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बुधवार, 21 अक्टूबर 2009

कुछ खास है हम सभी में


12 साल का ईशविंदर 'स्पेशल चाइल्ड' है। वह सामान्य बच्चों से अलग है, क्योंकि उसका आईक्यू लेवल सामान्य से कम है। इस परिस्थिति को आम भाषा में मंदबुद्धि कहा जाता है, लेकिन ईशविंदर की ऊर्जा व सकारात्मकता उसे इस संबोधन से कहीं आगे ले जाते हैं। वह नवंबर माह में होने जा रहे इंटरस्टेट स्पेशल ओलंपिक के लिए फिटनेस टेस्ट पास करने वाले बच्चों में से एक है। बीते साल लुधियाना में ऐसे ही बच्चों के लिए हुए एक विशेष खेल मुकाबले में उसने 100 तथा 200 मीटर दौड़ स्पर्धा में दो स्वर्ण व सॉफ्टबॉल थ्रो में एक रजत पदक हासिल किया था।
19 साल का सौरभ जैन क्रिकेट का दीवाना है और किसी दिन टीम इंडिया के साथ खेलना चाहता है, लेकिन उसके स्कूल में क्रिकेट नहीं सिखाया जाता और आस-पड़ोस के बच्चे उसे अपने साथ नहीं खिलाते। भले ही लोग उसे मंदबुद्धि कहते हों, लेकिन अपने पसंदीदा खेल के बारे में उसे सब मालूम है। श्रीलंका में हुई ट्राईसीरीज के बारे में पूछे गए सभी सवालों का सही उत्तर दे कर उसने इसे सिद्ध भी कर दिया। वह पंजाब में आयोजित विशेष खेल मुकाबलों में 3 पदक व एक ट्राफी जीत चुका है और अब इंटरस्टेट स्पेशल ओलंपिक की तैयारी कर रहा है।
 
[क्या है स्पेशल ओलंपिक?]

स्पेशल ओलंपिक पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति स्व. जॉन एफ. कैनेडी की बहन यूनिस कैनेडी श्रिवर द्वारा 1968 में स्थापित की गई संस्था द्वारा विश्व के विभिन्न भागों में आयोजित करवाये जाते हैं। इन्हें शारीरिक अक्षमता वाले खिलाड़ियों के लिए आयोजित 'पैरालिंपिक' की जगह 'स्पेशल ओलंपिक' कहा जाता है क्योंकि यह स्पर्धा स्पेशल बच्चों की है, जिन्हें इंटेलेक्चुल डिसएबल कहा जाता है। संस्था ऐसे बच्चों को 'मेंटली रिटार्डिड' बोलने के सख्त खिलाफ है। अब तक स्पेशल ओलंपिक 180 देशों में लाखों स्पेशल बच्चों के जीवन को एक नई दिशा और ऊर्जा प्रदान कर चुकी है।

[हेल्दी एथलीट प्रोजेक्ट]

स्पेशल ओलंपिक के अंतर्गत खेल ही नहीं करवाए जाते, बल्कि उनसे पहले इन बच्चों के विशेष हेल्थ चेकअप भी होते हैं। विभिन्न शहरों में फ्री कैंपों का आयोजन कर स्पेशल बच्चों की फिटनेस के बारे में अभिभावकों के मार्गदर्शन के साथ-साथ स्थानीय डाक्टरों को भी प्रशिक्षित किया जाता है। संस्था के हेल्दी एथलीट्स कोआर्डिनेटर (एशिया पैसिफिक) डा. राजीव प्रसाद कहते हैं, ''इनको विशेष देखभाल की जरूरत होती है, लेकिन समाज के डर या शर्म के कारण माता-पिता इन्हें घर से बाहर भी नहीं निकालते। आमतौर पर डॉक्टर भी इलाज से कतराते हैं, क्योंकि इनके चैकअप के दौरान डॉक्टर के संयम की भी परीक्षा हो जाती है।

[एक थप्पड़ ने बदल दिया नजरिया]

डा. राजीव प्रसाद कहते हैं, "एक बार मैंने एक बच्चे की आंखों के चेकअप पर 20-25 मिनट लगाए, लेकिन उसके रिस्पांस न देने पर मैं खीज गया और उस पर चिल्ला उठा। उस बच्चे ने तपाक से एक थप्पड़ मेरे मुंह पर जड़ दिया। उस थप्पड़ ने मेरा जीवन बदल दिया। मुझे एहसास हुआ कि मैं कुछ मिनटों में ही संयम खो बैठा, लेकिन इन बच्चों में तो हम से ज्यादा सहनशीलता है। हमारी कही गई अधिकतर बातें (जो उन्हें समझ नहीं आती) उनके लिए बक-बक जैसी ही तो हैं, जिन्हें वे झेलते हैं। उसी दिन से मैंने इन बच्चों के लिए काम करने करने की ठान ली!''

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