महत्वपूर्ण मामलों पर भी केंद्रीय सत्ता लापरवाही का परिचय दे सकती है, इसका ताजा उदाहरण है न्यायाधीशों की संपत्तिकी घोषणा से संबंधित एक आधे-अधूरे विधेयक को राज्यसभा में पेश करने की कोशिश। जिस तरह से यह विधेयक तैयार किया गया उससे इसकी पुष्टि होती है कि शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्ति कामचलाऊ तरीके से अपना काम कर रहे हैं। क्या यह विचित्र नहीं कि जिस विधेयक को बेहद महत्वपूर्ण और न्यायपालिका को जवाबदेह बनाने के संदर्भ में मील का पत्थर बताया जा रहा था उसमें ऐसा प्रावधान किया गया जिससे न्यायाधीश सूचना अधिकार के दायरे से बाहर बने रहने के साथ-साथ अपनी संपत्तिको सार्वजनिक न करने में भी सफल रहें? यदि इन न्यायाधीशों को संपत्तिकी घोषणा को सार्वजनिक नहीं करने देना था तो फिर कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ऐसे बड़े बोल क्यों बोल रहे थे कि उन्हें अपनी संपत्तिकी जानकारी देनी ही होगी? ऐसी जानकारी का क्या अर्थ जिसके बारे में आम जनता जान न सके? आखिर किसी को इस निष्कर्ष पर पहुंचने से कैसे रोका जा सकता है कि केंद्रीय सत्ता उन न्यायाधीशों के प्रभाव में आ गई जो अपनी संपत्तिकी घोषणा सार्वजनिक न होने देने के लिए अडिग हैं? न्यायाधीशों से संबंधित संपत्तिव देनदारी विधेयक पर विपक्ष के साथ-साथ जिस तरह सत्ता पक्ष के अनेक सदस्यों ने अपनी आपत्तिप्रकट की उससे यह भी साफ हो गया कि मंत्री महोदय ने इस संदर्भ में अपने दल में विचार-विमर्श करना जरूरी नहीं समझा। अब यदि केंद्रीय सत्ता अपने सौ दिनों के एजेंडे को इसी आधे-अधूरे ढंग से लागू करेगी तो फिर बेहतर यही होगा कि वह उसे ठंडे बस्ते में रख दे।
यह घोर निराशाजनक है कि संप्रग सरकार ने अपने सौ दिनों के जिस एजेंडे की जोर-शोर से घोषणा की थी वह आगे बढ़ता हुआ नजर नहीं आ रहा है। कानून मंत्री वीरप्पा मोइली को जिस प्रकार न्यायाधीशों की संपत्तिकी घोषणा संबंधी विधेयक पर अपने कदम पीछे खींचने पड़े कुछ उसी प्रकार मानव संसाधन विकास मंत्री को शिक्षा में सुधार के अपने एजेंडे में संशोधन करना पड़ा। ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार सौ दिनों के अपने एजेंडे को पूरा करने के फेर में कागजी उपलब्धि हासिल करना चाहती है। जो भी हो, यह समझना कठिन है कि केंद्रीय सत्ता न्यायाधीशों की संविधान की मूल भावना का निरादर करने वाली इस मांग का समर्थन करने के लिए क्यों तैयार हो गई कि संपत्तिसंबंधी उनकी घोषणा को सार्वजनिक न होने दिया जाए? आखिर न्यायाधीश अथवा अन्य कोई खुद के लिए अलग व्यवस्था का निर्माण कैसे कर सकता है-और वह भी ऐसी व्यवस्था जो लोकतांत्रिक शासन के बुनियादी सिद्धांतों के विपरीत हो। इससे बड़ी विडंबना कोई और नहीं कि जिस न्यायपालिका ने यह सुनिश्चित किया कि राजनेताओं को अपनी संपत्तिकी जानकारी सार्वजनिक करनी चाहिए वही ऐसे प्रयास करने में लगी हुई है कि न्यायाधीशों की संपत्तिकी घोषणा गोपनीयता के आवरण में कैद रहे। निश्चित रूप से यह एक ऐसा मामला है जिसमें न्यायाधीशों की आपत्तिको दरकिनार करना ही उचित है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो इससे आम जनता को यही संदेश जाएगा कि न्यायाधीश खुद को एक ऐसे कानून से परे रखना चाहते हैं जिसे वह अन्य सभी के लिए आवश्यक मान रहे हैं।
एक ही सवाल बार बार दिल में आता है ," जनता को कब तक मुर्ख बनाओगे, साहब ??"
sochne par vivash karta aalekh
जवाब देंहटाएंspasht aur sateek aalekh
badhaai !