लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश के समक्ष उपस्थित समस्याओं का उल्लेख करते हुए उनका सामना करने की जो प्रतिबद्धता व्यक्त की उसमें कुछ भी नया नहीं है, क्योंकि इस तरह की बातें स्वयं उनकी ओर से इसके पहले भी की जा चुकी हैं। आखिर कब तक केवल समस्याओं से लड़ने की बातें की जाती रहेंगी या फिर उनका उल्लेख किया जाता रहेगा? क्या पिछले पांच वर्ष इसी तरह की बातें सुनते हुए ही नहीं बीते? बतौर उदाहरण, यह न जाने कितनी बार सुनने को मिल चुका है कि सरकार आतंकवाद और नक्सलवाद को जड़ से उखाड़ने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखेगी। यथार्थ यह है कि ऐसा होता हुआ दिखाई नहीं देता। यह ठीक है कि आंतरिक सुरक्षा को लेकर शीघ्र ही मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाया जा रहा है, लेकिन पिछले पांच वर्षो में ऐसे सम्मेलन तो कई बार बुलाए जा चुके हैं और सब जानते हैं कि नक्सलवाद में कहीं कोई कमी आती नहीं दिख रही है। इसी तरह यह भी जगजाहिर है कि मुंबई हमले के षड्यंत्रकारी खुले आम घूम रहे हैं। देश यह भी जानता है कि पाकिस्तान से वार्ता के संदर्भ में आतंकवाद पर रोक लगाने की शर्त हटा दी गई। इस पर संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि प्रधानमंत्री ने लालकिले से सूखे से उत्पन्न संकट की भी चर्चा की और खौफ का पर्याय बने हुए स्वाइन फ्लू की भी, क्योंकि न तो कृषि क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए बुनियादी कदम उठाए जा रहे हैं और न ही देश के स्वास्थ्य ढांचे में सुधार के लक्षण दिख रहे हैं। यह एक यथार्थ है कि देश में कृषि और किसानों की दशा वैसी ही है जैसी प्रधानमंत्री के बहुचर्चित विदर्भ दौरे के समय थी।
लालकिले से प्रधानमंत्रियों के संबोधन में जो एकरसता और रस्म अदायगी का भाव आता जा रहा है उसका एक बार फिर विस्तार होता हुआ दिखा। नि:संदेह ऐसे रस्मी उद्बोधन न तो राष्ट्र को कोई दिशा दे सकते हैं और न ही उसमें ऊर्जा एवं उत्साह का संचार कर सकते हैं। यह सही है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ओजपूर्ण भाषण के लिए नहीं जाने जाते और न ही ऐसा भाषण देना आवश्यक है, लेकिन कम से कम इस अवसर पर पुरानी बातें दोहराने का काम भी नहीं होना चाहिए। क्या इस तरह के आश्वासन का कोई मूल्य महत्व रह गया है कि सरकार महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने के लिए प्रतिबद्ध है? आखिर उस प्रतिबद्धता का क्या हुआ जो पांच पहले करीब-करीब इन्हीं शब्दों के रूप में दिखाई गई थी? स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में राष्ट्रपति के बाद प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में भ्रष्टाचार को लेकर इन शब्दों में चिंता जताई कि जब तक हमारा सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो जाता, योजनाओं का फायदा जनता तक नहीं पहुंचेगा, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से प्रशासनिक सुधार आयोग की रपट पर अमल के संदर्भ में सिर्फ आश्वासन ही मिला। दरअसल जब खुद प्रधानमंत्री की ओर से इस तरह का कुछ सुनने को मिलता है कि ऐसा-ऐसा करने की जरूरत है अथवा यह या वह किया जाना चाहिए तो निराशा कहीं अधिक बढ़ जाती है। क्या जो कुछ भी किया जाना है उसकी पहल शीर्ष स्तर से अपेक्षित नहीं है?
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