कुम्हार की चाक पर तेजी से चलने वाली अंगुलियों की रफ्तार धीमी ही नहीं बंद होती नजर आ रही है। मशीनरी करण के इस युग में मिट्टी की मूर्तियां और खिलौने बाजार से गायब ही होते जा रहे हैं अब तो मशीनों से ढले फाइबर के खिलौने और मूर्तियों की बिक्री का चलन चल निकला है पूजा के लिये मिट्टी की मूर्ति तलाश ने के बाद भी मिलना नामुमकिन होती जा रही है।
बाजारीकरण ने आज कुम्हार को चॉक का पहिया जाम दिया है। वहीं लोगों में भी प्लास्टिक के खिलौने खरीदने की चाह बढ़ी है। एक तो प्लास्टिक खिलौने जल्दी टूटते फूटते नहीं हैं। वहीं मिट्टी के खिलौनों की हिफाजत करनी पड़ती है। जरा से हाथ से सरके कि टूट फूट गये। वहीं प्लास्टिक के खिलौनों की कीमत काफी कम है जबकि मिट्टी के खिलौने मंहगे होते हैं। भले ही मंहगाई की मार इतनी ग्राहकों पर न पड़ी हो। लेकिन मशीनीकरण ने कुम्हार की चॉक थाम कर उनकी रोजी रोटी छीन ली है। कुम्हारों का यह पुश्तैनी धंधा अब पतन की ओर है। कुछ बुजुर्ग कुम्हार ही बचे हैं। जिनकी कापती उंगलियां आज भी चॉक के पहिये की रफ्तार को गतिवान किये हैं। यही हाल रहा तो प्लास्टिक के खिलौनों का बढ़ता क्रेज एक दिन कुम्हारी के बनाए मोटी के कुल्हड़ गिलास खिलौने मूर्तियां बीते युग की बाते हो जायेगी।
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