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रविवार, 18 अक्तूबर 2009

मुगल सल्तनत की दीवाली



मुगल सल्तनत का काल भारतीय इतिहास का अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा है। मुगल बादशाह अपने साथ यहां इस्लामी संस्कृति को लाए, किन्तु यह भी कैसे मुमकिन था कि इस महान राष्ट्र की सदियों पुरानी संस्कृति, परंपराओं और त्योहारों से वे अप्रभावित रह पाते?
दीवाली सदियों से हिंदू संस्कृति का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण त्योहार माना जाता रहा है। प्रकाश की जगमग और उल्लास भरे इस पर्व ने मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर को भी आकर्षित किया। बाबर ने दीवाली के त्योहार को 'एक खुशी का मौका' के तौर पर मान्यता प्रदान की।
बाबर ने अपने बेटे हुमायूं को भी दीवाली के जश्न में शामिल होने की प्रेरणा दी। बाबर के उत्तराधिकारी के रूप में हुमायूं ने इस परंपरा को न केवल अक्षुण्ण रखा, अपितु इसे व्यक्तिगत रुचि से और आगे बढ़ाया। हुमायूं के शासन-काल में दीवाली के मौके पर पूरे राजमहल को झिलमिलाते दीपों से सजाया जाता था और आतिशबाजी की जाती थी। हुमायूं खुद दीवाली उत्सव में शरीक होकर शहर में रोशनी देखने निकला करते थे। हुमायूं - 'तुलादान' की हिंदू परंपरा में भी रुचि रखते थे।

मुगल-सल्तनत के तीसरे उत्तराधिकारी को इतिहास अकबर महान के नाम से जानता है। अकबर द्वारा सभी हिन्दू त्योहारों को पूर्ण मनोयोग और उल्लास के साथ राजकीय तौर पर मनाया जाता था। दीवाली अकबर का खास पसंदीदा त्योहार था। अबुल फजल द्वारा लिखित आईने अकबरी में उल्लेख मिलता है कि दीवाली के दिन किले के महलों व शहर के चप्पे-चप्पे पर घी के दीपक जलाए जाते थे। अकबर के दौलतखाने के बाहर एक चालीस गज का दीपस्तंभ टांगा जाता था, जिस पर विशाल दीपज्योति प्रज्जवलित की जाती थी। इसे 'आकाशदीप' के नाम से पुकारा जाता था। दीवाली के अगले दिन सम्राट अकबर गोवर्धन पूजा में शिरकत करते थे। इस दिन वह हिन्दू वेशभूषा धारण करते तथा सुंदर रंगों और विभिन्न आभूषणों से सजी गायों का मुआयना कर ग्वालों को ईनाम देते थे।
अकबर के बाद मुगल सल्तनत की दीवाली परंपरा उतनी मजबूत न रही, मगर फिर भी अकबर के वारिस जहांगीर ने दीवाली को राजदरबार में मनाना जारी रखा। जहांगीर दीवाली के दिन को शुभ मानकर चौसर अवश्य खेला करते थे। राजमहल और निवास को विभिन्न प्रकार की रंग-बिरंगी रोशनियों से सजाया जाता था और जहांगीर रात्रि के समय अपनी बेगम के साथ आतिशबाजी का आनंद लेते थे।

शाहजहां और उनके बेटे दारा शिकोह ने भी दीवाली परंपरा को जीवित रखा। शाहजहां और दारा शिकोह इस त्योहार को पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाते और अपने नौकरों को बख्शीश बांटते थे। उनकी शाही सवारी रात्रि के समय शहर की रोशनी देखने निकलती थी।
आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर का दीवाली मनाने का निराला ही अंदाज था। जफर की दीवाली तीन दिन पहले ही शुरू हो जाती थी। दीवाली के दिन वे तराजू के एक पलड़े में बैठते और दूसरा पलड़ा सोने-चांदी से भर दिया जाता था। तुलादान के बाद यह सब गरीबों को दान कर दिया जाता था। तुलादान की रस्म-अदायगी के बाद किले पर रोशनी की जाती थी। कहार खील-बतीशे, खांड और मिट्टी के खिलौने घर-घर जाकर बांटते। गोवर्धन पूजा के दिन नागरिक अपने गाय-बैलों को मेंहदी लगाकर और उनके गले में शंख और घुंघरू बांधकर जफर के सामने पेश करते। जफर उन्हे इनाम देते व मिठाई खिलाते थे।

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