वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी का यह बयान चकित करने वाला है कि आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि मौसमी तेजी का परिणाम है और यह कोई खास बात नहीं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि महंगाई उन अनेक कारकों का परिणाम है जिन पर भारत सरकार का नियंत्रण नहीं। इसमें एक बड़ा कारण वैश्विक मंदी भी है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि भारत सरकार सब कुछ परिस्थितियों और बाजार के भरोसे छोड़ दे। दुर्भाग्य से वित्त मंत्री का यह बयान यही संकेत करता है कि महंगाई को नियंत्रित करने के लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं। इसकी पुष्टि उनके सहयोगी कृषि मंत्री शरद पवार के इस बयान से होती है कि कीमतें तो कम हो रही हैं। प्रणब मुखर्जी की तरह से जिस तरह उन्होंने भी आवश्यक वस्तुओं के दामों में वृद्धि के कारणों को रेखांकित किया उससे आम जनता तक यही संदेश गया कि केंद्रीय सत्ता को बढ़ती महंगाई से कोई परेशानी नहीं। यह विचित्र है कि आम आदमी के हितों की चिंता करने वाली सरकार के दो-दो मंत्री महंगाई से मुंह मोड़ते नजर आ रहे हैं। एक ऐसे देश में जहां गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली आबादी 28-30 करोड़ हो और खुद सरकारी आंकड़े यह कहते हों कि इससे दोगुनी आबादी की प्रतिदिन की आय 20-30 रुपये तक सीमित है वहां महंगाई के प्रति ऐसा रवैया नीति-निर्माताओं की निष्ठुरता का ही परिचायक है। अब जब देश के अनेक भागों में सूखे का संकट गहरा रहा है तो केंद्रीय सत्ता का यह रवैया और अधिक गंभीर समस्याएं खड़ी कर सकता है।
केंद्र सरकार ने खाद्यान्नों की उपलब्धता और आवश्यक वस्तुओं के दामों में वृद्धि के संदर्भ में जो उदासीनता भरा रवैया अपनाया वह इस आशंका को बल ही प्रदान करता है कि संभवत: अतीत की तरह आगे भी महंगाई थामने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं किए जाएंगे। यह किसी से छिपा नहीं कि विगत में केंद्रीय सत्ता तब चेती जब मुद्रास्फीति के साप्ताहिक आंकड़े आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि प्रमाणित करते थे। इतना ही नहीं, सरकार की ओर से अन्न उत्पादन की संभावनाएं भी नहीं टटोली गईं, जिससे आने वाले संकट का समय पर अनुमान लग सकता। परिणाम यह हुआ कि जब खाद्यान्नों की उपलब्धता में कमी नजर आने लगी तब उनका आयात करने का निर्णय लिया गया। यदि आगे भी इसी प्रकार के रवैये का परिचय दिया जाता है तो कृषि मंत्रालय को अस्तित्व में बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं। यदि हमारे नीति-नियंता आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता का समय रहते कोई अनुमान नहीं लगा सकते और उसके आधार पर आवश्यक कदम उठाने से इनकार करते हैं तो इसका सीधा मतलब है कि आम आदमी के हितों की उपेक्षा की जा रही है। क्या यह हास्यास्पद नहीं कि मुद्रास्फीति के आंकड़ों की निरर्थकता के बावजूद ऐसी कोई व्यवस्था करने से इनकार किया गया जिससे महंगाई और मुद्रास्फीति के आंकड़ों में कोई तारतम्यता दिखे? यह मजाक नहीं तो और क्या है कि सरकारी आंकड़ों में मुद्रास्फीति की दर शून्य से भी नीचे बताई जा रही है और दूसरी ओर आवश्यक वस्तुओं के दाम लगातार बढ़ते चले जा रहे हैं?
शिवम् मिश्रा जी।
जवाब देंहटाएंमन्त्री जी को मँहगाई से क्या लेना-देना।
वो बाजार जाते ही कहाँ हैं।
यह महगाई आम लोगो के लिए है......रही इन आंकड़ो के खेल की बात सो सभी जानते है यह सब जनता को बेवकूफ बनाने के लिए होते हैं..आपने बहुत बढिया व सामयिक पोस्ट लिखी।आभार।
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