भारत-पाकिस्तान की ओर से मिस्त्र में जारी साझा बयान को लेकर विवाद जिस तरह गहराता जा रहा है उससे देश-दुनिया को यही संदेश जा रहा है कि भारतीय हितों की दृष्टि से वहां कुछ ऐसा हुआ जो नहीं होना चाहिए था। विडंबना यह है कि इसकी पुष्टि कोई और नहीं, बल्कि विदेश सचिव कर रहे हैं। उनका यह कहना निराशाजनक है कि साझा बयान में दर्ज शब्द भले ही उपयुक्त न हों, लेकिन उसकी भावना पर संदेह नहीं किया जा सकता। आखिर भारतीय नीति-नियंताओं को ऐसे शब्द क्यों नहीं मिले जिससे देश साझा बयान को उस भाव से नहीं ले सका जैसा कि सरकार दावा कर रही है? प्रश्न केवल यह नहीं है कि साझा बयान में आतंकवाद पर बात किए बिना पाकिस्तान से बातचीत करते रहने की सहमति क्यों व्यक्त की गई, बल्कि यह भी है कि बलूचिस्तान का जिक्र क्यों होने दिया गया? यह घोर निराशाजनक है कि इस साझा बयान के जरिए भारत यह स्वीकार करता हुआ प्रतीत हो रहा है कि बलूचिस्तान की अस्थिरता में उसका हाथ है। साझा बयान में बलूचिस्तान का जिक्र तो मिस्त्र में भारतीय कूटनीति की कमजोरी का ही प्रमाण है। यह अच्छा नहीं हुआ कि भारत ने बैठे-बिठाए पाकिस्तान को एक ऐसा मुद्दा दे दिया जिसके बहाने वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को कठघरे में खड़ा करने में समर्थ हो सकता है। निश्चित रूप से यह कोई तर्क नहीं हुआ कि साझा बयान में कश्मीर के उल्लेख से बचने के लिए बलूचिस्तान का जिक्र होने दिया गया।
भले ही केंद्र सरकार साझा बयान को सही ठहराने की कोशिश करे, लेकिन जिस तरह कांग्रेस जन भी उस पर कुछ कहने से कतरा रहे हैं उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे कूटनीतिज्ञ कोई बड़ी भूल कर बैठे हैं। इस भूल का परिमार्जन तत्काल प्रभाव से किया जाना चाहिए, अन्यथा पाकिस्तान के दुष्प्रचार का सामना करना कठिन होगा। ध्यान रहे कि भारत पहले से ही पाकिस्तान की पैंतरेबाजी का प्रत्युत्तार देने में सक्षम नजर नहीं आ रहा है। यह समझना कठिन है कि एक माह पहले जो भारतीय प्रधानमंत्री पाकिस्तानी नेतृत्व को सार्वजनिक रूप से कठघरे में खड़ा करते हुए दिख रहे थे वह पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के समक्ष हथियार डालते हुए दिखाई दिए। देश जानना चाहता है कि ऐसा क्यों हुआ? आखिर एक माह में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिससे इस नतीजे पर पहुंचा जा सके कि पाकिस्तान सही रास्ते पर आने के लिए तैयार है। वह न तो मुंबई हमले के षड्यंत्रकारियों के खिलाफ कार्रवाई करता दिख रहा है और न ही उस आतंकी ढांचे को समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है जो भारत के लिए अभी भी खतरा बना हुआ है। आखिर इस सबके बावजूद पाकिस्तान के प्रति नरमी बरतने की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या अमेरिकी दबाव था अथवा किन्हीं अन्य कूटनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति की जानी थी? यह भी कम विचित्र नहीं कि भारतीय कूटनीतिज्ञों को पाकिस्तान के इस आरोप का खंडन करने में करीब 24 घंटे लग गए कि उसने भारत को इसके प्रमाण सौंपे हैं कि लाहौर में श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर हुए हमले में भारतीय खुफिया एजेंसी का हाथ था। इस सबसे तो यही लगता है कि भारतीय कूटनीति कमजोरी से भी ग्रस्त है और सुस्ती से भी। यदि वास्तव में ऐसा है, जिसके कि संकेत भी मिल रहे हैं तो इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक और कुछ नहीं हो सकता।
bas ye hamari kamjori ke alawa kuchh nahi hai
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