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शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

लिवाली की बयार में झूमी दलाल स्ट्रीट


बेहतर कारपोरेट कमाई व ग्लोबल बाजारों में तेजी के दम पर दलाल स्ट्रीट दूसरे दिन भी झूमती रही। विदेशी फंडों के लिवाली समर्थन से बंबई शेयर बाजार [बीएसई] का सेंसेक्स शुक्रवार को 282.35 अंक यानी 1.83 फीसदी की छलांग लगाकर 13 माह के उच्चतम पर पहुंच गया। यह बाजार बंद होने के समय 15670.31 पर था। इससे पहले यह सूचकांक 17 जून, 08 को इस ऊंचाई पर था। एक दिन पहले यह 15387.96 अंक पर बंद हुआ था।

इसी प्रकार नेशनल स्टाक एक्सचेंज का निफ्टी भी 65 अंक यानी 1.42 फीसदी उछलकर 4636.45 पर बंद हुआ। गुरुवार को यह 4571.45 अंक पर था।

चालू वित्त वर्ष 2009-10 की पहली तिमाही के दौरान अधिकतर कंपनियों के बेहतर नतीजों ने निवेशकों के बीच यह उम्मीद जगा दी है कि यह साल कारपोरेट जगत के लिए बढि़या रहेगा। एक दिन पहले भारतीय स्टेट बैंक और आटो कंपनी महिंद्रा एंड महिंद्रा ने अच्छे नतीजे घोषित किए हैं। गुरुवार को विदेशी फंडों ने दलाल स्ट्रीट में शेयरों की जमकर खरीद कर बाजार धारणा को ऊपर उठा दिया। बीएसई का 30 शेयरों वाला सेंसेक्स विदेशी बाजारों में मजबूती देखते हुए बढ़त के साथ 15449.47 अंक पर खुला। भारी लिवाली के बल पर यह एक समय सत्र के उच्चतम स्तर 15732.81 अंक तक भी पहुंचा। मुनाफावसूली के चलते नीचे में यह 15449.47 अंक तक लुढ़का। कारोबार की समाप्ति के आखिरी आधा घंटे में फिर से लिवाली का जोर बढ़ने से सेंसेक्स 13 माह के उच्चतम स्तर पर बंद हुआ। निफ्टी ने भी सत्र के दौरान ऊंचे में 4669.75 अंक का स्तर छुआ।

आयल एंड गैस, एफएमसीजी, बैंकिंग और आईटी कंपनियों के शेयरों को बीएसई में ताजा लिवाली का सबसे ज्यादा फायदा मिला। मेटल सूचकांक में भी मजबूती रही, हालांकि रीयल एस्टेट वर्ग के सूचकांक को गिरावट का सामना करना पड़ा। सेंसेक्स की 30 कंपनियों में 23 के शेयर ऊपर चढ़े, जबकि 7 के दाम नीचे उतरे। इस दिन बीएसई में कुल कारोबार 6292.49 करोड़ रुपये रहा।

अब इतिहास के पन्ने भी झूठे होंगे


ढूंढ़ते रह जाओगे.! अगर कहीं इतिहास की किताब में पढ़कर आपके अंदर निजामुद्दीन के पास तीन गुम्बदों वाली दरगाह देखने की इच्छा जाग गई, या फिर सरकार की संरक्षित सूची में शामिल लखनऊ का अमीनुद्दीन इमामबाड़ा कहा है, यह जानने की कोशिश की।

यही नहीं, इनके साथ-साथ संरक्षित घोषित देश के 35 प्रमुख ऐतिहासिक स्मारक विलुप्त हो चुके हैं। अब उनका नामोनिशान नहीं है। होटल, मॉल, घर, सड़क जैसी सुख सुविधाएं पहले और राष्ट्रीय धरोहर सबसे बाद। संस्कृति को लेकर गौरवान्वित रहे भारत में लोगों की शायद अब यही मनोदशा है। साक्ष्य सामने है। विकास, शहरीकरण और व्यवसायीकरण की दौड़ में 35 ऐतिहासिक स्मारक विलुप्त हो चुके हैं। आश्चर्य की बात यह है कि यह सब केंद्रीय सरकार की संरक्षित सूची में थे। फिर भी उनकी देखभाल न हो सकी। नींद तब टूटी जब असम के तिनसुकिया में बादशाह शेरशाह की गन न मिली और लखनऊ के अमीनुद्दीन इमामबाड़े की एक छाप तक न दिखी। इसकी एक-एक ईट गायब हो चुकी है। बृहस्पतिवार को संसद में खुद सरकार ने इस हकीकत को स्वीकार किया है।

दीवाली तक रोशन होगा डीएसई


करीब सात वर्ष से सूने पड़े दिल्ली शेयर बाजार [डीएसई] को इस साल दीवाली तक फिर गुलजार करने की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं। डीएसई को शुरूआत में रोजाना 500 करोड़ रुपये का कारोबार होने की उम्मीद है।

शेयर बाजार को फिर सक्रिय करने पर अब तक करीब 15 करोड़ रुपये खर्च कर चुके डीएसई के अधिकारियों का दावा है कि इस बार कारोबार शुरू करने की घोषणा 'हवाई' साबित नहीं होगी। डीएसई के कार्यकारी निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी [सीईओ] एच एस सिद्धू ने कहा कि डीएसई में कारोबार दोबारा शुरू करने का काम तेजी से चल रहा है। हमें पूरा भरोसा है कि अक्टूबर के मध्य तक डीएसई में एक बार फिर कारोबार होने लगेगा। उल्लेखनीय है कि कारोबार नगण्य रह जाने के कारण 2002 में डीएसई में कारोबार बंद कर दिया गया था। इस बीच डीएसई को शुरू करने की चर्चाएं कई बार हुईं, लेकिन योजनाएं कामयाब नहीं हुईं।

सिद्धू ने कहा कि हम दोबारा कारोबार शुरू करने के लिए हाल के महीनों में 15 करोड़ रुपये का निवेश कर चुके हैं, हमारे लिए धन की कोई समस्या नहीं है। डीएसई ने नए सूचना प्रौद्योगिकी हार्डवेयर के लिए आईबीएम और साफ्टवेयर के लिए फाइनेंशियल टेक्नालाजी के साथ करार किए है। उन्होंने बताया कि डीएसई के पास नकदी और बैंकों में जमा रकम 80 करोड़ रुपये के आसपास है। डीएसई ने सदस्यता मुहिम भी शुरू की हुई है। एक्सचेंज में अभी 360 ब्रोकर सदस्य हैं और कुछ डिपाजिट बेस्ड ब्रोकर बनाने की योजना है।

डिपाजिट बेस्ड ब्रोकर से 5,00,000 लाख रुपये का शुल्क लिया जाएगा। सिद्धू ने कहा कि अभी तक हमें डिपाजिट बेस्ड ट्रेडिंग मेंबरशिप' [जमा आधारित ट्रेडिंग सदस्यता] के लिए 60 आवेदन मिल चुके हैं। हम ऐसे 150 डिपाजिट बेस ब्रोकरों को जोड़ना चाहते हैं। दिल्ली स्टाक एक्सचेंज के पूर्व चेयरमैन अशोक अग्रवाल ने कहा कि डीएसई में कारोबार फिर से शुरू करने के जो प्रयास किए जा रहे हैं, वह अच्छा संकेत है।

उन्होंने कहा कि कई कंपनियां ऐसी हैं, जो सिर्फ डीएसई में ही सूचीबद्ध हैं। डीएसई में कारोबार शुरू होने के बाद इन कंपनियों के निवेशकों को भी 'लिक्विडिटी' [लेन-देन की सहूलियत] मिलेगी। इस समय डीएसई में सूचीबद्ध कंपनियों की संख्या 2,800 से ज्यादा है। सिद्धू ने कहा कि हम क्षेत्रीय शेयर बाजारों को भी जोड़ने जा रहे हैं, जिससे वहां सूचीबद्ध कंपनियां डीएसई में भी ट्रेडिंग कर सकें। उन्होंने बताया कि इस बारे में हमारी लुधियाना, इंदौर, अहमदाबाद और जयपुर के स्टाक एक्सचेंजों से बातचीत हो चुकी है। कुछ अन्य क्षेत्रीय एक्सचेंजों से बात की जा रही है। डीएसई के सीईओ का कहना है कि दोबारा कारोबार शुरू होने पर हमने पहले छह माह तक यहां रोजाना 500 करोड़ रुपये के कारोबार का लक्ष्य रखा है, जिसके एक साल में बढ़कर एक हजार करोड़ रुपये प्रतिदिन तक पहुंच जाने की उम्मीद है।

सिद्धू ने उम्मीद जताई कि तीन साल में डीएसई में रोजाना 3,000 करोड़ रुपये का लेन-देन होने लगेगा। डीएसई को उम्मीद है कि उसके यहां कारोबार फिर शुरू हो जाने के बाद उत्तर भारत के शेयर कारोबारी उसकी ओर रुख करेंगे।

सादगीपूर्ण जीवन के लिए विख्यात थे राजर्षि टंडन


भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता से भाग लेने वाले राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन अपने उदार चरित्र और सादगीपूर्ण जीवन के लिए विख्यात थे तथा हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलवाने में उनकी भूमिका को काफी महत्वपूर्ण माना जाता है।

सामाजिक जीवन में टंडन के महत्वपूर्ण योगदान के कारण उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से 1961 में सम्मानित किया गया। टंडन के व्यक्तित्व का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष उनका विधाई जीवन था, जिसमें वह आजादी के पूर्व एक दशक से अधिक समय तक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष रहे। वह संविधान सभा, लोकसभा और राज्यसभा के भी सदस्य रहे। राजधानी में श्री पुरुषोत्तम हिंदी भवन न्यास समिति के मंत्री डा. गोविंद व्यास ने टंडन का उल्लेख करते हुए कहा कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलवाने में उनकी भूमिका को देश कभी नहीं भुला सकता।

वह हिंदी के प्रबल पक्षधर थे और उन्होंने हमेशा हिंदी को आगे बढ़ाने के लिए भरपूर प्रयास किए। व्यास ने कहा कि राजर्षि के व्यक्तित्व का सबसे आकर्षक पक्ष उनका सादगीपूर्ण जीवन था। बताते हैं कि जब वह विधानसभा अध्यक्ष थे और उनके कार्यालय में जब उनके पौत्र उनसे मिलने आते थे तो वह बच्चों को अपने पैन और होल्डर का भी इस्तेमाल नहीं करने देते थे क्योंकि वह सरकारी कलम था। व्यास ने कहा कि टंडन कांग्रेस पार्टी में भी काफी लोकप्रिय नेता थे। 1950 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव में उन्होंने आचार्य कृपलानी को हराया था। हालांकि कृपलानी की उम्मीदवारी का प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू समर्थन कर रहे थे।

व्यास बताते हैं कि कृपलानी के हारने के बाद नेहरू ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे तक की पेशकश कर डाली, लेकिन राजर्षि ने, जिन्हें नेहरू अपना बड़ा भाई कहते थे, उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा कि देश को आपकी सेवाओं की बेहद जरूरत है। इलाहाबाद में एक अगस्त 1882 को जन्मे टंडन ने इतिहास से एमए और कानून की डिग्री ली। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपने दौर के प्रसिद्ध वकील तेज बहादुर सप्रू के जूनियर के रूप में 1908 में वकालत का करियर शुरू किया। बाद में 1921 में उन्होंने वकालत छोड़ दी। टंडन छात्र जीवन से ही कांग्रेस से जुड़ गए थे। उन्हें असहयोग आंदोलन और नमक सत्याग्रह आंदोलन के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया था।

उन्होंने 1948 में पट्टाभी सीतारमैया के खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। बाद में 1950 में उन्हें इस पद पर सफलता मिली। उन्होंने 31 जुलाई 1937 से 10 अगस्त 1950 तक उत्तर प्रदेश विधानसभा में रहते एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। उन्होंने यह घोषणा की कि सदन का यदि एक भी सदस्य यह कह देगा कि उसे अध्यक्ष पर भरोसा नहीं है तो वह यह पद छोड़ देंगे। एक दशक से अधिक समय तक यह पद संभालने के दौरान उनके समक्ष यह नौबत कभी नहीं आई।

टंडन 1946 में संविधान सभा के सदस्य चुने गए। वह 1952 में लोकसभा और 1956 में राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए। कहा जाता है कि वह संसद सदस्य के रूप में मिलने वाले भत्ते नहीं लेते थे और उसे जन सेवा कोष में जमा करवा देते थे। महात्मा गांधी के अनुयाई होने के बावजूद हिंदी के मामले में वह बापू के विचारों से भी सहमत नहीं हुए। महात्मा गांधी और नेहरू राष्ट्र भाषा के नाम पर हिंदी उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी भाषा के पक्षधर थे जिसे देवनागरी और फारसी दोनों लिपि में लिखा जा सके, लेकिन टंडन ने इस मामले में हिंदी और देवनागरी लिपि का समर्थन करते हुए हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। टंडन के सादगीपूर्ण जीवन का यह आलम था कि वह रबर की चप्पल पहनते थे और चीनी की जगह खांड का प्रयोग करते थे। उनकी सादा जीवन और उच्च विचारों वाली जीवनशैली के कारण लोगों ने उन्हें राजर्षि की उपाधि प्रदान की थी।

जम्मू-कश्मीर असेंबली में 'सच का सामना' ....शर्मसार कर दिया माननीयों ने!


वैसे तो राजनीति के कई रंग देखने को मिलते रहते हैं लेकिन इस समय घाटी में जो घटिया राजनीति हो रही है निश्चित ही उसने राजनीति को ही शर्मसार कर दिया है। पहले लीडर अपोजिशन महबूबा मुफ्ती द्वारा जम्मू-कश्मीर असेंबली के स्पीकर का माइक छीनना। दूसरे दिन सीएम उमर अब्दुल्ला पर सेक्स स्केंडल में शामिल होने के आरोप लगाना और अब एक दूसरे की निजी जिंदगियों पर कीचड़ उछालना इस बात को साफ दर्शाता है कि इन माननीयों को हाउस की मर्यादा का कोई भी खयाल नहीं है। बृहस्पतिवार को हाउस में बेहद निजी और आपत्तिजनक सवाल पूंछे जाने पर पीडीपी लीडर मुजफ्फर अली बेग बौखला उठे, तो उमर ने सेक्स स्केंडल केस में फॉर्मर सीएम मुफ्ती मोहम्मद सईद का नाम खींचकर उसे और गरमा दिया। असेंबली में बेग से ऐसे-ऐसे सवाल पूछे गए की, जिसे सुनकर कान लाल हो जाए।

उमर पर सेक्स स्केंडल में शामिल होने के आरोपों से तिलमिलाई नेशनल कांफ्रेंस ने पीडीपी लीडर मुजफ्फर अली बेग पर पलटवार किया है। नेशनल कांफ्रेंस ने बेग के करेक्टर पर सवाल उठाएं हैं और उनसे बेहद निजी सवाल पूछे हैं। नेशनल कांफ्रेंस के एमएलए नजीर अहमद गुराजी ने असेंबली के स्पीकर को सवालों का एक पुलिंदा सौंपा, जिसे स्पीकर ने पढ़कर सुनाया और मुजफ्फर बेग से इसका जवाब देने को कहा। बेग ने इन सवालों के पेपर को फाड़ दिया और उसे हवा में फेंक दिया।

आखिर ऐसे कौन से सवाल हैं, जिन पर बेग साहब को इतना गुस्सा आया? चलिए डालते हैं सवालों पर एक नजर-

- क्या यह सही है कि दिल्ली में आपके न्यू फ्रेंड्स कालोनी वाले घर में देश के जाने माने जर्नलिस्ट की विडो दो साल तक रहीं? इस दौरान आप दोनों का रिलेशन हसबैंड-वाइफ की तरह रहा?

- क्या यह सही नहीं है कि आपके और उस महिला के बीच रिलेशंस में तब दरार आने लगी, जब आपकी नजर उनकी बेटी पर भी पड़ने लगी?

- क्या यह सही है कि आप राजबाग के जंगलों के पट्टेदार की विडो से मिलने दिल्ली में बाराखंभा रोड स्थित सूरी अपार्टमेंट जाते थे?

- क्या यह सही है कि जब आप वकालत करते थे तब एक फॉर्मर जस्टिस की बेटी आपके साथ बारामूला में दो महीने रही थीं?

- क्या आपके दिल्ली के एक सिनेमाहॉल मालिक की सिस्टर से इललीगल रिलेशन नहीं थे? क्या आप दिल्ली में उनके दरियागंज स्थित रेजीडेंस के थर्ड फ्लोर पर उनके साथ नहीं ठहरे थे?

- क्या यह सही नहीं है कि आपने अपनी भतीजी को छह साल तक अपने संग रखा और उससे सेक्स रिलेशन बनाए?

इन सवालों को देखने से साफ है कि घाटी में राजनीति दिनों दिन घटिया होती जा रही है, लेकिन ऐसा लग रहा है कि आने वाले दिनों में दोनों पक्ष एक दूसरे पर इसी तरह हमला करते रहेंगे।

सही मायने में लोकमान्य थे बाल गंगाधर तिलक (२३/०७/१८५६ - ०१/०८/१९२०)



'स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, और हम इसे लेकर रहेंगे' का नारा देकर देश में स्वराज की अलख जगाने वाले बाल गंगाधर तिलक उदारवादी हिन्दुत्व के पैरोकार होने के बावजूद कट्टरपंथी माने जाने वाले लोगों के भी आदर्श थे। धार्मिक परम्पराओं को एक स्थान विशेष से उठाकर राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने की अनोखी कोशिश करने वाले तिलक सही मायने में 'लोकमान्य' थे।

एक स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, शिक्षक और विचारक के रूप में देश को आजादी की दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले तिलक ने कांग्रेस को सभाओं और सम्मेलनों के कमरों से निकाल कर जनता तक पहुंचाया था।

हिन्दुत्ववादी विचारक और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व रणनीतिकार गोविन्दाचार्य ने कहा कि तिलक का उदारवादी हिन्दुत्व दरअसल अध्यात्म पर आधारित था और यही उनकी विचारधारा की विशेषता थी। गोविन्दाचार्य ने कहा कि तिलक के हिन्दुत्व के मर्म को उनकी किताब 'गीता रहस्य' का अध्ययन करके समझा जा सकता है। उन्होंने कहा कि उनके स्वराज के नारे और सभी को साथ लेकर चलने की इच्छा ने उन्हें उदारवादी और कट्टरपंथीकहे जाने वाले लोगों में समान रूप से लोकप्रिय बनाया।

महात्मा गांधी तिलक के विचारों से बेहद प्रभावित थे और गांधी के विचार तिलक की सोच का अगला चरण माने जाते हैं जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को आकार दिया था। तिलक बातचीत और विचार-विमर्श को देश की राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने का सबसे अच्छा जरिया मानते थे।

प्रख्यात समाजसेवी और लेखक सुभाष गताडे ने तिलक के व्यक्तित्व के बारे में कहा कि वर्ष 1850 में गठित कांग्रेस की गतिविधियां शुरुआत में काफी वर्षों तक सिर्फ सभाओं और सम्मेलनों तक ही सीमित रही थीं लेकिन तिलक ने उसे जनता से जोड़ने की पहल की। गताडे ने कहा कि जब वर्ष 1908 में तिलक को अपने अखबार 'केसरी' में क्रांतिकारियों के समर्थन में लिखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था तो मजदूरों ने जोरदार आंदोलन किया था जिसकी वजह से पूरा मुंबई कई दिन तक बंद रहा था।

उन्होंने बताया कि लोकमान्य तिलक ने कांग्रेस को जन-जन तक पहुंचाया। उन्होंने उदारवादियों के साथ-साथ कट्टरपंथियों का भी समर्थन हासिल किया था। वह राजनीतिक स्तर पर उग्र जबकि सामाजिक सतह पर पुराने मूल्यों को प्रति संरक्षणवादी व्यक्ति थे यही वजह है कि उन्हें नरम और गरम दोनों ही तरह के व्यक्तित्व के लोगों ने अपनाया था।

तिलक द्वारा महाराष्ट्र में गणेश पूजा का चलन शुरू किए जाने पर गोविन्दाचार्य ने कहा कि तिलक का स्पष्ट मत था कि धार्मिक परम्पराओं को किसी स्थान विशेष तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचाना जाना चाहिए।

गताडे ने इस बारे में कहा कि तिलक गणेश पूजा के जरिए हिन्दू चेतना का मूल्यांकन करना चाहते थे। वह न सिर्फ अगड़ी जाति बल्कि पिछड़े वर्ग के लोगों में भी धर्म के प्रति नई चेतना जगाने के इच्छुक थे। वर्ष 1890 में कांग्रेस में शामिल हुए तिलक ने पार्टी के खांटी उदारवादी रवैए का विरोध किया। वह गोपाल कृष्ण गोखले के नरम रुख और विचारों के विरोधी थे। वर्ष 1907 में कांग्रेस के सूरत सम्मेलन के दौरान पार्टी में गरम दल तथा नरम दल के रूप में दो गुट बने और तिलक गरम दल के नेता बन गए।

वर्ष 1908 में मिली छह साल की कैद की सजा काटने के बाद लौटे तिलक ने पार्टी के दोनों गुटों को एकजुट करने की कोशिश की। गताडे ने बताया कि तिलक को महसूस हुआ कि दोनों धड़ों की कलह से कांग्रेस की विचारधारा कमजोर हो रही है लिहाजा उन्होंने अंग्रेजों को इसका फायदा नहीं लेने देने और विचारधारा को मजबूत करने के लिए दोनों गुटों को एकजुट करने की कोशिश की थी।

तेइस जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि में मराठी चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्मे बाल गंगाधर तिलक कॉलेज में शिक्षा हासिल करने वाले भारतीयों की पहली पीढ़ी के सदस्य थे। उन्होंने भारतीय शिक्षण प्रणाली में सुधार के लिए डेक्कन एजुकेशन सोसायटी का गठन किया था। बकौल गोविन्दाचार्य, तिलक ने नेशनल स्कूलिंग में भारतीयता का खास ख्याल रखा था। स्वतंत्र भारत में एक संघीय सरकार के गठन की हसरत लिए तिलक का एक अगस्त 1920 को निधन हो गया।

भारत माँ के इस सच्चे सपूत को सभी मैनपुरी वासीयों का शत शत नमन |

१५० वी पोस्ट :- अरुचिकर राजनीति


मुख्यमंत्री पद पुन: संभालने की राज्यपाल की सलाह पर उमर अब्दुल्ला का निर्णय कुछ भी हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पीडीपी का उद्देश्य सेक्स स्कैंडल की सच्चाई सामने लाना नहीं, बल्कि अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ पूरे करना है। आखिर यह एक तथ्य है कि जम्मू-कश्मीर को शर्मसार करने वाला यह कांड उस समय घटा जब शासन की बागडोर पीडीपी के हाथों में थी। इस दल को सबसे पहले यह बताना चाहिए कि उसकी नाक के नीचे ऐसा जघन्य कृत्य क्यों हुआ? इस संदर्भ में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस सेक्स स्कैंडल में तत्कालीन राज्य सरकार के मंत्री और अनेक वरिष्ठ अधिकारी भी शामिल थे। क्या यह विचित्र नहीं कि पीडीपी सरकार ने अपने स्तर पर इस घृणित कांड की जांच कराना भी जरूरी नहीं समझा था और अब वह सीबीआई की कथित जांच का हवाला देकर आम जनता को गुमराह करने में लगी है। वस्तुत: यह एक और उदाहरण है जिससे इस आशंका को बल ही मिलता है कि पीडीपी अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थो को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है-यहां तक कि वह अलगाववाद को हवा देने और झूठ का सहारा लेने के लिए भी तैयार है। विधानसभा चुनावों के उपरांत सत्ता की दौड़ से बाहर हो जाने के बाद पीडीपी के नेता हरसंभव तरीके से कानून एवं व्यवस्था के समक्ष संकट खड़ा करने और इसके लिए लोगों को भड़काने की ही कोशिश कर रहे हैं। इस बात के संकेत लगातार सामने आ रहे हैं कि पीडीपी के नेताओं की ओर से अलगाववाद को भड़काने के साथ-साथ राजनीतिक अस्थिरता का माहौल पैदा करने की भी कोशिश की जा रही है।

यह निराशाजनक है कि राज्य सरकार पीडीपी के इरादों से परिचित होने के बावजूद अपेक्षित कदम नहीं उठा पा रही है। यह संभव है कि पीडीपी के आरोपों से आहत होकर त्यागपत्र देने से उमर अब्दुल्ला को व्यक्तिगत तौर पर कोई राजनीतिक लाभ हुआ हो, लेकिन कुल मिलाकर उनका यह कदम पलायनवादी ही नजर आया। विपक्षी दलों के लांछन से आहत जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के लिए यही उचित है कि वह राज्यपाल एनएन वोहरा की इस सलाह पर अमल करें कि उनके इस्तीफे का कोई कारण नहीं है और वह राज्य की बागडोर संभालें। यदि वह अपने त्यागपत्र पर अड़े रहते हैं तो इससे व्यक्तिगत तौर पर भले ही उन्हें कोई राजनीतिक लाभ प्राप्त हो जाए, राज्य की जनता को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। मौजूदा समय यह कहीं अधिक आवश्यक है कि जम्मू-कश्मीर की बागडोर किसी सक्षम राजनेता के हाथों में हो। यदि उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री पद छोड़ने पर अड़े रहते हैं तो फिर बेहतर होगा कि वह वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण करने में सहायक बनें, क्योंकि उनके खिलाफ लगे आरोपों की आनन-फानन में जांच होना संभव नहीं। एक तो राज्यपाल के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं जिससे वह मुख्य विपक्षी दल पीडीपी के आरोपों की रातों-रात जांच करा सकें और यदि किसी जतन से वह ऐसा करा भी लेते हैं तो पीडीपी नेताओं के उस पर भरोसा करने की कहीं कोई संभावना नहीं।

खतरे की आहट

उत्तर प्रदेश में सूखाग्रस्त 47 जिलों के संदर्भ में यह जो सामने आया कि उनमें से 33 जिलों में जल के अति दोहन के कारण सिंचाई तो दूर जनता को पेयजल की किल्लत का सामना करना पड़ सकता है वह एक प्रकार से करेला और वह भी नीम चढ़ा वाली कहावत को चरितार्थ करता है, क्योंकि यदि अगले कुछ दिनों में बारिश नहीं होती है तो सूखे का संकट और अधिक बढ़ना तय है। चूंकि इन जिलों में अति दोहन के कारण भूमिगत जल का स्तर और अधिक नीचे चला गया है इसलिए सरकारी तंत्र के लिए सिंचाई और पेयजल संकट दूर करना मुश्किल हो सकता है। राज्य सरकार को इस स्थिति से अवगत होना ही चाहिए था कि किन हिस्सों में भूमिगत जल स्तर गिरता चला जा रहा है? यदि शासन-प्रशासन की ओर से इस संदर्भ में समय रहते कारगर कदम उठाए गए होते तो अवर्षण की स्थिति में भी सूखे के संकट को और अधिक गंभीर होने से रोका जा सकता था। यह निराशाजनक है कि कुछ हिस्सों में भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन की प्रवृत्ति से परिचित होने के बावजूद ऐसे कदम नहीं उठाए गए जिनसे भूमिगत जल स्तर को और अधिक नीचे जाने से रोका जा सकता। यह आश्चर्यजनक है कि न तो अति दोहन को रोकने के उपाय किए गए और न ही वर्षा जल के संचयन और संरक्षण की दिशा में ठोस काम किया गया। यह सही समय है जब राज्य सरकार को भूमिगत जल स्तर को रोकने के लिए युद्ध स्तर पर कोई कार्रवाई आरंभ करनी चाहिए, अन्यथा आने वाले समय में सूखे के संकट का सामना करना और अधिक दुष्कर हो सकता है। इसके साथ ही इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कि नलकूपों की संख्या लगातार क्यों बढ़ती जा रही है? इस तथ्य से परिचित होने के बाद कि नलकूपों की भूमिगत जल स्तर गिराने में मुख्य भूमिका है, ऐसे प्रयास किए ही जाने चाहिए कि नलकूपों की संख्या घटे और सिंचाई के लिए उनके विकल्प की मदद ली जाए। इसी के साथ ही राज्य सरकार को इस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि जो सिंचाई परियोजनाएं लंबे समय से लंबित हों वे यथाशीघ्र पूरी हों। आवश्यक तो यह है कि सूखे से प्रभावित जिलों में ही नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश में भूमिगत जल के स्तर को सुधारने के उपाय किए जाएं।

श्रेय की सियासत

बेहतर कार्यो का श्रेय स्वयं लेने और गलतियों का दोषारोपण दूसरे पर करने की हमारी आदत सी बन गई है। कोई भी क्षेत्र हो, हर जगह यही नजर आ रहा है। हरिद्वार में वर्ष 2010 में आयोजित किये जाने वाले महाकुंभ को ही लीजिये, इसकी तैयारियां चल रही हैं। कुछ योजनाओं पर काम चल रहा है, कुछ का खाका तैयार किया जा रहा है और कुछ विचाराधीन हैं। विडंबना यह कि इस आयोजन की तैयारियों पर जितना ध्यान देना चाहिए, उतना ध्यान दिया नहीं जा रहा है, लेकिन कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच इस बात को लेकर सियासी तूफान खड़ा कर दिया गया है कि कौन सी योजनाएं किस पार्टी की सरकार की सहायता से संचालित की जा रही हैं। कांग्रेस सरकार ने इसके लिए कितना योगदान किया है और भारतीय जनता पार्टी की सरकार कितना योगदान कर रही है। कौन सी योजना किस पार्टी की मदद से संचालित की जा रही है। होड़ की इस राजनीति के चलते महाकुंभ मेले के लिए स्थायी प्रकृति के जो अनिवार्य कार्य हैं, वे तक अभी शुरू नहीं हो पाये हैं। यह स्थिति न केवल दुखद है बल्कि चिंतनीय भी। वस्तुत: पहले तो कार्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पृथक उत्तराखंड राज्य का यह पहला महाकुंभ होगा। हरिद्वार की भौगोलिक स्थिति से सभी वाकिफ हैं। तीर्थनगरी में स्थान सीमित है। कुंभ मेले में करोड़ों श्रद्धालुओं के आने का अनुमान है। इनके लिए व्यवस्थाएं तो करनी ही होंगी। व्यवस्था में थोड़ी सी भी खामी स्थिति को गंभीर बना सकती है। देश में अन्य स्थानों पर पहले हुए कई धार्मिक आयोजनों में जरा सी चूक भगदड़ जैसी स्थिति उत्पन्न कर चुकी है और इसका खामियाजा श्रद्धालुओं को भुगतना पड़ा है। प्रयास यह होना चाहिए कि महाकुंभ आयोजन सकुशल निपटे और श्रद्धालु यहां की व्यवस्थाओं के बारे में अच्छा अनुभव लेकर जाएं। भाजपा और कांग्रेस, दोनों ही पार्टियों को इस आयोजन को लेकर चल रही होड़ लेने की सियासत पर यहीं विराम लगा देना चाहिए। उन्हें सर्वप्रथम इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि महाकुंभ आयोजन की सभी योजनाओं पर तत्काल कार्य शुरू हो और समय से पहले ही संपन्न हो ताकि अनुमानित आपात स्थिति के लिए भी सक्षम तैयारी की जा सके। दोनों ही पार्टियों को पहले काम पर ध्यान देना चाहिए। श्रेय लेने की राजनीति बाद में भी की जा सकती है।

बंदरगाह में सड़ गई लाखों टन दाल

आसमान छूती कीमतों के कारण दालें आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रही हैं। इस बीच, यह जानकारी सामने आ रही है कि कोलकाता के खिदिरपुर बंदरगाह में लाखों टन दाल सड़ गई। यह मामला गुरुवार को देश की संसद में भी उठा।

भाजपा सांसद कलराज मिश्र ने शून्यकाल के दौरान राज्यसभा में यह मामला उठाते हुए कहा, 'देश भर में उपभोक्ता वस्तुओं, खाद्य वस्तुओं, सब्जियों और विशेषकर दालों के दाम आसमान छू रहे हैं। दाल की कीमतें 100 रुपये किलो तक पहुंच गई हैं। तीन साल पहले सरकार ने अंतरराष्ट्रीय बाजार से 15 लाख टन दाल आयात की, जो कोलकाता के खिदिरपुर बंदरगाह पर उतरी। लेकिन, सरकार की अनदेखी के चलते दाल की यह समूची खेप बंदरगाह पर ही सड़ गई।'

उन्होंने बताया कि मामले की भनक लगने पर जब पत्रकार मौके पर गए तो उन्हें नाक पर रूमाल रखना पड़ा क्योंकि बारिश का पानी पड़ने से दाल सड़ गई थी। मिश्र ने इसे प्रशासनिक उदासीनता करार देते हुए कहा, 'आम आदमी की बात करने वाली सरकार सिर्फ आडंबर करती है। उसे आम आदमी की जिंदगी से कुछ लेना-देना नहीं। सरकार जनता के साथ विश्वासघात कर रही है।' उन्होंने मामले की जांच कराकर दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की सरकार से मांग की।

होरी को हीरो बनाने वाले रचनाकार :- प्रेमचंद



वाराणसी शहर से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर लमही गांव में अंग्रेजों के राज में 1880 में पैदा हुए मुंशी प्रेमचंद न सिर्फ हिंदी साहित्य के सबसे महान कहानीकार माने जाते हैं, बल्कि देश की आजादी की लड़ाई में भी उन्होंने अपने लेखन से नई जान फूंक दी थी। प्रेमचंद का मूल नाम धनपत राय था।

वाराणसी शहर से दूर 129 वर्ष पहले कायस्थ, दलित, मुस्लिम और ब्राह्माणों की मिली जुली आबादी वाले इस गांव में पैदा हुए मुंशी प्रेमचंद ने सबसे पहले जब अपने ही एक बुजुर्ग रिश्तेदार के बारे में कुछ लिखा और उस लेखन का उन्होंने गहरा प्रभाव देखा तो तभी उन्होंने निश्चय कर लिया कि वह लेखक बनेंगे।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र के प्रोफेसर वीरभारत तलवार ने बताया कि मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य को निश्चय ही एक नया मोड़ दिया और हिंदी में कथा साहित्य को उत्कर्ष पर पहुंचा दिया। प्रेमचंद ने यह सिद्ध कर दिया कि वर्तमान युग में कथा के माध्यम की सबसे अधिक उपयोगिता है। उन्होंने हिंदी की ओजस्विनी वाणी को आगे बढ़ाना अपना प्रथम कर्तव्य समझा, इसलिए उन्होंने नई बौद्धिक जन परंपरा को जन्म दिया।

प्रेमचंद ने जब उर्दू साहित्य छोड़कर हिंदी साहित्य में पदार्पण किया तो उस समय हिंदी भाषा और साहित्य पर बांग्ला साहित्य का प्रभाव छा रहा था। हिंदी को विस्तृत चिंतन भूमि तो मिल गई थी, पर उसका स्वत्व खो रहा था। देश विदेश में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ रही है तथा आलोचकों के अनुसार उनके साहित्य का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि वह अपने साहित्य में ग्रामीण जीवन की तमाम दारुण परिस्थितियों को चित्रित करने के बावजूद मानवीयता की अलख को जगाए रखते हैं। साहित्य समीक्षकों के अनुसार प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में कृषि प्रधान समाज, जाति प्रथा, महाजनी व्यवस्था, रूढि़वाद की जो गहरी समझ देखने को मिलती है, उसका कारण ऐसी बहुत सी परिस्थितियों से प्रेमचंद का स्वयं गुजरना था।

प्रेमचंद के जीवन का एक बड़ा हिस्सा घोर निर्धनता में गुजरा था। कहानीकार एवं अलीगढ़ के धर्म समाज कालेज के हिंदी विभागाध्यक्ष डा. वेद प्रकाश अमिताभ के अनुसार प्रेमचंद की कलम में कितनी ताकत है, इसका पता इसी बात से चलता है कि उन्होंने होरी को हीरो बना दिया। होरी ग्रामीण परिवेश का एक हारा हुआ चरित्र है, लेकिन प्रेमचंद की नजरों ने उसके भीतर विलक्षण मानवीय गुणों को खोज लिया। अमिताभ के अनुसार प्रेमचंद का मानवीय दृष्टिकोण अद्भुत था। वह समाज से विभिन्न चरित्र उठाते थे। मनुष्य ही नहीं पशु तक उनके पात्र होते थे। उन्होंने हीरा मोती में दो बैलों की जोड़ी, आत्माराम में तोते को पात्र बनाया। गोदान की कथाभूमि में गाय तो है ही। अमिताभ ने कहा कि प्रेमचंद ने अपने साहित्य में खोखले यथार्थवाद को प्रश्रय नहीं दिया। प्रेमचंद के खुद के शब्दों में वह आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद के प्रबल समर्थक हैं। उनके साहित्य में मानवीय समाज की तमाम समस्याएं हैं तो उनके समाधान भी हैं।

वरिष्ठ लेखक एवं कवि धनंजय सिंह के अनुसार प्रेमचंद का लेखन ग्रामीण जीवन के प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में इसलिए सामने आता है क्योंकि इन परिस्थितियों से वह स्वयं गुजरे थे। अन्याय, अत्याचार, दमन, शोषण आदि का प्रबल विरोध करते हुए भी वह समन्वय के पक्षपाती थे। सिंह ने कहा कि प्रेमचंद अपने साहित्य में संघर्ष की बजाय विचारों के जरिए परिवर्तन की पैरवी करते हैं। उनके दृष्टिकोण में आदमी को विचारों के जरिए संतुष्ट करके उसका हृदय परिवर्तित किया जा सकता है। इस मामले में वह गांधी दर्शन के ज्यादा करीब दिखाई देते हैं। लेखन के अलावा उन्होंने मर्यादा, माधुरी, जागरण और हंस पत्रिकाओं का संपादन भी किया।

प्रेमचंद के शुरूआती उपन्यासों में रूठी रानी, कृष्णा, वरदान, प्रतिज्ञा और सेवासदन शामिल है। कहा जाता है कि सरस्वती के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी से मिली प्रेरणा के कारण उन्होने हिन्दी उपन्यास सेवासदन लिखा था। बाद में उनके उपन्यास प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कर्मभूमि और गोदान छपा। गोदान प्रेमचंद का सबसे परिपक्व उपन्यास माना जाता है। उनका अंतिम उपन्यास मंगलसूत्र अपूर्ण रहा। समीक्षकों के अनुसार प्रेमचंद की सर्जनात्मक प्रतिभा उनकी कहानियों में कहीं बेहतर ढंग से उभरकर सामने आई है।

उन्होंने 300 से अधिक कहानियां लिखी। प्रेमचंद की नमक का दरोगा, ईदगाह, पंच परमेश्वर, बड़े भाई साहब, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी और कफन जैसी कहानियां आज विश्व साहित्य का हिस्सा बन चुकी हैं। प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य में आते ही हिंदी की सहज गंभीरता और विशालता को भाव-बाहुल्य और व्यक्ति विलक्षणता से उबारने का दृढ़ संकल्प लिया। जहां तक रीति-काल की मांसल श्रृंगारिता के प्रति विद्रोह करने की बात थी प्रेमचंद अपने युग के साथ थे पर इसके साथ ही साहित्य में शिष्ट और ग्राम्य के नाम पर जो नई दीवार बन रही थी, उस दीवार को ढहाने में ही उन्होंने हिंदी का कल्याण समझा। हिंदी भाषा रंगीन होने के साथ-साथ दुरूह, कृत्रिम और पराई होने लगी थी। चिंतन भी कोमल होने के नाम पर जन अकांक्षाओं से विलग हो चुका था। हिंदी वाणी को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने एक नई बौद्धिक जन परम्परा को जन्म दिया।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के हिंदी के विद्वान मैनेजर पांडेय कहते हैं कि यदि देवकीनंदन खत्री और किशोरी लाल गोस्वामी ने अपने तिलिस्मी और रोमांचकारी उपन्यासों द्वारा हिंदी के पाठक बढ़ाए तो प्रेमचंद ने हिंदी के कथा सहित्य को उत्कर्ष सीमा पर पहुंचा दिया और सिद्ध कर दिया कि इस युग में कथा के माध्यम की सबसे अधिक उपयोगिता है। लमही में प्रेमचंद के गांव में उनके जन्मस्थल पर लोक पुस्तकालय चला रहे सुरेशचंद्र दूबे ने बताया कि हिंदी साहित्य में और विशेषकर दलितों के लिए प्रेमचंद ने जो कुछ किया है वह अनोखा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक आने वाली सरकार ने उनके साहित्य और उनकी सोच को समाज में आगे बढ़ाने के लिए कुछ खास नहीं किया। उन्होंने कहा कि विशेष कर दलितों की मसीहा बनने वाली वर्तमान सरकार ने तो उनके जन्मस्थल और साहित्य दोनों की घोर उपेक्षा की है जो उसे शोभा नहीं देता।

गांव के ही मुन्नू पटेल कहते हैं कि उनके गांव में प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से अधिक पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने कार्य किए और प्रेमचंद जैसे साहित्यकार की याद में उनके स्मारक को कम से कम वर्तमान स्वरूप प्रदान किया। मैनेजर पांडेय कहते हैं कि हिंदी साहित्य में कहानी के क्षेत्र में भले ही प्रेमचंद के साथ दूसरों के भी नाम गिनाए जा सकते हैं, लेकिन उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद का स्थान अभी तक मूर्धन्य बना हुआ है। उनकी कला का उत्कर्ष जब सचमुच पूर्णता को प्राप्त हुआ और वे सूक्ष्म अन्तर्मन में बैठकर मानव मन को छूने लगे तभी अचानक वह दुनिया से चल बसे, इसलिए जितना वह कहानी साहित्य को दे सकते थे, उतना नहीं दे पाए। प्रेमचंद ने कुल लगभग दो सौ कहानियां लिखी हैं। उनकी कहानियों का वातावरण बुन्देलखंडी वीरतापूर्ण कहानियों तथा ऐतिहासिक कहानियों को छोड़कर वर्तमान देहात और नगर के निम्न मध्यवर्ग का है। उनकी कहानियों में वातावरण का बहुत ही सजीव और यथार्थ अंकन मिलता है। जितना आत्मविभोर होकर प्रेमचंद ने देहात के पा‌र्श्वचित्र लिए हैं उतना शायद ही दूसरा कोई भी कहानीकार ले सका हो। इस चित्रण में उनके गांव लमही और पूर्वाचल की मिट्टी की महक साफ परिलक्षित होती है। तलवार कहते हैं कि प्रेमचंद की कहानियां सद्गति, दूध का दाम, ठाकुर का कुआं, पूस की रात, गुल्ली डंडा, बड़े भाई साहब आदि सहज ही लोगों के मन मस्तिष्क पर छा जाती हैं और इनका हिंदी साहित्य में जोड़ नहीं है।

उन्होंने कहा कि प्रेमचंद्र से बड़ा कहानीकार हिंदी साहित्य में दूसरा कोई नहीं हुआ। इसके अलावा देश की स्वाधीनता के लिए भी उन्होंने अनेक झकझोरने वाली कहानियां लिखीं और स्वयं एक पत्र में लिखा कि मेरे जीवन का उद्देश्य यह है कि देश की आजादी की लड़ाई के लिए साहित्य लेखन करूं। कहानीकार के अलावा प्रेमचंद आलोचक, नाटककार, निबंधकार, संपादक और अनुवादक भी थे। आलोचना के माध्यम से उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के अपनी मान्यताओं को सामने रखा है। उनके नाटक 'संग्राम' और 'कर्बला' हैं।

प्रेमचंद की अनुवाद कृतियों में सृष्टि का आरंभ [बर्नार्ड शा], टालस्टाय की कहानियां, सुखदास [जार्ज इलियट का साइलस मानर], अहंकार [अनातोले फ्रांस कृत थाया], चांदी की डिबिया, न्याय, हड़ताल [तीनों गाल्सवादी के नाटकों के अनुवाद] और आजाद कथा [रतननाथ सरशार] आदि शामिल हैं। मैनेजर पांडेय और सुरेशचंद्र दूबे मानते हैं कि निम्न-मध्यवर्ग के कुलीन कायस्थ अजायबलाल के पुत्र प्रेमचंद के जीवन की लगभग अंतिम मानी जाने वाली कहानी 'कफन' ने तो हिंदी कहानी की दिशा ही बदल दी।

हिंदी साहित्य के सबसे महान कहानीकार को सभी मैनपुरी वासीयों का शत शत नमन |

इंडिया में बजेगा, इंग्लिस्तान तक गूंजेगा नगाड़ा


फिर से मंचों पर बहर-ए-तबील पर गायन के साथ कड़ ड़ ड़ ड़ ड़ गम का नगाड़ा गूंजेगा। विश्व धरोहर घोषित कनपुरिया नौटंकी पुनर्जीवित हो रही है। विदेशों में धूम मचा रही है। कानपुर में इस पर अगस्त में अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार होगा।

द्विअर्थी संवाद, उश्रृंखलता व अश्लीलता के कारण आम-ओ-खास के बीच से गायब हुई नौटंकी को यूनेस्को ने विशेष नाट्य विधा बता विश्व धरोहर घोषित किया है। तभी से हलचल शुरू हुई। 1920 में अलग रूप में जन्मी इस कला को 1932 में कानपुर में ही 'नौटंकी' नाम मिला और पहली महिला कलाकार गुलाब बाई कानपुर की ही थीं। नौटंकी शादी विवाह की रात घरों में महिलाओं द्वारा खेले जाने वाले स्वांग 'नकटौरा' से निकल कर कानपुर में स्थापित हुई, इसलिए इसके पुनर्जीवन का जिम्मा भी कानपुर ही संभालने जा रहा है। परिवर्तन व टाई यूपी संस्थाओं से जुड़े अनिल गुप्ता, मनोज अग्रवाल, गोपाल सूतवाला, राजीव भाटिया, आईएम रोहतगी व इतिहासकार प्रो. एसपी सिंह ने इसकी पहल की है।

अगस्त में शहर में 'नौटंकी विधा: कानपुर की परंपरा व विरासत' विषय पर अंतरराष्ट्रीय सेमिनार होगा। नौटंकी 'दहीवाली' का मंचन होगा जिसमें गुलाब बाई की पुत्रियां आशा व मधु भी भागीदारी करेंगी।

सात समंदर पार पहुंचा नगाड़ा

देश में प्रोत्साहन व संरक्षण को मोहताज नौटंकी की प्राणवायु रहीं गुलाबबाई ने जब पहली बार 1996 में नौटंकी [कंपनी गुलाब थिएट्रिकल] को त्रिनिडाड-टोबैगो रवाना किया तो विश्वास नहीं था कि यह विदेशों में लोकप्रिय होगी। अब विदेशों में इस पर शोध हो रहे हैं। अमेरिका के ओहायो विश्वविद्यालय में शोधकर्ता देवेंद्र शर्मा ने नौटंकी पर शोध में 'कार्निवाल थ्योरी' में लिखा कि नौटंकी से अधिनायकवाद के प्रति भड़ास निकालने अथवा दबी कुचली भावनाओं व कुंठाओं को सार्वजनिक करने का सहारा मिलता है।

क्राइस्ट चर्च कालेज के इतिहास प्रोफेसर एसपी सिंह कहते हैं कि कानपुर व हाथरस विधाओं की नौटंकी पर शोध का सबसे बड़ा नाम कोलंबिया विश्वविद्यालय की कैथरीन हैंसन का है। उन्होंने अपने शोध ग्राउंड फॉर प्ले: दि नौटंकी थियेटर ऑफ नार्थ इंडिया में नौटंकी के जन्म व कानपुर में हुए विकास का विस्तार से वर्णन किया है।

लोक कलाओं पर शोधकर्ता अवधेश मिश्र के मुताबिक और भी कई देशों में शोध हुए। इनमें शिकागो विश्वविद्यालय के एल्फ हिल्फवेले दि कल्ट ऑफ द्रौपदी [1988], टेक्सास विश्वविद्यालय के एमोस बेन डेन का फोकलेन जेनेर [1976], हवाई विश्वविद्यालय के लिएंडर डेरियस स्वान का थ्रीफार्म ऑफ ट्रेडिशनल थियेटर ऑफ उत्तर प्रदेश, नार्थ इंडिया [1992] आदि हैं।

फ्यूजन से लेकर सिनेमा तक नक्कारा

नौंटंकी दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर व मुंबई पृथ्वी थियेटर से होती हुई बड़े देशों के रंगमंच पर पहुंची। इसे संभव किया दिल्ली विश्वविद्यालय के देवेंद्र शर्मा व मुंबई की पूर्वा नरेश ने। डा. एसपी सिंह कहते हैं कि पूर्वा नरेश ने नौटंकी के समय भेद को लांघा। फिल्म मुझे जीने दो का प्रसिद्ध दादरा गीत 'नदी नारे न जाओ श्याम पैंयां परूं' गुलाब बाई की नौंटंकी की स्थायी प्रस्तुति थी जिसका 1940 के दशक में प्रयोग हुआ। अब फ्यूजन के चलते नौटंकी में दृश्य व श्रृव्य माध्यमों के कई प्रयोग हो रहे हैं।

गुरुवार, 30 जुलाई 2009

जनरल डायर को नहीं , ओडवायर को मारा था ऊधम सिंह ने


लोगों में आम धारणा है कि ऊधम सिंह ने जनरल डायर को मारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया था, लेकिन भारत के इस सपूत ने डायर को नहीं, बल्कि माइकल ओडवायर को मारा था जो अमृतसर में बैसाखी के दिन हुए नरसंहार के समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था।

ओडवायर के आदेश पर ही जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में सभा कर रहे निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई थीं। ऊधम सिंह इस घटना के लिए ओडवायर को जिम्मेदार मानते थे।

26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में जन्मे ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी, जिसे उन्होंने अपने सैकड़ों देशवासियों की सामूहिक हत्या के 21 साल बाद खुद अंग्रेजों के घर में जाकर पूरा किया।

इतिहासकार डा. सर्वदानंदन के अनुसार ऊधम सिंह सर्वधर्म समभाव के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आजाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है।

ऊधम सिंह अनाथ थे। सन 1901 में ऊधम सिंह की माता और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया। इस घटना के चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी।

ऊधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था, जिन्हें अनाथालय में क्रमश: ऊधम सिंह और साधु सिंह के रूप में नए नाम मिले।

अनाथालय में ऊधम सिंह की जिंदगी चल ही रही थी कि 1917 में उनके बड़े भाई का भी देहांत हो गया और वह दुनिया में एकदम अकेले रह गए। 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।

डा. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी तथा रोलट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियांवाला बाग में लोगों ने 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा रखी जिसमें ऊधम सिंह लोगों को पानी पिलाने का काम कर रहे थे।

इस सभा से तिलमिलाए पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडवायर ने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर को आदेश दिया कि वह भारतीयों को सबक सिखा दे। इस पर जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग को घेर लिया और मशीनगनों से अंधाधुंध गोलीबारी कर दी, जिसमें सैकड़ों भारतीय मारे गए।

जान बचाने के लिए बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएं में छलांग लगा दी। बाग में लगी पट्टिका पर लिखा है कि 120 शव तो सिर्फ कुएं से ही मिले।

आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या 379 बताई गई, जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए थे। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या 1500 से अधिक थी, जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डाक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से अधिक थी। राजनीतिक कारणों से जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों की सही संख्या कभी सामने नहीं आ पाई।

इस घटना से वीर ऊधम सिंह तिलमिला गए और उन्होंने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओडवायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली। ऊधम सिंह अपने काम को अंजाम देने के उद्देश्य से 1934 में लंदन पहुंचे। वहां उन्होंने एक कार और एक रिवाल्वर खरीदी तथा उचित समय का इंतजार करने लगे।

भारत के इस योद्धा को जिस मौके का इंतजार था, वह उन्हें 13 मार्च 1940 को उस समय मिला, जब माइकल ओडवायर लंदन के काक्सटन हाल में एक सभा में शामिल होने के लिए गया।

ऊधम सिंह ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवाल्वर के आकार में काटा और उनमें रिवाल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए। सभा के अंत में मोर्चा संभालकर उन्होंने ओडवायर को निशाना बनाकर गोलियां दागनी शुरू कर दीं।

ओडवायर को दो गोलियां लगीं और वह वहीं ढेर हो गया। अदालत में ऊधम सिंह से पूछा गया कि जब उनके पास और भी गोलियां बचीं थीं, तो उन्होंने उस महिला को गोली क्यों नहीं मारी जिसने उन्हें पकड़ा था। इस पर ऊधम सिंह ने जवाब दिया कि हां ऐसा कर मैं भाग सकता था, लेकिन भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है।

31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में ऊधम सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया जिसे उन्होंने हंसते हंसते स्वीकार कर लिया। ऊधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते। 31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने ऊधम सिंह के अवशेष भारत को सौंप दिए। ओडवायर को जहां ऊधम सिंह ने गोली से उड़ा दिया, वहीं जनरल डायर कई तरह की बीमारियों से घिर कर तड़प तड़प कर बुरी मौत मारा गया।

भारत माँ के इस सच्चे सपूत को हमारा शत शत नमन |


गूगल से भिड़ेंगे माइक्रोसाफ्ट व याहू


दुनिया की दिग्गज साफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसाफ्ट और अग्रणी इंटरनेट कंपनी याहू ने इंटरनेट सर्च तथा विज्ञापन के क्षेत्र में हाथ मिलाया है। दोनों कंपनियों का यह गठजोड़ इंटरनेट सर्च के दिग्गज बादशाह गूगल को चुनौती देगा। दोनों कंपनियों ने इसके लिए 10 वर्षीय करार किया है।

इस समझौते के तहत माइक्रोसाफ्ट को याहू की प्रमुख सर्च टेक्नोलाजी का दस साल के लिए विशेष लाइसेंस मिल जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि माइक्रोसाफ्ट का नया सर्च इंजन बिंग इसके जरिए विज्ञापनदाताओं को लुभाने में सक्षम होगा। दोनों कंपनियों के बीच इस तरह के समझौते की लंबे समय से अटकलें थीं।

बीते साल याहू के पूर्व सीईओ जेरी यंग के चलते माइक्रोसाफ्ट के साथ इंटरनेट कंपनी का सौदा नहीं हो पाया था। माइक्रोसाफ्ट पिछले साल याहू को खरीदना चाहती थी, लेकिन सौदे की महंगी कीमत के चलते पीछे हट गई थी।

चीन की दीवार ढहने से दबी दलाल स्ट्रीट


चीन के शेयर बाजार में आई भारी गिरावट ने दलाल स्ट्रीट का भी दम निकाल दिया। विदेशी फंडों ने रीयल एस्टेट व मेटल कंपनियों के शेयरों में भारी बिकवाली कर सेंसेक्स को लगातार तीसरे दिन गिरावट का शिकार बना डाला। इसके चलते बंबई शेयर बाजार [बीएसई] का यह संवेदी सूचकांक भारी उठापटक के बीच बुधवार को 158.48 अंक यानी करीब एक फीसदी लुढ़ककर 15173.46 पर बंद हुआ। एक दिन पहले यह 15331.46 अंक पर बंद हुआ था। इसी तरह नेशनल स्टाक एक्सचेंज का निफ्टी भी 50.60 अंक गिरकर 4513.50 पर बंद हुआ। मंगलवार को यह 4564.10 अंक पर था।

चीन की सरकार द्वारा तेजी चढ़ते बाजार को ठंडा करने के कदम उठाने की आशंका में शंघाई शेयर सूचकांक में 5 फीसदी की भारी गिरावट आई। इसके असर से 15379.43 अंक का ऊंचा स्तर छू चुका बीएसई का 30 शेयरों वाला सेंसेक्स दोपहर के लगभग 444 अंक लुढ़क सत्र के निचले स्तर 14888.41 पर आ गया। हालांकि बाद में खुले यूरोपीय बाजारों में बढ़त देख यह संभलकर 15 हजार के ऊपर बंद हुआ। कारोबार के दौरान निफ्टी ऊंचे में 4537.85 व नीचे में 4420.80 अंक के दायरे में रहा। जुलाई के डेरिवेटिव सौदों का निपटान गुरुवार को होना है। इसके मद्देनजर कारोबारियों के सौदों के निपटारे में जुटे रहने से भी बाजार धारणा में कमजोरी आई। कंपनियों के बेहतर वित्तीय नतीजों की बदौलत बीते दो सप्ताह के दौरान सेंसेक्स में तेजी का दौर चला था।

ताजा बिकवाली की सबसे ज्यादा मार रीयल एस्टेट व मेटल कंपनियों पर पड़ी। हाल ही में इन्हीं कंपनियों के शेयरों में तगड़ी तेजी दर्ज की गई थी। यही वजह रही कि रीयल एस्टेट सूचकांक 4.36 और मेटल सूचकांक 2.31 फीसदी नीचे बंद हुए। कंज्यूमर ड्यूरेबल्स, एफएमसीजी, कैपिटल गुड्स कंपनियों से जुड़े सूचकांकों में भी खासी गिरावट देखी गई। वहीं आईटी और आयल एंड गैस सूचकांकों ने बिकवाली के माहौल में बढ़त का हौसला दिखाया। मिडकैप व स्मालकैप सूचकांकों में भी करीब एक फीसदी का नुकसान दर्ज हुआ। सेंसेक्स में शामिल 30 कंपनियों में केवल 7 के शेयर फायदे में रहे, जबकि 23 घाटे में बंद हुए।

बुधवार, 29 जुलाई 2009

दुनिया की दस सबसे खुबसूरत महिलाओं में एक रही राजमाता गायत्री देवी का निधन


दुनिया की दस सबसे खुबसूरत महिलाओं में एक रही जयपुर की पूर्व राजमाता गायत्री देवी का बुधवार को लंबी बीमारी के बाद यहां के एक निजी अस्पताल में निधन हो गया। वह 90 साल की थी।

गायत्री देवी का उपचार कर रहे चिकित्सक डा सुभाषा काला ने बताया कि गायत्री देवी को पेट और आंत की बीमारी के कारण लंदन से यहां लाकर सीधे अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। उन्होंने कहा कि गायत्री देवी पिछले तीन दिनों से घर जाने का आग्रह कर रही थीं लेकिन उनके स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हे छुट्टी नहीं दी गई।

काला के अनुसार गायत्री देवी के स्वास्थ्य में कल शाम अचानक गिरावट आ गई। आज सुबह स्वास्थ्य अचानक बिगड़ गया और दोपहर बाद उनका निधन हो गया। गायत्री देवी जयपुर की तीसरी महारानी थी और महाराज सवाई मान सिंह [द्वितीय] की पत्नी थीं।

गायत्री देवी के पिता कूचबिहार के राजा थे। गायत्री देवी वर्ष 1939 से 1970 के बीच जयपुर की तीसरी महारानी थीं। उनका विवाह महाराज सवाई मान सिंह द्वितीय से हुआ। गायत्री देवी अपने अप्रतिम सौंदर्य के लिए जानी जाती थीं। वह एक सफल राजनीतिज्ञ भी रहीं। यही वजह थी कि वह अपने समय की फैशन आइकन मानी जाती थीं। राजघरानों के भारतीय गणराज्य में विलय के बाद गायत्री देवी राजनीति में आई और जयपुर से वर्ष 1962 में मतों के भारी अंतर से लोकसभा चुनाव जीता।

गायत्री देवी का जन्म 23 मई 1919 को हुआ था। वह अपने जमाने में दुनिया भर में अपनी अद्वितीय सुंदरता के लिए चर्चा में रहीं। यही कारण था कि दुनिया की खूबसूरत दस महिलाओं में गायत्री देवी शामिल थीं। पूर्व महारानी ने सुंदरता की दौड़ में अव्वल रहने के साथ साथ राजनीति क्षेत्र में भी अपना परचम लहराया और वर्ष 1967 और 1971 में भी उन्होंने जयपुर से लोकसभा सीट पर भारी मतों से जीत अर्जित की।

लंदन में जन्मी गायत्री देवी कूच बिहार के महाराज जितेंद्र नारायण की पुत्री थीं। उनकी मां राजकुमारी इन्दिरा राजे बडौदा की राजकुमारी थीं। गायत्री की आरभिंक शिक्षा शांतिनिकेतन में हुई। बाद में उन्होंने स्विटजरलैंड के लाजेन में अध्ययन किया।

उनका राजघराना अन्य राजघरानों से कहीं अधिक समृद्धशाली था। घुड़सवारी की शौकीन रही पूर्व राजमाता का विवाह जयपुर के महाराजा सवाई मान सिंह द्वितीय के साथ हुआ। गायत्री ने 15 अक्टूबर 1949 को पुत्र जगत सिंह को जन्म दिया। महारानी गायत्री देवी को बाद में राजमाता की उपाधि दी गई। जगत सिंह का कुछ साल पहले ही निधन हो गया था। जगत सिंह जयपुर के पूर्व महाराजा भवानी सिंह के सौतेले भाई थे।

गायत्री देवी की शुरू से ही लडकियों की शिक्षा को बढावा देने में रूचि रही यही कारण रहा कि गायत्री देवी ने गायत्री देवी र्ल्स पब्लिक स्कूल की शुरुआत की। इस स्कूल की गणना जयपुर के सर्वोत्तम स्कूलों में आज भी है। पूर्व राजमाता ने जयपुर की 'ब्लू पोटरी' कला को भी जमकर बढावा दिया।

गायत्री देवी ने खूबसूरती से दुनिया भर में अपनी पहचान बनाई ठीक उसी तरह गायत्री देवी ने राजनीति के क्षेत्र में भी वर्ष 1962 में जयपुर लोकसभा सीट से चुनाव मैदान में उतरीं और कुल दो लाख 46 हजार 516 मतों में से एक लाख 92 हजार नौ सौ नौ मत प्राप्त कर एक रिकार्ड कायम किया। इसके बाद उनका नाम गिनिज बुक आफ र्ल्ड रिकार्ड दर्ज किया गया।

गायत्री देवी ने वर्ष 1967 और 1971 में जयपुर लोकसभा सीट से स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर चुनाव जीता था। उन्होंने लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सी रामगोपालाचार्य को भी पराजित किया था। केंद्र सरकार ने वर्ष 1971 में राजघरानों के सभी अधिकार और उपाधियों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी। तत्कालीन केंद्र सरकार के आंख की किरकिरी बन जाने के कारण उन्हें कर चोरी के आरोप में पांच महीने तक दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद कर दिया गया।

तिहाड़ से रिहा होने के कुछ समय बाद उन्होंने राजनीति से सन्यास की घोषणा कर दी और लेखन के क्षेत्र में कदम रखा। गायत्री देवी ने वर्ष 1976 में संत रामा राउ के सहयोग से अपनी आत्मकथा के रूप में 'एक राजकुमारी की याद' पुस्तक का लेखन किया। पूर्व राजमाता ने पुस्तक लेखन के अलावा विदेशी निर्देशक के सहयोग से हिंदू राजकुमारी फिल्म भी बनाई।

गायत्री देवी के राजनीति से संन्यास लेने के बावजूद वर्ष 1999 में राजनीति के गलियारे में उनके कूच बिहार से त्रिणमूल कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ने की चर्चा हुई। पूर्व ईसरदा रियासत के महाराजा रहे जगत सिंह का कुछ साल पहले ही निधन हो गया था। जगत सिंह के एक बेटी ललिता तथा पुत्र देवराज सिंह हैं। जगत सिंह के पुत्र पुत्री उस समय चर्चा में आए जब उनकी संपति को लेकर न्यायालय में मामला पेश हुआ।

राजस्थान के राज्यपाल एस के सिंह, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने गायत्री देवी के निधन पर गहरा दुख व्यक्त किया है |

अपने स्कूल के माध्यम से लड़कियों की शिक्षा की राह आसान करने वाली राजमाता गायत्री देवी को सभी मैनपुरी वासीयों के श्रध्दासुमन |

आवाज सुनकर रुपये देगी एटीएम


रुपये निकालते समय अगर आपसे एटीएम यह पूछे कि कितने पैसे निकालने हैं, तो हैरान होने की जरूरत नहीं है। एमाउंट बोलते ही पैसे आपके सामने हाजिर हो जायेंगे। जी हां, चौंकिए मत! उत्तार बिहार ग्रामीण बैंक वॉइस एटीएम सेवा शुरू करने जा रहा है।

जानकारी के मुताबिक, वॉइस एटीएम सेवा फिलहाल मुजफ्फरपुर, दरभंगा, बेतिया, मधुबनी, मोतिहारी, सीतामढ़ी, शिवहर, हाजीपुर, छपरा, सिवान, गोपालगंज, अररिया, मधेपुरा, सुपौल, पूर्णिया, सहरसा, कटिहार और किशनगंज में शुरू किए जाने की योजना है। एटीएम से पैसे निकालने के लिए सबसे पहले कार्ड को इंसर्ट कर अंगूठा लगाना होगा। इसके बाद एटीएम पूछेगी कि कितने पैसे चाहिए। मौखिक आदेश देते ही स्वत: एटीएम से उतना पैसा बाहर आ जाएगा।

उत्तार बिहार ग्रामीण बैंक के चेयरमैन डा. आरएस संगापुरे के अनुसार, प्रथम चरण के दौरान उत्तार बिहार में वर्ष 2011 तक 30-35 वॉइस एटीएम लगाने का लक्ष्य रखा गया है। इस दिशा में कार्य प्रारंभ कर दिया गया है। इससे सर्वाधिक फायदा नेत्रहीन व निरक्षरों को होगा। वे अब दूसरे की सहायता के बगैर पैसे निकाल सकेंगे। उन्होंने बताया कि अब ग्रामीण इलाकों के निरक्षर भी बायोमैट्रिक एटीएम सुविधा का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर सकेंगे। इसके लिए उन्हें सिर्फ अंगूठा लगाना होगा। अंगूठा का निशान मैच होने पर ही पैसा बाहर निकलेगा। 430 बायोमैट्रिक एटीएम सेंटर 2011 तक खोलने का लक्ष्य रखा गया है। 2010 से ग्रामीण इलाकों में स्टाल लगाने का कार्य शुरू कर दिया जाएगा।

नरेगा के तहत कार्य करने वाले मजदूरों को भी इस एटीएम सेवा से जोड़ा जाएगा। अक्सर देखा जाता है कि नरेगा में कार्य करने वाले मजदूरों के पेमेंट में गड़बड़ी की जाती है। इस संदर्भ में सरकार से बातचीत हो चुकी है। राज्य सरकार बायोमैट्रिक एटीएम सेवा ग्रामीण इलाकों में शुरू करने के पक्ष में है। इसके तहत नरेगा में कार्य करने वाले मजदूरों का पेमेंट नकद देने के बजाय उनके एकाउंट में चला जाएगा। इससे उनके पेमेंट में गड़बड़ी नहीं की जा सकेगी और वे प्रतिदिन की मजदूरी निकाल सकेंगे।

सपा विधायक ने की एडीएम से मारपीट -- मैनपुरी के पीसीएस अधिकारियो ने मुख्यमंत्री को भेजा ज्ञापन |

वाराणसी शहर उत्तरी विधानसभा क्षेत्र के सपा विधायक अब्दुल समद अंसारी और सपा सभासद मनोज राय धूपचंडी द्वारा सोमवार शाम एडीएम [प्रोटोकाल] आर के सिंह की पिटाई के मामले में प्रदेश शासन ने कड़ा रुख अख्तियार किया है और प्रमुख सचिव गृह ने उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए हैं।

प्रमुख सचिव गृह कुंवर फतेह बहादुर ने बताया कि एक अधिकारी के साथ इस तरह से मारपीट की घटना न सिर्फ सरकारी कामकाज में बाधा डालना है, बल्कि एक आपराधिक घटना भी है। उन्होंने कहा कि जिला प्रशासन इस मामले में कार्रवाई कर रहा है और इसमें कोई ढिलाई नहीं बरती जाएगी तथा सख्त कार्रवाई की जाएगी।

इससे पूर्व कोई प्रमाण पत्र जारी करने को लेकर एडीएम [प्रोटोकाल] आर के सिंह और दोनों जन प्रतिनिधियों में विवाद इतना बढ़ गया कि उनमें कथित तौर पर मारपीट हो गई। इस दौरान एडीएम के कपड़े फट गए और कार्यालय में रखे कागजात भी बिखर गए। इस मामले में पुलिस ने विधायक, पार्षद मनोज राय धूपचंडी सहित 15 अज्ञात लोगों के खिलाफ बलवा, मारपीट, सरकारी काम में बाधा डालने सहित कई संगीन धाराओं में मुकदमा दर्ज किया है।

नगर पुलिस अधीक्षक के नेतृत्व में गठित दस टीमों ने विधायक के आवास सहित अन्य कई स्थानों पर देर रात तक छापेमारी की, लेकिन अब तक इस मामले में किसी की गिरफ्तारी नहीं की जा सकी है।

मीणा ने बताया कि विधायक अब्दुल समद अंसारी और पार्षद मनोज राय समर्थकों के साथ सोमवार देर शाम लेढ़ूपुर निवासी एक महिला के नाम से जारी हैसियत प्रमाण पत्र के संबंध में वार्ता के लिए जिलाधिकारी से मिलने गए। इसके लिए जिलाधिकारी से विधायक की फोन पर बात हो चुकी थी। विधायक समर्थकों के साथ जब रायफल क्लब पहुंचे तो जिलाधिकारी के साथ व्यापारियों की बैठक चल रही थी। ऐसे में वह एडीएम प्रोटोकाल के कक्ष में चले गए। एडीएम और विधायक के बीच किसी बात को लेकर कहासुनी हुई। देखते ही देखते एडीएम प्रोटोकाल के कक्ष का नजारा बदल गया और दोनों पक्षों के बीच मारपीट शुरू हो गई। उन्होंने बताया कि सपा नेताओं ने एडीएम का कालर पकड़कर हाथापाई की और सपा विधायक तथा समर्थकों ने उनका बाल पकड़कर सिर मेज से टकरा दिया एवं कपड़े फाड़ दिए।

जिलाधिकारी ने व्यापारियों की बैठक समाप्त कर आनन-फानन में उन्हें तथा सभी मजिस्ट्रेटों को बुलाकर आपात बैठक की। एडीएम का दीन दयाल उपाध्याय चिकित्सालय में मेडिकल कराया गया।

जिलाधिकारी अजय कुमार उपाध्याय ने बताया कि उनके निर्देश पर कैंट पुलिस ने धारा 147, 323, 353, 504, 506 सहित कई अन्य धाराओं में मुकदमा दर्ज कर विधायक एवं उनके समर्थकों के गिरफ्तारी के लिए छापेमारी शुरू कर दी है। अब तक इस मामले में किसी की गिरफ्तारी नहीं की जा सकी है। दोनों जन प्रतिनिधि फरार चल रहे हैं।

मारपीट से आहत एडीएम [प्रोटोकाल] आर के सिंह वाकये की जानकरी देते समय रो पड़े। उन्होंने कहा कि विधायक को उन्होंने पूरा सम्मान दिया, लेकिन जब वह सुनीता मिश्रा नामक महिला के नाम जारी 45 लाख रुपये के हैसियत प्रमाण पत्र की राशि बढ़ाकर 50 लाख रुपये करने का दबाव बनाने लगे तो उन्होंने इससे इनकार कर दिया।

उन्होंने बताया कि इससे विधायक उबल पड़े और साथियों के साथ उनसे मारपीट शुरू कर दी। कपड़े फाड़ दिए और बाल पकड़कर मेज पर गिरा दिया, साथ ही देख लेने की भी धमकी दी।

सपा नेता और पूर्व मंत्री अजय राय ने कहा है कि लोकतंत्र में इस तरह की मारपीट को कोई जगह नहीं है और जन प्रतिनिधियों को अपनी लक्ष्मण रेखा नहीं पार करनी चाहिए।

इस बीच मंगलवार को मुख्य विकास अधिकारी जे बी सिंह के नेतृत्व में मैनपुरी जिले के पीसीएस अधिकारियो ने मुख्यमंत्री के नाम एक ज्ञापन जिलाधिकारी श्री सच्चिदानंद दुबे को सौपा और घटना की निंदा करते हुए आरोपी विधायक के विरूद्व कठोर करवाई की मांग की | वाराणसी की घटना को ले कर जिले के पीसीएस अधिकारियो में रोष है | जिलाधिकारी को ज्ञापन देने वालो में उपजिलाधिकारी सदर कर्मेन्द्र सिंह , उपजिलाधिकारी भोगांव रामवीर सिंह , उपजिलाधिकारी करहल शिवदयाल सिंह ,आदि मुख्य विकास अधिकारी जे बी सिंह के साथ जिलाधिकारी से मिले थे |

रक्षा सौदों की लेटलतीफी

कैग अर्थात नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की ओर से गोर्शकोव एयरक्राफ्ट कैरियर की खरीददारी पर सवाल खड़े करने के बाद संसद में इस सौदे पर चर्चा होना स्वाभाविक ही है, लेकिन यह समझ पाना कठिन है कि रक्षा सौदों में लेटलतीफी एवं अन्य अनियमितताओं का सिलसिला थम क्यों नहीं रहा है? ध्यान रहे कि कैग ने केवल गोर्शकोव की खरीददारी पर ही सवाल नहीं उठाए, बल्कि स्कार्पीन पनडुब्बी सौदे में भी कई अनियमितताओं की ओर संकेत किए हैं। इस सौदे में तो कैग ने यहां तक पाया कि फ्रांसीसी कंपनी को अनुचित वित्तीय लाभ पहुंचाया गया। यह चिंताजनक है कि तमाम दावों और आश्वासनों के बावजूद रक्षा सौदे न तो समय पर हो पा रहे हैं और न ही अनियमितताओं पर विराम लग पा रहा है। इतना ही नहीं, रक्षा सौदों की खरीद प्रक्रिया में पारदर्शिता भी नहीं दिखाई दे रही है। रक्षा सौदों के विलंब से संपन्न होने की बीमारी कम होने के बजाय किस तरह बढ़ती जा रही है इसका ताजा उदाहरण है कैग का यह निष्कर्ष कि वायुसेना के लिए उन्नत प्रशिक्षण विमान खरीदने में बाइस साल खपा दिए गए। कैग की मानें तो विलंब से हासिल किए गए इन विमानों को इलेक्ट्रानिक हथियार प्रणाली से लैस करने में इतनी अधिक देरी कर दी गई कि उन्हें सामरिक प्रशिक्षण के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सका। वर्ष दर वर्ष रक्षा सौदों के संदर्भ में कैग की ओर से जैसी रपटें पेश की जा रही हैं उससे इस निष्कर्ष के अलावा और कहीं नहीं पहुंचा जा सकता कि सैन्य सामग्री की खरीद प्रक्रिया में कहीं कोई सुधार नहीं हो रहा है। दुर्भाग्य से यह तब है जब सभी यह महसूस कर रहे हैं कि भारतीय सेनाओं का आधुनिकीकरण समय से पीछे चल रहा है। इसका एक अर्थ यह है कि सेना की आवश्यकताओं को समय रहते पूरा करने में कहीं कोई तत्परता नहीं प्रदर्शित की जा रही। यह स्थिति तो सैन्य तंत्र को कमजोर करने वाली ही है।

रक्षा सौदों की खरीद प्रक्रिया में खामियों का सिलसिला यह भी सिद्ध कर रहा है कि चाहे जिस दल की सरकार हो, कुछ चीजें कभी नहीं बदलतीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि रक्षा सौदों की खरीद प्रक्रिया इसलिए अनियमितताओं से ग्रस्त है, क्योंकि सुरक्षा से संबंधित मामला होने के कारण सब कुछ गोपनीयता के आवरण में ढका रहता है। नि:संदेह रक्षा संबंधी मामले सार्वजनिक नहीं किए जा सकते, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि गोपनीयता के आवरण में अनियमितताओं को संरक्षण प्रदान किया जाए। यह संभव है कि विभिन्न रक्षा सौदों में जिन अनियमितताओं का उल्लेख किया गया उनसे रक्षा मंत्रालय पूरी तौर पर सहमत न हो, लेकिन कोई यह भी दावा नहीं कर सकता कि रक्षा सौदे समय पर और सही तरीके से संपन्न हो रहे हैं। अब तो यह भी लगता है कि सरकारी तंत्र में कैग की रपटों की अनदेखी करने की प्रवृत्तिभी घर कर गई है। शायद ही कोई मंत्रालय हो जो कैग की रपटों की परवाह करता हो और उसके द्वारा रेखांकित की गई खामियों को दूर करने का प्रयास करता हो। कहीं ऐसा इसलिए तो नहीं कि इस संस्था का दायित्व खामियों का उल्लेख करना भर है न कि उन्हें दूर करना अथवा कराना। बेहतर यही होगा कि इस संस्था को कुछ ऐसे अधिकार प्रदान किए जाएं जिससे वह अनियमितताओं के लिए दोषी लोगों को कटघरे में खड़ा कर सके। यदि ऐसा कुछ नहीं किया जा सकता तो किसी भी क्षेत्र में अनियमितताओं को रोकना कठिन होगा।

जुलाई की १०० वी पोस्ट :- विकास योजनाओं का हश्र

उत्तर प्रदेश में सूखे और अन्य समस्याओं के लिए केंद्र सरकार से विशेष पैकेज की मांग कर रही राज्य सरकार को इस सवाल का जवाब देना ही चाहिए कि वह विभिन्न योजनाओं के तहत केंद्र सरकार से मिले करोड़ों रुपये क्यों नहीं खर्च कर सकी है? यह चिंताजनक है कि जिन योजनाओं का धन खर्च नहीं किया जा सका है उसमें राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के साथ पिछड़े क्षेत्रों के विकास की योजनाएं भी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त बारहवें वित्त आयोग की संस्तुति पर प्राप्त धनराशि भी खर्च नहीं की जा सकी है। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि स्वयं अंबेडकर ग्रामों के विकास के लिए धन भी खर्च नहीं किया जा सका है। स्थिति यह है कि अंबेडकर ग्रामसभाओं का पैसा खर्च हो पाने के कारण मुख्यमंत्री को नए गांवों के चयन पर रोक लगानी पड़ी है। यह शुभ संकेत नहीं कि जिन गांवों को 1995-96 में अंबेडकर गावों के रूप में चयनित कर लिया गया था उनका विकास अभी तक आधा-अधूरा है।

इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि अंबेडकर गांवों के विकास के लिए अप्रयुक्त धनराशि लगभग सात सौ करोड़ रुपये है। इससे तो यही संकेत मिलता है कि न तो केंद्र की योजनाएं सही तरह से आगे बढ़ पा रही हैं और न ही खुद राज्य सरकार की। इस पर चिंता करने के पर्याप्त कारण हैं कि बारहवें वित्त आयोग की सिफारिश पर वर्ष 2005 में शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं के विकास के लिए केंद्र से जो धन आवंटित हुआ था उसमें करीब ग्यारह सौ करोड़ रुपये अभी भी अप्रयुक्त हैं। इसका सीधा मतलब यही है कि समस्या धन की नहीं बल्कि उसका सही तरीके से इस्तेमाल न किए जाने की है। यह समस्या यही बताती है कि शासन तंत्र अपनी प्राथमिकताओं के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है। इससे अधिक निराशाजनक और कुछ नहीं हो सकता कि धनराशि उपलब्ध होते हुए भी उसका उपयोग न किया जा सके। जहां तक उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पिछड़े क्षेत्रों के विकास और सूखा राहत के नाम पर केंद्र से पैकेज मांगने की बात है तो इस मांग में कुछ भी अनुचित नहीं, लेकिन कम से कम ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण किया ही जाना चाहिए जिससे विकास योजनाओं का धन अप्रयुक्त न रह जाए।

मौद्रिक नीति से मायूस हुआ बाजार


भारतीय रिजर्व बैंक [आरबीआई] द्वारा दरों में कोई तब्दीली न करने के फैसले से दलाल स्ट्रीट को मायूसी हुई है। बैंकिंग शेयरों में भारी बिकवाली के चलते सेंसेक्स लगातार दूसरे दिन लुढ़क गया। यह मंगलवार को 43.10 अंक की मामूली गिरावट के साथ 15331.94 पर बंद हुआ। एक दिन पहले यह 15375.04 अंक पर बंद हुआ था। इसी प्रकार नेशनल स्टाक एक्सचेंज का निफ्टी भी 8.20 अंक नीचे आकर 4564.10 पर बंद हुआ। सोमवार को यह 4572.30 अंक पर था।

आरबीआई ने अपनी तिमाही मौद्रिक नीति समीक्षा में रेपो व रिवर्स रेपो दरों में कोई बदलाव नहीं किया है। साथ ही चालू वित्त वर्ष 2009-10 के लिए देश की विकास दर के पूर्वानुमान को भी 6 फीसदी पर बरकरार रखा है। इसकी वजह से निवेशकों ने बैंकिंग कंपनियों के शेयरों में बिकवाली बढ़ा दी।

बीएसई का 30 शेयरों वाला सेंसेक्स मजबूती के साथ 15428.50 अंक पर खुला। कारोबार के दौरान यह ऊंचे में 15463.46 अंक तक गया, तो नीचे में 15240.53 अंक तक लुढ़का। सत्र के दौरान निफ्टी ऊंचे में 4559.90 और नीचे में 4529.15 अंक के दायरे में रहा। बीएसई में बैंकिंग, एफएमसीजी, कंज्यूमर ड्यूरेबल्स, तेल एंड गैस, आईटी, हेल्थकेयर व कैपिटल गुड्स वर्ग के सूचकांकों में गिरावट दर्ज की गई, वहीं रीयल एस्टेट, मेटल, पावर और पीएसयू कंपनियों के शेयर खासी मजबूती के साथ बंद हुए। सेंसेक्स के उलट बीएसई के मिडकैप व स्मालकैप सूचकांकों में क्रमश: 1.13 व 1.68 फीसदी की बढ़त रही। संवेदी सूचकांक में शामिल दो-तिहाई कंपनियों के शेयर बढ़त पर रहे, केवल 10 को नुकसान हुआ।

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

सेना के पास होगा हर अहम इमारत का ब्लूप्रिंट



मुंबई के आतंकी हमले में हाथ जलाने के बाद सरकार अब अपनी तैयारियों को हर तरह फूलप्रूफ बना लेना चाहती है। आतंक के खिलाफ कार्ययोजना को चाक-चौबंद बनाने के लिए सेना की भी मदद ली जा रही है। हिफाजत के इंतजाम मुकम्मल बनाने में जुटा गृह मंत्रालय, फौज की मदद से देश के उन महत्वपूर्ण धार्मिक, व्यावसायिक और पर्यटन स्थलों का 'सुरक्षा ब्लूप्रिंट' तैयार करवा रहा है जो आतंकियों के निशाने पर सकते हैं।

देश के चार शहरों में राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड [एनएसजी] के क्षेत्रीय केंद्र बनाने के बाद अब देश के विभिन्न इलाकों में तैनात सेना की स्पेशल फोर्सेज [एसएफ] यानी विशेष बल की बटालियनों को भी सक्रिय बनाने की तैयारी है। इस कड़ी में पश्चिमी क्षेत्र के लिए जिम्मेदार 10 पैरा का एक दल हाल ही में अहमदाबाद के अक्षरधाम मंदिर का ब्लूप्रिंट तैयार करने की गरज से मंदिर प्रांगण का मुआयना भी कर चुका है। सूत्रों के मुताबिक इस पूरी प्रक्रिया में सेना की टीम ने मंदिर का आकलन आतंकियों के नजरिए से किया। टीम ने मंदिर में प्रवेश और बाहर निकलने के रास्तों, भीड़ की मौजूदगी वाले स्थानों, गुप्त दरवाजों के साथ उन सभी जगहों का मुआयना किया, जो आतंकी हमले की स्थिति में अहम हो सकते हैं। गौरतलब है कि अहमदाबाद का अक्षरधाम मंदिर सितंबर 2002 में आतंकी हमले का निशाना बन चुका है।

सूत्रों के मुताबिक सेना की टीम न केवल गुजरात के बल्कि राजस्थान के कई इलाकों का भी दौरा कर ब्लूप्रिंट तैयार करने में जुटी है जिनके सहारे किसी भी आतंकी हमले की हालत में त्वरित और कारगर कार्रवाई की जा सके। इसके अलावा देश के अन्य इलाकों में तैनात एसएफ की टीमों से भी इसी तरह के आकलन को कहा गया है। दूसरी ओर अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले से सबक लेते हुए मुंबई की भी संवेदनशील इमारतों और प्रतिष्ठानों का भी नए सिरे से ब्लूप्रिंट तैयार किया गया है। शहर में हाल ही में बने एनएसजी हब के साथ-साथ सघन आबादी वाले इलाकों में स्थित रिजर्व बैंक, स्टाक एक्सचेंज, कोलाबा स्थित पुलिस मुख्यालय और ऐसी ही अन्य संवेदनशील इमारतों का भी सुरक्षा ब्लूप्रिंट नए सिरे से तैयार किया गया है।

दरअसल, मुंबई आतंकी हमले के दौरान ताज होटल के नक्शे से एनएसजी कमांडो के नावाकिफ होने के कारण बहुत सारा कीमती वक्त तो बर्बाद हुआ ही, कमांडो आपरेशन भी लंबा खिंच गया। लिहाजा, गृह मंत्रालय के लिए सुरक्षा का नया मूलमंत्र यही है कि सेना हो या अ‌र्द्धसैनिक बल, आतंकियों को कमरतोड़ जवाब फौरन मिलना चाहिए। सूत्र बताते हैं कि सुरक्षा बलों के बीच तालमेल की नई केमेस्ट्री के लिए देश में तैनात सेना की इंफेंट्री बटालियनों को भी आतंकी हमलों की हालत में पहले वार के लिए तैयार किया जाएगा।

अब सचमुच मुस्कुराएगी पिंकी..!!


आस्कर पुरस्कार प्राप्त डाक्यूमेंट्री 'स्माइल पिंकी' में मुख्य किरदार निभाने वाली आठ वर्षीय पिंकी सोनकर को फिर मुस्कुराने का मौका मिला है। पिंकी को गोद लेकर पढ़ाने का जिम्मा उठाने वाले लखनऊ पब्लिक स्कूल प्रबंधन ने मंगलवार को पिंकी का दाखिला करवाया।

स्कूल प्रबंधन ने पिंकी का दाखिला हरदोई जिले के माधोगंज स्थित शाखा में करवाया है। पिंकी को कक्षा दो में प्रवेश दिया गया है। स्कूल प्रबंधन के अधिकारी पिंकी और उसके पिता राजेंद्र सोनकर को लेकर सोमवार शाम हरदोई पहुंचे। स्कूल 12वीं तक पिंकी की पढ़ाई और रहने खाने का पूरा इंतजाम करेगा।

स्कूल के निदेशक डा. सुशील कुमार ने बताया कि पिछले दिनों जब हमें पता चला कि आस्कर पुरस्कार प्राप्त डाक्यूमेंट्री में काम करने वाली पिंकी स्कूल न जाकर मिर्जापुर जिले स्थित अपने गांव में लोगों के घरों में बर्तन साफ कर रही है तो हमें बहुत दुख हुआ। उसके बाद स्कूल प्रबंधन ने उसे पढ़ाने का फैसला किया।

कुमार ने कहा कि हमने पिंकी के पिता से कहा कि हम उसे गोद लेकर पढ़ाना चाहते हैं, तो वह तैयार हो गए। खुशी से उनकी आंखों में आंसू छलक आए थे। उन्होंने कहा कि पिंकी का कहना है कि वह भविष्य में गरीबों की सेवा करने के लिये डाक्टर बनना चाहती है।

उल्लेखनीय है कि अमेरिकी निर्देशक मेगन माइलन की 39 मिनट की डाक्यूमेंट्री 'स्माइल पिंकी' को वर्ष 2008 में आस्कर पुरस्कार से नवाजा गया था।

कई रत्न अब तक न बने खेल रत्न........क्यों ????





हिरोशिमा से लेकर दोहा एशियाई खेलों और कई अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारत के लिए ढेरों पदक बटोरने वाले निशानेबाज जसपाल राणा, क्रिकेट टीम की दीवार राहुल द्रविड़, टेनिस जगत में देश का रोशन करने वाले महेश भूपति और भारतीय फुटबाल के पर्याय बाईचुंग भूटिया उन कुछ दिग्गज खिलाड़ियों में शामिल हैं जो कभी खेल रत्न नहीं बन पाए।

देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कार राजीव गांधी खेल रत्न के लिए इस समय महिला मुक्केबाज एमसी मेरीकोम तथा ओलंपिक पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार और मुक्केबाज विजेंदर सिंह के नाम को लेकर जिस तरह की रस्साकसी चल रही है, वैसे पहले भी चलती रही लेकिन शायद इसका जवाब किसी के पास नहीं होगा कि आखिर राणा या द्रविड़ या भूपति को क्यों नजरअंदाज किया गया। इसी तरह से दो पूर्व भारतीय क्रिकेट कप्तान सौरव गांगुली और अनिल कुंबले भी इस पुरस्कार के हकदार थे लेकिन उनके नाम पर कभी विचार ही नहीं किया गया।

इनमें राणा का दावा इसलिए मजबूत बनता था क्योंकि उन्होंने न सिर्फ एशियाई खेलों बल्कि कई अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी देश का मान बढ़ाया। इस निशानेबाज ने 1994 में हिरोशिमा एशियाई खेलों में और राष्ट्रमंडल खेल 2006 में सोने का तमगा हासिल किया। पदमश्री जसपाल राणा ने 2006 के दोहा एशियाई खेलों में तीन स्वर्ण पदक जीते जिसमें पुरुषों की 25 मीटर सेंटर फायर पिस्टल में उन्होंने विश्व रिकार्ड की बराबरी की। तब उन्हें खेल रत्न का प्रबल दावेदार माना जा रहा था लेकिन भारतीय राइफल संघ ने एक अन्य निशानेबाज मानवजीत सिंह संधू के नाम की सिफारिश की जिन्होंने एशियाई खेलों में कांस्य और विश्व निशानेबाजी चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता था।

पूर्व भारतीय कप्तान द्रविड़ के नाम की 1991 से शुरू किए गए खेल रत्न के लिए दो बार सिफारिश की गई लेकिन टेस्ट और एक दिवसीय मैचों में कई यादगार पारियां खेलकर क्रिकेट टीम के पिछले एक दशक के विजयी सफर में अहम भूमिका निभाने वाले श्रीमान भरोसेमंद 2005 में जहां पंकज आडवाणी से पिछड़ गए वहीं 2006 में बीसीसीआई की लेटलतीफी उन पर भारी पड़ी। इसी तरह भूपति ने टेनिस युगल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गजब का प्रदर्शन किया और अभी तक दस ग्रैंड स्लैम जीते हैं। उनके नाम पर लिएंडर पेस के साथ मिलकर डेविस कप में भी कई यादगार प्रदर्शन शामिल हैं तथा एशियाई खेलों का स्वर्ण पदक भी उनके नाम पर दर्ज है लेकिन इन सबके बावजूद उनके नाम के आगे अभी तक खेल रत्न नहीं जुड़ पाया।

भूपति के नाम की 2001 के खेल रत्न के लिए सिफारिश की गई थी लेकिन तब वह अभिनव बिंद्रा से पुरस्कार की दौड़ में पिछड़ गए थे। इसके बाद 2005 में खेल रत्न की दौड़ में शामिल बेंगलूर के तीन खिलाड़ियों में उनका नाम भी शामिल था। भूपति के जोड़ीदार रहे पेस को 1996-97 में ही खेल रत्न चुन लिया गया था। इसी तरह से भारत की तरफ से टेस्ट क्रिकेट में सर्वाधिक 619 विकेट लेने वाले कुंबले का पाकिस्तान के खिलाफ 1999 में दिल्ली में एक पारी में दस विकेट का कारनामा भी उन्हें खेल रत्न नहीं बना पाया। गांगुली ने भी अपनी कप्तानी में भारतीय क्रिकेट को ऊंचाईयों तक पहुंचाया लेकिन उनकी इस उपलब्धि को पुरस्कार के मामले में अधिक तवज्जो नहीं मिली।

गांगुली के नाम की 2004 के खेल रत्न के लिए बीसीसीआई ने सिफारिश की थी लेकिन तब एथेंस ओलंपिक में रजत पदक विजेता राज्यवर्धन सिंह राठौड़ के सामने उनका मामला फीका पड़ गया। अब तक दो क्रिकेटरों सचिन तेंदुलकर [1997-98] और महेंद्र सिंह धौनी [2007-08] को ही राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार मिला है। भारतीय फुटबाल टीम के कप्तान बाईचुंग भूटिया अकेले दम पर टीम को बहुत आगे नहीं बढ़ा पाए लेकिन पिछले एक दशक से उनका व्यक्तिगत प्रदर्शन लगातार अच्छा रहा। वह ब्रिटेन के क्लबों में भी खेले और भारतीय फुटबाल को विश्व मानचित्र में जगह दिलाने की कोशिशों में लगे रहे लेकिन उनके इस प्रयास को भी नजरअंदाज किया गया।

जहां तक अर्जुन पुरस्कार का सवाल है तो राणा [1994], भूपति [1995], कुंबले [1995], गांगुली [1997], द्रविड़ [1998] और भूटिया [1998] को बहुत पहले ही यह पुरस्कार मिल गया था।

अब यह सरकार को सोचना होगा कि एसा कौन सा सिस्टम बनाया जाए जो इन पुरस्कारों के आवंटन को परिदर्शी बना सके ताकि विवादों को कम से कम किया जाए |

जवानों को खतरा -- एड्स से !!!!


अ‌र्द्धसैनिक बलों के लिए नक्सलियों, आतंकियों और उग्रवादियों से भी बड़ा एक खतरा है! ऐसा खतरा जो बिना जंग लड़े ही अ‌र्द्धसैनिक बलों को खोखला कर रहा है। जी हां, जटिल व जुझारू जीवन के बीच आनंद के चंद क्षण गुजारने में जवान एड्स के चंगुल में फंस कर जान गंवा रहे हैं। चिंताजनक तथ्य है कि एड्स अब तक 1300 जवानों को अपनी गिरफ्त में ले चुका है और 400 जवान जान गंवा चुके हैं।

एड्स का दानव न सिर्फ अ‌र्द्धसैनिक बलों, बल्कि राज्यों की पुलिस को भी लील रहा है। खतरा कितना बड़ा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एचआईवी/एड्स से बचाव के लिए सीआरपीएफ ने जो हेल्पलाइन शुरू की, उसमें सात माह में ही 50 हजार फोन आ गए। इस खतरे को समझते हुए गृह मंत्रालय जल्द ही दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर का एक सम्मेलन भी आयोजित करेगा।

अ‌र्द्धसैनिक बलों में खास तौर से बीएसएफ व सीआरपीएफ के जवानों में एचआईवी का संक्रमण ज्यादा हुआ। गृह मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी के मुताबिक, सबसे ज्यादा कठिन परिस्थितियों में इन्हीं दोनों बलों के जवान काम करते हैं। ऐसे में वेश्याओं या दूसरी महिलाओं के संपर्क में इनका आना बहुत अस्वाभाविक नहीं है। एड्स या दूसरे किस्म के यौन रोगों का शिकार भी इन्हीं दोनों बलों के जवान सबसे ज्यादा हो रहे थे। उन अधिकारी के मुताबिक, यदि यौन संबंध कायम करते समय सुरक्षा उपाय लें तो इन बीमारियों से बचा जा सकता है। मगर सरकार के सामने समस्या है कि दुरुपयोग की आशंका के मद्देनजर वह आधिकारिक तौर पर शारीरिक संबंध बनाते समय कंडोम या दूसरे सुरक्षा उपायों के आदेश नहीं दे सकती।

छत्तीसगढ़, उड़ीसा, जम्मू-कश्मीर या सीमा पर तैनात जवान ही नहीं, दिल्ली या अन्य महानगरों में तैनात जवान भी एड्स के शिकार हुए हैं। परिवार के साथ रह रहे अफसरों या सैनिकों का भी इस नामुराद बीमारी के चंगुल में फंसना सरकार को परेशान कर रहा है। इसके मद्देनजर, गृह मंत्रालय ने सिर्फ इसी मद में चार करोड़ रुपये से ज्यादा का आवंटन किया। इसके तहत जनवरी में सीआरपीएफ ने राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन [नाको] के सहयोग से चौबीस घंटे की हेल्पलाइन सेवा शुरू की। टोल फ्री टेलीफोन नंबर 1800112111 और एक अन्य नंबर 011-24369914 चालू किया। एक साथ 30 लाइनों वाले इन नंबरों ने कमाल किया और हर माह 6,000 से 8,000 लोगों ने काल कर अपनी उत्सुकताओं का समाधान किया।

इतना ही नहीं, हर माह पहले और तीसरे गुरुवार की शाम 4 से 7 बजे तक पुलिस महानिरीक्षक [प्रशासन] और उप महानिरीक्षक [कल्याण] भी जवानों व दूसरे अफसरों की समस्याएं सुनने के लिए बैठ रहे हैं।

हेल्पलाइन नंबर पर आई कालों का ब्यौरा

जनवरी 7,042

फरवरी 6,812

मार्च 8,165

अप्रैल 6,282

मई 6,306

जून 7,254

जुलाई 7,531

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कुल 49,392

बहुमुखी प्रतिभा के धनी उद्यमी थे जेआरडी टाटा (२९/०७/१९०४ - २९/११/१९९३)


भारतीय उद्योग जगत के प्रमुख स्तंभ जेआरडी टाटा बहुमुखी प्रतिभा के धनी उद्यमी थे तथा भारतीय कंपनी जगत में उन्हें कार्पोरेट गवर्नेस और सामाजिक दायित्व की परिकल्पनाओं को पहली बार लागू करने वाले उद्योगपति के रूप में जाना जाता है।

जेआरडी के नाम से मशहूर जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा ने न केवल टाटा समूह को अपने कुशल नेतृत्व में देश में अग्रणी उद्योग घराने में तब्दील कर दिया बल्कि उन्होंने कर्मचारियों के कल्याण के उद्देश्य से कई ऐसी योजनाएं शुरू की जिन्हें बाद में भारत सरकार ने कानूनी मान्यता देते हुए अपना लिया।

टाटा समूह ने जेआरडी के कुशल नेतृत्व में आठ घंटे का कार्यदिवस, निशुल्क चिकित्सा सहायता, कर्मचारी भविष्य निधि योजना और कामगार दुर्घटना मुआवजा योजना जैसी सामाजिक दायित्व वाली कई योजनाओं को देश में पहली बार शुरू किया।

उद्योग संगठन एसोचैम के महासचिव डी एस रावत के अनुसार जेआरडी टाटा का भारतीय उद्योग जगत में महज इसलिए सम्मान नहीं किया जाता कि उन्होंने टाटा समूह जैसे बड़े उद्योग घराने का कई दशकों तक नेतृत्व किया था, बल्कि भारतीय कंपनी जगत में पहली कार्पोरेट गवर्नेस और सोशल रिस्पांसेबिलिटी की योजनाएं पहली बार शुरू करने के लिए भी याद किया जाता है।

रावत ने कहा कि जेआरडी एक उद्यमी के रूप में भी प्रतिभासंपन्न व्यक्ति थे जिनकी सोच अपने समय से बहुत आगे की थी। उनके इस नजरिए से न केवल टाटा समूह बल्कि भारतीय उद्योग जगत को भी काफी लाभ मिला।

जेआरडी का जन्म 29 जुलाई 1904 को फ्रांस में हुआ। उनके पिता पारसी और मां फ्रांसीसी थीं। जेआरडी के पिता और जमशेदजी टाटा एक ही खानदान के थे। जेआरडी ने फ्रांस , जापान और इंग्लैंड में शिक्षा ग्रहण की और फ्रांसीसी सेना में एक वर्ष का अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण लिया। वह सेना में बने रहना चाहते थे, लेकिन अपने पिता कीच्इच्छा के कारण उन्हें यह काम छोड़ना पड़ा।

उन्होंने वर्ष 1925 में बिना वेतन वाले प्रशिक्षु के रूप में टाटा एंड सन में काम शुरू किया। उनके व्यक्तित्व का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू विमानन था। उन्हें देश का पहला पायलट होने का भी गौरव प्राप्त है। उन्होंने टाटा एयरलाइंस बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो बाद में एयर इंडिया बनी। उन्होंने विमान उड़ाने के शौक को 1932 में टाटा एविएशन सर्विस कायम कर पूरा किया।

उन्होंने 1948 में एयर इंडिया इंटरनेशनल की भारत की पहली अंतरराष्ट्रीय एयरलाइन की शुरूआत की। 1953 में भारत सरकार ने जेआरडी को एयर इंडिया का अध्यक्ष बनाया तथा वह 25 साल तक इंडियन एयरलाइंस के निदेशक मंडल के सदस्य रहे।

महज 34 वर्ष की उम्र में जेआरडी टाटा एंड संस के अध्यक्ष चुने गए। उनके नेतृत्व में समूह ने 14 उद्यम शुरू किए और 26 जुलाई 1988 को जब वह इस जिम्मेदारी से मुक्त हुए तो टाटा समूह 95 उद्यमों का गठजोड़ बन चुका था।

कर्मचारियों के हितों का बेहद ध्यान रखने वाले जेआरडी के नेतृत्व में टाटा स्टील ने एक नई परिकल्पना शुरू की। इसके तहत कंपनी का कर्मचारी जैसे ही काम के लिए अपने घर से निकलता है, उसे कामगार मान लिया जाता। यदि कार्यस्थल आते जाते समय कामगार के साथ कोई दुर्घटना होती है तो कंपनी इसके लिए वित्तीय रूप से जिम्मेदार होगी।

जेआरडी को विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उन्हें 1957 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। बाद में 1992 में उन्हें देश के सर्चेच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

भारत के इस विख्यात उद्योगपति का 29 नवंबर 1993 को जिनेवा के एक अस्पताल में निधन हो गया।

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समस्त मैनपुरी वासीयों की ओर से भारत माता के इस होनहार रत्न को शत शत नमन |

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