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मंगलवार, 4 अगस्त 2009

बात आस पास की :- जहां नहीं मनाया जाता मौत का मातम !!


उत्तराखंड के सुदूरवर्ती अंचल के एक इलाके में मौत का मातम नहीं मनाया जाता। इस इलाके के लोग किसी के मरने पर रोने-धोने की बजाए उसकी शानदार तरीके से अंतिम यात्रा निकालते हैं। बात हो रही है उत्तराखंड में उत्तरकाशी जिले के रवांई जौनसार इलाके की।

यहां के लोग मृतक को पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ अंतिम विदाई देते हैं। शव के लिए देवदार की लकड़ी से खास डोली तैयार कर उसे रंग बिरंगी फूल मालाओं से सजाया जाता है। इलाके में किसी की मौत होने पर आसपास के कई गांवों से दर्जनों बाजगी या जुमरिया [लोकवाद्य बजाने वाले लोग] ढोल, दमाऊ व रणसिंघा जैसे वाद्य यंत्र लेकर एक स्थान पर इकट्ठा हो जाते हैं।

गांव से शवयात्रा जब इस स्थान पर पहुंचती है, तो रिश्तेदार डोली के ऊपर रुपये उछालते हैं। जैसे ही मुख्य बाजगी यह रुपये उठाता है, एक साथ दर्जनों ढोल, नगाड़े, दमाऊ व रणसिंघा बजने लगते हैं। इसके बाद शवयात्रा शुरू होती है। रास्ते भर परिजन मृतक के हिस्से का खाद्यान्न, सेब, मूंगफली, दाल, मिर्च, अखरोट आदि बिखेरते हुए चलते हैं। मान्यता है कि यह सामग्री जानवरों और चिड़ियों के खाने से मृतक को पुनर्जन्म तक भोजन मिलता रहेगा।

अंतिम यात्रा के दौरान डोली को एक पूर्वनिर्धारित स्थान पर रखा जाता है। इसके बाद मुख्य बाजगी उसके सामने एक कपड़ा बिछाता है। सभी बाजगी एक-एक कर अपनी जोड़ी के साथ ढोल, दमाऊ, रणसिंघा आदि के वादन कौशल का प्रदर्शन करते हैं। मृतक के परिजन व शवयात्रा में शामिल अन्य लोग उस कपड़े पर बतौर इनाम रुपये रखते जाते हैं। जो बाजगी जीतता है, उसे यह राशि मिलती है। इस परंपरा को पैंसारे के नाम से जाना जाता है।

परंपरा के मुताबिक उस दिन बिरादरी के किसी भी घर में चूल्हा नहीं जलता, सभी घरों से थोड़ा-थोड़ा आटा, दाल, चावल मृतक के घर पहुंचाया जाता है। सब लोग एक साथ वहीं भोजन करते हैं। इसे 'कोड़ी बेल' कहा जाता है। क्षेत्र के बुजुर्ग बालकृष्ण बिजल्वाण, बताते है कि सदियों से गांववासी इस परंपरा का निर्वाह करते आ रहे हैं।

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