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सोमवार, 14 दिसंबर 2009

सत्यम ने पुरे किए सफलता के तीन साल

इस तोफिक की कीमत क्या है
ज से तीन साल पहले मैनपुरी की जनता को सत्यम न्यूज़ चैनल का दीदार हुआ था.१४ दिसम्बर २००६ की सुबह थी.धुप अभी पकी भी नहीं थी.स्टेशन रोड पर सत्यम के ऑफिस में चहल पहल थी.पूरी मैनपुरी टीवी से चिपकी थी.जबरदस्त दबाव था.११ बजे हवन और पूजन के बाद सत्यम ने काम शुरू कर दिया था.शाम ७ बजे हमारी पहली न्यूज़ फ्लैस हुयी.अपनों को टीवी पर देख कर मैनपुरी की जनता झूम उठी.सड़कों और चोराहा पर भीड़ जमी हुयी थी सत्यम के इजाद से मैनपुरी की जनता बेहद खुश थी.ये सब देख कर मुझे भी ख़ुशी हो रही थी लेकिन डर भी लग रहा था.क्यों की मुझे उम्मीद नहीं थी कि सत्यम को मैनपुरी की जनता इतना सम्मान और मोहब्बत देगी.मुझे इसकी इतनी उम्मीद नहीं थी.लेकिन उस दिन मेने ये ठान लिया की मैनपुरी की जनता को कभी निराश नहीं होने दूंगा.तीन साल के इस सफर में सबसे ज्यादा शुक्रिया डॉ शेखर भदौरिया करना चाहूँगा.सच तो ये है की मेने तो सिर्फ एक सपना देखा था लेकिन डॉ शेखर ने इसे ज़मीन दी थी.इस सपने को हकीकत में तब्दील किया.उनके बारे में फिर कभी विस्तार से लिखूंगा.वे एक प्रोग्रेसिव सोच के इन्सान हैं जो कुछ हट के करना चाहते हैं.मैनपुरी की जनता को उनके इस प्रयास की तारीफ करनी ही चाहिए.मुझे याद है अक्टूबर का महीना था.उस समय में बी ए जी फ़िल्म्स से जुड़ा था.एक प्रोग्राम की शूटिंग के लिए उनके गावं बिछिया गया था.शूटिंग खत्म होने के बाद चलते वक़्त मेरे बड़े भाई के दोस्त नंदू भैया ने मेरे चैनल खोलने के विचार उनके सामने रखा.डॉ शेखर ने उस पर तुरंत हाँ कर दी.उनके साथ काम करने के लिए मेरे दिल ने फोरन हाँ करने को कहा.मैंने ऐसा किया भी.मेरे ज़ेहन में उनकी छवि एक इमानदार और नेक इन्सान की है जो आज भी ज़ेहन में कायम है.
चैनल शुरू हुआ.लोगों ने कहा सत्यम १ महीने बाद बंद हो जायेगा.सत्यम ने एक महीना पूरा किया.फिर लोगों ने कहा ये तीन महीना तक और चलेगा.सत्यम ने तीन माह भी पुरे कर लिया.आज उन चंद लोगों के मुह सत्यम कि तारीफ करते नहीं थकते.जो कल तक इसके बंद होने की भविष्यवाणी करते थे.चैनल सुबोध.अजय.आशीष.आकांक्षा.नेहा.विशाल.चेतन.बोबी.प्रगति.रामपाल और गौरव की महनत से कीर्तमान रचने लगा था.तीन साल में सत्यम जनता के दिल पर छा गया.सत्यम इन तीन सालों में मैनपुरी की जनता के सुख दुःख का साथी बन गया.सत्यम ने सरकार की कल्याणकारी योजनायों की जानकारी दे कर जनता को जागरूक बनाया.युवाओं को एक नयी सोच दी.विकास पत्रकारिता मे सत्यम तीन सालों में रोल मॉडल बन गया.इसकी लोकप्रियता देश से बहार फैलने लगी.सत्यम को मैनपुरी की जनता अपना चैनल मानती है.तकनीकी और संसाधनों की कमी हमेशा सत्यम में बनी रही लेकिन जनता ने हमेसा इसको नज़रंदाज़ ही किया.ये जनता का मेरे उपर अहसान से कम नहीं है.इसी लिए में अक्सर इसे जनता का चैनल कहता हूँ.आपने स्टाफ को भी में यही कहता हूँ कि आप जनता को माँ-बाप मन कर काम करें.मेरे स्टाफ ने ऐसा किया भी.इसके लिए में अपने स्टाफ का भी शुक्रगुज़ार हूँ. सत्यम के प्रसारण को कई बार कुछ लोगों ने रोकने की कोशिश की ये वो लोग थे जो में मैनपुरी को तरक्की करते नहीं देखना चाहते थे.वे नहीं चाहते थे की मैनपुरी की जनता जागरूक बने.लेकिन ऐसे लोग बहुत कम थे.उनके इरादों में खोट थी सो वे सफल नहीं हो सके.सत्यम जनता की आवाज़ को लेकर बढता जा रहा है.मेरे दोस्त शिवम् ने मुझे काफी होसला दिया.प्रोत्साहित किया.जब सत्यम लोकप्रिय होने लगा तो लोगों ने कहा ''आप मैनपुरी में अपना करियर खत्म कर रहे हो''में सुनता रहता...तरह के सवाल अब मेरी दैनिक दिनचर्या का हिस्सा बन चुके हैं. क्या अच्छी पढ़ाई करने वालों को आपने घर में काम नही करना चाहिए? क्या सबसे ज्यादा मेरी जरुरत दिल्ली या बढे शहरों में है ?आई आई एम् सी से पत्रकरिता की डिग्री लेने के बाद क्या बड़े मीडिया हाउस में ही काम करना चाहिए? मैंने कभी इस बात की फरवाह नही की.मैनपुरी से कई नामी और काबिल हस्तियों के नाम जुड़े हैं अगर वे मैनपुरी की लिए थोड़ा भी करते तो आज मैनपुरी पिछड़ी न होती.में बस इतना जनता हूँ की मैनपुरी का पिछले जन्म का कोई ऋण है जो इस जन्म में पत्रकारिता के जरिये चुका रहा हूँ और मुझे इसमें बेहद खुशी है.क्यों कि मुझे ये मोका नसीब हुआ है.
!! आफलाक़ से लायी जाती है
सीने में छुपाई जाती है
तोहीद की मय सागर से नहीं
आखों से पिलाई जाती है !!
हृदेश सिंह

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

हर रोज नई चाल दिखा रहा है बाजार


यह एक खतरनाक संकेत है। उठापटक से भरपूर शेयर बाजार किसी को सहारा नहीं दे रहा है। यह बाजार न तो छोटे खुदरा निवेशकों का बाजार है और न ही रोजाना ट्रेडिंग कर कमाने खाने वाले कारोबारियों का। कारोबार में उतार-चढ़ाव इतना ज्यादा है कि कोई नहीं समझ पा रहा कि बाजार की चाल आखिर कैसी रहने वाली है। हां, इतना जरूर है कि यह बाजार एक ऐसे बुलबुले में हवा भरता दिखाई दे रहा है, जिस पर बाजार की निगरानी रखने वाली सरकारी ताकतों की नजर जाना बेहद जरूरी है।

पिछले करीब एक महीने से बाजार हर रोज नई चाल दिखा रहा है। एक दिन दो सौ अंक ऊपर जाता है तो दूसरे दिन ढाई सौ प्वाइंट गिरता भी है। उसके अगले दिन फिर डेढ़ सौ प्वाइंट ऊपर जाकर दो दिन पुराने स्तर को पा लेता है। यानी घूम फिर कर बाजार फिर वहीं लौट आता है। जिस अंदाज और जहां से बाजार में पैसा आ रहा है, उसे देखकर अगर अभी बाजार नियंत्रक नहीं चौंक रहा है तो यह सबके लिए खतरनाक हो सकता है।

बाजार की यह हालत छोटे निवेशकों के लिए बहुत ज्यादा जोखिम भरी है। पिछली मंदी में भारी भरकम नुकसान उठाने के बाद खुदरा निवेशक बमुश्किल छह महीने पहले बाजार में लौटा है। लेकिन बाजार की स्थिति डांवाडोल होने के बाद अब फिर उसने अपने हाथ खींच लिये हैं। पिछले तीन-चार महीने में ऐसे छोटे निवेशकों की भागीदारी बाजार में तेजी से कम हुई है, जो नकद सौदे करके डिलीवरी लेने में यकीन रखते हैं। यही निवेशक बाजार को लंबे समय तक आधार प्रदान करते हैं। लेकिन शेयर बाजार के ऐसे नकद कारोबार को देखें तो पता चलता है कि इस साल जून के मुकाबले अक्टूबर में रोजाना औसतन कारोबार 10 से 12 फीसदी घट गया है। यानी शेयर बाजार में डिलीवरी लेने वाले सौदे कम हो रहे हैं।

दूसरी तरफ सटोरियों की जमात बढ़ रही है। वायदा सौदों का कारोबार शेयर बाजार में बढ़ रहा है। ऐसा कारोबार पिछले चार महीने में रोजाना औसतन 69,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 75,000 करोड़ रुपये से ऊपर निकल गया है। मतलब साफ है। निवेशकों का भरोसा बाजार में कम हो रहा है। नकद में डिलीवरी लेकर सौदे करने का मतलब है कि निवेशक में लंबे समय तक बाजार में टिकना चाहता है। यह तथ्य और भी दिलचस्प तब हो जाता है जब यह दिख रहा है कि इन चार महीने में शेयर बाजार के सूचकांक की रफ्तार काफी तेज रही है। इसके बावजूद लंबी अवधि वाले खुदरा निवेशक का भरोसा बाजार में नहीं बन पा रहा है।

आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्या शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियां अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रही हैं? या फिर भविष्य में उनके प्रदर्शन में सुधार की उम्मीद नहीं है? जी नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। दरअसल इसकी सबसे बड़ी वजह है विदेशी संस्थागत निवेशकों [एफआईआई] की बड़े पैमाने पर शेयर बाजार में मौजूदगी। बीते साल यानी 2008 में मंदी के चलते शेयर बाजार से एफआईआई गायब हो गये थे। लेकिन वर्ष 2009 की शुरुआत से ही भारतीय अर्थव्यवस्था के सकारात्मक संकेतों से वे फिर यहां लौटे हैं। लेकिन इस बार कुछ ज्यादा तेजी के साथ।

तमाम अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां मान रही हैं कि इस वक्त चीन और भारत दो अर्थव्यवस्थाएं ऐसी हैं, जो तेज रफ्तार से आगे बढ़ती दिखाई दे रही हैं। इन दोनों में भी एफआईआई रिटर्न के लिहाज से भारतीय शेयर बाजार को ज्यादा बेहतर मान रहे हैं। लिहाजा इस साल जनवरी से अब तक एफआईआई घरेलू शेयर बाजार में 15 अरब डालर झोंक चुके हैं। जाहिर है वे यह काम धर्माथ नहीं कर रहे हैं। उन्हें अपने निवेश पर मुनाफा चाहिए। लिहाजा वे खरीदो-बेचो-खरीदो की नीति पर चलते हुए बाजार में कृत्रिम उतार-चढ़ाव पैदा कर रहे हैं।

एफआईआई के निवेश में एक और पहलू भी उजागर हुआ है। और यह ज्यादा खतरनाक है। विदेशों से आने वाले इस निवेश में एक बड़ा हिस्सा पार्टिसिपेटरी नोट्स [पी नोट्स] के जरिए आया है। आइए पहले समझ लेते हैं कि पी नोट्स का निवेश क्या है? दरअसल घरेलू शेयर बाजार में वही एफआईआई निवेश कर सकते हैं जो सेबी के पास पंजीकृत होते हैं। लेकिन विदेशों में कई ऐसे बड़े निवेशक या फंड भी हैं, जो सेबी के पास पंजीकृत नहीं है। ऐसे निवेशकों के लिए बाजार नियामक ने पी नोट की सुविधा दी है। यानी सेबी के पास पंजीकृत ब्रोकर ऐसे विदेशी निवेशकों को पी नोट जारी करते हैं और वे इन ब्रोकरों के जरिए भारतीय बाजार में पैसा लगाते हैं।

सरकार भी मानती है कि पिछले दो महीने में भारत में आने वाले एफआईआई निवेश में पी नोट्स के जरिए आने वाले निवेश की हिस्सेदारी काफी बड़ी रही है। सितंबर और अक्टूबर में आए एफआईआई निवेश में तीसरा हिस्सा पी नोट्स का रहा है। सरकार ने भी माना है कि ऐसा निवेश बढ़ रहा है। अक्टूबर में यह राशि 1,24,575 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है। जबकि अगस्त तक यह 1,10,355 करोड़ रुपये थी। हालांकि यह कहना काफी मुश्किल और गलत होगा कि पी नोट्स के जरिए घरेलू बाजार में आने वाला यह पूरा निवेश जोखिम भरा है। लेकिन हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि पिछले साल अक्टूबर में शेयर बाजार में जो कुछ हुआ, उसमें इस तरह के निवेश का बहुत बड़ा हाथ था।

लिहाजा यह वक्त है सचेत हो जाने का। बाजार नियंत्रक सेबी के लिए भी और छोटे व खुदरा निवेशकों के लिए भी, जो बाजार में निवेश करते हैं लंबी अवधि के अपने लक्ष्यों को पूरा करने के उद्देश्य से। हम तो यही उम्मीद करेंगे कि ऐसा कुछ न हो जिसकी आशंका हम यहां व्यक्त कर रहे हैं। लेकिन कहावत है कि दवा करने से अच्छा है परहेज कर लिया जाए। इसलिए अभी ऐसे निवेश की पहचान कर उसे बाजार से अलग कर देना चाहिए जो आने वाले समय में किसी तरह की दिक्कत पैदा करे।

- नितिन प्रधान

सोमवार, 23 नवंबर 2009

सरकारी फाइल और मुआवजे का मरहम


अपने देश में आतंकवाद तो स्थायी मेहमान बन चुका है, लेकिन इसके शिकार हुए लोगों का मुआवजा आज भी राजनेताओं और अधिकारियों की लालफीताशाही के बीच झूलता नजर आता है। यही कारण है कि आतंकियों की गोलियों ने मरने वालों के साथ भले कोई भेद न किया हो, लेकिन मृतकों के परिजनों को मिलने वाले सरकारी मुआवजे की राशियों में यह भेद साफ नजर आता है।

मुंबई पर हुए हमले में कुल 179 लोग मारे गए थे। इनमें जो लोग सीएसटी [वीटी] रेलवे स्टेशन के अंदर मारे गए थे, उनके परिजनों को करीब 22 लाख रुपये मुआवजा मिलना निर्धारित हुआ था। लेकिन जो लोग स्टेशन के ठीक बाहर मरे थे, उनके लिए यह राशि घटकर सिर्फ आठ लाख रुपये रह गई। यहां तक कि इस घटना में मारे गए हेमंत करकरे, अशोक काम्टे और विजय सालस्कर जैसे अधिकारियों सहित अन्य सुरक्षाकर्मियों के परिजन भी दुर्भाग्यशाली ही साबित हुए। उन्हें रेल मंत्रालय एवं रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल से तो कुछ मिलना ही नहीं था, लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने भी उनके साथ कंजूसी ही दिखाई गई। पेट्रोलियम मंत्रालय द्वारा शहीदों के परिवारों को पेट्रोल पंप देने की घोषणा भी अब तक थोथी ही नजर आ रही है।

मुआवजे का खेल

आतंकी हमले के तुरंत बाद रेलमंत्री ने प्रत्येक मृतक के परिवार के लिए 10 लाख रुपये मुआवजा घोषित किया था। रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल की ओर से मिलने वाले चार लाख रुपये इससे अलग थे। राज्य सरकार ने भी सभी मृतकों के लिए इस बार पांच-पांच लाख रुपये का मुआवजा घोषित किया था। इसके अतिरिक्त उड़ीसा में चर्चो पर हुए हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने आतंकवाद एवं सांप्रदायिक हिंसा में मारे गए लोगों के लिए तीन लाख रुपये की सहायता योजना शुरू की थी। इस प्रकार उक्त सभी स्त्रोतों को मिलाकर प्रत्येक सीएसटी रेलवे स्टेशन परिसर में मारे गए प्रत्येक मृतक के परिवार को कम से कम 22 लाख रुपये एवं सीएसटी परिसर से बाहर मारे गए लोगों के परिवारों को आठ लाख रुपये मुआवजा मिलना तय था। इसमें प्रधानमंत्री राहत कोष से मिलने वाली सहायता राशि शामिल नहीं है, जिसकी घोषणा हमले के दूसरे दिन ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुंबई आकर की थी।

कंजूस राज्य सरकार

आतंकियों के हमले में मारे गए पुलिसकर्मियों के लिए राज्य सरकार ने उदारतापूर्वक 25 लाख रुपये नकद मुआवजे की घोषणा कर दी थी। लेकिन एक दिसंबर, 2008 को जारी शासनादेश से सरकार की कंजूसी उजागर हो जाती है। जिसके अनुसार उक्त राशि मिलने के बाद किसी पुलिसकर्मी की आनड्यूटी मृत्यु पर उसे गृह विभाग से मिलने वाले 13 लाख रुपये दिया जाना उचित नहीं होगा। इस प्रकार आतंकवाद की एक ही घटना में रेलवे स्टेशन के अंदर मारे गए आमजन को 22 लाख रुपये की तुलना में स्टेशन के बाहर आतंकियों की गोली से शहीद हुए पुलिसकर्मियों के परिजनों के हिस्से में महज 12 लाख रुपये ही आए।

पीएमओ का हाल

सबसे हास्यास्पद स्थिति तो सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री कार्यालय की है। 27 नवंबर, 2008 को प्रधानमंत्री द्वारा घोषित विशेष राहत राशि में घायलों एवं मृतकों को उनकी परिस्थिति के अनुसार अधिकतम दो लाख रुपये तक प्राप्त होने थे। मृतकों एवं घायलों को मिलाकर कुल 403 लोगों को यह लाभ मिलना था। आज तक सिर्फ 30 प्रतिशत लोगों को ही प्रधानमंत्री राहत कोष के चेक प्राप्त हो सके हैं। 79 के तो विवरण तक अभी राज्य सरकार ने प्रधानमंत्री कार्यालय को नहीं भेजे हैं। इसी प्रकार केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से इस प्रकार की घटनाओं में मिलने वाली तीन लाख रुपये की राशि भी अभी 100 से कम लोगों को ही मिल सकी है।

नहीं मिले पेट्रोल पंप

पेट्रोलियम मंत्रालय की ओर से शहीदों के परिजनों को पेट्रोल पंप देने की घोषणा भी अब तक हवाई ही साबित हुई है। आधे से ज्यादा शहीदों को तो पेट्रोल पंप का आबंटन हुआ ही नहीं है। जिनके नाम से पेट्रोल पंप आबंटित हुए भी हैं, उनका आबंटन भी कागजी ही है। क्योंकि उन्हें पेट्रोल पंप के बजाय पेट्रोलियम कंपनी से प्रतिमाह 25 हजार रुपये नकद दिलवाने की व्यवस्था मात्र की गई है। यह भी कब तक जारी रहेगी, कुछ स्पष्ट नहीं है। ऐसे हवाई पेट्रोल पंपों के लाभार्थियों में हेमंत करकरे एवं अशोक काम्टे जैसे हाई प्रोफाइल शहीदों के परिवार भी शामिल हैं।

रिकार्ड में बनाए दरोगा ई सिपाही क्या है भाई....??


बैठ जाइए और बस हमपर छोड़ दीजिए। सिलेबस है मेरे पास और माडल पेपर तैयार है। अरे रिकार्ड में दरोगा बनाए हैं, ई सिपाही क्या चीज है। ग्यारह हजार डाउन करना होगा, बाकी हम देख लेंगे। यह है सिपाही बनाने के लिए पटना के पाश इलाके में खुली एक कोचिंग का दृश्य। बात करते-करते कोचिंग संचालक माडल पेपर भी लाकर रख देता है। आधा दर्जन छात्रों के सामने वह इतिहास से लेकर गणित तक की बात कुछ इस अंदाज में करता है कि कहीं से कोई कनफ्यूजन की गुंजाइश नहीं। विदित हो कि बिहार पुलिस में तेरह हजार सिपाहियों की भर्ती होनी है।

राज्य सरकार ने इस बार सिपाही भर्ती की व्यवस्था को पलट दिया है। पहले सिपाहियों को लिखित परीक्षा में पास होना होगा और फिर उन्हें फिटनेस टेस्ट से गुजरना होगा। सबसे दिलचस्प बात यह है कि लिखित परीक्षा में प्राप्त अंक के आधार पर ही मेधा सूची तैयार की जानी है। राजधानी के जिन इलाकों में हाल तक इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थानों की धूम थी उन इलाकों में सिपाही भर्ती की परीक्षा पास कराने वाली कोचिंग के नये-नये बोर्ड टागे जा रहे हैं। बोर्ड ऐसे कि आप एक नजर में गच्चा खा जाएं।

रिकार्ड दावे वाले बोर्ड में कुछ तस्वीरें भी डाल दी गयी हैं। इलाके और कोचिंग में स्पेस के आधार पर रेट हैं। पाँच हजार से ग्यारह हजार रुपये में पूरे सिलेबस को पढ़ा दिए जाने की गारंटी है।

यानी अगर चालीस लड़के भी आ गये तो तीन माह में दो लाख रुपये का धंधा। सिपाही भर्ती के लिए सिलेबस भर्ती बोर्ड ने जारी कर दिया है। वहा फ्रास की क्त्राति से लेकर संविधान के नीति निर्देशक तत्व और फिर हिंदी और अंग्रेजी के व्याकरण सहित मैट्रिक स्तर पर पढ़ायी जाने वाली विज्ञान के अध्याय शामिल हैं। कोचिंग सेंटर पर पहुंच रहे छात्रों से जब बात होती है तो वे कहते हैं-कहा से पचड़े में पड़ा जाए। एक साथ कई तरह के माडल पेपर उपलब्ध हो जाएंगे और साथ-साथ प्रैक्टिस भी। चलिए पाच हजार देकर देखते हैं। बात सिर्फ कोचिंग संस्थानों तक ही सीमित नहीं है।

गाइड और गेस पेपर छापने वाले प्रकाशकों ने भी इस मौके का भरपूर लाभ उठाने की तैयारी कर रखी है। बाजार सूत्रों की मानें तो दस-पंद्रह दिनों के भीतर बड़ी संख्या में सिपाही भर्ती में शर्तिया सफलता का दावा दिलाने वाले गाइड भी बाजार में उपलब्ध हो जाएंगे। कुछ जगहों पर क्रैश कोर्स की भी तैयारी है। कोचिंग संचालकों ने बताया कि उनकी योजना सिर्फ राजधानी में ही नहीं जिला स्तर पर इस तरह के कोचिंग संस्थानों को शुरू किए जाने की है। अगले माह से इस धंधे में और भी उबाल आएगा। दिसंबर तक फार्म जमा होंगे। इसके बाद परीक्षा की तारीख तय होगी।

रविवार, 22 नवंबर 2009

सच्चा प्यार चाहिए या नानवेज जोक..... ड़ाल करें .....


मैं हूं एक प्यारी सी कुंवारी लड़की। आप हमसे किसी भी तरह की बात कर सकते हैं। चाहे वह..। क्या आपको चाहिए सच्चा प्यार? तो काल कीजिए .. नंबर पर। दस रुपये प्रति मिनट की दर से होगी यह काल। क्या आप बोर हो रहे हैं तो फिर 'जोक' है न आपके लिए। अरे! 'नानवेज जोक' भी है भाई।

मोबाइल कंपनियों का यह खेल आजकल जबर्दस्त तरीके से लोगों को परेशान किये है। पहले, लगातार एक नंबर से फोन आते थे। लोगों ने उसे पहचान लिया था। काल आते ही उस नंबर को उठाना ही बंद कर दिया। पर अब तो मोबाइल कंपनियों के काल सेंटर से नंबर बदल-बदल कर फोन आ रहे हैं।

दिन भर में औसतन दस से पंद्रह एसएमएस तो इस तरह के आ ही जाते हैं। कहने को तो इस पर पाबंदी है पर देश में इसकी कोई सीधी व्यवस्था नहीं कि आप इस तरह के काल की शिकायत संबंधित कंपनी के खिलाफ कर सकें या फिर इस तरह के काल आपके मोबाइल पर न आयें। समस्या इतनी बड़ी है कि हर घर का औसतन तीन से चार आदमी इस समस्या से परेशान है। मेरा ख़ुद का नम्बर NATIONAL DO NOT DISTURB REGISTRY में ragistar किया हुआ है पर फ़िर भी कॉल आ रही है !

मोबाइल कंपनियों का हाल यह है कि अब समाज के संस्कार पर भी चोट करना शुरू कर दिया है। जब काल सेंटर से संबंधित मोबाइल कंपनी द्वारा ग्रुप एसएमएस अपने ग्राहकों को किया जाता है तो उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं रहती कि वह किस उम्र के लोगों को अपना संदेश भेज रहे हैं और उसे पढ़ेगा कौन?

एक संदेश की बानगी देखिए-आप हिना से दोस्ती करना चाहते हैं तो .. नंबर पर आइए, टीना ..नंबर पर मिलेगी और फिर करीना.. नंबर पर। वृद्ध दादा जी एसएमएस नहीं पढ़ पाते हैं और अपने किशोर पोते को कहते हैं क्या है? जब वह एसएमएस अपने दादा जी को पढ़कर सुनाता है तो क्या स्थिति होगी इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है।

मोबाइल कंपनियों से इस तरह के जो काल आ रहे हैं उनमें कभी-कभी बिल्कुल ही उन्मुक्त अंदाज में लड़कियां कुछ इस तरह से बात करती हैं कि मानो..। दफ्तर जाने और लौटने के समय इस तरह के काल खूब आते हैं। जैसे ही मोबाइल की घंटी बजी कि आप रुक गए। भले ही देर क्यूं न हो जाए। आपने हलो बोला तो आधे सेकेंड के बाद उधर से आवाज आती है।

लवमीटर क्या बला है इस बारे में अब तक शायद ही किसी को पता हो पर मोबाइल कंपनियां आपको यह बता रही हैं कि आप अपने नाम और अपनी चहेती के नाम एसएमएस करें। हम लवमीटर पर उसे जांचकर बता देंगे किस स्तर का है आपका प्यार?..आप दिखना चाहते हैं स्लिम एंड ट्रिम तो फिर अपना ब्लड ग्रुप हमें भेजिए हम बताएंगे आपको आपके ब्लड ग्रुप के हिसाब से वह आहार जो आपको स्लिम बना देगा।

प्यार, इश्क और नानवेज जोक के लिए निमंत्रण के साथ-साथ अब आपकी गाय आपके पड़ोसी की गाय से अधिक दूध कैसे दे इस बात की गारंटी के लिए भी एसएमएस करने को आमंत्रित किया जा रहा है !!

टी आर पी की दौड़ में हारे क्विज शो: सिद्धार्थ बासु



एक ऐसा समय था जब रविवार के दिन बच्चे टेलीविजन पर अपने क्विज शो का बेसब्री से इंतजार करते थे लेकिन अब ऐसा नहीं होता। विभिन्न चैनलों के बीच चल रहा टीआरपी युद्ध और दर्शकों की गीत, नृत्य और रियलिटी शो की मांग ने भारतीय टेलीविजन के पर्दे से ज्ञान-आधारित कार्यक्रमों को गायब कर दिया है। अब अभिभावक शिकायत कर रहे हैं।

दो किशोर बच्चों की मां संगीता अग्रवाल कहती हैं, पहले सास-बहु के धारावाहिक चलते थे। अब ग्रामीण परिवेश पर आधारित शो या बिग बॉस जैसे रियलिटी शो चल रहे हैं। मैं अपने बच्चों को क्या देखने दूं।

अग्रवाल कहती हैं कि पहले वह प्रत्येक रविवार को बॉर्नवीटा क्विज कांटेस्ट का इंतजार करती थीं लेकिन अब हिंसात्मक और संवेदनहीन शो उन्हें छोटे पर्दे से दूर रखते हैं।

भारत में क्विज व खेलों से संबंधित रियलिटी कार्यक्रमों के प्रस्तोताओं में से एक सिद्धार्थ बासु कहते हैं कि क्विज शो प्रसारित न होने का सबसे सामान्य कारण टीआरपी की दौड़ है।

बासु ने कहा, ज्ञान-आधारित शो और अंग्रेजी भाषा के कार्यक्रम मुश्किल से ही टीआरपी की सूची में दिखते हैं। इसलिए जब तक एक क्विज शो का प्रसारकों या विज्ञापनदाताओं के साथ गठबंधन नहीं होता तब तक ये शो विलुप्त प्रजाति के कार्यक्रम बने रहेंगे। बॉर्नवीटा क्विज कांटेस्ट, क्विज टाइम, स्पैक्ट्रम, द इंडिया क्विज, मास्टरमाइंड इंडिया, यूनीवर्सिटी चैलेंज, कौन बनेगा करोड़पति और इंडियाज चाइल्ड जीनियस जैसे कार्यक्रम पहले टेलीविजन पर प्रसारित होते थे लेकिन अब इस तरह के कार्यक्रम कहीं भी दिखाई नहीं देते।

बासु सलाह देते हैं, यदि बच्चों को ज्ञान के क्षेत्र में मूल्यों की जरूरत है, तो मैं कहूंगा कि वह टेलीविजन कम देखें या चुनिंदा कार्यक्रम ही देखें।

शनिवार, 21 नवंबर 2009

महारष्ट्र में मीडिया कर्मिओं पर हमले पर मैनपुरी की मीडिया ने फूंका ठाकरे का पुतला


















ठाकरे के पुतले पर विरोध जताते मीडिया कर्मी


पुतला फुकने जाते मैनपुरी के मीडिया कर्मी

महारष्ट्र में मीडिया कर्मिओं पर हमले पर मैनपुरी की मीडिया ने फूंका ठाकरे का पुतला

शि सैनिकों की और से महाराष्ट्र में मीडिया पर किये गए हमले का मैनपुरी के मीडिया ने पुरजोर तरीके से विरोध किया.इस घटना को लोकतंत्र के लिए बेहद शर्मनाक बताते हुए शिव सैनकों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की है.दैनिक जागरण.राष्ट्रीय सहारा.अमरउजाला.दैनिक हिन्दुस्तान.डीएलए और बुराभाला ब्लॉग के मीडिया कर्मियों ने बाला साहब का पुतला जला कर नारेबाजी की.इस मोके पर विरिष्ठ पत्रकार खुशीराम यादव ने शिवसैनिकों की इस हरकत की कड़े शब्दों में भर्त्सना की.दैनिक जागरण के संवादाता राकेश रागी ने मनसे और शिवसेना को प्रतिवंधित करने की मांग की.राष्ट्रिय सहारा के सिटी चीफ अगम चौहान ने कहा कि भाषा और प्रदेश के नाम पर जनभावनाओं को भडकाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाये.सत्यम चेनल ने इस घटना के विरोध में काली पट्टी बांध कर दफ्तर में काम किया.चेनल के सम्पादक हृदेश सिंह ने कहा कि देश कि जनता को भी एक जुट होकर ऐसे लोगों का विरोध करना चाहिए.बुरा भला ब्लॉग के सम्पादक शिवम् मिश्र ने भी इस घटना को गलत बताया.इस मोके पर सुबोध तिवारी.चेतन चतुर्वेदी.विशाल शर्मा.मुकेश कश्यप.नेहा सिंह.अमित उपाध्याय.कोशल यादव.पंकज चौहान.आशीष दीक्षित.प्रगति चौहान गौरव सहित कई मीडिया कर्मी मौजूद रहे.

सिर्फ 19 रुपये में पुराना नंबर रखना संभव


अगर आप एक मोबाइल कंपनी की सेवाएं छोड़ कर किसी दूसरी कंपनी का कनेक्शन लेना चाहते हैं तो आपको केवल एक मुश्त 19 रुपये खर्च करने होंगे।

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण [ट्राई] ने शुक्रवार को इस बारे में साफ निर्देश दूरसंचार कंपनियों को दे दिए। इस निर्देश के मुताबिक नंबर पोर्टबिलिटी की सुविधा लेने वाले ग्राहकों को पुराने नंबर जारी रखने के लिए 19 रुपये का भुगतान करना होगा।

महानगरों सहित 'ए' श्रेणी के शहरों में नंबर पोर्टबिलिटी की सुविधा 31 दिसंबर, 2009 से लागू की जाएगी। देश के अन्य हिस्सों में यह मार्च, 2010 से लागू की जानी है।

इस बारे में ट्राई की तरफ से जारी प्रावधानों के मुताबिक यह शुल्क ग्राहकों को नई सेवा प्रदाता कंपनी को देना होगा। शुल्क लगाने की मुख्य वजह यह है कि पुराने नंबर की जांच- पड़ताल नई कंपनी को अपने स्तर पर करनी होगा। इसमें वह चार दिनों का वक्त लेगी। अगर कंपनियां चाहें तो वे इस शुल्क को माफ भी कर सकती हैं।

माना जा रहा है कि मोबाइल सेवा में उतरने वाली नई कंपनियों ने नंबर पोर्टबिलिटी का फायदा उठाने की पूरी तैयारी कर ली है। चूंकि जिन शहरों में पहले चरण में यह सुविधा शुरू की जा रही है वहां पहले से ही काफी जबरदस्त प्रतिस्पद्र्धा चल रही है। पुरानी कंपनियों ने बाजार पर काफी हद तक कब्जा जमा लिया है। ऐसे में जिन कंपनियों को नया लाइसेंस मिला है वे मौजूदा कंपनियों के बाजार पर कब्जा जमाने के लिए इस सेवा का फायदा उठा सकती हैं। यह भी माना जा रहा है कि मौजूदा सेवा प्रदाता कंपनियां भी उन ग्राहकों के बाहर जाने से खुश होंगी जिनसे कोई खास कारोबार नहीं मिलता है। सनद रहे कि हाल ही में किये गये एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि 45 फीसदी उपभोक्ता मोबाइल फोन कंपनियों की सेवाओं से असंतुष्ट हैं। इससे यह भी पता चला है कि प्री पेड ग्राहक और कम इस्तेमाल करने वाले ग्राहक अपनी सेवा प्रदाता कंपनी को छोड़ने में ज्यादा आनाकानी नहीं करेंगे।

भव्यता का प्रतीक मानी जाती थी पेंसिल !!


करीने से लिखे हुए खूबसूरत अक्षर भला किसे नहीं भाते। अक्षरों को खूबसूरत अंदाज देने में पेंसिल का सबसे अहम योगदान है, लेकिन कम ही लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि लेखनी को खूबसूरत अंदाज देने वाली पेंसिल किसी समय में वैभव का प्रतीक भी मानी जाती थी।

अपने शुरुआती समय में सभी पेंसिल पीले रंग की बनाई जाती थीं। इसका कारण था इसके ग्रेफाइट का चीन से आना। चीन में इस रंग को भव्यता का रंग माना जाता था और चीन ने ग्रेफाइट देने से पहले यह शर्त रखी थी कि सभी पेंसिलों को पीले रंग से बनाया जाए। पीले रंग की यह पेंसिल उस समय इसे रखने वाले की भव्यता और शान का प्रतीक मानी जाती थी।

बच्चों के जीवन में पेंसिल की उपयोगिता के संबंध में नर्सरी की शिक्षिका राम्या ने कहा 'आजकल कई माता-पिता अपने बच्चों को पेन से लिखने के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन शुरु में बच्चों को पेंसिल से लिखने की ही प्रेरणा दी जानी चाहिए। पेंसिल के इस्तेमाल से सुधरी लेखनी जिंदगी भर खूबसूरत बनी रहती है। राम्या ने कहा कि बच्चों को पेंसिल से विशेष आकृतियां बनाने को कहा जाता है, जिसे पेंसिल आर्ट का नाम दिया गया है।

रोहिणी में आर्ट क्लासेज चलाने वालीं दिव्या खंडेलवाल ने बताया कि नर्सरी से कक्षा पांच तक के बच्चों को पेंसिल आर्ट सिखाने से जिंदगी भर उनकी लेखनी और कला में उत्कृष्टता बनी रहती है। दिव्या ने बताया कि पेंसिल आर्ट के तहत बच्चों को पेंसिल से शेडिंग और ड्राइंग सिखाई जाती है। अब कई प्रतियोगिताओं में भी पेंसिल आर्ट को बढ़ावा मिल रहा है, जिससे बच्चे इसका उपयोग करने के लिए प्रेरित हो रहे हैं।

दुनिया के कई देशों में 19 नवंबर को पेंसिल दिवस मनाया जाता है। इसी दिन अमेरिकी वैज्ञानिक हॉफमेन लिनमेन को रबर लगी हुई पेंसिल बनाने का पेटेंट मिला था। कई यूरोपीय देशों में इसे फ्री पेंसिल डे भी कहा जाता है क्योंकि इस दिन पेंसिल फ्री बांटी जाती हैं। यूरोप में वर्ष 1622 से पेंसिलों का उत्पादन हो रहा है। पुराने समय की पेंसिल आज की पेंसिलों से अलग हुआ करती थीं। पहली अमेरिकी पेंसिल का निर्माण 1812 में हुआ था।

पेंसिल के बारे में एक मजेदार तथ्य यह भी माना जाता है कि एक सामान्य पेंसिल लगभग 45,000 शब्द लिख सकती है। साथ ही एक पेंसिल से लगभग 35 मील लंबी लाइन खींची जा सकती है। पेंसिल से शून्य गुरुत्वाकर्षणमें लिखना भी संभव है।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

सचिन बने 30 हजारी


रिकार्डो के बादशाह सचिन तेंदुलकर ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में 20 बरस पूरे करने के चंद दिन बाद शुक्रवार को श्रीलंका के खिलाफ पहले क्रिकेट टेस्ट में अपने कुल अंतरराष्ट्रीय रनों की संख्या 30 हजार तक पहुंचाकर एक नया विश्व रिकार्ड बनाया, जिसे तोड़ना किसी भी बल्लेबाज के लिए आसान नहीं होगा।

तेंदुलकर ने शुक्रवार को अहमदाबाद में भारत की दूसरी पारी में चनाका वेलेगेदारा की गेंद को डीप स्क्वायर लेग में एक रन के लिए खेलकर जैसे ही अपने रनों की संख्या को 35 तक पहुंचाया तो वह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में 30,000 रन पूरे करने वाले पहले बल्लेबाज बन गए।

मास्टर ब्लास्टर ने 436 एकदिवसीय मैचों में 44.5 की औसत के साथ 17,178 रन बनाए हैं, जबकि वेलेगेदारा की गेंद पर एक रन के साथ टेस्ट मैचों में उनके रनों की संख्या 12,812 तक पहुंच गई। मुंबई के इस बल्लेबाज ने इसके अलावा दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ एकमात्र ट्वेंटी-20 मैच में 10 रन की पारी खेली थी और क्रिकेट के इन तीनों प्रारूपों में उनकी कुल [17178, 12812, और 10] रन संख्या अब 30 हजार हो गई है।

तेंदुलकर के रिकार्ड की बराबरी करना किसी भी बल्लेबाज के लिए आसान नहीं होगा, क्योंकि सर्वाधिक अंतरराष्ट्रीय रनों की सूची में मास्टर ब्लास्टर के बाद जिस बल्लेबाज का नंबर आता है वह रिकी पोंटिंग हैं और आस्ट्रेलियाई कप्तान 24,057 रनों के साथ भारतीय दिग्गज से काफी पीछे हैं।

तेंदुलकर ने एकदिवसीय क्रिकेट में रिकार्ड 45 शतक और 91 अर्धशतक के साथ 44.5 की औसत से रन बनाए हैं, जबकि टेस्ट मैचों में भी उन्होंने रिकार्ड 42 शतक और 53 अर्धशतक के साथ 54 से अधिक की बेजोड़ औसत के साथ रन बटोरे हैं। उनके नाम अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में रिकार्ड 87 शतक [45 एकदिवसीय और 42 टेस्ट] शतक हैं।

इस मैच से पहले तेंदुलकर के नाम 596 अंतरराष्ट्रीय मैचों में 29,961 रन दर्ज थे और उन्होंने तीस हजारी बनने के लिए 39 रन रन की दरकार थी। वह पहली पारी में केवल चार रन बनाने के बाद अपनी तीसरी गेंद पर ही वेलेगेदारा का शिकार बनकर पवेलियन लौट गए थे, लेकिन उन्होंने दूसरी पारी में यह उपलब्धि हासिल कर ली।

तेंदुलकर और पोंटिंग के बाद अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में सर्वाधिक रन बनाने वालों की सूची में संन्यास ले चुके वेस्टइंडीज के महान बल्लेबाज ब्रायन लारा का नाम आता है, जिन्होंने 430 मैचों में 46.28 की औसत से 22,358 रन बनाए हैं।

मौजूदा टेस्ट में 177 रन बनाकर भारत की पहली पारी को ढहने से बचाने वाले राहुल द्रविड़ 473 मैचों में 45।06 की औसत से 21588 रन बनाकर चौथे, जबकि दक्षिण अफ्रीका के आलराउंडर जाक कैलिस 436 मैचों में 49.11 की औसत के साथ 20,974 रन जोड़कर सर्वाधिक अंतरराष्ट्रीय रन बनाने वाले खिलाड़ियों की सूची में पांचवें स्थान पर हैं।

मैनपुरी जनपद के सभी खेल प्रेमियों की ओर से 'रिकार्डो के बादशाह' सचिन तेंदुलकर कों बहुत बहुत बधाइयाँ और आगे आने वाले समय के लिए शुभकामनाएं !

कलाम ने टीपू को बताया था राकेट का अविष्कारक


'मैसूर के शेर' के नाम से मशहूर और कई बार अंग्रेजों को धूल चटा देने वाले टीपू सुल्तान राकेट के अविष्कारक तथा कुशल योजनाकार भी थे।

उन्होंने अपने शासनकाल में कई सड़कों का निर्माण कराया और सिंचाई व्यवस्था के भी पुख्ता इंतजाम किए। टीपू ने एक बांध की नींव भी रखी थी। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने टीपू सुल्तान को राकेट का अविष्कारक बताया था। [देवनहल्ली वर्तमान में कर्नाटक का कोलर जिला] में 20 नवम्बर 1750 को जन्मे टीपू सुल्तान हैदर अली के पहले पुत्र थे।

इतिहासकार जीके भगत के अनुसार बहादुर और कुशल रणनीतिकार टीपू सुल्तान अपने जीते जी कभी भी ईस्ट इंडिया साम्राज्य के सामने नहीं झुके और फिरंगियों से जमकर लोहा लिया। मैसूर की दूसरी लड़ाई में अंग्रेजों को खदेड़ने में उन्होंने अपने पिता हैदर अली की काफी मदद की।

टीपू ने अपनी बहादुरी के चलते अंग्रेजों ही नहीं, बल्कि निजामों को भी धूल चटाई। अपनी हार से बौखलाए हैदराबाद के निजाम ने टीपू से गद्दारी की और अंग्रेजों से मिल गया।

मैसूर की तीसरी लड़ाई में अंग्रेज जब टीपू को नहीं हरा पाए तो उन्होंने मैसूर के इस शेर के साथ मेंगलूर संधि के नाम से एक सममझौता कर लिया, लेकिन फिरंगी धोखेबाज निकले। ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद के निजाम के साथ मिलकर चौथी बार टीपू पर जबर्दस्त हमला बोल दिया और आखिरकार 4 मई 1799 को श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए टीपू शहीद हो गए।

मैसूर के इस शेर की सबसे बड़ी ताकत उनकी रॉकेट सेना थी। रॉकेटों के हमलों ने अंग्रेजों और निजामों को तितर-बितर कर दिया था। टीपू की शहादत के बाद अंग्रेज रंगपट्टनम से निशानी के तौर पर दो रॉकेटों को ब्रिटेन स्थित वूलविच म्यूजियम आर्टिलरी गैलरी में प्रदर्शनी के लिए ले गए।

भारत माता के इस 'शेर' को सभी मैनपुरी वासीयों का शत शत नमन !


गुरुवार, 19 नवंबर 2009

९० के दशक के बाद बदलती देश की पत्रकारिता

देश में योग्य संपादकों की कमी को पूरा किया जाये

1990 में कंप्यूटर तकनीक के जाने से पत्रकारिता में तेजी बदलाव आया.कई छोटे अखबारों का प्रसार देखते ही देखते ज्यामिती ढंग से बढने लगा.उदारीकरण की नीतियों का हर जगह असर दिखने लगा.ये बदलाव ज़मीन से लेकर इंसानी दिमाग पर असर डाल रहा था.हिंदुस्तान बदल रहा था.छोटे शहर मसलन मैनपुरी.एटा.इटावा जैसे बेहद छोटे और पिछड़े जिलों मैं भी इस बदलाव के पुख्ता तोर पर सबूत मिलने लगे थे.बाबरी मस्जिद का मुद्दा उस समय पुरे सबाव पर था.इस घटना ने खास तोर पर हिंदी पत्रकारिता को जनजन तक पहुँचाने में अहम भूमिका अदा की.
90 का दशक बदलाव लेकर आया था.राजनीती.आर्थिक.सामाजिक हर चीज़ पर असर हो रहा था.उधर इराक में अमेरिकी फोज़ का दखल.ये उस दौर की प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय घटना थी.सेट लाइट चेनल को लोकप्रिय और इसके प्रति जनता में जिज्ञासा पैदा करने में इराक -अमेरिका के विवाद ने अहम भूमिका निभाई.हिंदुस्तान की जनता ने राम रावण के युद्ध के बाद सम्भवता इसी युद्ध की मनोरंजन के तौर पर लिया.रोनी स्क्रोबाला ने सबसे पहले हिंदुस्तान की जनता को इस युद्ध के फोटेज़ ख़बरों में पेश किये.हिंदुस्तान में सेट लाइट चेनल की यहीं से शुरुआत हुयी.जनता टीवी पर अब इस युद्ध को देख कर मनोरंजन कर रही थी.यानि जनता इस युद्ध को युद्ध की तरह न लेकर टीवी के जरिये मनोरंजन के तौर पर ले रही थी।
इधर अख़बारों में मशीनों के इस्तेमाल ने नई शुरुआत की कर दी थी.दैनिक जागरण.अमर उजाला.जैसे अख़बारों पर इन बदलावों का सबसे ज्यादा असर देखा गया.अखबार रंग बिरंगे होने लगे थे.कलेवर बदलने लगे.बोटम न्यूज़ अब पेज- थ्री के आगे बेकार लगने लगी थीं. कई मंथली मैगज़ीन अब विकली हो चुकीं थी.पाठकों का बड़ा वर्ग अब खबरों को जानकारी की भूंख मिटने के लिए पहली बार जनता सूचना के इतने सारे माध्यमों का एक साथ प्रयोग कर रहा था. मोजूदा प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह उस समय देश के वित्तमंत्री थे..आर्थिक सुधार का फ़ॉर्मूला लेकर आये थे.जो कामयाब हो रहा था....
मीडिया के विकास से इस सुधार का असर जनता के दिमाग पर हो रहा था.देखा जाए तो इस दौर में ही पत्रकारिता में गिरावट आने लगी थी उल्टा पिरामिट शैली जो सेकेंड वर्ल्ड वार में विकसित हुयी थी वो इस दौर में ब्रेकिंग न्यूज़ के सहारे चलने लगी थी.ब्रेकिंग न्यूज़ से पत्रकारिता में खबरों का छलिया पन अब साफ़ दिखाई देने लगा था.पत्रकारिता में गम्भीरता की कमी यहीं से शुरू हुयी.आज देश में योग्य संपादकों के बेहद कमी महसूस होती है.80 के दशक में संपादकों के फोज़ थी जो हर मामलें में जनता के दिमाग के ताले खोल रही थी. इमर्जेसी के दौरान गम्भीर पत्रकारिता की शानदार झलक देखने को मिली.उस दौर के ही पत्रकार आज भी पत्रकारिता जगत के सिरमोर हैं.अख़बारों के रीजनल होने से प्रचार और प्रसार में इजाफा हुआ लेकिन कंटेंट के मामले में अखबार के तेवरों में वो बात नहीं दिखती जो अस्सी और नब्बे के दशक में नजर आती थी.जबकि आज पत्रकारिता का स्कोप बढ़ा है.कई संस्थान आज पत्रकारिता की डिग्री दे रहे है.इन संस्थानों में पढने वालों की भीड़ भी लग रही है.बावजूद पत्रकारिता में गम्भीरता कम होने की बात अक्सर सुनी जाती है.दरसअल पत्रकारिता में मेहनती पत्रकारों की कमी है.वे सम्मान तो चाहते है लेकिन ज्ञान हासिल करने से कतराते हैं.देश में योग्य संपादकों की बेहद कमी है.देश में प्रशासन और सेना में अफसरों की कमी के तो खूब समाचार देखते और सुनते हैं लेकिन संपादकों को लेकर कभी इस तरह के चर्चा भी नहीं होती?समाचर पत्रों और चेनल में काबिल संपादकों की कमी बेहद चिंता का विषय होना चाहिए.और सीनियर संपादकों और पत्रकारों को इस पर गम्भीर होना चाहिए.कहने का मतलब ये है की आज जिस तरह से पत्रकारिता पर सवाल किये जाते हैं उनके मूल में सबसे बड़े कारण को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है.

हृदेश सिंह

इंदिरा गांधी के फैसलों में होती थी हिम्मत !!


पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एक निडर नेता थीं जिन्होंने परिणामों की परवाह किए बिना कई बार ऐसे साहसी फैसले किए जिनका पूरे देश को लाभ मिला और उनके कुछ ऐसे भी निर्णय रहे जिनका उन्हें राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ा लेकिन उनके प्रशंसक और विरोधी, सभी यह मानते हैं कि वह कभी फैसले लेने में पीछे नहीं रहती थीं और जनता की नब्ज समझने की उनमें विलक्षण क्षमता थी।

उनके समकालीन नेताओं के अनुसार बैंकों का राष्ट्रीयकरण, पूर्व रजवाड़ों के प्रिवी पर्स समाप्त करना, कांग्रेस सिंडिकेट से विरोध मोल लेना, बांग्लादेश के गठन में मदद देना और अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को राजनयिक दांव पेंच में मात देने जैसे तमाम फैसले और कदम इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व में मौजूद निडरता के परिचायक थे।

साथ ही आपातकाल की घोषणा, लोकनायक जयप्रकाश नारायण तथा प्रमुख विपक्षी नेताओं को जेल में डालना, आपरेशन ब्लू स्टार जैसे कुछ निर्णयों के कारण उन्हें काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा।

लाल बहादुर शास्त्री के बाद प्रधानमंत्री बनी इंदिरा को शुरू में गूंगी गुड़िया की उपाधि दी गई थी। लेकिन 1966-77 और 1980-84 के दौरान प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा ने अपने साहसी फैसलों के कारण साबित कर दिया कि वह एक बुलंद शख्सियत की मालिक हैं।

पूर्व केंद्रीय मंत्री वसंत साठे ने कहा कि इंदिरा गांधी का यह विलक्षण गुण था कि वह लोगों की भीड़, भले ही वह नाराज ही क्यों न हो, में जाने से बिल्कुल नहीं घबराती थीं। भीड़ की नब्ज पहचानने की उनमें जबर्दस्त क्षमता थी। उन्होंने बताया कि एक बार इंदिरा ने मुझसे कहा था कि वह भीड़ के बीच जाकर ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हैं क्योंकि भीड़ ही उनका सुरक्षा कवच बन जाती है।

उन्होंने बताया कि जनता पार्टी सरकार के शासनकाल में इंदिरा की सुरक्षा बिल्कुल हटा ली गई थी। लेकिन वह उस दौरान लगभग पूरे देश में घूमी। साठे ने उड़ीसा में श्रीमती गांधी के साथ हुई एक घटना को याद करते हुए बताया कि कुछ लोगों ने एक जनसभा में उन पर पथराव किया। एक पत्थर उनकी नाक पर लगा और खून बहने लगा।

इस घटना के बावजूद इंदिरा गांधी का हौसला कम नहीं हुआ। वह वापस दिल्ली आईं। नाक का उपचार करवाया और तीन चार दिन बाद वह अपनी चोटिल नाक के साथ फिर चुनाव प्रचार के लिए उड़ीसा पहुंच गईं। उनके इस हौसले के कारण कांग्रेस को उड़ीसा के चुनाव में काफी लाभ मिला।

पूर्व केंद्रीय मंत्री सत्यप्रकाश मालवीय कहते हैं कि इंदिराजी के हर फैसले में हिम्मत और बेबाकी झलकती थी। वह भीड़ में जनता के बीच यूं ही चली जाया करती थीं। वह जब तक रहीं उन्होंने यह परवाह नहीं की कि उनके किसी कदम से उनकी जान को खतरा हो सकता है।

मालवीय कहते हैं कि वर्ष 1959-60 में इंदिरा गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनी थीं। उस दौरान वह एक बार आम सभा के लिए इलाहाबाद आईं। कई लोग उनसे मिलने के इच्छुक थे। उन्होंने इसका ध्यान रखा और आम सभा के बाद अचानक लोगों के बीच चली गईं। उन्हें इसकी कभी हिचक नहीं रही और न ही उन्होंने अपनी जान की कभी परवाह की।

मालवीय ने कहा कि एक और वाकया 1973 का है। इंदिराजी कांग्रेस कार्यकर्ताओं के एक सम्मेलन में भाग लेने शहर आई थीं। उनकी सभा के दौरान विपक्षी नेताओं ने जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन किया और उन्हें काले झंडे दिखाए गए। लेकिन उस जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन से इंदिराजी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आई। अपने संबोधन में विरोधियों को शांत करते हुए उन्होंने सबसे पहले कहा कि मैं जानती हूं कि आप यहां इसलिए हैं क्योंकि जनता को कुछ तकलीफें हैं। लेकिन हमारी सरकार इस दिशा में काम कर रही है। उन्होंने कहा कि इंदिराजी खामियाजे की परवाह किए बगैर फैसले करती थीं। आपातकाल लगाने का काफी विरोध हुआ और उन्हें नुकसान उठाना पड़ा लेकिन चुनाव में वह फिर चुनकर आई। वह ही ऐसा कर सकती थीं।

प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुत्री इंदिरा का जन्म इलाहाबाद में 19 नवंबर 1917 को हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्होंने अपनी वानर सेना बनाई और सेनानियों के साथ काम किया। जब वह लंदन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ रही थीं तो वहां आजादी समर्थक इंडिया लीग की सदस्य बनीं।

भारत लौटने पर उनका विवाह फिरोज गांधी से हुआ। वर्ष 1959 में ही उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया गया। नेहरू के निधन के बाद जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो इंदिरा ने उनके अनुरोध पर चुनाव लड़ा और सूचना तथा प्रसारण मंत्री बनीं। वह वर्ष 1966-77 और 1980-84 के बीच प्रधानमंत्री रहीं। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद वह सिख अलगाववादियों के निशाने पर थीं। 31 अक्टूबर 1984 को उनके दो अंगरक्षकों ने ही उनकी हत्या कर दी।

सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को शत शत नमन !


बुधवार, 18 नवंबर 2009

अब सभी समझ पाएंगे काग की भाषा!


पशु-पक्षियों की बोली में भी कोई न कोई संदेश छिपा होता है। प्राचीन काल में लोग पशु-पक्षियों की भाषा पर भविष्यवाणी करते थे जो सटीक बैठती थी। ऐसी ही एक हस्तलिखित पांडुलिपि शिमला के पांडुलिपि रिसोर्स सेंटर को मिली है जिसमें कौव्वे की कांव-कांव का रहस्य छिपा है।

टांकरी लिपि में करीब दो सौ पृष्ठ के इस ग्रंथ का नाम है 'काग भाषा'। यदि रिसोर्स सेंटर इसका अनुवाद करवाता है तो छिपे रहस्य का भी पता चल सकेगा।

तीन सौ साल पुराना, दो सौ पन्नों का यह ग्रंथ शिमला जिले से मिला है जिसमें कौव्वे की बोली से संबंधित जानकारी है। शाम, सुबह या दोपहर को कौव्वे की कांव-कांव का अर्थ क्या होता है,पुस्तक में यह जानकारी है। कौव्वा किस घर के किस दिशा में बैठा है, किस दिशा में मुंह है। इन रहस्यों से पर्दा इसके अनुवाद के बाद ही उठेगा।

रिसोर्स सेंटर में सैकड़ों साल पुराने रजवाड़ाशाही का इतिहास के अलावा आयुर्वेद, ज्योतिष, तंत्र-मंत्र और यंत्र के अलावा धार्मिक ग्रंथ भी शामिल हैं। यह पांडुलिपियां विभिन्न भाषाओं मसलन पाउची, फारसी, पंडवाणी, चंदवाणी, ब्रह्माी, शारदा, भोटी, भटाक्षरी, संस्कृत, टांकरी, देवनागरी आदि लिपियों में हैं। केंद्रीय पांडुलिपि मिशन ने हिमाचल रिसोर्स सेंटर को पांडुलिपि तलाश अभियान में अव्वल माना है।

सैकड़ों साल पहले जब पुस्तक प्रकाशित करने के संसाधन कम थे तो लोग हाथों से लिखा करते थे। इसमें धार्मिक साहित्य के अलावा ज्योतिष, आयुर्वेद, नाड़ी शास्त्र, तंत्र-मंत्र-यंत्र, इतिहास, काल और घटनाएं होती थी। केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने देश में बिखरी इन दुर्लभ पांडुलिपियों को एकत्रित करने के लिए राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन की शुरूआत की। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के तहत हिमाचल भाषा, संस्कृति एवं कला अकादमी को 2005 में रिसोर्स सेंटर घोषित किया गया है।

रिसोर्स सेंटर का कार्य हिमाचल में पांडुलिपियों को ढूंढ़ना, उन्हें संरक्षित करना तथा उसमें छिपे रहस्य को जनता के सामने लाना था। रिसोर्स सेंटर को अभी तक प्रदेश के विभिन्न कोने से 44,642 पांडुलिपियां मिली हैं जो अब ऑनलाइन हैं जबकि 600 के करीब पांडुलिपियां रिसोर्स सेंटर में हैं।

गौरतलब है कि इस भाषा के ज्ञाता बहुत कम ही रह गए हैं। इसलिए रिसोर्स सेंटर ने इसके लिए गुरु-शिष्य परंपरा भी शुरू की है। अधिकतर पांडुलिपियां तंत्र-मंत्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, इतिहास और धर्मग्रंथ से संबंधित पुस्तकें मिल रही हैं।

रिसोर्स सेंटर का कहना है कि सबसे अधिक पांडुलिपियां लाहुल-स्पीति में मिल रही हैं। वहां अभी 3038 पांडुलिपियों का पता चला है। यहां मोनेस्ट्री से संबंधित दस्तावेज ज्यादा हैं। अभी तक टांकरी लिपि में पांच शिष्य गुरु हरिकृष्ण मुरारी से यह लिपि सीख रहे हैं। यह सेंटर कांगड़ा के शाहपुर में खोला गया है। केंद्र सरकार से सिरमौर में पाउची लिपि सिखाने के लिए सेंटर खोलने की अनुमति मिल चुकी है।

पांडुलिपि रिसोर्स सेंटर के कोर्डिनेटर बीआर जसवाल कहते हैं कि कुछ पांडुलिपियों का अनुवाद किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि हिमाचल के कोने-कोने में प्राचीन पांडुलिपियां पड़ी हैं, जिनमें अकूत ज्ञान का भंडार छुपा है। पांडुलिपि के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए समय-समय पर सेमीनार गोष्ठियों का आयोजन किया जाता है।

पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए अलग से सेंटर भी स्थापित किया गया है जहां इन पर केमिकल लगाकर इन्हें संरक्षित किया जाता है। पांडुलिपियों को उपचारात्मक और सुरक्षात्मक उपाय किए जाते हैं। धुएं, फंगस, कीटों का असर नहीं रहता। इसके लिए पैराडाइ क्लोरोवैंजीन, थाइमोल, ऐसीटोन, मीथेन आयल, बेरीक हाइड्राओक्साइड, अमोनिया आदि रसायनों का प्रयोग कर संरक्षित किया जाता है।

खजाने में क्या-क्या है ?

हिमाचल संस्कृति एवं भाषा अकादमी में अब तक जो पांडुलिपियां मिली हैं उनमें प्रमुख कांगड़ा में 600 साल पुराना आयुर्वेद से संबंधित कराड़ा सूत्र है जो भोटी लिपि में लिखा गया है। इसके अलावा कहलूर-हंडूर, बिलासपुर-नालागढ़, सिरमौर रियासत का इतिहास [उर्दू], कटोच वंश का इतिहास, कनावार जिसमें किन्नौर का इतिहास, राजघराने, नूरपूर पठानिया, पठानिया वंश का इतिहास, बृजभाषा में रसविलास, सिरमौर सांचा [पाउची में], रामपुर के ढलोग से मंत्र-तंत्र, राजगढ़ से 300 साला पुराना इतिहास, 12वीं शताब्दी में राजस्थान के पंडित रानी के दहेज में आए थे उनके ग्रंथ भी मिले हैं जो पाउची में हैं।

पांगी में चस्क भटोरी नामक एक पांडुलिपि ऐसी मिली हैं जिसका वजन 18 किलो बताया जा रहा है। एक अन्य पांडुलिपि लाहुल-स्पीति में भोटी भाषा में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। जपुजी साहब, महाभारत, आयुर्वेद, स्कंद पुराण, कुर्सीनामा, राजाओं के वनाधिकार, कुरान तक की प्राचीन पांडुलिपियां मिली हैं।

मोहिंदर अमरनाथ कों वर्ष 2008-09 का 'लाइफटाइम अचीवमेंट'



भारत की 1983 विश्व कप जीत के नायक पूर्व आलराउंडर मोहिंदर अमरनाथ को बीसीसीआई ने वर्ष 2008-09 के लिए सीके नायडू 'लाइ फटाइम अचीवमेंट' पुरस्कार देने की घोषणा की।

अमरनाथ को बीसीसीआई के समारोह में यह पुरस्कार दिया जाएगा जिसमें उन्हें एक ट्राफी और 15 लाख रुपये मिलेंगे। अमरनाथ ने 1969 से 1988 तक चले अपने करियर में 69 टेस्ट मैच में 4378 रन बनाए। उन्होंने इसके अलावा 85 एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैचों में 1924 रन भी जोड़े। उन्हें 1983 विश्व कप के सेमीफाइनल और फाइनल में मैन आफ द मैच चुना गया था।

अमरनाथ ने 1969 में बिल लारी की अगुवाई वाली आस्ट्रेलियाई टीम के खिलाफ टेस्ट मैचों में पदार्पण किया। वह 1981-82 में रणजी खिताब जीतने वाली दिल्ली टीम के कप्तान भी थे। स्वतंत्र भारत के पहले टेस्ट कप्तान और मोहिंदर के पिता लाला अमरनाथ 1994 में शुरू हुए इस पुरस्कार को हासिल करने वाले पहले क्रिकेटर थे। उन्होंने बांग्लादेश और मोरक्को की राष्ट्रीय टीमों के अलावा राजस्थान की रणजी ट्राफी टीम को कोचिंग भी दी।

आज भी अमरनाथ क्रिकेट कों एक कमेंटेटर के रूप में अपना योगदान दे रहे है |

मैनपुरी जनपद के सभी क्रिकेट प्रेमियों की ओर से मोहिंदर अमरनाथ जी कों बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

राजनीतिक अवसरवादिता - अब बस भी करो !!


उत्तर प्रदेश के दो बड़े नेता मुलायम सिंह और कल्याण सिंह जिस तरह यकायक एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो गए उससे उनकी राजनीतिक अवसरवादिता का ही पता चलता है। अब इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि मुलायम सिंह ने जब यह समझा कि कल्याण सिंह उनके वोट बढ़ाने का काम कर सकते हैं तब उन्होंने उन्हें गले लगा लिया और जब यह समझ आया कि उनका साथ महंगा पड़ा तो दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंका। कल्याण सिंह से तौबा करने के संदर्भ में मुलायम सिंह की इस सफाई का कोई मूल्य नहीं कि वह तो उनकी पार्टी में थे ही नहीं और उन्हें आगरा अधिवेशन का निमंत्रण पत्र गलती से चला गया था। एक तो कल्याण सिंह के स्पष्टीकरण से यह साफ हो गया कि मुलायम सिंह की यह सफाई सही नहीं और दूसरे यह किसी से छिपा नहीं कि आगरा अधिवेशन में सपा ने उन्हें किस तरह हाथोंहाथ लिया था। कल्याण सिंह ने भले ही सपा की विधिवत सदस्यता ग्रहण न की हो, लेकिन वह पार्टी के एक नेता की तरह ही मुलायम सिंह के पक्ष में खड़े रहे और उनकी ही तरह भाजपा को नष्ट करने का संकल्प लेते रहे। यह बात और है कि सपा को उनका साथ रास नहीं आया और पिछड़े वर्गो का एकजुट होना तो दूर रहा, मुलायम सिंह के परंपरागत वोट बैंक में भी सेंध लग गई। यह आश्चर्यजनक है कि सपा नेताओं ने यह समझने से इनकार किया कि कल्याण सिंह से नजदीकी मुस्लिम वोट बैंक की नाराजगी का कारण बन सकती है।

इसमें संदेह है कि सपा के कल्याण सिंह से हाथ जोड़ने के बाद मुस्लिम वोट बैंक फिर से उसकी ओर लौट आएगा। इसमें भी संदेह है कि एक तरह से सपा से निकाल बाहर किए गए कल्याण सिंह का भाजपा में स्वागत किया जाएगा। जिस तरह मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को गले लगाकर अपनी विश्वसनीयता को क्षति पहुंचाई उसी तरह कल्याण सिंह भी अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। फिलहाल यह कहना कठिन है कि उनकी भाजपा में पुन: वापसी हो पाएगी या नहीं, लेकिन यह लगभग तय है कि उनकी वापसी का भाजपा को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। कल्याण सिंह भले ही प्रायश्चित के रूप में भाजपा को मजबूत करने की बात कह रहे हों, लेकिन आम जनता यह कैसे भूल सकती है कि वह कल तक भाजपा को मिटा देने का संकल्प व्यक्त कर रहे थे? सवाल यह भी है कि आखिर उन्हें प्रायश्चित के कितने मौके किए जाएंगे? राजनीतिक स्वार्थो के लिए किसी भी हद तक जाने की एक सीमा होती है। यह निराशाजनक है कि कद्दावर नेता होते हुए भी मुलायम सिंह और कल्याण सिंह, दोनों ने इस सीमा का उल्लंघन करने में संकोच नहीं किया। वोट बैंक के रूप में ही सही आम जनता इतना तो समझती ही है कि राजनेता किस तरह उसके साथ छल करते हैं। वोट बैंक निश्चित ही बैंक खातों में जमा धनराशि नहीं कि उसे मनचाहे तरीके से दूसरे के खाते में स्थानांतरित किया जा सके। मुलायम सिंह और कल्याण सिंह का हश्र यह बता रहा है कि वोटों के लिए कुछ भी कर गुजरने और यहां तक कि आम जनता की भावनाओं से खेलने के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं।

बस एक सवाल - कमेन्ट मोडरेशन सही या ग़लत ??

आज आप सब की राय लेना चाहता हूँ | हम में से बहुत से लोगो ने अपने अपने ब्लोगों पर कमेन्ट मोडरेशन लगाया हुआ है - कुछ मित्र इसे ग़लत भी मानते है जैसा कि मुझे बताया गया एक कमेन्ट के द्वारा,"आपने मोडरेशन लगाया हुआ है, यहाँ गलत है | शायद आप अपनी आलोचना नहीं सुन सकते |"
इनको तो जवाब मैंने दे दिया पर समझ नहीं आया कि क्या यह सच में ग़लत है ?? अगर नहीं तो मुझे यह क्यों कहा गया ??
सो आप सब से विनती है कि इस विषय पर मुझे अपनी राय जरूर दे !

कमेन्ट मोडरेशन सही या ग़लत ??

सोमवार, 16 नवंबर 2009

बीसीसीआई और बाकी खेल जगत ने लगाई ठाकरे को फटकार




भारतीय खेल जगत ने सोमवार को सचिन तेंदुलकर का समर्थन करते हुए शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को फटकार लगाई जिन्होंने 'मुंबई सभी की' बयान देने पर इस मास्टर बल्लेबाजी की आलोचना की थी।

अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में बीस बरस पूरे करने के बाद मीडिया से बातचीत में तेंदुलकर ने कहा था, 'मैं एक महाराष्ट्रियन हूं और मुझे इस पर बहुत गर्व है। लेकिन मैं पहले एक भारतीय हूं और मुंबई सभी भारतीयों की है।' ठाकरे ने इस बयान की यह कहते हुए आलोचना की थी कि सचिन को नोबाल पर सिंगल लेने की जरूरत नहीं थी। ऐसे बयान देकर मराठी मानुषों की 'पिच' पर वह रन आउट हो गए हैं। उन्होंने शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' से कहा, 'जब मराठी मानुषों को मुंबई मिली तो सचिन पैदा भी नहीं हुए थे। मुंबई को पाने के लिए 105 मराठियों ने अपनी जान कुर्बान की थी।'

बीसीसीआई ने ठाकरे के बयान पर सबसे पहले प्रतिक्रिया दी जब इसकी वित्तीय समिति के अध्यक्ष और प्रवक्ता राजीव शुक्ला ने कहा, 'शिवसेना प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना की तरह बात कर रहे हैं। इस तरह के बयान पूरी तरह से अवांछित हैं। शिव सेना को इस तरह की बात करने की कोई जरूरत नहीं है। तेंदुलकर राष्ट्रवादी हैं। वह सिर्फ महाराष्ट्र के नहीं बल्कि पूरे देश के हैं। यदि कोई खुद को भारतीय कहता है तो क्या यह गुनाह है।' उन्होंने ने कहा, 'महाराष्ट्रियन लोगों को ऐसी बातें पसंद नहीं हैं। कुछ लोग ही इसमें साथ देंगे। उनमें से अधिकांश लोगों को यह पसंद नहीं आएगा। महाराष्ट्रियन लोग भी पहले भारतीय कहलाना चाहते हैं।'

ठाकरे ने कहा था कि तेंदुलकर ने क्रीज छोड़ दी है और मराठियों को पीड़ा पहुंचाने वाले इस तरह के बयान देकर राजनीति की पिच पर उतर आए हैं। इस पर शुक्ला ने कहा, 'शिव सेना और राज ठाकरे की पार्टी के कुछ नेताओं को छोड़कर बाकी सारा भारत और महाराष्ट्रियन तेंदुलकर के साथ हैं।' पूर्व क्रिकेटरों और एथलीटों ने भी तेंदुलकर और उनके बयान का समर्थन किया। दिग्गज धावक मिल्खा सिंह ने कहा कि तेंदुलकर ने कुछ भी गलत नहीं कहा। उन्होंने कहा, 'राजनीति और खेल अलग-अलग चीज हैं। तेंदुलकर ने सिर्फ इतना कहा कि देश पहले आता है। आप जिस राज्य के लिए खेलते हैं वह दूसरे नंबर पर आता है। राजनीति और खेल को मत मिलाओ। सचिन ने जो कहा उससे मैं बहुत खुश हूं।'

पूर्व क्रिकेटरों ने भी तेंदुलकर का समर्थन किया। राष्ट्रीय चयन समिति के पूर्व अध्यक्ष किरण मोरे ने कहा, 'सचिन ने एक बहुत ही सरल बयान दिया है और कोई भी भारतीय यही कहेगा। सभी जानते हैं कि सचिन महाराष्ट्रियन हैं। सचिन को इस पचड़े में मत डालो। सचिन ने देश के लिए काफी कुछ किया है। वह देश के महानतम दूतों में से एक हैं। वह इतने वर्र्षो तक गैर विवादित व्यक्ति रहे। वह काफी सरल इंसान हैं।' पूर्व भारतीय कप्तान अजीत वाडेकर ने कहा, 'वह अपने देश के लिए खेल रहे हैं और यही उन्हें रिकार्ड बनाने के लिए प्रेरित करता है।'

ताज में दफन चार मुमताज



एक ताज और उसमें दफन चार मुमताज। इतिहासकारों और इतिहास के जानकारों को छोड़ दें तो शायद कोई इस पर यकीन न करे परंतु यह हकीकत है।

शाहजहां और मुमताज के प्रेम की निशानी के रूप में मशहूर ताजमहल में, हकीकत में शहंशाह की तीन और बेगमों के मकबरे बने हुए हैं, जो मुख्य मकबरे [मुमताज महल का मकबरा] की तरह ही मुगल वास्तुकला और पच्चीकारी के श्रेष्ठ नमूने हैं परंतु इन्हें एएसआई ने तालों में कैद कर रखा है।

मुगल बादशाह शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल की मौत के बाद उसकी याद में ताज का निर्माण [सन् 1631 से 1653 तक] कराया था। प्रेम की निशानी ताज और मुमताज-शाहजहां के मकबरे को देखने के लिए हर रोज हजारों देश-विदेशी सैलानी जुटते हैं। उन्हें इस बात का जरा भी अहसास नहीं होता कि खूबसूरत ताज में बादशाह की तीन और बेगमों के मकबरे भी हो सकते हैं।

ताज पूर्वी गेट पर बांयी ओर बने दालान [वर्तमान में यह हिस्सा सीआईएसएफ के पास है] के ऊपर शाहजहां की बेगम इजुन्निसा का मकबरा है। इजुन्निसा मुगल बादशाह अकबर के नौ रत्न में शामिल अब्दुल रहीम खानखाना की नातिन थी और उसे शादी के बाद अकबराबादी महल बेगम का खिताब मिला था।

एएसआई के अभिलेखों के मुताबिक शाहजहां ने ताज के निर्माण के दौरान सन् 1631 से 1648 के बीच यह मकबरा बनवाया। मकबरे में अकबराबादी महल बेगम की सफेद संगमरमरी कब्र स्थित है। जिस पर पच्चीकारी के जरिए फूल और पत्तिया बनी हुई हैं, जो मुगलकालीन कारीगरी का बेहतरीन नमूना है।

पूर्वी गेट के दायीं ओर बने दालान [वर्तमान में यहा पोस्ट आफिस बना हुआ है] के ऊपर शाहजहां की बेगम फतेहपुरी महल बेगम का मकबरा बना है। एएसआई के मुताबिक इस मकबरे का निर्माण भी 1639 से 1648 के बीच हुआ था। मकबरा पूरी तरह अकबराबादी महल बेगम के मकबरे की तरह बना है, केवल कब्र में पच्चीकारी का काम नहीं है। इसके बजाय फतेहपुरी महल बेगम की कब्र में लगे संगमरमरी पत्थर को ही तराश कर फूल-पत्तियों की शक्ल दी गई है।

इसके अलावा ताज पूर्वी गेट के बाहर गौशाला के सामने शाहजहां की तीसरी पत्नी सरहिंदी बेगम का मकबरा और मस्जिद है। जो अन्य मकबरों की तरह मुगल वास्तुकला का एक उदाहरण है। एएसआई अभिलेखों के मुताबिक सरहिंदी बेगम सरहिंद के गर्वनर की पुत्री थीं और उनके मकबरे का निर्माण भी अन्य मकबरों के साथ ही हुआ।

कोई नहीं पहुंच पाता मकबरों तक

हर रोज हजारों सैलानियों की आमद के बाद भी इन मकबरों पर जाने वालों की संख्या शून्य है। वजह, ताज के अंदर कहीं भी यह जानकारी देने की व्यवस्था नहीं है कि शाहजहां की अन्य बेगमों के मकबरे भी स्मारक में हैं।

ऊपर से एएसआई ने अकबराबादी महल बेगम और फतेहपुरी महल बेगम के मकबरों तक जाने वाली सीढि़यों के द्वारों पर ताले लगा रखे हैं। यहा सीआईएसएफ के जवान भी तैनात रहते हैं। वहीं सरहिंदी बेगम का मकबरा खुला तो है परंतु स्मारक का ही हिस्सा होते हुए भी गेट से बाहर है, ऐसे में कोई वहा पहुंच नहीं पाता।

इस संबंध में ताज के संरक्षण सहायक मुनज्जर अली ने बताया कि इन मकबरों के भ्रमण को कोई नहीं आता, इसी कारण सीढि़यों पर ताले लगे रहते हैं। यदि कोई इनका भ्रमण करने की इच्छा जताता है तो उसे जाने की इजाजत दी जाती है।

मुगल वास्तुकला के हैं श्रेष्ठ नमूने

अकबराबादी महल बेगम और फतेहपुरी महल बेगम के मकबरे भी मुमताज के मकबरे की तरह ही पूर्ण रौजा है यानि मकबरे के साथ बाग भी है। जो नहरों [पानी गुजरने को बनी नालियां] के जरिए चार भागों में विभक्त है। बीच में ऊंची चौकी पर खूबसूरत तालाब बना हुआ है। चौकी के चारों तरफ दुहरी सीढि़या हैं और जालीदार बेदिकाएं लगी हैं। यहा फूलदार पौधों के लिए क्यारियां बनी हुई हैं। बाग में ही लम्बाकार चौकी पर मकबरा बना है। यह अष्टभुजा इमारत है, जिसके बाहर की और 12 फीट चौड़ा दालान बना है।

खंभों पर आधारित तीन-तीन दातेदार मेहराब बने हैं, इनके ऊपर छज्जा है। मकबरा लाल पत्थर का बना है परंतु इसके ऊपर सफेद संगमरमर का प्याजिया गुम्बद बना हुआ है। जिसके शीर्ष पर पदमकोश और कलश लगे है। वहीं सरहिंदी महल बेगम के मकबरा चारों ओर बने बाग के मध्य में बना है, परंतु मकबरा मुगलकालीन शैली में ही निर्मित है।

रविवार, 15 नवंबर 2009

सचिन से दूर अभी भी कई विश्व रिकार्ड


रिकार्डो के बादशाह सचिन तेंदुलकर 16 नवंबर को श्रीलंका के खिलाफ पहले टेस्ट क्रिकेट मैच में मैदान पर उतरते ही अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में 20 साल पूरे कर लेंगे लेकिन यह विश्व रिकार्ड नहीं होगा। यदि यह दिग्गज बल्लेबाज अगले दस साल 316 दिन तक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में बना रहता है तभी यह रिकार्ड उनके नाम पर दर्ज हो पाएगा।

तेंदुलकर हालांकि दो दशक तक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में बने रहने वाले भारत के पहले क्रिकेटर बन जाएंगे। उन्होंने भारत की तरफ से सबसे लंबे अंतरराष्ट्रीय करियर का रिकार्ड हाल में ही अपने नाम किया। पहले यह रिकार्ड मोहिंदर अमरनाथ के नाम पर था जिनका करियर 19 साल 310 दिन खिंचा था। संयोग से अमरनाथ ने 30 अक्टूबर 1989 को अपना अंतिम अंतरराष्ट्रीय मैच खेला और इसके 15 दिन बाद तेंदुलकर के अंतरराष्ट्रीय करियर का आगाज हुआ। सबसे लंबे समय तक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में बने रहने का रिकार्ड इंग्लैंड के विल्फ्रेड रोड्स के नाम पर है जिन्होंने अपना पहला टेस्ट मैच एक जून 1899 को और अंतिम मैच 51 वर्ष की उम्र में 12 अप्रैल 1930 को खेला था। उनका अंतरराष्ट्रीय करियर 30 वर्ष 315 दिन तक चला था जो विश्व रिकार्ड है।

तेंदुलकर अभी सबसे लंबे अंतरराष्ट्रीय करियर की सूची में 18वें नंबर पर काबिज हैं लेकिन श्रीलंका के खिलाफ कानपुर में 24 नवंबर से शुरू होने वाले दूसरे टेस्ट तक वह मुश्ताक मोहम्मद और गैरी सोबर्स को पीछे छोड़कर 16वें नंबर पर पहुंच जाएंगे। यही नहीं मास्टर ब्लास्टर जब 2010-11 के क्रिकेट सत्र में उतरेंगे तो कोलिन काउड्रे, बाबी सिम्पसन, जावेद मियादाद, नार्मन गिफर्ड और इमरान खान भी उनसे पीछे होंगे। भारत के इस स्टार बल्लेबाज ने अपना पहला मैच 15 नवंबर 1989 को पाकिस्तान के खिलाफ कराची में खेला था तब वह 16 साल 205 दिन के थे। तेंदुलकर ने पिछले दिनों टेस्ट क्रिकेट में 15 हजार रन बनाने की इच्छा जताई थी। अभी वह जिस दर से रन बना रहे हैं उस लिहाज से वह नवंबर 2011 तक इस मुकाम पर पहुंच सकते हैं और ऐसे में सबसे लंबे करियर की तालिका में भी शीर्ष दस में शामिल हो जाएंगे।

तेंदुलकर ने अभी टेस्ट क्रिकेट में 12,773 और एक दिवसीय मैचों में 17,178 रन बनाए हैं और जितने भी क्रिकेटरों का अंतरराष्ट्रीय करियर उनसे अधिक लंबे समय तक खिंचा वे सभी प्रदर्शन के मामले में उनसे काफी पीछे हैं। इसके अलावा तेंदुलकर ने अपने दो दशक के करियर में जितने मैच खेले उतना कोई अन्य क्रिकेटर नहीं खेला है। तेंदुलकर ने अपने 20 साल के करियर में 159 टेस्ट, 436 एक दिवसीय और एक ट्वंटी 20 मैच सहित कुल 596 अंतरराष्ट्रीय मैच खेले हैं। उनके बाद श्रीलंका के सनथ जयसूर्या का नंबर आता है जिनके नाम पर अभी 572 मैच दर्ज हैं। इन दोनों के अलावा किसी भी अन्य क्रिकेटर ने 500 से अधिक अंतरराष्ट्रीय मैच नहीं खेले हैं। विल्फ्रेड रोड्स ने तीन दशक तक चले अपने करियर में केवल 58 टेस्ट मैच खेले थे।

ब्रायन क्लोज और फ्रैंक वूली का अंतरराष्ट्रीय करियर भी 25 साल से अधिक समय तक खिंचा लेकिन उनके नाम पर क्रमश: 25 और 64 मैच ही दर्ज हैं। रोड्स के नाम पर हालांकि सर्वाधिक प्रथम श्रेणी मैच खेलने का रिकार्ड है। उन्होंने 32 साल के अपने क्रिकेट करियर में 1110 प्रथम श्रेणी मैच खेले और 1000 से अधिक मैच खेलने वाले वे एकमात्र क्रिकेटर हैं। उनके जमाने में सीमित ओवरों के मैच नहीं होते थे। तेंदुलकर ने अब तक 261 प्रथम श्रेणी मैच खेले हैं और यदि इसमें सीमित ओवरों के मैच जोड़ दिए जाते हैं तो यह संख्या 809 हो जाएगी। वैसे इन तीनों प्रारूप को मिलाकर सबसे अधिक मैच खेलने का रिकार्ड ग्रीम हिक [1214 मैच] के नाम पर है जिनका क्रिकेट करियर लगभग 26 साल तक चला।

शनिवार, 14 नवंबर 2009

कौन लिख रहा है इन नौनिहालों की तकदीर ??


अगर वास्तव में बच्चे किसी देश का भविष्य है तो भारत का भविष्य अंधकारमय है। भविष्य का भारत अनपढ़, दुर्बल और लाचार है। कोई भी इनका अपहरण, अंग-भंग, यौन शोषण कर सकता है और बंधुआ बना सकता है।

हर साल बच्चों के प्रिय चाचा जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। बच्चों के लिए कार्यक्रम आयोजित किए जाते है। बड़ी-बड़ी बातें की जाती है, लेकिन साल-दर-साल उनकी स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।

भारत में बाल-मजदूरी पर प्रतिबंध लगे 23 साल हो गए है, लेकिन विश्व में सबसे ज्यादा बाल मजदूर यहीं हैं। इनकी संख्या करीब छह करोड़ है। खदानों, कारखानों, चाय बागानों, होटलों, ढाबों, दुकानों आदि हर जगह इन्हें कमरतोड़ मेहनत करते हुए देखा जा सकता है। कच्ची उम्र में काम के बोझ ने इनके चेहरे से मासूमियत नोंच ली है।

इनमें से अधिकतर बच्चे शिक्षा से दूर खतरनाक और विपरीत स्थितियों में काम कर रहे है। उन्हें हिंसा और शोषण का सामना करना पड़ता है। इनमें से कई तो मानसिक बीमारियों के भी शिकार हो जाते हैं। बचपन खो करके भी इन्हे ढग से मजदूरी नहीं मिलती।

भारत में अशिक्षा, बेरोजगारी और असंतुलित विकास के कारण बच्चों से उनका बचपन छीनकर काम की भट्ठी में झोंक दिया जाता है। इसलिए जब तक इन समस्याओं का हल नहीं किया जाएगा, तब तक बाल श्रम को रोकना असंभव है। ऐसा प्रावधान होना चाहिए कि सभी बच्चों को मुफ्त और बेहतर शिक्षा मिल सके। हर परिवार को कम से कम रोजगार, भोजन और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हों। साथ ही बाल-मजदूरी से जुड़े सभी कानून और सामाजिक-कल्याण की योजनाएं कारगर ढंग से लागू हों।

देश में बच्चों के स्वास्थ्य की स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। ब्रिटेन की एक संस्था के सर्वे के अनुसार पूरी दुनिया में जितने कुपोषित बच्चे हैं, उनकी एक तिहाई संख्या भारत में है। यहा तीन साल तक के कम से कम 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इसके अलावा प्रतिदिन औसतन 6,000 बच्चों की मौत होती है। इनमें 2,000 से लेकर 3,000 बच्चों की मौत कुपोषण के कारण होती है।

भारत में बच्चों का गायब होना भी एक बड़ी समस्या है। इनमें से अधिकतर बच्चों को संगठित गिरोहों द्वारा चुराया जाता है। ये गिरोह इन मासूमों से भीख मंगवाते हैं। अब तो मासूम बच्चों से छोटे-मोटे अपराध भी कराए जाने लगे है। पिछले एक साल में दिल्ली मे दो हजार से ज्यादा बच्चे गायब हुए। इन्हें कभी तलाश ही नहीं किया गया, क्योंकि ये सभी बच्चे बेहद गरीब घरों के थे।

यह स्थिति तो देश की राजधानी दिल्ली की है। पूरे देश की क्या स्थिति होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अगर गायब होने वाला बच्चा समृद्ध परिवार का होता है तो शासन और प्रशासन में ऊपर से लेकर नीचे तक हड़कंप मच जाता है।

यदि बच्चा गरीब घर से ताल्लुक रखता है तो पुलिस रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती। पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई थी कि वह सिर्फ अमीरों के बच्चों को तलाशने में तत्परता दिखाती है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार 80 प्रतिशत पुलिस वाले गुमशुदा बच्चों की तलाश में रुचि नहीं लेते। भारत में हर साल लगभग 45 हजार बच्चे गायब होते हैं और इनमें से 11 हजार बच्चे कभी नहीं मिलते।

संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव में 2007 मे भारत में बाल अधिकार संरक्षण आयोग गठित किया गया था। आयोग ने गुमशुदा बच्चों के मामले मे राच्य सरकारों को कई सुझाव और निर्देश दिए थे। इनमें से एक गुम होने वाले हर बच्चे की एफआईआर तुरंत दर्ज किए जाने के संदर्भ में था, लेकिन सच्चाई सबके सामने है।

बाल विवाह एक और बड़ी समस्या है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में जिन लड़कियों की बचपन में शादी कर दी जाती है, उनमें एक तिहाई से भी ज्यादा भारत से हैं। सालभर में लाखों बच्चिया इसके लिए अभिशप्त है। इन्हें भीषण शारीरिक और मानसिक यातना झेलनी पड़ती है।

बाल विवाह पर प्रतिबंध के बावजूद रीति-रिवाज, पिछड़ेपन ओर रूढि़वादिता के कारण अब भी देश के कई हिस्सों में लड़कियों को विकास का अवसर दिए बिना अंधे कुंए में धकेला जा रहा है। छोटी उम्र में विवाह से कई बार लड़कियों को बाल वैधव्य का सामना करना पड़ता है, जिससे उनका जीवन मुसीबतों से घिर जाता है।

इसके अलावा बाल विवाह से कई बार वर-वधू के शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक विकास में विपरीत असर पड़ता है। बाल विवाह के कारण लड़कियों की पढ़ाई रुक जाती है। कम पढ़ी-लिखी महिला अंधविश्वासों और रूढि़यों से घिर जाती है। ऐसी पीढ़ी से देश व समाज हित की क्या उम्मीद की जा सकती है?

इससे दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि करीब 53 प्रतिशत बच्चे यौन शोषण के शिकार हैं। इनमें केवल लड़किया ही नहीं, बल्कि लड़के भी हैं। पाच साल से 12 साल की उम्र के बीच यौन शोषण के शिकार होने वाले बच्चों की संख्या सबसे अधिक है।

कुल मिलाकर कहा जाए तो बच्चों के मामले में भारत की स्थिति सबसे खराब है। प्रशासनिक अधिकारियों को इस तरह की कोई ट्रेनिंग नहीं दी जाती कि वह बच्चों के प्रति संवेदशनील होकर अपने दायित्व को समझें। बच्चे वोट बैंक नहीं होते इसलिए राजनीतिक पार्टिया दिखावे के लिए भी उनकी चिंता नहीं करतीं। सब बातें छोड़ भी दें तो सरकार बच्चों के लिए बेसिक शिक्षा तक नहीं उपलब्ध करवा पा रही है।

पूरे देश में स्कूलों का अब भी अभाव है। जहा स्कूल है भी, वहा कुव्यवस्था है। कहीं अध्यापकों की कमी है तो कहीं जरूरी सुविधाएं नहीं हैं। 10 सितंबर को दिल्ली के खजूरी खास स्थित राजकीय वरिष्ठ बाल/बालिका विद्यालय में परीक्षा से पूर्व मची भगदड़ में पाच छात्रों की मौत हो गई थी, जबकि 32 छात्राएं घायल हुई थीं। इसके पीछे मुख्य वजह कुव्यवस्था थी। यह स्थिति देश की राजधानी की है। इससे पता चलता है कि हम देश के भविष्य के प्रति संवेदनशील और जिम्मेदार है।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सदस्य संध्या बजाज का कहना है कि गुमशुदा बच्चों के अधिकाश मामलों में रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती। गुम होने वाले ज्यादातर बच्चे शोषण का शिकार होते है। इसलिए हर गुमशुदा बच्चे की रिपोर्ट जरूर दर्ज की जानी चाहिए। बच्चों को शिक्षा का अधिकार मिलने से उनकी जिदंगी और बेहतर बन जाएगी।

हम उनसे सबक क्यों नहीं लेते

कई देशों में बच्चों के लिए अलग से लोकपाल नियुक्त हैं। सबसे पहले नार्वे ने 1981 में बाल अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक अधिकारों से युक्त लोकपाल की नियुक्ति की। बाद में आस्ट्रेलिया, कोस्टारिका, स्वीडन [1993], स्पेन [1996], फिनलैंड आदि देशों ने भी बच्चों के लिए लोकपाल की नियुक्ति की।

लोकपाल का कर्तव्य है बाल अधिकार आयोग के अनुसार बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देना और उनके हितों का समर्थन करना। यही नहीं, निजी और सार्वजनिक प्राधिकारियों में बाल अधिकारों के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करना भी उनके दायित्वों में है। कुछ देशों में तो लोकपाल सार्वजनिक विमर्शो में भाग लेकर जनता की अभिरुचि बाल अधिकारों के प्रति बढ़ाते हैं और जनता व नीति निर्धारकों के रवैये को प्रभावित करते हैं।

बच्चों के शोषण एवं बालश्रम की समस्याओं के मद्देनजर भारत में भी बच्चों के लिए स्वतंत्र लोकपाल व्यवस्था गठित करने की मांग अक्सर की जाती रही है, लेकिन सवाल यह है कि इतने संवैधानिक उपबंधों, नियमों-कानूनों, मंत्रालयों और आयोगों के बावजूद अगर बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है तो समाज भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता।

कल हर बच्चा अपनी पुरानी पीढ़ी से मांगेगा हिसाब

हर साल की तरह फिर से 14 नवंबर यानी बाल दिवस आ गया। हर साल की तरह बच्चों के मसीहा चाचा नेहरु को याद करने का दिन। बच्चों को देश का भविष्य और कर्णधार बताने, उनकी तरक्की और शिक्षा के नए वायदे करने, स्कूली बच्चों के बीच कार्यक्रम करके नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और शिक्षा-व्यापारियों के फोटो खिंचवाने और अखबार में खबर छपवाने का दिन।

आखिर कब तक हमारा देश अपने आपको और उन मासूम बच्चों को धोखा देता रहेगा, जिन्हें अब तक वह भरपेट रोटी और आजादी जैसी बुनियादी चीजें भी मुहैया नहीं करा सका। शिक्षा, स्वास्थ्य, बचपन का स्वाभिमान और भविष्य की गारंटी तो दूर की बात है।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में पांच वर्ष से कम आयु के 47 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। हाल ही में यूनीसेफ ने खुलासा किया है था कि दुनिया भर में पाच साल से कम उम्र में मौत के मुंह में समा जाने वाले लगभग 97 लाख बच्चों में से 21 लाख भारत के होते हैं। कम वजन के पैदा होने वाले साढ़े पंद्रह करोड़ शिशुओं में से साढ़े पाच करोड़ हमारे देश के होते हैं।

पाच से छह करोड़ बच्चे बाल मजदूरी के शिकार हैं। लाखों बच्चे जानवरों से भी कम कीमत में एक से दूसरी जगह खरीदे और बेचे जाते हैं। 40-50 हजार बच्चे मोबाइल फोन, बटुए, खिलौने या किसी सामान की तरह हर साल गायब कर दिए जाते हैं। अकेले देश की राजधानी दिल्ली में हर रोज औसतन छह बच्चे गायब किए जाते हैं। सड़कों पर जबरिया भीख मंगवाने के लिए अंधा बनाकर या हाथ-पाव काटने की कहानी स्लमडाग मिलियनायर की कल्पना नहीं, बल्कि रोजमर्रा की असलियत है।

शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो, जब किसी मासूम बच्ची से बलात्कार करने या उसकी हत्या कर देने की घटनाएं अखबारों में देखने को न मिलती हों। घरेलू बाल मजदूरी रोकने के लिए दो साल पहले एक कठोर कानूनी प्रावधान लाया गया था, लेकिन कभी किसी अदाकारा के घर तो कभी सरकारी अधिकारी और तथाकथित मध्यवर्गीय शिक्षित व्यवसायी के घर घरेलू बाल नौकरानियों को गर्म लोहे से दाग देने या बुरी तरह मारपीट करने की घिनौनी वारदातें आए दिन सामने आती हैं। मीडिया में थोड़ा बहुत शोर शराबा हो जाता है। अधिकारियों और स्वयंसेवी संगठनों के नेताओं के बाइट किसी चैनल में एक दो दिन चल जाते हैं और फिर वही ढाक के तीन पात।

बाल दिवस की रस्म अदायगी करने से पहले हमें अपने अंदर झाकना चाहिए। निजी सार्वजनिक और राजनैतिक ईमानदारी की भी जाच पड़ताल करनी चाहिए। अपनी खुद की संतानों के भविष्य को संवारने के लिए जो लोग घूसखोरी और भ्रष्टाचार तक में लिप्त पाए जाते हैं, वे दूसरों के बच्चों को गुलाम बनाने से नहीं कतराते। अपने बच्चों को महंगे से महंगे अंग्रेजी स्कूलों में दाखिल कराने के लिए जमीन-आसमान एक कर देते हैं, लेकिन किसी चाय के ढाबे पर बेशर्मी से बच्चे के हाथ की चाय पीते हुए या जूते पालिश कराते हुए उन्हें यह एहसास तक नहीं होता कि भारत का भविष्य सिर्फ उनके बाल-गोपाल ही नहीं, दूसरे बच्चे भी हैं।

सार्वजनिक जीवन में दोहरे मानदंड की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि नेता-अधिकारी और अधिकारों की बात करने वाले बुद्धिजीवी कुतर्को का अंबार लगा देते हैं। मसलन, गरीब का बच्चा काम नहीं करेगा तो भूखा मर जाएगा या लड़की वेश्यावृत्ति करने लगेगी, इसलिए बेहतर है कि वह बाल मजदूरी करे। कुछ लोग कहते हैं कि देश के पास इतने संसाधन कहा कि हर बच्चे का गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई मुहैया कराई जा सके। यदि गरीब बच्चों को मंहगे अंग्रेजी स्कूलों में जबरन भर्ती कराया जाएगा तो वहा शिक्षा का स्तर खराब हो जाएगा आदि।

आखिर हम कब तक बच्चों के वर्तामन और भविष्य के साथ पाखंड करते रहेंगे? कब तक उनको धोखा देते रहेंगे? यह सच है कि अधिकाश बच्चे आज अपने आकाओं से जवाब मागने का माद्दा नहीं रखते, लेकिन आने वाले कल की असलियत आज से एकदम अलग होगी यह तय समझिए। सदियों से चले आ रहे पाखंड और बचपन विरोधी परंपराओं को कुछ बच्चों ने चुनौती देना शुरू कर दिया है। यह सैलाब रुकने वाला नहीं हैं। कल हर बच्चा अपनी पुरानी पीढ़ी से हिसाब जरूर मागेगा, तब हम उन्हें क्या जवाब देंगे?

- अनुराग [लेखक सुपरिचित सामाजिक कार्यकर्ता हैं]

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