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शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

प्रेमचंद की परंपरा के लेखक थे भीष्म साहनी ( ०८/०८/१९१५ - ११/०७/२००३ )


तमस के रचनाकार भीष्म साहनी को हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। वह मानवीय मूल्यों के लिए हिमायती रहे और उन्होंने विचारधारा को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया।

वरिष्ठ लेखक महीप सिंह के अनुसार, भीष्म साहनी वामपंथी विचारधारा के साथ जुड़े होने के बावजूद मानवीय मूल्यों को कभी आंखो से ओझल नहीं करते थे। इस अर्थ में वे अजातशत्रु थे। किसी लेखक का किसी विचारधारा से संबद्ध होना संकट की बात नहीं हैं। संकट वहां उत्पन्न होता है जब लेखक की विचारधारा साहित्य की अपनी मांगों के सिर चढ़कर बोलना प्रारंभ कर देती है और साहित्य हाथों में विचारधारा के प्रचार का झंडा पकड़ा देती है।

सिंह के मुताबिक, ऐसे लेखक साहित्य का सृजन करने की बजाय किसी वाद के प्रचारक बनकर रह जाते हैं। कई दफा लेखक अपने मत से असहमत लोगों को विरोधी मान लेते हैं और उनके साथ सौहार्दपूर्ण, शिष्ट और आत्मीय संबंध बनाए नहीं रख पाते हैं। भीष्म साहनी का जन्म आठ अगस्त 1915 को रावलपिंडी में हुआ था। विभाजन के पहले अवैतनिक शिक्षक होने के साथ व्यापार भी करते थे। विभाजन के बाद वे भारत आ गए और समाचार पत्रों में लिखने लगे। बाद में वह भारतीय जन नाट्य संघ [इप्टा] के सदस्य बन गए।

हिन्दी फिल्मों के जाने माने अभिनेता बलराज साहनी के भाई भीष्म का निधन 11 जुलाई 2003 को दिल्ली में हुआ था। साहनी दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर रहे। उन्होंने मास्को के फॉरेन लैंग्वेजस पब्लिकेशन हाउस में अनुवादक के तौर पर दो दर्जन रूसी किताबों का हिन्दी में अनुवाद किया। इसमें टालस्टॉय और आस्ट्रोवस्की जैसे लेखकों की रचनाएं शामिल हैं।

भीष्म साहनी के उपन्यास 'झरोखे', 'तमस', 'बसंती', 'मैय्यादास की माड़ी', कहानी संग्रह 'भाग्यरेखा', 'वांगचू' और 'निशाचर', नाटक 'हानूश', 'माधवी', 'कबीरा खड़ा बाजार में', आत्मकथा 'बलराज माई ब्रदर' और बालकथा 'गुलेल का खेल' ने साहित्य को समृद्ध किया। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और पद्म भूषण से नवाजा गया।

भीष्म साहनी के अनुसार, ''गप-शप का अपना रस होता है। इससे हम सांस्कृतिक क्षेत्र में चलने वाले कार्यकलाप, आपसी रिश्ते, परेशान करने वाले मसले, आपसी झगड़े और मनमुटाव से पर्दा उठाते हैं, जबकि हम लेखक को मात्र हाड़-मास के पुतले के रूप में ही देख पाते हैं। बकौल साहनी, ''लेखक अपनी इन कमजोरियों के रहते अपनी लीक पर चलता हुआ सृजन के क्षेत्र में सफल और असफल होता हुआ अपनी यात्रा को कैसे निभा पाता है। इसे हम जीवन के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। महीप सिंह के मुताबिक, चीफ की दावत, अमृतसर आ गया, इंद्रजाल, ओ हरामजादे जैसी कहानियां शायद भीष्म साहनी ही लिख सकते थे। आपाधापी और उठापटक के युग में भीष्म साहनी का व्यक्तित्व बिल्कुल अलग था। प्रेमचंद के बाद वे उस परंपरा के बड़े लेखक थे। उन्हें उनके लेखन के लिए तो स्मरण किया ही जाएगा लेकिन अपनी सहृदयता के लिए वे चिरस्मरणीय रहेंगे।

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