छोटी के बदले बड़ी चादर का एक्सचेंज ऑफर हो और शेष धनराशि आसान किश्तों में चुकाने की सुविधा, तो 'अपनी चादर देख कर पाँव पसारने' की कहावत भला किसको याद रहेगी? कम से कम दोहरी कमाई वाले भारतीय शहरी दंपतियों की युवा पीढ़ी को तो बिल्कुल नहीं, जिन पर टिकी हैं बैंकों और बाजार की निगाहें |
जी हाँ, आधुनिक जीवनशैली को अपनाने की इच्छा भारतीय शहरों में एक नई पीढ़ी को गढ़ चुकी है और इसको नाम दिया गया है 'आई-जेनरेशन'। आप इसके दो अर्थ निकालने को स्वतंत्र हैं, पहला आई है 'इंडिपेंडेट' और दूसरा आई है 'इंस्टालमेंट'। यह 'इंस्टालमेंट जेनरेशन' का ही जलवा है कि बैंकों में ऋण देने के लिए मारामारी रहती है।
एक तरफ तो आई-जेनरेशन अपनी खुशियों को खरीदने के लिए ऋषि चार्वाक की परिपाटी पर 'जब तक जिओ, सुख से जिओ-कर्जा लेकर घी पियो' का सिद्धांत अपना चुकी है, वहीं पुरानी पीढ़ी को लगता है कि ऋण की यह प्रवृत्ति उनके बच्चों के भविष्य के लिए घातक हो सकती है। इसका जीवंत उदाहरण है देहरादून निवासी सेवानिवृत्त शिक्षिका पार्वती प्रसाद और उनके बेटे-बहू के बीच इन दिनों चल रहा शीतयुद्ध। पार्वती कहती हैं, ''उनके पास तीन साल पुरानी छोटी कार है और अब वे इसको औने-पौने बेच कर इस धनतेरस पर किश्तों में नई लग्जरी कार खरीदने जा रहे हैं। यह और कुछ नहीं, अमीरी का शौक लगा है।'' वहीं उनके कामकाजी बेटे-बहू का तर्क है कि बुढ़ापे तक पाई-पाई जोड़ कर सेवानिवृत्ति के बाद हरिद्वार घूमने से अच्छा है कि जिंदगी को आज जी लिया जाए!
पीढि़यों के बीच यह टकराव सामान्य सी बात है, लेकिन यह भी सच है कि किश्तों पर खुशियाँ खरीदने का तरीका कभी-कभी इतना महँगा पड़ जाता है कि मानसिक और पारिवारिक शांति जैसी कीमत चुकानी पड़ जाती है। चंडीगढ़ स्थित फाइनेंशियल एनालिस्ट सुमन गोखले कहती हैं, ''ग्लोबल मंदी के दौर में भी अगर देश में कोई बड़ी समस्या नहीं आई, तो इसकी वजह थी भारतीयों को विरासत में मिला बचत करने और कर्ज से दूर रहने का संस्कार। इसके विपरीत किश्तों पर जीने वाला अमेरिकी समाज आज मुसीबतों में घिरा हुआ है। यकीनन इतने बड़े उदाहरण से तो ऐसा ही लगता है कि पैर फैलाने के लिए चादर उधार माँगने से पहले पूरा गुणा-भाग कर लेना जरूरी है, वरना शान तो क्या बढे़गी, शांति भी नहीं बचेगी!''
[दिखावा बढ़ा समाज में]
आज जमीन-जायदाद और जेवर ही नहीं, जीन्स और टूर पैकेज तक कर्ज और आसान किश्तों पर उपलब्ध हैं। इनके संभावित ग्राहक हैं युवा और मध्य आयु वर्ग के ऐसे एग्जीक्यूटिव, जिनके पास ऋण लेने और किश्तों को चुकाने की क्षमता है। कुछ दिन पहले एक केस आया था, एक व्यक्ति ने पत्नी की जिद की वजह से कर्ज लेकर हैसियत से बड़ी गाड़ी खरीद ली। बाद में किश्तें अदा करने में पसीने छूटने लगे तो उन्होंने गाड़ी बेचने का फैसला लिया। देखा जाये तो यह दिखावा ही नहीं, एक बीमार मानसिकता है। इसकी वजह से घरों में तनाव होता है और बच्चे भी प्रभावित होते हैं।
[बढ़ा है लाइफस्टाइल प्रेशर]
लोग लाइफस्टाइल को लेकर जरूरत से ज्यादा कॉन्शस हो गए हैं। रोज़ कई लोग मिलते रहते हैं, जो लाइफस्टाइल को लेकर डिप्रेशन के शिकार होते हैं। हालांकि वे मानने को तैयार नहीं होते, लेकिन जब उनसे बात करी जाये, तब चीजें खुलकर सामने आती हैं। वे यह नहीं जानते कि किश्तों में खुशियां नहीं खरीदी जा सकतीं, खुशियां तो हमारे मन के भीतर से आती हैं।
बहुत सुंदर लिखा आप ने, किस्तो मे जीवन जीना कहा तक अच्छा है पता नही, कर्जा ले कर ऎश करनी भी कहा तक ज्याय्ज है पता नही, मेने आज तक कभी एक पेसा कर्जा नही लिया, बच्चो को भी शुरु से यही शिक्षा दे रहा हुं, यानि तेते पांव पसारिये जेति लंबी सोर यानि हमे उस पेसे मै ही गुजारा करना चाहिये जितने हमारी जेब मै है.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद