इस परमाणु युग में भी पाषाण युद्ध! है तो चौकाने वाली बात। लेकिन उत्तराखंड के देवीधुरा में यह सदियों से चली आ रही परंपरा का हिस्सा है। यहां हर साल रक्षाबंधन के दिन पत्थरों से युद्ध होता है। लोग घायल भी होते हैं। लेकिन दर्द को भूल इस परंपरागत युद्ध में भागीदार बने रहते हैं। बग्वाल के नाम से प्रसिद्ध है यह युद्ध।
हर साल की तरह इस बार भी रक्षाबंधन के दिन जिला चंपावत के बाराही धाम देवीधुरा में भारी बारिश व कोहरे के बीच बग्वाल का आयोजन हुआ। जिसमें चार दर्जन रणबांकुरे चोटिल हुए। इसमें खासी संख्या में लोगों ने भाग लिया। युद्ध सिर्फ आठ मिनट तक चला। दर्शक दीर्घा में पत्थर आने से भी आधा दर्जन से अधिक लोग घायल हो गए। इससे पहले परंपरा के अनुसार मंदिर की गुफा में विराजमान शक्ति की परिक्रमा और पूजा अर्चना के बाद मैदान की पांच बार परिक्रमा पूरी कर रणबांकुरे पत्थर युद्ध के लिए तैयार हुए। ढोल नगाड़ों के बीच बग्वाल खेलने आए जत्थों के पीछे महिलाओं ने भी भाग लिया। इसमें चार अलग-अलग वर्ग के लोग शामिल थे। मंदिर के पुजारी को जब एक व्यक्ति के लगातार रक्त बहने का अहसास हुआ, तो वह रणक्षेत्र में प्रवेश कर गए। इसी के साथ यह ऐतिहासिक युद्ध थम गया। इसके बाद चारों ग्रुपों में बंटे लोगों ने एक-दूसरे का हालचाल पूछा।
जुड़ी हैं पौराणिक गाथाएं-
पत्थर युद्ध बग्वाल कई धार्मिक मान्यताओं व पौराणिक गाथाओं को संजोए हुए है। मान्यता के अनुसार सदियों पहले चार वर्गो के लोगों में से प्रति वर्ष एक व्यक्ति की बलि दी जाती थी। इस प्रकार जब चम्याल वर्ग की वृद्धा के एक मात्र पौत्र की बारी आई तो वंश नाश के डर से उसने शक्ति पिंड के पास जाकर मां बाराही को मनाने के लिए तपस्या की। मां बाराही ने तपस्या से प्रसन्न होकर वृद्धा से नर बलि का विकल्प ढूंढ़ने को कहा। उसके बाद चारों वर्गो के लोगों ने तय किया कि दो दलों में विभक्त होकर एक दूसरे पर पत्थरों का युद्ध कर एक व्यक्ति के बराबर रक्त बहाकर मां को प्रसन्न करेंगे। तब से यहां बग्वाल का सिलसिला चला आ रहा है।
रोचक जानकारी है।आभार।
जवाब देंहटाएंयह सब जाने क्या हो रहा है
जवाब देंहटाएं---
'विज्ञान' पर पढ़िए: शैवाल ही भविष्य का ईंधन है!
जी हाँ!
जवाब देंहटाएंबग्वाल के मेले में यही होता है।
मान्यवर,
शब्द-पुष्टीकरण तो हटा दें।