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शनिवार, 31 मई 2014

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर एक लघु कथा

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर एक लघु कथा
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जिला पुस्तकालय में विश्व तम्बाकू निषेध दिवस की संगोष्ठी में लम्बा भाषण देने के बाद जब ठाकुर साहब मंच से नीचे आये तो चौबे बैठे दिख गए ... झट लपक लिए उनकी ओर और तपाक से बोले ... "बोलत बोलत मौह थक गओ ... चौबे जी नेक सी कपूरी दियो ।"

बुधवार, 28 मई 2014

२८ मई का दिन आज़ादी के परवानों के नाम

आज २८ मई है ... आज के दिन बेहद खास है ... आज का दिन जुड़ा हुआ दो दो अमर क्रांतिकारियों से ... एक की आज जयंती है तो एक की पुण्यतिथि |

विनायक दामोदर सावरकर (अंग्रेजी: Vinayak Damodar Savarkar, जन्म: २८ मई १८८३ - मृत्यु: २६ फरवरी १९६६) भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। उन्हें प्रायः वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया जाता है। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करने का बहुत बडा श्रेय सावरकर को जाता है। वे न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया है। उन्होंने १८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया था।
 
भगवती चरण वोहरा (4 जुलाई, 1904 - 28 मई, 1930)) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी थे। वे हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य और सरदार भगत सिंह के साथ ही एक प्रमुख सिद्धांतकार होते हुए भी गिरफ्तार नही किए जा सके और न ही वे फांसी पर चढ़े। उनकी मृत्यु बम परिक्षण के दौरान दुर्घटना में हुई। भगवती चरण की शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई। उनका विवाह भी कम उम्र में कर दिया गया। पत्नी का नाम दुर्गा था। बाद के दौर में उनकी पत्नी भी क्रांतिकारी कार्यो की सक्रिय सहयोगी बनी। उन को क्रान्तिकारियो द्वारा दिया गया " दुर्गा भाभी " सन्बोधन एक आम सन्बोधन बन गया।
 
आज हम सब इन दोनों क्रांतिकारियों को शत शत नमन करते है !
इंकलाब ज़िंदाबाद !!!

रविवार, 25 मई 2014

९०० वीं पोस्ट :- रासबिहारी बोस की १२८ वीं जयंती

भारत के महान क्रान्तिकारी एवं स्वतंत्रता-संग्राम-नेता : रासबिहारी बोस
रासबिहारी बोस (बांग्ला: রাসবিহারী বসু, जन्म:२५ मई, १८८६ - मृत्यु: २१ जनवरी, १९४५) भारत के एक क्रान्तिकारी नेता थे जिन्होने ब्रिटिश राज के विरुद्ध गदर षडयंत्र एवं आजाद हिन्द फौज के संगठन का कार्य किया। इन्होंने न केवल भारत में कई क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, अपितु विदेश में रहकर भी वह भारत को स्वतन्त्रता दिलाने के प्रयास में आजीवन लगे रहे। दिल्ली में तत्कालीन वायसराय लार्ड चार्ल्स हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाने, गदर की साजिश रचने और बाद में जापान जाकर इंडियन इंडिपेंडेस लीग और आजाद हिंद फौज की स्थापना करने में रासबिहारी बोस की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यद्यपि देश को स्वतन्त्र कराने के लिये किये गये उनके ये प्रयास सफल नहीं हो पाये, तथापि स्वतन्त्रता संग्राम में उनकी भूमिका का महत्व बहुत ऊँचा है।

जीवन

रासबिहारी बोस का जन्म २५ मई, १८८६ को बंगाल में बर्धमान जिले के सुबालदह गाँव में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा चन्दननगर में हुई, जहाँ उनके पिता विनोद बिहारी बोस नियुक्त थे। रासबिहारी बोस बचपन से ही देश की स्वतन्त्रता के स्वप्न देखा करते थे और क्रान्तिकारी गतिविधियों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। प्रारम्भ में रासबिहारी बोस ने देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान में कुछ समय तक हेड क्लर्क के रूप में काम किया। उसी दौरान उनका क्रान्तिकारी जतिन मुखर्जी की अगुआई वाले युगान्तर नामक क्रान्तिकारी संगठन के अमरेन्द्र चटर्जी से परिचय हुआ और वह बंगाल के क्रान्तिकारियों के साथ जुड़ गये। बाद में वह अरबिंदो घोष के राजनीतिक शिष्य रहे जतीन्द्रनाथ बनर्जी उर्फ निरालम्ब स्वामी के सम्पर्क में आने पर संयुक्त प्रान्त, (वर्तमान उत्तर प्रदेश), और पंजाब के प्रमुख आर्य समाजी क्रान्तिकारियों के निकट आये।

दिल्ली में जार्ज पंचम के १२ दिसंबर १९११ को होने वाले दिल्ली दरबार के बाद जब वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की दिल्ली में सवारी निकाली जा रही थी तो उसकी शोभायात्रा पर वायसराय लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाने में रासबिहारी की प्रमुख भूमिका रही थी। अमरेन्द्र चटर्जी के एक शिष्य बसन्त कुमार विश्वास ने उन पर बम फेंका लेकिन निशाना चूक गया। इसके बाद ब्रिटिश पुलिस रासबिहारी बोस के पीछे लग गयी और वह बचने के लिये रातों-रात रेलगाडी से देहरादून खिसक लिये और आफिस में इस तरह काम करने लगे मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। अगले दिन उन्होंने देहरादून के नागरिकों की एक सभा बुलायी, जिसमें उन्होंने वायसराय पर हुए हमले की निन्दा भी की। इस प्रकार उन पर इस षडयन्त्र और काण्ड का प्रमुख सरगना होने का किंचितमात्र भी सन्देह किसी को न हुआ। १९१३ में बंगाल में बाढ़ राहत कार्य के दौरान रासबिहारी बोस जतिन मुखर्जी के सम्पर्क में आये, जिन्होंने उनमें नया जोश भरने का काम किया। रासबिहारी बोस इसके बाद दोगुने उत्साह के साथ फिर से क्रान्तिकारी गतिविधियों के संचालन में जुट गये। भारत को स्वतन्त्र कराने के लिये उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गदर की योजना बनायी। फरवरी १९१५ में अनेक भरोसेमंद क्रान्तिकारियों की सेना में घुसपैठ कराने की कोशिश की गयी।

जापान में

युगान्तर के कई नेताओं ने सोचा कि यूरोप में युद्ध होने के कारण चूँकि अभी अधिकतर सैनिक देश से बाहर गय् हुये हैं, अत: शेष बचे सैनिकों को आसानी से हराया जा सकता है लेकिन दुर्भाग्य से उनका यह प्रयास भी असफल रहा और कई क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। ब्रिटिश खुफिया पुलिस ने रासबिहारी बोस को भी पकड़ने की कोशिश की लेकिन वह उनके हत्थे नहीं चढ़े और भागकर विदेश से हथियारों की आपूर्ति के लिये जून १९१५ में राजा पी. एन. टैगोर के छद्म नाम से जापान के शहर शंघाई में पहुँचे और वहाँ रहकर भारत देश की आजादी के लिये काम करने लगे। इस प्रकार उन्होंने कई वर्ष निर्वासन में बिताये। जापान में भी रासबिहारी बोस चुप नहीं बैठे और वहाँ के अपने जापानी क्रान्तिकारी मित्रों के साथ मिलकर देश की स्वतन्त्रता के लिये निरन्तर प्रयास करते रहे। उन्होंने जापान में अंग्रेजी के अध्यापन के साथ लेखक व पत्रकार के रूप में भी काम प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने वहाँ न्यू एशिया नाम से एक समाचार-पत्र भी निकाला। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने जापानी भाषा भी सीखी और १६ पुस्तकें लिखीं। ब्रिटिश सरकार अब भी उनके पीछे लगी हुई थी और वह जापान सरकार से उनके प्रत्यर्पण की माँग कर रही थी, इसलिए वह लगभग एक साल तक अपनी पहचान और आवास बदलते रहे। १९१६ में जापान में ही रासबिहारी बोस ने प्रसिद्ध पैन एशियाई समर्थक सोमा आइजो और सोमा कोत्सुको की पुत्री से विवाह कर लिया और १९२३ में वहाँ की नागरिकता ले ली । जापान में वह पत्रकार और लेखक के रूप में रहने लगे। जापानी अधिकारियों को भारतीय राष्ट्रवादियों के पक्ष में खड़ा करने और देश की आजादी के आन्दोलन को उनका सक्रिय समर्थन दिलाने में भी रासबिहारी बोस की अहम भूमिका रही। उन्होंने २८ मार्च १९४२ को टोक्यो में एक सम्मेलन बुलाया जिसमें इंडियन इंडीपेंडेंस लीग की स्थापना का निर्णय किया गया। इस सम्मेलन में उन्होंने भारत की आजादी के लिए एक सेना बनाने का प्रस्ताव भी पेश किया।

आई०एन०ए० का गठन

२२ जून १९४२ को रासबिहारी बोस ने बैंकाक में लीग का दूसरा सम्मेलन बुलाया, जिसमें सुभाष चंद्र बोस को लीग में शामिल होने और उसका अध्यक्ष बनने के लिए आमन्त्रित करने का प्रस्ताव पारित किया गया। जापान ने मलय और बर्मा के मोर्चे पर कई भारतीय युद्धबन्दियों को पकड़ा था। इन युद्धबन्दियों को इण्डियन इण्डिपेण्डेंस लीग में शामिल होने और इंडियन नेशनल आर्मी (आई०एन०ए०) का सैनिक बनने के लिये प्रोत्साहित किया गया। आई०एन०ए० का गठन रासबिहारी बोस की इण्डियन नेशनल लीग की सैन्य शाखा के रूप में सितम्बर १९४२ को किया गया। बोस ने एक झण्डे का भी चयन किया जिसे आजाद नाम दिया गया। इस झण्डे को उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के हवाले किया। रासबिहारी बोस शक्ति और यश के शिखर को छूने ही वाले थे कि जापानी सैन्य कमान ने उन्हें और जनरल मोहन सिंह को आई०एन०ए० के नेतृत्व से हटा दिया लेकिन आई०एन०ए० का संगठनात्मक ढाँचा बना रहा। बाद में इसी ढाँचे पर सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के नाम से आई०एन०एस० का पुनर्गठन किया। 
निधन 
भारत को ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्ति दिलाने की जी-तोड़ मेहनत करते हुए किन्तु इसकी आस लिये हुए २१ जनवरी, १९४५ को इनका निधन हो गया। उनके निधन से कुछ समय पहले जापानी सरकार ने उन्हें आर्डर आफ द राइजिंग सन के सम्मान से अलंकृत भी किया था।
आज स्व॰ श्री रासबिहारी बोस जी की १२८ वीं जयंती के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते है !
जय हिन्द !!!

शनिवार, 24 मई 2014

अमर शहीद कर्तार सिंह सराभा की ११८ वीं जयंती

कर्तार सिंह सराभा (जन्म: २४ मई १८९६ - फांसी: १६ नवम्बर १९१५) भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त करने के लिये अमेरिका में बनी गदर पार्टी के अध्यक्ष थे। भारत में एक बड़ी क्रान्ति की योजना के सिलसिले में उन्हें अंग्रेजी सरकार ने कई अन्य लोगों के साथ फांसी दे दी। १६ नवंबर १९१५ को कर्तार को जब फांसी पर चढ़ाया गया, तब वे मात्र साढ़े उन्नीस वर्ष के थे। प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगत सिंह उन्हें अपना आदर्श मानते थे। 
 
पृष्ठभूमि व प्रारंभिक जीवन

सराभा, पंजाब के लुधियाना ज़िले का एक चर्चित गांव है। लुधियाना शहर से यह करीब पंद्रह मील की दूरी पर स्थित है। गांव बसाने वाले रामा व सद्दा दो भाई थे। गांव में तीन पत्तियां हैं-सद्दा पत्ती, रामा पत्ती व अराइयां पत्ती। सराभा गांव करीब तीन सौ वर्ष पुराना है और १९४७ से पहले इसकी आबादी दो हज़ार के करीब थी, जिसमें सात-आठ सौ मुसलमान भी थे। इस समय गांव की आबादी चार हज़ार के करीब है।
कर्तार सिंह का जन्म २४ मई, १८९६ को माता साहिब कौर की कोख से हुआ। उनके पिता मंगल सिंह का कर्तार सिंह के बचपन में ही निधन हो गया था। कर्तार सिंह की एक छोटी बहन धन्न कौर भी थी। दोनों बहन-भाइयों का पालन-पोषण दादा बदन सिंह ने किया। कर्तार सिंह के तीन चाचा-बिशन सिंह, वीर सिंह व बख्शीश सिंह ऊंची सरकारी पदवियों पर काम कर रहे थे। कर्तार सिंह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना के स्कूलों में हासिल की। बाद में उसे उड़ीसा में अपने चाचा के पास जाना पड़ा। उड़ीसा उन दिनों बंगाल प्रांत का हिस्सा था, जो राजनीतिक रूप से अधिक सचेत था। वहां के माहौल में सराभा ने स्कूली शिक्षा के साथ अन्य ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढ़ना भी शुरू किया। दसवीं कक्षा पास करने के उपरांत उसके परिवार ने उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए उसे अमेरिका भेजने का निर्णय लिया और १ जनवरी, १९१२ को सराभा ने अमेरिका की धरती पर पांव रखा। उस समय उसकी आयु पंद्रह वर्ष से कुछ महीने ही अधिक थी। इस उम्र में सराभा ने उड़ीसा के रेवनशा कॉलेज से ग्यारहवीं की परीक्षा पास कर ली थी। सराभा गांव का रुलिया सिंह 1908 में ही अमेरिका पहुंच गया था और अमेरिका-प्रवास के प्रारंभिक दिनों में सराभा अपने गांव के रुलिया सिंह के पास ही रहा। उनके बचपन की जीवन संबंधी क्षणों में ऐतिहासिकता के अंश उसके अमेरिका-प्रवास के दौरान ही शुरू होते हैं, जब उसके भीतर एक आज़ाद देश में रहते हुए अपनी राष्ट्रीय अस्मिता, आत्मसम्मान व आज़ाद की तरह जीने की इच्छा पैदा हुई। इस चेतना को प्राप्त करने की शुरूआत सानफ्रांसिस्को की बंदरगाह पर उतरते ही शुरू हो गई थी, जब आव्रजन अधिकारी ने उससे अमेरिका आने का कारण पूछा था और सराभा ने बर्कले विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करना अपना उद्देश्य बताया था। अधिकारी द्वारा उतरने की अनुमति न दिए जाने के प्रश्न के उत्तर में सराभा ने तर्कपूर्ण उत्तर देकर अधिकारी की संतुष्टि करवा दी थी। लेकिन अमेरिका के दो तीन महीने के प्रवास में ही जगह-जगह पर मिले अनादर ने सराभा के भीतर सुषुप्त चेतना जगानी शुरू कर दी। एक बुजुर्ग महिला के घर में किराएदार के रूप में रहते हुए, जब अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर महिला द्वारा घर को फूलों व वीर नायकों के चित्रों से सजाया गया तो सराभा ने इसका कारण पूछा। महिला के यह बताने पर कि अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस पर नागरिक ऐसे ही घर सजा कर खुशी का इज़हार करते हैं तो सराभा के मन में भी यह भावना जागृत हुई कि हमारे देश की आज़ादी का दिन भी होना चाहिए।
भारत से अमेरिका गए भारतीय, जिनमें से ज़्यादातर पंजाबी थे, प्रायः पश्चिमी तट के नगरों में रहते और काम की तलाश करते थे। इन शहरों में पोर्टलैंड, सेंट जॉन, एस्टोरिया, एवरेट आदि शामिल थे, जहां लकड़ी के कारखानों व रेलवे वर्कशॉपों में काम करने वाले भारतीय बीस-बीस, तीस-तीस की टोलियों में रहते थे। कनाडा व अमेरिका में गोरी नस्ल के लोगों के नस्लवादी रवैये से भारतीय मज़दूर काफी दुखी थे। भारतीयों के साथ इस भेदभावपूर्ण व्यवहार के विरुद्ध कनाडा में संत तेजा सिंह संघर्ष कर रहे थे तो अमेरिका में ज्वाला सिंह ठट्ठीआं संघर्षरत थे। इन्होंने भारत से विद्यार्थियों को पढ़ाई करने के लिए अमेरिका बुलाने के लिए अपनी जेब से छात्रवृत्तियां भी दीं।
कर्तार सिंह सराभा अपने गांव के रुलिया सिंह के पास कुछ समय एस्टोरिया में रहा। १९१२ के आरंभ में पोर्टलैंड में भारतीय मज़दूरों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ, जिसमें बाबा सोहन सिंह भकना, हरनाम सिंह टुंडीलाट, काशीराम आदि ने हिस्सा लिया। ये सभी बाद में गदर पार्टी के महत्त्वपूर्ण नेता बन कर उभरे। इस समय कर्तार सिंह की भेंट ज्वाला सिंह ठट्ठीआं से भी हुई, जिन्होंने उसे बर्कले विश्वविद्यालय में दाखिला लेने के लिए प्रेरित किया, जहां सराभा रसायन शास्त्र का विद्यार्थी बना। बर्कले विश्वविद्यालय में कर्तार सिंह पंजाबी होस्टल में रहने लगा। बर्कले विश्वविद्यालय में उस समय करीब तीस विद्यार्थी पढ़ रहे थे, जिनमें ज़्यादातर पंजाबी व बंगाली थे। ये विद्यार्थी दिसंबर, १९१२ में लाला हरदयाल के संपर्क में आए, जो उन्हें भाषण देने गए थे। लाला हरदयाल ने विद्यार्थियों के सामने भारत की गुलामी के संबंध में काफी जोशीला भाषण दिया। भाषण के पश्चात् हरदयाल ने विद्यार्थियों से व्यक्तिगत रूप से भी बातचीत की। लाला हरदयाल और भाई परमानंद ने भारतीय विद्यार्थियों के दिलों में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ भावनाएं पैदा करने में बड़ी भूमिका निभाई। भाई परमानंद बाद में भी सराभा के संपर्क में रहे। इससे धीरे-धीरे सराभा के मन में देशभक्ति की तीव्र भावनाएं जागृत हुईं और वह देश के लिए मर-मिटने का संकल्प लेने की ओर अग्रसर होने लगा।

अमेरिका में गदर पार्टी की स्थापना

१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद में ब्रिटिश सरकार ने सत्ता पर सीधा नियंत्रण कर एक ओर उत्पीड़न तो दूसरी ओर भारत में औपनिवेशिक व्यवस्था का निर्माण शुरू किया। क्योंकि खुद ब्रिटेन में लोकतांत्रिक व्यवस्था थी, इसलिए म्युनिसपैलिटी आदि संस्थाओं का निर्माण भी किया गया, लेकिन भारत का आर्थिक दोहन अधिक से अधिक हो, इसलिए यहां के देशी उद्योगों को नष्ट करके यहां से कच्चा माल इंग्लैंड भेजा जाना शुरू किया गया। साथ ही पूरे देश में रेलवे का जाल बिछाया जाना शुरू हुआ। ब्रिटिश सरकार ने भारत के सामंतों को अपना सहयोगी बना कर किसानों का भयानक उत्पीड़न शुरू किया। नतीजतन उन्नीसवीं सदी के अंत तक आते-आते देश के अनेक भागों में छिटपुट विद्रोह होने लगे। महाराष्ट्र और बंगाल तो इसके केंद्र बने ही, पंजाब में भी किसानों की दशा पूरी तरह खराब होने लगी। परिणामतः बीसवीं सदी के आरंभ में ही पंजाब के किसान कनाडा, अमेरिका की ओर मज़दूरी की तलाश में देश से बाहर जाने लगे। मध्यवर्गीय छात्र भी शिक्षा-प्राप्ति हेतु इंग्लैंड, अमेरिका वे यूरोप के देशों में जाने लगे थे।
अमेरिका और कनाडा में भारत से काम की तलाश में सबसे पहले १८९५ और १९०० के बीच कुछ लोग पहुंचे। १८९७ में कुछ सिख सैनिक इंग्लैंड में डायमंड जुबली में हिस्सा लेने आए और लौटते हुए कनाडा से गुज़रे। उनमें से कुछ वहीं रुक गए, लेकिन ज़्यादातर पंजाबी मलाया, फिलीपींस, हांगकांग, शंघाई, फिज़ी, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड आदि देशों से सबसे पहले कनाडा और अमेरिका पहुंचे। १९०५ में कनाडा पहुंचने वाले भारतीयों की संख्या सिर्फ ४५ थी, जो १९०८ में बढ़ कर २०२३ तक पहुंच गई। एक विद्वान् के अनुसार १९०७ में वहाँ ६००० तक भारतीय पहुंच चुके थे। इनमें से ८० प्रतिशत पंजाबी-सिख किसान थे। १९०९ में कनाडा में प्रवेश के कानून कड़े कर दिए जाने पर भारतीयों का रुख अमेरिका की ओर हुआ, जहां पर १९१३ में भारतीयों की संख्या एक अनुमान के अनुसार पांच हज़ार थी, हालांकि डॉ. राम मनोहर लोहिया अपनी पुस्तक ‘Indian in Foreign Lands’ में इनकी संख्या १५००० बताते हैं। इन भारतीयों में ९० प्रतिशत पंजाबी-सिख किसान थे, कुछ मध्यवर्गीय विद्यार्थी थे।
कनाडा और अमेरिका पहुंचे पढ़े-लिखे भारतीयों ने शीघ्र ही वहां से भारतीय स्वतंत्रता की मांग उठाने वाली पत्र-पत्रिकाएं निकालनी शुरू कीं। तारकनाथ दास ने Free Hindustan पहले कनाडा से पत्र निकाला तो बाद में अमेरिका से। गुरुदत्त कुमार ने कनाडा में ‘यूनाइटेड इंडिया लीग’ बनाई और ‘स्वदेश सेवक’ पत्रिका भी निकाली।
कनाडा और अमेरिका के अतिरिक्त इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, जापान व अन्य अनेक देशों में पहुंचे भारतीयों ने स्वतंत्रता की अलख जगाई। भारत से बाहर जाकर भारतीय स्वतंत्रता के लिए आंदोलन करने वाले भारतीयों में सबसे पहला चर्चित नाम श्यामजी कृष्ण वर्मा का है, जिन्होंने पहले इंग्लैंड और उसके बाद पेरिस से स्वतंत्रता का बिगुल बजाया। इंग्लैंड से शुरू हुआ ‘इंडियन सोश्योलोजिस्ट’ अंग्रेज़ों की कोपदृष्टि का शिकार होकर पेरिस पहुंचा और वहां से भारत और दूसरी जगहों पर पहुंचता रहा। पेरिस में श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ-साथ सरदार सिंह राणा और मदाम भीकाजी कामा बहुत सक्रिय रहीं। १९०७ के स्टुगार्ड में हुए समाजवादी सम्मेलन में भीकाजी कामा ने ही पहली बार भारत का झंडा फहराया। जर्मनी में वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, जो ‘चट्टो’ के नाम से चर्चित थे, और चंपक रमण पिल्लै सक्रिय थे। इन्हीं के साथ स्वामी विवेकानंद के छोटे भाई डॉ. भूपेन्द्रनाथ दत्त भी सक्रिय रहे। १९०६ में इंग्लैंड पहुंचे विनायक दामोदर सावरकर ने ‘अभिनव भारत’ व ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ बनाई। उन्हीं से प्रेरित होकर पंजाब से पहुंचे मदनलाल ढींगरा ने १९०९ में कर्ज़न वायली की हत्या कर दी, जिसके कारण उन्हें डेढ़ महीने के भीतर ही लंदन में फांसी दे दी गई। भारत से बाहर भारत की आज़ादी के लिए फांसी पर चढ़ कर शहीद होने वाले वे शायद पहले भारतीय थे। इसके ३१ साल बाद एक और पंजाबी देशभक्त उधम सिंह ने जलियांवाला बाग के कुख्यात खलनायक ओडवायर की हत्या कर १९४० में लंदन में ही फिर शहादत हासिल की थी। इस बीच ईरान में सूफी अंबा प्रसाद और कनाडा में भाई मेवा सिंह शहीद हुए।

भूमिका

१६ नवम्बर, १९१५ को साढे़ उन्नीस साल के युवक कर्तार सिंह सराभा को उनके छह अन्य साथियों - बख्शीश सिंह, (ज़िला अमृतसर); हरनाम सिंह, (ज़िला स्यालकोट); जगत सिंह, (ज़िला लाहौर); सुरैण सिंह व सुरैण, दोनों (ज़िला अमृतसर) व विष्णु गणेश पिंगले, (ज़िला पूना महाराष्ट्र)- के साथ लाहौर जेल में फांसी पर चढ़ा कर शहीद कर दिया गया। इनमें से ज़िला अमृतसर के तीनों शहीद एक ही गांव गिलवाली से संबंधित थे। इन शहीदों व इनके अन्य साथियों ने भारत पर काबिज़ ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ १९ फरवरी, १९१५ को ‘गदर’ की शुरुआत की थी। इस ‘गदर’ यानी स्वतंत्रता संग्राम की योजना अमेरिका में १९१३ में अस्तित्व में आई ‘गदर पार्टी’ ने बनाई थी और इसके लिए लगभग आठ हज़ार भारतीय अमेरिका और कनाडा जैसे देशों में सुख-सुविधाओं भरी ज़िंदगी छोड़ कर भारत को अंग्रेज़ों से आज़ाद करवाने के लिए समुद्री जहाज़ों पर भारत पहुंचे थे। ‘गदर’ आंदोलन शांतिपूर्ण आंदोलन नहीं था, यह सशस्त्र विद्रोह था, लेकिन ‘गदर पार्टी’ ने इसे गुप्त रूप न देकर खुलेआम इसकी घोषणा की थी और गदर पार्टी के पत्र ‘गदर’, जो पंजाबी, हिंदी, उर्दू व गुजराती चार भाषाओं में निकलता था-के माध्यम से इसका समूची भरतीय जनता से आह्वान किया था। अमेरिका की स्वतंत्र धरती से प्रेरित हो अपनी धरती को स्वतंत्र करवाने का यह शानदार आह्वान १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित था और ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने जिसे अवमानना से ‘गदर’ नाम दिया, उसी ‘गदर’ शब्द को सम्मानजनक रूप देने के लिए अमेरिका में बसे भारतीय देशभक्तों ने अपनी पार्टी और उसके मुखपत्र को ही ‘गदर’ नाम से विभूषित किया। जैसे १८५७ के ‘गदर’ यानी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की कहानी बड़ी रोमांचक है, वैसे ही स्वतंत्रता के लिए दूसरा सशस्त्र संग्राम यानी ‘गदर’ भी चाहे असफल रहा लेकिन इसकी कहानी भी कम रोचक नहीं है।
विश्व स्तर पर चले इस आंदोलन में दो सौ से ज़्यादा लोग शहीद हुए, ‘गदर’ व अन्य घटनाओं में ३१५ से ज़्यादा ने अंडमान जैसी जगहों पर काले पानी की उम्रकैद भुगती और १२२ ने कुछ कम लंबी कैद भुगती। सैकड़ों पंजाबियों को गांवों में वर्षों तक नज़रबंदी झेलनी पड़ी। उस आंदोलन में बंगाल से रास बिहारी बोस वे शचीन्द्रनाथ सान्याल, महाराष्ट्र से विष्णु गणेश पिंगले व डॉ. खानखोजे, दक्षिण भारत से डॉ. चेन्चय्या व चंपक रमण पिल्लै तथा भोपाल से बरकतुल्ला आदि ने हिस्सा लेकर उसे एक ओर राष्ट्रीय रूप दिया तो शंघाई, मनीला, सिंगापुर आदि अनेक विदेशी नगरों में हुए विद्रोह ने इसे अंतर्राष्ट्रीय रूप भी दिया। १८५७ की भांति ही ‘गदर’ आंदोलन भी सही मायनों में धर्म निरपेक्ष संग्राम था जिसमें सभी धर्मों व समुदायों के लोग शामिल थे।
गदर पार्टी आंदोलन की यह विशेषता भी रेखांकित करने लायक है कि विद्रोह की असफलता से गदर पार्टी समाप्त नहीं हुई, बल्कि इसने अपना अंतर्राष्ट्रीय अस्तित्व बचाए रखा व भारत में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होकर व विदेशों में अलग अस्तित्व बनाए रखकर गदर पार्टी ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। आगे चल कर १९२५-२६ से पंजाब का युवक विद्रोह, जिसके लोकप्रिय नायक भगत सिंह बने, भी गदर पार्टी व कर्तार सिंह सराभा से अत्यंत रूप में प्रभावित रहा। एक तरह से भगत सिंह का व्यक्तित्व व चिंतन गदर पार्टी की परंपरा को अपनाते हुए उसके अग्रगामी विकास के रूप में निखरा।
कर्तार सिंह सराभा गदर पार्टी के उसी तरह नायक बने, जैसे बाद में १९२५ - ३१ के दौरान भगत सिंह क्रांतिकारी आंदोलन के महानायक बने। यह अस्वाभाविक नहीं है कि कर्तार सिंह सराभा ही भगत सिंह के सबसे लोकप्रिय नायक थे, जिनका चित्र वे हमेशा अपनी जेब में रखते थे और ‘नौजवान भारत सभा’ नामक युवा संगठन के माध्यम से वे कर्तार सिंह सराभा के जीवन को स्लाइड शो द्वारा पंजाब के नवयुवकों में आज़ादी की प्रेरणा जगाने के लिए दिखाते थे। ‘नौजवान भारत सभा’ की हर जनसभा में कर्तार सिंह सराभा के चित्र को मंच पर रख कर उसे पुष्पांजलि दी जाती थी।
कर्तार सिंह सराभा, गदर पार्टी आंदोलन के लोक नायक के रूप में अपने बहुत छोटे-से राजनीतिक जीवन के कार्यकलापों के कारण उभरे। कुल दो-तीन साल में ही सराभा ने अपने प्रखर व्यक्तित्व की ऐसी प्रकाशमान किरणें छोड़ीं कि देश के युवकों की आत्मा को उसने देशभक्ति के रंग में रंग कर जगमग कर दिया। ऐसे वीर नायक को फांसी देने से न्यायाधीश भी बचना चाहते थे और सराभा को उन्होंने अदालत में दिया बयान हल्का करने का मशविरा और वक्त भी दिया, लेकिन देश के नवयुवकों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनने वाले इस वीर नायक ने बयान हल्का करने की बजाय और सख्त किया और फांसी की सज़ा पाकर खुशी में अपना वज़न बढ़ाते हुए हंसते-हंसते फांसी पर झूल गया।

सराभा की लोकप्रिय गज़ल

करतार सिंह सराभा की यह गज़ल भगत सिंह को बेहद प्रिय थी वे इसे अपने पास हमेशा रखते थे और अकेले में अक्सर गुनगुनाया करते थे:
"यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयाँ मेरा,
मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा;
मैं हिन्दी ठेठ हिन्दी जात हिन्दी नाम हिन्दी है,
यही मजहब यही फिरका यही है खानदां मेरा;
मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूँ,
यही बस इक पता मेरा यही नामो-निशाँ मेरा;
मैं उठते-बैठते तेरे कदम लूँ चूम ऐ भारत!
कहाँ किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहाँ मेरा;
तेरी खिदमत में अय भारत! ये सर जाये ये जाँ जाये,
तो समझूँगा कि मरना है हयाते-जादवां मेरा."
 
 
 आज अमर शहीद कर्तार सिंह सराभा जी की ११८ वीं जयंती के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते है |

गुरुवार, 15 मई 2014

अमर शहीद सुखदेव जी की १०७ वीं जयंती


आज अमर शहीद सुखदेव जी की १०७ वीं जयंती है !

सुखदेव जी का जन्म पंजाब के शहर लायलपुर में श्रीयुत् रामलाल थापर व श्रीमती रल्ली देवी के घर विक्रमी सम्वत १९६४ के फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष सप्तमी तदनुसार १५ मई १९०७ को अपरान्ह पौने ग्यारह बजे हुआ था । जन्म से तीन माह पूर्व ही पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इनके ताऊ अचिन्तराम ने इनका पालन पोषण करने में इनकी माता को पूर्ण सहयोग किया। सुखदेव की तायी जी ने भी इन्हें अपने पुत्र की तरह पाला। इन्होंने भगत सिंह, कॉमरेड रामचन्द्र एवम् भगवती चरण बोहरा के साथ लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन किया था ।

लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिये जब योजना बनी तो साण्डर्स का वध करने में इन्होंने भगत सिंह तथा राजगुरु का पूरा साथ दिया था। यही नहीं, सन् १९२९ में जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में राजनीतिक बन्दियों द्वारा की गयी व्यापक हड़ताल में बढ-चढकर भाग भी लिया था । गांधी-इर्विन समझौते के सन्दर्भ में इन्होंने एक खुला खत गांधी जी के नाम अंग्रेजी में लिखा था जिसमें इन्होंने महात्मा जी से कुछ गम्भीर प्रश्न किये थे। उनका उत्तर यह मिला कि निर्धारित तिथि और समय से पूर्व जेल मैनुअल के नियमों को दरकिनार रखते हुए २३ मार्च १९३१ को सायंकाल ७ बजे सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह तीनों को लाहौर सेण्ट्रल जेल में फाँसी पर लटका कर मार डाला गया। इस प्रकार भगत सिंह तथा राजगुरु के साथ सुखदेव भी मात्र २३वर्ष की आयु में शहीद हो गये ।


जैसा कि मैंने पहले बताया गांधी-इर्विन समझौते के सन्दर्भ में सुखदेव जी ने एक खुला खत गांधी जी के नाम अंग्रेजी में लिखा था गांधी जी को लिखे गए उस पत्र का हिन्दी अनुवाद यहाँ दे रहा हूँ ...यह जानकारी यहाँ भी मौजूद है !

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परम कृपालु महात्मा जी,

आजकल की ताज़ा ख़बरों से मालूम होता है कि समझौते की बातचीत की सफलता के बाद आपने क्रांतिकारी कार्यकर्त्ताओं को फिलहाल अपना आंदोलन बंद कर देने और आपको अपने अहिंसावाद को आजमा देखने का आखिरी मौक़ा देने के लिए कई प्रकट प्रार्थनाएँ की हैं.

वस्तुतः किसी आंदोलन को बंद करना केवल आदर्श या भावना से होनेवाला काम नहीं है. भिन्न-भिन्न अवसरों की आवश्यकताओं का विचार ही अगुआओं को उनकी युद्धनीति बदलने के लिए विवश करता है.

माना कि सुलह की बातचीत के दरम्यान, आपने इस ओर एक क्षण के लिए भी न तो दुर्लक्ष्य किया, न इसे छिपा ही रखा कि यह समझौता अंतिम समझौता न होगा.

मैं मानता हूँ कि सब बुद्धिमान लोग बिल्कुल आसानी के साथ यह समझ गए होंगे कि आपके द्वारा प्राप्त तमाम सुधारों का अमल होने लगने पर भी कोई यह न मानेगा कि हम मंजिले-मकसूद पर पहुँच गए हैं.

संपूर्ण स्वतंत्रता जब तक न मिले, तब तक बिना विराम के लड़ते रहने के लिए महासभा लाहौर के प्रस्ताव से बँधी हुई है.

उस प्रस्ताव को देखते हुए मौजूदा सुलह और समझौता सिर्फ कामचलाऊ युद्ध-विराम है, जिसका अर्थ यही होता है कि आने वाली लड़ाई के लिए अधिक बड़े पैमाने पर अधिक अच्छी सेना तैयार करने के लिए यह थोड़ा विश्राम है.

इस विचार के साथ ही समझौते और युद्ध-विराम की शक्यता की कल्पना की जा सकती और उसका औचित्य सिद्ध हो सकता है.

किसी भी प्रकार का युद्ध-विराम करने का उचित अवसर और उसकी शर्ते ठहराने का काम तो उस आंदोलन के अगुआओं का है.

लाहौर वाले प्रस्ताव के रहते हुए भी आपने फिलहाल सक्रिए आन्दोलन बन्द रखना उचित समझा है, तो भी वह प्रस्ताव तो कायम ही है.

इसी तरह हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के नाम से ही साफ पता चलता है कि क्रांतिवादियों का आदर्श समाज-सत्तावादी प्रजातंत्र की स्थापना करना है.

यह प्रजातंत्र मध्य का विश्राम नहीं है. उनका ध्येय प्राप्त न हो और आदर्श सिद्ध न हो, तब तक वे लड़ाई जारी रखने के लिए बँधे हुए हैं.

परंतु बदलती हुई परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार वे अपनी युद्ध-नीति बदलने को तैयार अवश्य होंगे. क्रांतिकारी युद्ध जुदा-जुदा मौकों पर जुदा-जुदा रूप धारण करता है.

कभी वह प्रकट होता है, कभी गुप्त, कभी केवल आंदोलन-रूप होता है, और कभी जीवन-मरण का भयानक संग्राम बन जाता है.

ऐसी दशा में क्रान्तिवादियों के सामने अपना आंदोलन बंद करने के लिए विशेष कारण होने चाहिए. परंतु आपने ऐसा कोई निश्चित विचार प्रकट नहीं किया. निरी भावपूर्ण अपीलों का क्रांतिवादी युद्ध में कोई विशेष महत्त्व नहीं होता, हो नहीं सकता.

आपके समझौते के बाद आपने अपना आंदोलन बंद किया है, और फलस्वरूप आपके सब कैदी रिहा हुए हैं.

पर क्रांतिकारी कैदियों का क्या? 1915 से जेलों में पड़े हुए गदर-पक्ष के बीसों कैदी सज़ा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे हैं.

मार्शल लॉ के बीसों कैदी आज भी जिंदा कब्रों में दफनाये पड़े हैं. यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का है.

देवगढ़, काकोरी, मछुआ-बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र के कैदी अब तक जेल की चहारदीवारी में बंद पड़े हुए बहुतेरे कैदियों में से कुछ हैं.

लाहौर, दिल्ली, चटगाँव, बम्बई, कलकत्ता और अन्य जगहों में कोई आधी दर्जन से ज़्यादा षड्यंत्र के मामले चल रहे हैं. बहुसंख्यक क्रांतिवादी भागते-फिरते हैं, और उनमें कई तो स्त्रियाँ हैं.

सचमुच आधे दर्जन से अधिक कैदी फाँसी पर लटकने की राह देख रहे हैं. इन सबका क्या?

लाहौर षड्यंत्र केस के सज़ायाफ्ता तीन कैदी, जो सौभाग्य से मशहूर हो गए हैं और जिन्होंने जनता की बहुत अधिक सहानुभूति प्राप्त की है, वे कुछ क्रांतिवादी दल का एक बड़ा हिस्सा नहीं हैं.

उनका भविष्य ही उस दल के सामने एकमात्र प्रश्न नहीं है. सच पूछा जाए तो उनकी सज़ा घटाने की अपेक्षा उनके फाँसी पर चढ़ जाने से ही अधिक लाभ होने की आशा है.

यह सब होते हुए भी आप इन्हें अपना आंदोलन बंद करने की सलाह देते हैं. वे ऐसा क्यों करें? आपने कोई निश्चित वस्तु की ओर निर्देश नहीं किया है.

ऐसी दशा में आपकी प्रार्थनाओं का यही मतलब होता है कि आप इस आंदोलन को कुचल देने में नौकरशाही की मदद कर रहे हैं, और आपकी विनती का अर्थ उनके दल को द्रोह, पलायन और विश्वासघात का उपदेश करना है.

यदि ऐसी बात नहीं है, तो आपके लिए उत्तम तो यह था कि आप कुछ अग्रगण्य क्रांतिकारियों के पास जाकर उनसे सारे मामले के बारे में बातचीत कर लेते.

अपना आंदोलन बंद करने के बारे में पहले आपको उनकी बुद्धी की प्रतीति करा लेने का प्रयत्न करना चाहिए था.

मैं नहीं मानता कि आप भी इस प्रचलित पुरानी कल्पना में विश्वास रखते हैं कि क्रांतिकारी बुद्धिहीन हैं, विनाश और संहार में आनंद मानने वाले हैं.

मैं आपको कहता हूँ कि वस्तुस्थिति ठीक उसकी उलटी है, वे सदैव कोई भी काम करने से पहले उसका खूब सूक्ष्म विचार कर लेते हैं, और इस प्रकार वे जो जिम्मेदारी अपने माथे लेते हैं, उसका उन्हें पूरा-पूरा ख्याल होता है.

और क्रांति के कार्य में दूसरे किसी भी अंग की अपेक्षा वे रचनात्मक अंग को अत्यंत महत्त्व का मानते हैं, हालाँकि मौजूदा हालत में अपने कार्यक्रम के संहारक अंग पर डटे रहने के सिवा और कोई चारा उनके लिए नहीं है.

उनके प्रति सरकार की मौजूदा नीति यह है कि लोगों की ओर से उन्हें अपने आंदोलन के लिए जो सहानुभूति और सहायता मिली है, उससे वंचित करके उन्हें कुचल डाला जाए. अकेले पड़ जाने पर उनका शिकार आसानी से किया जा सकता है.

ऐसी दशा में उनके दल में बुद्धि-भेद और शिथिलता पैदा करने वाली कोई भी भावपूर्ण अपील एकदम बुद्धिमानी से रहित और क्रांतिकारियों को कुचल डालने में सरकार की सीधी मदद करनेवाली होगी.

इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि या तो आप कुछ क्राँतिकारी नेताओं से बातचीत कीजिए-उनमें से कई जेलों में हैं- और उनके साथ सुलह कीजिए या ये सब प्रार्थनाएँ बंद रखिए.

कृपा कर हित की दृष्टि से इन दो में से एक कोई रास्ता चुन लीजिए और सच्चे दिल से उस पर चलिए.

अगर आप उनकी मदद न कर सकें, तो मेहरबानी करके उन पर रहम करें. उन्हें अलग रहने दें. वे अपनी हिफाजत आप अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं.

वे जानते हैं कि भावी राजनैतिक युद्ध में सर्वोपरि स्थान क्रांतिकारी पक्ष को ही मिलनेवाला है.

लोकसमूह उनके आसपास इकट्ठा हो रहे हैं, और वह दिन दूर नहीं है, जब ये जमसमूह को अपने झंडे तले, समाजसत्ता, प्रजातंत्र के उम्दा और भव्य आदर्श की ओर ले जाते होंगे.

अथवा अगर आप सचमुच ही उनकी सहायता करना चाहते हों, तो उनका दृष्टिकोण समझ लेने के लिए उनके साथ बातचीत करके इस सवाल की पूरी तफसीलवार चर्चा कर लीजिए.

आशा है, आप कृपा करके उक्त प्रार्थना पर विचार करेंगे और अपने विचार सर्वसाधारण के सामने प्रकट करेंगे.

आपका
अनेकों में से एक
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आज अमर शहीद सुखदेव जी की १०७ वीं जयंती पर हम सब उन्हें शत शत नमन करते है !

इंकलाब ज़िंदाबाद !!

रविवार, 11 मई 2014

हैप्पी मदर्स डे ...

 
 माँ 
माँ…माँ संवेदना है, भावना है अहसास है
माँ…माँ-माँ संवेदना है, भावना है अहसास है
माँ…माँ जीवन के फूलों में खुशबू का वास है,
माँ…माँ रोते हुए बच्चे का खुशनुमा पलना है,
माँ…माँ मरूथल में नदी या मीठा सा झरना है,
माँ…माँ लोरी है, गीत है, प्यारी सी थाप है,
माँ…माँ पूजा की थाली है, मंत्रों का जाप है,
माँ…माँ आँखों का सिसकता हुआ किनारा है,
माँ…माँ गालों पर पप्पी है, ममता की धारा है,
माँ…माँ झुलसते दिलों में कोयल की बोली है,
माँ…माँ मेहँदी है, कुमकुम है, सिंदूर है, रोली है,
माँ…माँ कलम है, दवात है, स्याही है,
माँ…माँ परामत्मा की स्वयँ एक गवाही है,
माँ…माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है,
माँ…माँ फूँक से ठँडा किया हुआ कलेवा है,
माँ…माँ अनुष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है,
माँ…माँ जिंदगी के मोहल्ले में आत्मा का भवन है,
माँ…माँ चूडी वाले हाथों के मजबूत कधों का नाम है,
माँ…माँ काशी है, काबा है और चारों धाम है,
माँ…माँ चिंता है, याद है, हिचकी है,
माँ…माँ बच्चे की चोट पर सिसकी है,
माँ…माँ चुल्हा-धुंआ-रोटी और हाथों का छाला है,
माँ…माँ ज़िंदगी की कडवाहट में अमृत का प्याला है,
माँ…माँ पृथ्वी है, जगत है, धूरी है,
माँ बिना इस सृष्टी की कलप्ना अधूरी है,
तो माँ की ये कथा अनादि है,
ये अध्याय नही है…
…और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
तो माँ का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
तो मैं कला की ये पंक्तियाँ माँ के नाम करता हूँ,
और दुनिया की सभी माताओं को प्रणाम करता हूँ  ||
 
- स्व॰ ओम व्यास ओम   


हैप्पी मदर्स डे ...

शनिवार, 10 मई 2014

प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की १५७ वीं वर्षगांठ

लोकतंत्र के मौजूदा संग्राम के चलते ... १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम उपेक्षित ही रहा ... आज इस की १५७ वीं वर्षगांठ है |

 
उन सभी अमर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को 
शत शत नमन |

शुक्रवार, 9 मई 2014

अजय भाई ... हैप्पी बर्थड़े ...

आज हमारे बड़के भईया जी का बर्थड़े है ... हाँ ... हाँ ... वही हैप्पी वाला ... 

चलिये सब लोग फटाफट ... भईया जी को मुबारकबाद दीजिये ... हमारे साथ साथ बोलिए ...


भईया जी इश्माईल प्लीज ... 


हैप्पी बर्थड़े अजय भाई ... :)

सोमवार, 5 मई 2014

अमर शहीद प्रीतिलता वादेदार की १०३ वीं जयंती

प्रीतिलता वादेदार (बांग्ला : প্রীতিলতা ওয়াদ্দেদার) (5 मई 1911 – 23 सितम्बर 1932) भारतीय स्वतंत्रता संगाम की महान क्रान्तिकारिणी थीं। वे एक मेधावी छात्रा तथा निर्भीक लेखिका भी थी। वे निडर होकर लेख लिखती थी।
 
परिचय
 
प्रीतिलता वादेदार का जन्म 5 मई 1911 को तत्कालीन पूर्वी भारत (और अब बंगला देश ) में स्थित चटगाँव के एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता नगरपालिका के क्लर्क थे। वे चटगाँव के डॉ खस्तागिर शासकीय कन्या विद्यालय की मेघावी छात्रा थीं। उन्होने सन् १९२८ में मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की। इसके बाद सन् १९२९ में उन्होने ढाका के इडेन कॉलेज में प्रवेश लिया और इण्टरमिडिएट परीक्षा में पूरे ढाका बोर्ड में पाँचवें स्थान पर आयीं। दो वर्ष बाद प्रीतिलता ने कोलकाता के बेथुन कॉलेज से दर्शनशास्त्र से स्नातक परीक्षा उत्तिर्ण की। कोलकाता विश्वविद्यालय के ब्रितानी अधिकारियों ने उनकी डिग्री को रोक दिया। उन्हें ८० वर्ष बाद मरणोपरान्त यह डिग्री प्रदान की गयी। जब वे कॉलेज की छात्रा थीं, रामकृष्ण विश्वास से मिलने जाया करतीं थी जिन्हें बाद में फांसी की सजा हुई। उन्होने निर्मल सेन से युद्ध का प्रशिक्षण लिया था।
स्कूली जीवन में ही वे बालचर - संस्था की सदस्य हो गयी थी। वहा उन्होंने सेवाभाव और अनुशासन का पाठ पढ़ा। बालचर संस्था में सदस्यों को ब्रिटिश सम्राट के प्रति एकनिष्ट रहने की शपथ लेनी होती थी। संस्था का यह नियम प्रीतिलता को खटकता था। उन्हें बेचैन करता था। यही उनके मन में क्रान्ति का बीज पनपा था। बचपन से ही वह रानी लक्ष्मी बाई के जीवन - चरित्र से खूब प्रभावित थी,  उन्होंने 'डॉ खस्तागिर गवर्मेंट गर्ल्स स्कूल चटगाँव से मैट्रिक की परीक्षा उच्च श्रेणी में पास किया। फिर इडेन कालेज ढाका से इंटरमिडीएट की परीक्षा और ग्रेजुएशन नेथ्यून कालेज कलकत्ता से किया। यही उनका सम्पर्क क्रान्तिकारियो से हुआ। शिक्षा उपरान्त उन्होंने परिवार की मदद के लिए एक पाठशाला में नौकरी शुरू की। लेकिन उनकी दृष्टि में केवल कुटुंब ही नही था , पूरा देश था। देश की स्वतंत्रता थी। पाठशाला की नौकरी करते हुए उनकी भेट प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्य सेन से हुई।प्रीतिलता उनके दल की सक्रिय सदस्य बनी। पहले भी जब वे ढाका में पढ़ते हुए छुट्टी में चटगाँव आती थी तब उनकी क्रान्तिकारियो से मुलाक़ात होती थी और अपने साथ पढने वाली सहेलियों से तकरार करती थी कि वे क्रांतिकारी अत्यंत डरपोक है। लेकिन सूर्यसेन से मिलने पर उनकी क्रान्तिकारियो के विषय में गलतफहमी दूर हो गयी। एक नया विश्वास कायम हो गया। वह बचपन से ही न्याय के लिए निर्भीक विरोध के लिए तत्पर रहती थी। स्कूल में पढ़ते हुए उन्होंने शिक्षा विभाग के एक आदेश के विरुद्ध दूसरी लडकियों के साथ मिलकर विरोध किया था। इसीलिए उन सभी लडकियों को स्कूल से निकाल दिया गया।प्रीतिलता जब सूर्यसेन से मिली तब वे अज्ञातवास में थे। उनका एक साथी रामकृष्ण विश्वास कलकत्ता के अलीपुर जेल में था। उनको फांसी की सज़ा सुनाई गयी थी। उनसे मिलना आसान नही था।लेकिन प्रीतिलता उनसे कारागार में लगभग चालीस बार मिली।और किसी अधिकारी को उन पर सशंय भी नही हुआ। यह था , उनकी बुद्धिमत्ता और बहादुरी का प्रमाण। इसके बाद वे सूर्यसेन के नेतृत्त्व कि इन्डियन रिपब्लिकन आर्मी में महिला सैनिक बनी। पूर्वी बंगाल के घलघाट में क्रान्तिकारियो को पुलिस ने घेर लिया था घिरे हुए क्रान्तिकारियो में अपूर्व सेन , निर्मल सेन , प्रीतिलता और सूर्यसेन आदि थे।सूर्यसेन ने लड़ाई करने का आदेश दिया।अपूर्वसेन और निर्मल सेन शहीद हो गये।सूर्यसेन की गोली से कैप्टन कैमरान मारा गया। सूर्यसेन और प्रीतिलता लड़ते - लड़ते भाग गये।क्रांतिकारी सूर्यसेन पर 10 हजार रूपये का इनाम घोषित था।दोनों एक सावित्री नाम की महिला के घर गुप्त रूप से रहे। वह महिला क्रान्तिकारियो को आश्रय देने के कारण अंग्रेजो का कोपभाजन बनी।सूर्यसेन ने अपने साथियो का बदला लेने की योजना बनाई। योजना यह थी की पहाड़ी की तलहटी में यूरोपीय क्लब पर धावा बोलकर नाच - गाने में मग्न अंग्रेजो को मृत्यु का दंड देकर बदला लिया जाए।प्रीतिलता के नेतृत्त्व में कुछ क्रांतिकारी वह पहुचे। २३ सितम्बर १९३२ की रात इस काम के लिए निश्चित की गयी।हथियारों से लैस प्रीतिलता ने आत्म सुरक्षा के लिए पोटेशियम साइनाइड नामक विष भी रख लिया था। पूरी तैयारी के साथ वह क्लब पहुची।बाहर से खिड़की में बम लगाया। क्लब की इमारत बम के फटने और पिस्तौल की आवाज़ से कापने लगी। नाच - रंग के वातावरण में एकाएक चीखे सुनाई देने लगी।13 अंग्रेज जख्मी हो गये और बाकी भाग गये।इस घटना में एक यूरोपीय महिला मारी गयी।थोड़ी देर बाद उस क्लब से गोलीबारी होने लगी। प्रीतिलता के शरीर में एक गोली लगी।वे घायल अवस्था में भागी लेकिन फिर गिरी और पोटेशियम सायनाइड खा लिया। उस समय उनकी उम्र 21 साल थी। इतनी कम उम्र में उन्होंने झांसी की रानी का रास्ता अपनाया और उन्ही की तरह अंतिम समय तक अंग्रेजो से लड़ते हुए स्वंय ही मृत्यु का वरण कर लिया प्रीतिलता के आत्म बलिदान के बाद अंग्रेज अधिकारियों को तलाशी लेने पर जो पत्र मिले उनमे छपा हुआ पत्र था। 
 
इस पत्र में छपा था की " चटगाँव शस्त्रागार काण्ड के बाद जो मार्ग अपनाया जाएगा , वह भावी विद्रोह का प्राथमिक रूप होगा। यह संघर्ष भारत को पूरी स्वतंत्रता मिलने तक जारी रहेगी। "
 
पिछले सालों मे आई हुई २ फिल्मों मे इन के बारे मे दिखाया गया था ... फिल्में थी - खेलें हम जी जान से और चटगाँव |

अमर शहीद वीरांगना प्रीतिलता वादेदार जी को उनकी १०३ वीं जयंती पर हम सब का शत शत नमन !!
 
इंकलाब ज़िंदाबाद !!!

शुक्रवार, 2 मई 2014

स्व॰ सत्यजित राय जी की ९३ वीं जयंती

सत्यजित राय (बंगाली: সত্যজিৎ রায়) (२ मई १९२१–२३ अप्रैल १९९२) एक भारतीय फ़िल्म निर्देशक थे, जिन्हें २०वीं शताब्दी के सर्वोत्तम फ़िल्म निर्देशकों में गिना जाता है। इनका जन्म कला और साहित्य के जगत में जाने-माने कोलकाता (तब कलकत्ता) के एक बंगाली परिवार में हुआ था। इनकी शिक्षा प्रेसिडेंसी कॉलेज और विश्व-भारती विश्वविद्यालय में हुई। इन्होने अपने कैरियर की शुरुआत पेशेवर चित्रकार की तरह की। फ़्रांसिसी फ़िल्म निर्देशक ज़ाँ रन्वार से मिलने पर और लंदन में इतालवी फ़िल्म लाद्री दी बिसिक्लेत (Ladri di biciclette, बाइसिकल चोर) देखने के बाद फ़िल्म निर्देशन की ओर इनका रुझान हुआ।


राय ने अपने जीवन में ३७ फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें फ़ीचर फ़िल्में, वृत्त चित्र और लघु फ़िल्में शामिल हैं। इनकी पहली फ़िल्म पथेर पांचाली (পথের পাঁচালী, पथ का गीत) को कान फ़िल्मोत्सव में मिले “सर्वोत्तम मानवीय प्रलेख” पुरस्कार को मिलाकर कुल ग्यारह अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। यह फ़िल्म अपराजितो (অপরাজিত) और अपुर संसार (অপুর সংসার, अपु का संसार) के साथ इनकी प्रसिद्ध अपु त्रयी में शामिल है। राय फ़िल्म निर्माण से सम्बन्धित कई काम ख़ुद ही करते थे — पटकथा लिखना, अभिनेता ढूंढना, पार्श्व संगीत लिखना, चलचित्रण, कला निर्देशन, संपादन और प्रचार सामग्री की रचना करना। फ़िल्में बनाने के अतिरिक्त वे कहानीकार, प्रकाशक, चित्रकार और फ़िल्म आलोचक भी थे। राय को जीवन में कई पुरस्कार मिले जिनमें अकादमी मानद पुरस्कार और भारत रत्न शामिल हैं।

प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा 


सत्यजित राय के वंश की कम से कम दस पीढ़ियों पहले तक की जानकारी मौजूद है। इनके दादा उपेन्द्रकिशोर राय चौधरी लेखक, चित्रकार, दार्शनिक, प्रकाशक और अपेशेवर खगोलशास्त्री थे। ये साथ ही ब्राह्म समाज के नेता भी थे। उपेन्द्रकिशोर के बेटे सुकुमार राय ने लकीर से हटकर बांग्ला में बेतुकी कविता लिखी। ये योग्य चित्रकार और आलोचक भी थे। सत्यजित राय सुकुमार और सुप्रभा राय के बेटे थे। इनका जन्म कोलकाता में हुआ। जब सत्यजित केवल तीन वर्ष के थे तो इनके पिता चल बसे। इनके परिवार को सुप्रभा की मामूली तन्ख़्वाह पर गुज़ारा करना पड़ा। राय ने कोलकाता के प्रेसिडेन्सी कालेज से अर्थशास्त्र पढ़ा, लेकिन इनकी रुचि हमेशा ललित कलाओं में ही रही। १९४० में इनकी माता ने आग्रह किया कि ये गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा स्थापित विश्व-भारती विश्वविद्यालय में आगे पढ़ें। राय को कोलकाता का माहौल पसन्द था और शान्तिनिकेतन के बुद्धिजीवी जगत से ये खास प्रभावित नहीं थे। माता के आग्रह और ठाकुर के प्रति इनके आदर भाव की वजह से अंततः इन्होंने विश्व-भारती जाने का निश्चय किया। शान्तिनिकेतन में राय पूर्वी कला से बहुत प्रभावित हुए। बाद में इन्होंने स्वीकार किया कि प्रसिद्ध चित्रकार नन्दलाल बोस और बिनोद बिहारी मुखर्जी से इन्होंने बहुत कुछ सीखा। मुखर्जी के जीवन पर इन्होंने बाद में एक वृत्तचित्र द इनर आई भी बनाया। अजन्ता, एलोरा और एलिफेंटा की गुफ़ाओं को देखने के बाद ये भारतीय कला के प्रशंसक बन गए।

चित्रकला

१९४३ में पाँच साल का कोर्स पूरा करने से पहले राय ने शान्तिनिकेतन छोड़ दिया और कोलकाता वापस आ गए जहाँ उन्होंने ब्रिटिश विज्ञापन अभिकरण डी. जे. केमर में नौकरी शुरु की। इनके पद का नाम “लघु द्रष्टा” (“junior visualiser”) था और महीने के केवल अस्सी रुपये का वेतन था। हालांकि दृष्टि रचना राय को बहुत पसंद थी और उनके साथ अधिकतर अच्छा ही व्यवहार किया जाता था, लेकिन एजेंसी के ब्रिटिश और भारतीय कर्मियों के बीच कुछ खिंचाव रहता था क्योंकि ब्रिटिश कर्मियों को ज्यादा वेतन मिलता था। साथ ही राय को लगता था कि “एजेंसी के ग्राहक प्रायः मूर्ख होते थे”। १९४३ के लगभग ही ये डी. के. गुप्ता द्वारा स्थापित सिग्नेट प्रेस के साथ भी काम करने लगे। गुप्ता ने राय को प्रेस में छपने वाली नई किताबों के मुखपृष्ठ रचने को कहा और पूरी कलात्मक मुक्ति दी। राय ने बहुत किताबों के मुखपृष्ठ बनाए, जिनमें जिम कार्बेट की मैन-ईटर्स ऑफ़ कुमाऊँ (Man-eaters of Kumaon, कुमाऊँ के नरभक्षी) और जवाहर लाल नेहरु की डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया (Discovery of India, भारत की खोज) शामिल हैं। इन्होंने बांग्ला के जाने-माने उपन्यास पथेर पांचाली (পথের পাঁচালী, पथ का गीत) के बाल संस्करण पर भी काम किया, जिसका नाम था आम आँटिर भेँपु (আম আঁটির ভেঁপু, आम की गुठली की सीटी)। राय इस रचना से बहुत प्रभावित हुए और अपनी पहली फ़िल्म इसी उपन्यास पर बनाई। मुखपृष्ठ की रचना करने के साथ उन्होंने इस किताब के अन्दर के चित्र भी बनाये। इनमें से बहुत से चित्र उनकी फ़िल्म के दृश्यों में दृष्टिगोचर होते हैं।

राय ने दो नए फॉन्ट भी बनाए — “राय रोमन” और “राय बिज़ार”। राय रोमन को १९७० में एक अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में पुरस्कार मिला। कोलकाता में राय एक कुशल चित्रकार माने जाते थे। राय अपनी पुस्तकों के चित्र और मुखपृष्ठ ख़ुद ही बनाते थे और फ़िल्मों के लिए प्रचार सामग्री की रचना भी ख़ुद ही करते थे।

फ़िल्म निर्देशन

१९४७ में चिदानन्द दासगुप्ता और अन्य लोगों के साथ मिलकर राय ने कलकत्ता फ़िल्म सभा शुरु की, जिसमें उन्हें कई विदेशी फ़िल्में देखने को मिलीं। इन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में कोलकाता में स्थापित अमरीकन सैनिकों से दोस्ती कर ली जो उन्हें शहर में दिखाई जा रही नई-नई फ़िल्मों के बारे में सूचना देते थे। १९४९ में राय ने दूर की रिश्तेदार और लम्बे समय से उनकी प्रियतमा बिजोय राय से विवाह किया। इनका एक बेटा हुआ, सन्दीप, जो अब ख़ुद फ़िल्म निर्देशक है। इसी साल फ़्रांसीसी फ़िल्म निर्देशक ज़ाँ रन्वार कोलकाता में अपनी फ़िल्म की शूटिंग करने आए। राय ने देहात में उपयुक्त स्थान ढूंढने में रन्वार की मदद की। राय ने उन्हें पथेर पांचाली पर फ़िल्म बनाने का अपना विचार बताया तो रन्वार ने उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया। १९५० में डी. जे. केमर ने राय को एजेंसी के मुख्यालय लंदन भेजा। लंदन में बिताए तीन महीनों में राय ने ९९ फ़िल्में देखीं। इनमें शामिल थी, वित्तोरियो दे सीका की नवयथार्थवादी फ़िल्म लाद्री दी बिसिक्लेत्ते (Ladri di biciclette, बाइसिकल चोर) जिसने उन्हें अन्दर तक प्रभावित किया। राय ने बाद में कहा कि वे सिनेमा से बाहर आए तो फ़िल्म निर्देशक बनने के लिए दृढ़संकल्प थे।

फ़िल्मों में मिली सफलता से राय का पारिवारिक जीवन में अधिक परिवर्तन नहीं आया। वे अपनी माँ और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ ही एक किराए के मकान में रहते रहे। १९६० के दशक में राय ने जापान की यात्रा की और वहाँ जाने-माने फिल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा से मिले। भारत में भी वे अक्सर शहर के भागम-भाग वाले माहौल से बचने के लिए दार्जीलिंग या पुरी जैसी जगहों पर जाकर एकान्त में कथानक पूरे करते थे।

बीमारी एवं निधन

१९८३ में फ़िल्म घरे बाइरे (ঘরে বাইরে) पर काम करते हुए राय को दिल का दौरा पड़ा जिससे उनके जीवन के बाकी ९ सालों में उनकी कार्य-क्षमता बहुत कम हो गई। घरे बाइरे का छायांकन राय के बेटे की मदद से १९८४ में पूरा हुआ। १९९२ में हृदय की दुर्बलता के कारण राय का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया, जिससे वह कभी उबर नहीं पाए। मृत्यु से कुछ ही हफ्ते पहले उन्हें सम्मानदायक अकादमी पुरस्कार दिया गया। २३ अप्रैल १९९२ को उनका देहान्त हो गया। इनकी मृत्यु होने पर कोलकाता शहर लगभग ठहर गया और हज़ारों लोग इनके घर पर इन्हें श्रद्धांजलि देने आए।

फ़िल्में

अपु के वर्ष (१९५०–५८)
राय ने निश्चय कर रखा था कि उनकी पहली फ़िल्म बांग्ला साहित्य की प्रसिद्ध बिल्डुंग्सरोमान पथेर पांचाली पर आधारित होगी, जिसे बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय ने १९२८ में लिखा था। इस अर्ध-आत्मकथात्मक उपन्यास में एक बंगाली गांव के लड़के अपु के बड़े होने की कहानी है। राय ने लंदन से भारत लौटते हुए समुद्रयात्रा के दौरान इस फ़िल्म की रूपरेखा तैयार की। भारत पहुँचने पर राय ने एक कर्मीदल एकत्रित किया जिसमें कैमरामैन सुब्रत मित्र और कला निर्देशक बंसी चन्द्रगुप्ता के अलावा किसी को फ़िल्मों का अनुभव नहीं था। अभिनेता भी लगभग सभी गैरपेशेवर थे। फ़िल्म का छायांकन १९५२ में शुरु हुआ। राय ने अपनी जमापूंजी इस फ़िल्म में लगा दी, इस आशा में कि पहले कुछ शॉट लेने पर कहीं से पैसा मिल जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पथेर पांचाली का छायांकन तीन वर्ष के लम्बे समय में हुआ — जब भी राय या निर्माण प्रबंधक अनिल चौधरी कहीं से पैसों का जुगाड़ कर पाते थे, तभी छायांकन हो पाता था। राय ने ऐसे स्रोतों से धन लेने से मना कर दिया जो कथानक में परिवर्तन कराना चाहते थे या फ़िल्म निर्माता का निरीक्षण करना चाहते थे। १९५५ में पश्चिम बंगाल सरकार ने फ़िल्म के लिए कुछ ऋण दिया जिससे आखिरकार फ़िल्म पूरी हुई। सरकार ने भी फ़िल्म में कुछ बदलाव कराने चाहे (वे चाहते थे कि अपु और उसका परिवार एक “विकास परियोजना” में शामिल हों और फ़िल्म सुखान्त हो) लेकिन सत्यजित राय ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया।

पथेर पांचाली १९५५ में प्रदर्शित हुई और बहुत लोकप्रिय रही। भारत और अन्य देशों में भी यह लम्बे समय तक सिनेमा में लगी रही। भारत के आलोचकों ने इसे बहुत सराहा। द टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने लिखा — “इसकी किसी और भारतीय सिनेमा से तुलना करना निरर्थक है। [...] पथेर पांचाली तो शुद्ध सिनेमा है।" अमरीका में लिंडसी एंडरसन ने फ़िल्म के बारे में बहुत अच्छी समीक्षा लिखी। लेकिन सभी आलोचक फ़िल्म के बारे में इतने उत्साहित नहीं थे। फ़्राँस्वा त्रुफ़ो ने कहा — “गंवारों को हाथ से खाना खाते हुए दिखाने वाली फ़िल्म मुझे नहीं देखनी।” न्यू यॉर्क टाइम्स के प्रभावशाली आलोचक बॉज़्ली क्राउथर ने भी पथेर पांचाली के बारे में बहुत बुरी समीक्षा लिखी। इसके बावजूद यह फ़िल्म अमरीका में बहुत समय तक चली।

राय की अगली फ़िल्म अपराजितो की सफलता के बाद इनका अन्तरराष्ट्रीय कैरियर पूरे जोर-शोर से शुरु हो गया। इस फ़िल्म में एक नवयुवक (अपु) और उसकी माँ की आकांक्षाओं के बीच अक्सर होने वाले खिंचाव को दिखाया गया है। मृणाल सेन और ऋत्विक घटक सहित कई आलोचक इसे पहली फ़िल्म से बेहतर मानते हैं। अपराजितो को वेनिस फ़िल्मोत्सव में स्वर्ण सिंह (Golden Lion) से पुरस्कृत किया गया। अपु त्रयी पूरी करने से पहले राय ने दो और फ़िल्में बनाईं — हास्यप्रद पारश पत्थर और ज़मींदारों के पतन पर आधारित जलसाघर। जलसाघर को इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण कृतियों में गिना जाता है।

अपराजितो बनाते हुए राय ने त्रयी बनाने का विचार नहीं किया था, लेकिन वेनिस में उठे एक प्रश्न के बाद उन्हें यह विचार अच्छा लगा। इस शृंखला की अन्तिम कड़ी अपुर संसार १९५९ में बनी। राय ने इस फ़िल्म में दो नए अभिनेताओं, सौमित्र चटर्जी और शर्मिला टैगोर, को मौका दिया। इस फ़िल्म में अपु कोलकाता के एक साधारण मकान में गरीबी में रहता है और अपर्णा के साथ विवाह कर लेता है, जिसके बाद इन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। पिछली दो फ़िल्मों की तरह ही कुछ आलोचक इसे त्रयी की सबसे बढ़िया फ़िल्म मानते हैं (राबिन वुड और अपर्णा सेन)। जब एक बंगाली आलोचक ने अपुर संसार की कठोर आलोचना की तो राय ने इसके प्रत्युत्तर में एक लम्बा लेख लिखा।

देवी से चारुलता तक (1959–64)

इस अवधि में राय ने कई विषयों पर फ़िल्में बनाईं, जिनमें शामिल हैं, ब्रिटिश काल पर आधारित देवी (দেবী), रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर एक वृत्तचित्र, हास्यप्रद फ़िल्म महापुरुष (মহাপুরুষ) और मौलिक कथानक पर आधारित इनकी पहली फ़िल्म कंचनजंघा (কাঞ্চনজঙ্ঘা)। इसी दौरान इन्होने कई ऐसी फ़िल्में बनाईं, जिन्हें साथ मिलाकर भारतीय सिनेमा में स्त्रियों का सबसे गहरा चित्रांकन माना जाता है।

अपुर संसार के बाद राय की पहली फ़िल्म थी देवी, जिसमें इन्होंने हिन्दू समाज में अंधविश्वास के विषय को टटोला है। शर्मिला टैगोर ने इस फ़िल्म के मुख्य पात्र दयामयी की भूमिका निभाई, जिसे उसके ससुर काली का अवतार मानते हैं। राय को चिन्ता थी कि इस फ़िल्म को सेंसर बोर्ड से शायद स्वीकृति नहीं मिले, या उन्हे कुछ दृश्य काटने पड़ें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 1961 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के आग्रह पर राय ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की जन्म शताब्दी के अवसर पर उनके जीवन पर एक वृत्तचित्र बनाया। ठाकुर के जीवन का फ़िल्मांकन बहुत कम ही हुआ था, इसलिए राय को मुख्यतः स्थिर चित्रों का प्रयोग करना पड़ा, जिसमें उनके अनुसार तीन फ़ीचर फ़िल्मों जितना परिश्रम हुआ। इसी साल में राय ने सुभाष मुखोपाध्याय और अन्य लेखकों के साथ मिलकर बच्चों की पत्रिका सन्देश को पुनर्जीवित किया। इस पत्रिका की शुरुआत इनके दादा ने शुरु की थी और बहुत समय से राय इसके लिए धन जमा करते आ रहे थे। सन्देश का बांग्ला में दोतरफा मतलब है — एक ख़बर और दूसरा मिठाई। पत्रिका को इसी मूल विचार पर बनाया गया — शिक्षा के साथ-साथ मनोरंजन। राय शीघ्र ही ख़ुद पत्रिका में चित्र बनाने लगे और बच्चों के लिये कहानियाँ और निबन्ध लिखने लगे। आने वाले वर्षों में लेखन इनकी जीविका का प्रमुख साधन बन गया।

1962 में राय ने काँचनजंघा का निर्देशन किया, जिसमें पहली बार इन्होंने मौलिक कथानक पर रंगीन छायांकन किया। इस फ़िल्म में एक उच्च वर्ग के परिवार की कहानी है जो दार्जीलिंग में एक दोपहर बिताते हैं, और प्रयास करते हैं कि सबसे छोटी बेटी का विवाह लंदन में पढ़े एक कमाऊ इंजीनियर के साथ हो जाए। शुरू में इस फ़िल्म को एक विशाल हवेली में चित्रांकन करने का विचार था, लेकिन बाद में राय ने निर्णय किया कि दार्जीलिंग के वातावरण और प्रकाश व धुंध के खेल का प्रयोग करके कथानक के खिंचाव को प्रदर्शित किया जाए। राय ने हंसी में एक बार कहा कि उनकी फ़िल्म का छायांकन किसी भी रोशनी में हो सकता था, लेकिन उसी समय दार्जीलिंग में मौजूद एक व्यावसायिक फ़िल्म दल एक भी दृश्य नहीं शूट कर पाया क्योंकि उन्होने केवल धूप में ही शूटिंग करनी थी।

1964 में राय ने चारुलता (চারুলতা) फ़िल्म बनाई जिसे बहुत से आलोचक इनकी सबसे निष्णात फ़िल्म मानते है। यह ठाकुर की लघुकथा नष्टनीड़ पर आधारित है। इसमें 19वीं शताब्दी की एक अकेली स्त्री की कहानी है जिसे अपने देवर अमल से प्रेम होने लगता है। इसे राय की सर्वोत्कृष्ट कृति माना जाता है। राय ने ख़ुद कहा कि इसमें सबसे कम खामियाँ हैं, और यही एक फ़िल्म है जिसे वे मौका मिलने पर बिलकुल इसी तरह दोबारा बनाएंगे। चारु के रूप में माधवी मुखर्जी के अभिनय और सुब्रत मित्र और बंसी चन्द्रगुप्ता के काम को बहुत सराहा गया है। इस काल की अन्य फ़िल्में हैं: महानगर, तीन कन्या, अभियान, कापुरुष (कायर) और महापुरुष।

नई दिशाएँ (1965-1982)

चारुलता के बाद के काल में राय ने विविध विषयों पर आधारित फ़िल्में बनाईं, जिनमें शामिल हैं, कल्पनाकथाएँ, विज्ञानकथाएँ, गुप्तचर कथाएँ और ऐतिहासिक नाटक। राय ने फ़िल्मों में नयी तकनीकों पर प्रयोग करना और भारत के समकालीन विषयों पर ध्यान देना शुरु किया। इस काल की पहली मुख्य फ़िल्म थी नायक (নায়ক), जिसमें एक फ़िल्म अभिनेता (उत्तम कुमार) रेल में सफर करते हुए एक महिला पत्रकार (शर्मिला टैगोर) से मिलता है। 24 घंटे की घटनाओं पर आधारित इस फ़िल्म में इस प्रसिद्ध अभिनेता के मनोविज्ञान का अन्वेषण किया गया है। बर्लिन में इस फ़िल्म को आलोचक पुरस्कार मिला, लेकिन अन्य प्रतिक्रियाएँ अधिक उत्साहपूर्ण नहीं रहीं।

1967 में राय ने एक फ़िल्म का कथानक लिखा, जिसका नाम होना था द एलियन (The Alien, दूरग्रहवासी)। यह इनकी लघुकथा बाँकुबाबुर बंधु (বাঁকুবাবুর বন্ধু, बाँकु बाबु का दोस्त) पर आधारित थी जिसे इन्होंने संदेश (সন্দেশ) पत्रिका के लिए 1962 में लिखा था। इस अमरीका-भारत सह-निर्माण परियोजना की निर्माता कोलम्बिया पिक्चर्स नामक कम्पनी थी। पीटर सेलर्स और मार्लन ब्रैंडो को इसकी मुख्य भूमिकाओं के लिए चुना गया। राय को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उनके कथानक के प्रकाशनाधिकार को किसी और ने हड़प लिया था। ब्रैंडो बाद में इस परियोजना से निकल गए और राय का भी इस फ़िल्म से मोह-भंग हो गया।कोलम्बिया ने 1970 और 80 के दशकों में कई बार इस परियोजना को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया लेकिन बात कभी आगे नहीं बढ़ी। राय ने इस परियोजना की असफलता के कारण 1980 के एक साइट एण्ड साउंड (Sight & Sound) प्रारूप में गिनाए हैं, और अन्य विवरण इनके आधिकारिक जीवनी लेखक एंड्रू रॉबिनसन ने द इनर आइ (The Inner Eye, अन्तर्दृष्टि) में दिये हैं। जब 1982 में ई.टी. फ़िल्म प्रदर्शित हुई तो राय ने अपने कथानक और इस फ़िल्म में कई समानताएँ देखीं। राय का विश्वास था कि स्टीवन स्पीलबर्ग की यह फ़िल्म उनके कथानक के बिना सम्भव नहीं थी (हालांकि स्पीलबर्ग इसका खण्डन करते हैं)।

1969 में राय ने व्यावसायिक रूप से अपनी सबसे सफल फ़िल्म बनाई — गुपी गाइन बाघा बाइन (গুপি গাইন বাঘা বাইন, गुपी गाए बाघा बजाए)। यह संगीतमय फ़िल्म इनके दादा द्वारा लिखी एक कहानी पर आधारित है। गायक गूपी और ढोली बाघा को भूतों का राजा तीन वरदान देता है, जिनकी मदद से वे दो पड़ोसी देशों में होने वाले युद्ध को रोकते हैं। यह राय के सबसे खर्चीले उद्यमों में से थी और इसके लिए पूंजी बहुत मुश्किल से मिली। राय को आखिरकार इसे रंगीन बनाने का विचार त्यागना पड़ा। राय की अगली फ़िल्म थी अरण्येर दिनरात्रि (অরণ্যের দিনরাত্রি, जंगल में दिन-रात), जिसकी संगीत-संरचना चारुलता से भी जटिल मानी जाती है। इसमें चार ऐसे नवयुवकों की कहानी है जो छुट्टी मनाने जंगल में जाते हैं। इसमें सिमी गरेवाल ने एक जंगली जाति की औरत की भूमिका निभाई है। आलोचक इसे भारतीय मध्यम वर्ग की मानसिकता की छवि मानते हैं।

इसके बाद राय ने समसामयिक बंगाली वास्तविकता पर ध्यान देना शुरु किया। बंगाल में उस समय नक्सलवादी क्रांति जोर पकड़ रही थी। ऐसे समय में नवयुवकों की मानसिकता को लेकर इन्होंने कलकत्ता त्रयी के नाम से जाने वाली तीन फ़िल्में बनाईं — प्रतिद्वंद्वी (প্রতিদ্বন্দ্বী) (1970), सीमाबद्ध (সীমাবদ্ধ) (1971) और जनअरण्य (জনঅরণ্য) (1975)। इन तीनों फ़िल्मों की कल्पना अलग-अलग हुई लेकिन इनके विषय साथ मिलाकर एक त्रयी का रूप लेते हैं। प्रतिद्वंद्वी एक आदर्शवादी नवयुवक की कहानी है जो समाज से मोह-भंग होने पर भी अपने आदर्श नहीं त्यागता है। इसमें राय ने कथा-वर्णन की एक नयी शैली अपनाई, जिसमें इन्होंने नेगेटिव में दृश्य, स्वप्न दृश्य और आकस्मिक फ़्लैश-बैक का उपयोग किया। जनअरण्य फ़िल्म में एक नवयुवक की कहानी है जो जीविका कमाने के लिए भ्रष्ट राहों पर चलने लगता है। सीमाबद्ध में एक सफल युवक अधिक धन कमाने के लिए अपनी नैतिकता छोड़ देता है। राय ने 1970 के दशक में अपनी दो लोकप्रिय कहानियों — सोनार केल्ला (সোনার কেল্লা, स्वर्ण किला) और जॉय बाबा फेलुनाथ (জয় বাবা ফেলুনাথ) — का फ़िल्मांकन किया। दोनों फ़िल्में बच्चों और बड़ों दोनों में बहुत लोकप्रिय रहीं।

राय ने बांग्लादेश मुक्ति युद्ध पर भी एक फ़िल्म बनाने की सोची, लेकिन बाद में यह विचार त्याग दिया क्योंकि उन्हें राजनीति से अधिक शरणार्थियों के पलायन और हालत को समझने में अधिक रुचि थी। 1977 में राय ने मुंशी प्रेमचन्द की कहानी पर आधारित शतरंज के खिलाड़ी फ़िल्म बनाई। यह उर्दू भाषा की फ़िल्म 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक वर्ष पहले अवध राज्य में लखनऊ शहर में केन्द्रित है। इसमें भारत के गुलाम बनने के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें बॉलीवुड के बहुत से सितारों ने काम किया, जिनमें प्रमुख हैं — संजीव कुमार, सईद जाफ़री, अमजद ख़ान, शबाना आज़मी, विक्टर बैनर्जी और रिचर्ड एटनबरो। 1980 में राय ने गुपी गाइन बाघा बाइन की कहानी को आगे बढ़ाते हुए हीरक राज नामक फ़िल्म बनाई जिसमें हीरे के राजा का राज्य इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान के भारत की ओर इंगित करता है। इस काल की दो अन्य फ़िल्में थी — लघु फ़िल्म पिकूर डायरी (पिकू की दैनन्दिनी) या पिकु और घंटे-भर लम्बी हिन्दी फ़िल्म सदगति।

अन्तिम काल (1983–1992)

राय बहुत समय से ठाकुर के उपन्यास घरे बाइरे पर आधारित फ़िल्म बनाने की सोच रहे थे। बीमारी की वजह से इसमें कुछ भाग उत्कृष्ट नहीं हैं, लेकिन फ़िल्म को सराहना बहुत मिली। 1987 में उन्होंने अपने पिता सुकुमार राय के जीवन पर एक वृत्तचित्र बनाया।

राय की आखिरी तीन फ़िल्में उनकी बीमारी के कारण मुख्यतः आन्तरिक स्थानों में शूट हुईं और इस कारण से एक विशिष्ट शैली का अनुसरण करती हैं। इनमें संवाद अधिक है और इन्हें राय की बाकी फ़िल्मों से निम्न श्रेणी में रखा जाता है। इनमें से पहली, गणशत्रु (গণশত্রু), हेनरिक इबसन के प्रख्यात नाटक एन एनिमी ऑफ़ द पीपल पर आधारित है, और इन तीनों में से सबसे कमजोर मानी जाती है। 1990 की फ़िल्म शाखा प्रशाखा (শাখা প্রশাখা) में राय ने अपनी पुरानी गुणवत्ता कुछ वापिस प्राप्त की। इसमें एक बूढ़े आदमी की कहानी है, जिसने अपना पूरा जीवन ईमानदारी से बिताया होता है, लेकिन अपने तीन बेटों के भ्रष्ट आचरण का पता लगने पर उसे केवल अपने चौथे, मानसिक रूप से बीमार, बेटे की संगत रास आती है। राय की अंतिम फ़िल्म आगन्तुक (আগন্তুক) का माहौल हल्का है लेकिन विषय बहुत गूढ़ है। इसमें एक भूला-बिसरा मामा अपनी भांजी से अचानक मिलने आ पहुँचता है, तो उसके आने के वास्तविक कारण पर शंका की जाने लगती है।

फ़िल्म कौशल

सत्यजित राय मानते थे कि कथानक लिखना निर्देशन का अभिन्न अंग है। यह एक कारण है जिसकी वजह से उन्होंने प्रारंभ में बांग्ला के अतिरिक्त किसी भी भाषा में फ़िल्म नहीं बनाई। अन्य भाषाओं में बनी इनकी दोनों फ़िल्मों के लिए इन्होंने पहले अंग्रेजी में कथानक लिखा, जिसे इनके पर्यवेक्षण में अनुवादकों ने हिन्दी या उर्दू में भाषांतरित किया। राय के कला निर्देशक बंसी चन्द्रगुप्ता की दृष्टि भी राय की तरह ही पैनी थी। शुरुआती फ़िल्मों पर इनका प्रभाव इतना महत्त्वपूर्ण था कि राय कथानक पहले अंग्रेजी में लिखते थे ताकि बांग्ला न जानने वाले चन्द्रगुप्ता उसे समझ सकें। शुरुआती फ़िल्मों के छायांकन में सुब्रत मित्र का कार्य बहुत सराहा जाता है, और आलोचक मानते हैं कि अनबन होने के बाद जब मित्र चले गए तो राय की फ़िल्मों के चित्रांकन का स्तर घट गया। राय ने मित्र की बहुत प्रशंसा की, लेकिन राय इतनी एकाग्रता से फिल्में बनाते थे कि चारुलता के बाद से राय कैमरा ख़ुद ही चलाने लगे, जिसके कारण मित्र ने 1966 से राय के लिए काम करना बंद कर दिया। मित्र ने बाउंस-प्रकाश का सर्वप्रथम प्रयोग किया जिसमें वे प्रकाश को कपड़े पर से उछाल कर वास्तविक प्रतीत होने वाला प्रकाश रच लेते थे। राय ने अपने को फ़्रांसीसी नव तरंग के ज़ाँ-लुक गॉदार और फ़्रांस्वा त्रूफ़ो का भी ऋणी मानते थे, जिनके नए तकनीकी और सिनेमा प्रयोगों का उपयोग राय ने अपनी फ़िल्मों में किया।


हालांकि दुलाल दत्ता राय के नियमित फ़िल्म संपादक थे, राय अक्सर संपादन के निर्णय ख़ुद ही लेते थे, और दत्ता बाकी काम करते थे। वास्तव में आर्थिक कारणों से और राय के कुशल नियोजन से संपादन अक्सर कैमरे पर ही हो जाता था। शुरु में राय ने अपनी फ़िल्मों के संगीत के लिए लिए रवि शंकर, विलायत ख़ाँ और अली अक़बर ख़ाँ जैसे भारतीय शास्त्रीय संगीतज्ञों के साथ काम किया, लेकिन राय को लगने लगा कि इन संगीतज्ञों को फ़िल्म की अपेक्षा संगीत की साधना में अधिक रुचि है। साथ ही राय को पाश्चात्य संगीत का भी ज्ञान था जिसका प्रयोग वह फ़िल्मों में करना चाहते थे। इन कारणों से तीन कन्या (তিন কন্যা) के बाद से फ़िल्मों का संगीत भी राय ख़ुद ही रचने लगे। राय ने विभिन्न पृष्ठभूमि वाले अभिनेताओं के साथ काम किया, जिनमें से कुछ विख्यात सितारे थे, तो कुछ ने कभी फ़िल्म देखी तक नहीं थी। राय को बच्चों के अभिनय के निर्देशन के लिए बहुत सराहा गया है, विशेषत: अपु एवं दुर्गा (पाथेर पांचाली), रतन (पोस्टमास्टर) और मुकुल (सोनार केल्ला)। अभिनेता के कौशल और अनुभव के अनुसार राय का निर्देशन कभी न के बराबर होता था (आगन्तुक में उत्पल दत्त) तो कभी वे अभिनेताओं को कठपुतलियों की तरह प्रयोग करते थे (अपर्णा की भूमिका में शर्मिला टैगोर)।

समीक्षा एवं प्रतिक्रिया

राय की कृतियों को मानवता और समष्टि से ओत-प्रोत कहा गया है। इनमें बाहरी सरलता के पीछे अक्सर गहरी जटिलता छिपी होती है। इनकी कृतियों को अन्यान्य शब्दों में सराहा गया है। अकिरा कुरोसावा ने कहा, “राय का सिनेमा न देखना इस जगत में सूर्य या चन्द्रमा को देखे बिना रहने के समान है।” आलोचकों ने इनकी कृतियों को अन्य कई कलाकारों से तुलना की है — आंतोन चेखव, ज़ाँ रन्वार, वित्तोरियो दे सिका, हावर्ड हॉक्स, मोत्सार्ट, यहाँ तक कि शेक्सपियर के समतुल्य पाया गया है। नाइपॉल ने शतरंज के खिलाड़ी के एक दृश्य की तुलना शेक्सपियर के नाटकों से की है – “केवल तीन सौ शब्द बोले गए, लेकिन इतने में ही अद्भुत घटनाएँ हो गईं!” जिन आलोचकों को राय की फ़िल्में सुरुचिपूर्ण नहीं लगतीं, वे भी मानते हैं कि राय एक सम्पूर्ण संस्कृति की छवि फ़िल्म पर उतारने में अद्वितीय थे।

राय की आलोचना मुख्यतः इनकी फ़िल्मों की गति को लेकर की जाती है। आलोचक कहते हैं कि ये एक “राजसी घोंघे” की गति से चलती हैं। राय ने ख़ुद माना कि वे इस गति के बारे में कुछ नहीं कर सकते, लेकिन कुरोसावा ने इनका पक्ष लेते हुए कहा, “इन्हें धीमा नहीं कहा जा सकता। ये तो विशाल नदी की तरह शान्ति से बहती हैं।” इसके अतिरिक्त कुछ आलोचक इनकी मानवता को सादा और इनके कार्यों को आधुनिकता-विरोधी मानते हैं और कहते हैं कि इनकी फ़िल्मों में अभिव्यक्ति की नई शैलियाँ नहीं नज़र आती हैं। वे कहते हैं कि राय “मान लेते हैं कि दर्शक ऐसी फ़िल्म में रुचि रखेंगे जो केवल चरित्रों पर केन्द्रित रहती है, बजाए ऐसी फ़िल्म के जो उनके जीवन में नए मोड़ लाती है।”

राय की आलोचना समाजवादी विचारधाराओं के राजनेताओं ने भी की है। इनके अनुसार राय पिछड़े समुदायों के लोगों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध नहीं थे, बल्कि अपनी फ़िल्मों में गरीबी का सौन्दर्यीकरण करते थे। ये अपनी कहानियों में द्वन्द्व और संघर्ष को सुलझाने के तरीके भी नहीं सुझाते थे। 1960 के दशक में राय और मृणाल सेन के बीच एक सार्वजनिक बहस हुई। मृणाल सेन स्पष्ट रूप से मार्क्सवादी थे और उनके अनुसार राय ने उत्तम कुमार जैसे प्रसिद्ध अभिनेता के साथ फ़िल्म बनाकर अपने आदर्शों के साथ समझौता किया। राय ने पलटकर जवाब दिया कि सेन अपनी फ़िल्मों में केवल बंगाली मध्यम वर्ग को ही निशाना बनाते हैं क्योंकि इस वर्ग की आलोचना करना आसान है। 1980 में सांसद एवं अभिनेत्री नरगिस ने राय की खुलकर आलोचना की कि ये “गरीबी की निर्यात” कर रहे हैं, और इनसे माँग की कि ये आधुनिक भारत को दर्शाती हुई फ़िल्में बनाएँ।

सम्मान एवं पुरस्कार
राय को जीवन में अनेकों पुरस्कार और सम्मान मिले। ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय ने इन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्रदान की। चार्ली चैपलिन के बाद ये इस सम्मान को पाने वाले पहले फ़िल्म निर्देशक थे। इन्हें 1985 में दादासाहब फाल्के पुरस्कार और 1987 में फ़्राँस के लेज़्यों द’ऑनु पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मृत्यु से कुछ समय पहले इन्हें सम्मानदायक अकादमी पुरस्कार और भारत का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न प्रदान किये गए। मरणोपरांत सैन फ़्रैंसिस्को अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव में इन्हें निर्देशन में जीवन-पर्यन्त उपलब्धि-स्वरूप अकिरा कुरोसावा पुरस्कार मिला जिसे इनकी ओर से शर्मिला टैगोर ने ग्रहण किया। सामान्य रूप से यह समझा जाता है कि दिल का दौरा पड़ने के बाद उन्होंने जो फ़िल्में बनाईं उनमें पहले जैसी ओजस्विता नहीं थी।
 (जानकारी और चित्र मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया और गूगल से साभार)

आज स्व॰ सत्यजित रे जी की ९३ वीं जयंती के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते है !

गुरुवार, 1 मई 2014

अमर क्रांतिकारी स्व ॰ प्रफुल्ल चाकी जी की १०६ वीं पुण्यतिथि


क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी (बांग्ला: প্রফুল্ল চাকী) (१० दिसंबर १८८८ - १ मई १९०८) का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। प्रफुल्ल का जन्म उत्तरी बंगाल के बोगरा गाँव (अब बांग्लादेश में स्थित) में हुआ था। जब प्रफुल्ल दो वर्ष के थे तभी उनके पिता जी का निधन हो गया। उनकी माता ने अत्यंत कठिनाई से प्रफुल्ल का पालन पोषण किया। विद्यार्थी जीवन में ही प्रफुल्ल का परिचय स्वामी महेश्वरानंद द्वारा स्थापित गुप्त क्रांतिकारी संगठन से हुआ। प्रफुल्ल ने स्वामी विवेकानंद के साहित्य का अध्ययन किया और वे उससे बहुत प्रभावित हुए। अनेक क्रांतिकारियों के विचारों का भी प्रफुल्ल ने अध्ययन किया इससे उनके अन्दर देश को स्वतंत्र कराने की भावना बलवती हो गई। बंगाल विभाजन के समय अनेक लोग इसके विरोध में उठ खड़े हुए। अनेक विद्यार्थियों ने भी इस आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। प्रफुल्ल ने भी इस आन्दोलन में भाग लिया। वे उस समय रंगपुर जिला स्कूल में कक्षा ९ के छात्र थे। प्रफुल्ल को आन्दोलन में भाग लेने के कारण उनके विद्यालय से निकाल दिया गया। इसके बाद प्रफुल्ल का सम्पर्क क्रांतिकारियों की युगांतर पार्टी से हुआ।

मुजफ्फरपुर काण्ड

कोलकाता का चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड क्रांतिकारियों को अपमानित करने और उन्हें दण्ड देने के लिए बहुत बदनाम था। क्रांतिकारियों ने किंग्सफोर्ड को जान से मार डालने का निर्णय लिया। यह कार्य प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को सौंपा गया। ब्रिटिश सरकार ने किंग्सफोर्ड के प्रति जनता के आक्रोश को भाँप कर उसकी सरक्षा की दृष्टि से उसे सेशन जज बनाकर मुजफ्फरपुर भेज दिया। दोनों क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस उसके पीछे-पीछे मुजफ्फरपुर पहुँच गए। दोनों ने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का बारीकी से अध्ययन किया। इसके बाद ३० अप्रैल १९०८ ई० को किंग्सफोर्ड पर उस समय बम फेंक दिया जब वह बग्घी पर सवार होकर यूरोपियन क्लब से बाहर निकल रहा था। लेकिन जिस बग्घी पर बम फेंका गया था उस पर किंग्सफोर्ड नहीं था बल्कि बग्घी पर दो यूरोपियन महिलाएँ सवार थीं। वे दोनों इस हमले में मारी गईं। 

 

बलिदान

दोनों क्रांतिकारियों ने समझ लिया कि वे किंग्सफोर्ड को मारने में सफल हो गए हैं। वे दोनों घटनास्थल से भाग निकले। प्रफुल्ल चाकी ने समस्तीपुर पहुँच कर कपड़े बदले और टिकिट खरीद कर रेलगाड़ी में बैठ गए। दुर्भाग्य से उसी में पुलिस का सब इंस्पेक्टर नंदलाल बनर्जी बैठा था। उसने प्रफुल्ल चाकी को गिरफ्तार करने के उद्देश्य से अगली स्टेशन को सूचना दे दी। स्टेशन पर रेलगाड़ी के रुकते ही प्रफुल्ल को पुलिस ने पकड़ना चाहा लेकिन वे बचने के लिए दौड़े। परन्तु जब प्रफुल्ल ने देखा कि वे चारों ओर से घिर गए हैं तो उन्होंने अपनी रिवाल्वर से अपने ऊपर गोली चलाकर अपनी जान दे दी। यह घटना १ मई, १९०८ की है। बिहार के मोकामा स्टेशन के पास प्रफुल्ल चाकी की मौत के बाद पुलिस उपनिरीक्षक एनएन बनर्जी ने चाकी का सिर काट कर उसे सबूत के तौर पर मुजफ्फरपुर की अदालत में पेश किया। यह अंग्रेज शासन की जघन्यतम घटनाओं में शामिल है। खुदीराम को बाद में गिरफ्तार किया गया था व उन्हें फांसी दे दी गई थी।
 

अमर क्रांतिकारी स्व ॰ प्रफुल्ल चाकी जी को शत शत नमन !

इंकलाब ज़िंदाबाद !!

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