा और राज्यसभा के भी सदस्य रहे। राजधानी में श्री पुरुषोत्तम हिंदी भवन न्यास समिति के मंत्री डा. गोविंद व्यास ने टंडन का उल्लेख करते हुए कहा कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलवाने में उनकी भूमिका को देश कभी नहीं भुला सकता।
वह हिंदी के प्रबल पक्षधर थे और उन्होंने हमेशा हिंदी को आगे बढ़ाने के लिए भरपूर प्रयास किए। व्यास ने कहा कि राजर्षि के व्यक्तित्व का सबसे आकर्षक पक्ष उनका सादगीपूर्ण जीवन था। बताते हैं कि जब वह विधानसभा अध्यक्ष थे और उनके कार्यालय में जब उनके पौत्र उनसे मिलने आते थे तो वह बच्चों को अपने पैन और होल्डर का भी इस्तेमाल नहीं करने देते थे क्योंकि वह सरकारी कलम था। व्यास ने कहा कि टंडन कांग्रेस पार्टी में भी काफी लोकप्रिय नेता थे। 1950 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव में उन्होंने आचार्य कृपलानी को हराया था। हालांकि कृपलानी की उम्मीदवारी का प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू समर्थन कर रहे थे।
व्यास बताते हैं कि कृपलानी के हारने के बाद नेहरू ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे तक की पेशकश कर डाली, लेकिन राजर्षि ने, जिन्हें नेहरू अपना बड़ा भाई कहते थे, उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा कि देश को आपकी सेवाओं की बेहद जरूरत है। इलाहाबाद में एक अगस्त 1882 को जन्मे टंडन ने इतिहास से एमए और कानून की डिग्री ली। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपने दौर के प्रसिद्ध वकील तेज बहादुर सप्रू के जूनियर के रूप में 1908 में वकालत का करियर शुरू किया। बाद में 1921 में उन्होंने वकालत छोड़ दी। टंडन छात्र जीवन से ही कांग्रेस से जुड़ गए थे। उन्हें असहयोग आंदोलन और नमक सत्याग्रह आंदोलन के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया था।
उन्होंने 1948 में पट्टाभी सीतारमैया के खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। बाद में 1950 में उन्हें इस पद पर सफलता मिली। उन्होंने 31 जुलाई 1937 से 10 अगस्त 1950 तक उत्तर प्रदेश विधानसभा में रहते एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। उन्होंने यह घोषणा की कि सदन का यदि एक भी सदस्य यह कह देगा कि उसे अध्यक्ष पर भरोसा नहीं है तो वह यह पद छोड़ देंगे। एक दशक से अधिक समय तक यह पद संभालने के दौरान उनके समक्ष यह नौबत कभी नहीं आई।
टंडन 1946 में संविधान सभा के सदस्य चुने गए। वह 1952 में लोकसभा और 1956 में राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए। कहा जाता है कि वह संसद सदस्य के रूप में मिलने वाले भत्ते नहीं लेते थे और उसे जन सेवा कोष में जमा करवा देते थे। महात्मा गांधी के अनुयाई होने के बावजूद हिंदी के मामले में वह बापू के विचारों से भी सहमत नहीं हुए। महात्मा गांधी और नेहरू राष्ट्र भाषा के नाम पर हिंदी उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी भाषा के पक्षधर थे जिसे देवनागरी और फारसी दोनों लिपि में लिखा जा सके, लेकिन टंडन ने इस मामले में हिंदी और देवनागरी लिपि का समर्थन करते हुए हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। टंडन के सादगीपूर्ण जीवन का यह आलम था कि वह रबर की चप्पल पहनते थे और चीनी की जगह खांड का प्रयोग करते थे। उनकी सादा जीवन और उच्च विचारों वाली जीवनशैली के कारण लोगों ने उन्हें राजर्षि की उपाधि प्रदान की थी।
rajrshi tandon ki punya smritiko mera vineet pranaam pahunche.
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