अभी कुछ दिन पहले राज्यसभा में एक सवाल उठा था-'बापू [महात्मा गांधी] का क्लोन बन सकता है?' जोरदार ठहाका लगा। असली बात ठहाकों में गुम हो गई। यह रहनुमाओं की पुरानी अदा है। खैर, इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या भारतीय समाज वाकई बापू का आकांक्षी है; महान भारत की महान जनता ने अपनी यह दिली ख्वाहिश मार दी है कि गांधी-भगत सिंह जरूर पैदा हों मगर पड़ोसी के घर में?
आखिर लोग अपने घर में गांधी क्यों नहीं चाहते? और क्लोन ही क्यों, साक्षात गांधी क्यों नहीं? गांधी को पढ़ सकते है, शोध सकते है, गांधी पर बोल सकते है, गांधीवाद को जुबान दे सकते है-फिर खुद गांधी क्यों नहीं बनते? कोशिश तक नहीं। आजादी की वर्षगांठ के पूर्व हफ्ते पर ऐसे सवाल और प्रासंगिक हो जाते हैं। मेरी राय में गांधी बनने के घाटे पर दिलचस्प शोध हो सकता है।
दरअसल गांधी बनने का स्कोप मार दिया गया है। नायक बदल गए; यूं कहे कि बदल दिए गए। फैंटम, सुपरमैन, मैंड्रेक, शक्तिमान जैसे काल्पनिक नायकों में नौनिहालों की दिलचस्पी का सफर अब डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के मुकाम पर है। कितने बच्चे आजादी की लड़ाई में अपने गांव-कस्बों का योगदान, अपनों की शहादत को जानते है? उनको इन जानकारियों से दूर रखने का अपराध छुपा है? जिम्मेदार मौज में हैं? बताइए, गांधी-भगत सिंह की कोई गुंजाइश है?
बटुकेश्वर दत्त लेन [जक्कनपुर] में रहने वाली नई पीढ़ी दत्त साहब के बारे में नहीं जानती। इस बार भी 17 मई गुजर गया। तीन साल बाद सूरज नारायण सिंह की प्रतिमा आई। पता नहीं कब अनावरण होगा? ऐसे नमूनों की लंबी पृष्ठभूमि में गांधी-भगत सिंह के लिए कोई जगह है।
लता मंगेशकर ने जब शहीदों की कुर्बानी को अपना सुर दिया, तो कहते है पंडित जवाहर लाल नेहरू रो पड़े थे। बेशक शहादत से बड़ा जज्बा कुछ नहीं है। दूसरों के सुनहरे भविष्य की खातिर अपने वर्तमान का समर्पण.., सर्वस्व त्याग की इस महान भारतीय परंपरा के वाहक कितने फीसदी लोग हैं? अब न तो आंख में पानी है, न नल में।
शहीदों को भुलाने की आम अहसानफरामोशी में गांधी या भगत सिंह का कोई स्कोप है? खून और चरित्र में मिलावट है। यह देश, समाज, व्यवस्था को मार रहा है। इस मिलावट के खिलाफ जागने की हर कोशिश मौके पर मार दी जा रही है। जनता की हिस्सेदारी या सामाजिक नेतृत्व सुनिश्चित कराने वाली पंचायती राज व्यवस्था लागू हुई, तो राजनीतिक पार्टियां सामाजिक सरोकार वाले नेतृत्व को किनारा देने के मकसद से यहां भी आ धमकीं और कामयाब भी है।
गांधी का सपना-स्थानीय स्वशासन, के प्रतिनिधियों का बिकने वाला रेट विधानपरिषद चुनाव में खुलेआम हो चुका है।
लोकतंत्र की परिभाषा बदल गई। जनता 'मालिक' है? 'सेवक', 'मालिक' की भूख व जलालत की कीमत पर मौज में है। भाई जी, गांधी बनने में भारी खतरा है। कई शहीदों के परिजन भूख मिटाने के उपाय में है। जन्मदिन-पुण्यतिथि पर फूल या भाषण से भूख मिटता है? कारगिल तक के शहीद छले गए। गांधी-भगत सिंह बनने की हिम्मत कहां से आएगी?
आज सबने अपनी सहूलियत से अपने- अपने 'अंग्रेज' तलाश लिये है। सबके अपने-अपने 'अंग्रेज' है। इसी हिसाब से आजाद भारत में 'आजादी' की लड़ाई लड़ी जा रही है। कोई मोबाइल में देशभक्ति के गाने का टयून लगाकर खुद को देशभक्त बनाता है, तो कई जलेबी के लिए लाइन में लगकर स्वतंत्रता या गणतंत्र दिवस का अहसास करते है। कान्वेंटी स्कूलों में छुट्टी रहती है। आजादी, बाजार से जोड़ दी गयी है। साबुन बनाने वाला मैल से आजादी दिलाता है, तो इनवर्टर वाला अंधेरे से। देश पर मर मिटने का जज्बा खत्म करने वाली स्थिति नहीं है? नेता का बेटा फौज में क्यों नहीं जाता है? अपने घर में गांधी या भगत सिंह को नहीं चाहने के ढेरों कारण हैं। मार्केट में नई गांधीगिरी लांच हो चुकी है। मुन्ना भाई टाइप। फिलहाल यही चलेगी। राज्यसभा में ठहाका यूं ही नहीं लगा था। यह उनका [गांधी-भगत सिंह] हमारे खून पर इल्जाम है।
कभी हम पे केस चले तो एक ही सज़ा होगी ," TO BE HANGED TILL DEATH, AND EVEN AFTER THAT."
दर-असल तंत्र ही कुछ ऐसा है....
जवाब देंहटाएंआज कल के युग में लोगों के आदर्श बदल चुके हैं, यह आदर्श वास्तविकता में आभासी और चमकदार आवरण से युक्त कल्पना के चरित्र हैं।
याद कीजिए अपनें ज़मानें के स्कूलों की दीवारों पर गांधी, पटेल और अन्य महापुरुषों की लाईनें बच्चों को प्रेरित करनें के लिए लिखी जाती थी। शास्त्री जी की जय जवान जय किसान... जो आज भी प्रेरणा स्रोत हैं।
अब समय बदल चुका है, अब किस नेता का भाषण आप कहीं भी देखेंगे? यहां तो भारत बातूनी हो चुका है, केवल बडबोलेपन की बात करना ही आज कल की राजनीति है।
आज कल की दुनियां में हर कोई चाहता है की भगत सिंह पैदा हो... मगर पडोसी के यहां... अपनें घर में पैदा हो गया तो फ़िर घर की कुर्की करा देगा। सही है..........
यही सत्य है आज का....
सुन्दर विचारणीय आलेख ...... आभार ।
जवाब देंहटाएंगांधी जी की सच्चाई जाने , पढें -
अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा वीर नाथूराम गोडसे भाग - एक , दो , तीन
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