जरा कल्पना कीजिये, मोमबत्ती, मिठाई व आतिशबाजी नहीं होते, तो हम दीवाली कैसे मनाते? इन तीन के बिना कितनी फीकी होती हमारी दीवाली । क्या दीवाली भी सामान्य त्योहारों की तरह ही बनकर नहीं रह जाती?
क्यों आप सोच में पड़ गए न!? चलो पता करते हैं इन तीन के बारे में कि वे सबसे पहले कब और कैसे आई? हमने कब जाना कि मिठाई जैसी कोई चीज है और आतिशबाजी या मोमबत्ती का प्रचलन किस तरह से शुरू हुआ? है न ये कुछ रोचक सवाल? ऐसे सवाल, जो शायद कभी आपके जेहन में न आए हों, पर अब इन्हें जानकर दीवाली के सेलिब्रेशन का मजा कुछ और बढ़ जाएगा।
[चीनी नहीं इंडियन साल्ट]
दीवाली पर मिठाइयों के साथ-साथ आपको चॉकलेट्स, टॉफियां भी उपहार में मिलती होंगी। पर चीनी के बिना ये चीजें होतीं क्या? शहद में यदि ये तैयार भी होती, तो शायद इसमें चीनी जैसा आनंद न होता।
चीनी पहली बार कब बनी? इसे जानने के पचड़े में हमें नहीं पड़ना, पर यह जरूर जान लें कि चीनी से पहले दुनिया ने शहद का प्रयोग किया। और जब चीनी का प्रयोग शुरू हुआ, तब यह महज दवाई के तौर पर इस्तेमाल होती थी। ग्रीक सभ्यता में चीनी सैकरोन कहलाती थी। भारत में चीनी मिलने के प्रमाण अन्य स्त्रोतों के अलावा, ग्रीक फिजिशियन डायोसोरिडस से भी मिला है। उन्होंने मध्यकाल में पंजाब क्षेत्र में मिलने वाली मीठे और सफेद नमक जैसी चीज को इंडियन साल्ट कहा था।
[आतिशबाजी का आविष्कार]
सही मायने में आतिशबाजी की परंपरा तब शुरू हुई, जब चीनियों ने बारूद का आविष्कार किया। वे इटली के व्यापारी मार्कोपोलो थे, जिन्हें चीन से यूरोप बारूद लाने का श्रेय दिया जाता है। धीरे-धीरे जब बारूद दुनिया भर में पॉपुलर हुआ, तो आतिशबाजी भी प्रत्येक उत्सव और त्योहारों का अंग बनने लगी। चीनी बौद्ध भिक्षु ली तियान को पटाखे का आविष्कारक मानते हैं। इस आविष्कारक को श्रद्धांजलि देने लिए ही वे हर वर्ष 18 अप्रैल के दिन को सेलिब्रेट करते हैं। यह जानना बड़ा रोचक है कि सदियों पहले लोग इन आवाजों के लिए हरे बांस का प्रयोग करते थे। चीन में किसी उत्सव या खास दिन को सेलिब्रेट करने के लिए लोग ढेर सारे हरे बांस के गट्ठर को आग में झोंककर दूर हट जाते और इसके थोड़ी देर बाद ही जोरदार धमाके का लुत्फ उठाते थे। बहरहाल, अभी जो आप लोग आतिशबाजी से रंग-बिरंगी रोशनी का आनंद लेते हो, पहले यह नहीं था। केवल नारंगी रंग की रोशनी ही हरे बांस के गट्ठर के जलने के दौरान नजर आती थी। वे इटली के रसायन विज्ञानी थे, जिन्होंने आतिशबाजी को रंगीन बनाया। दरअसल, इन्होंने ही लाल, हरे, नीले और पीले रंग पैदा करने वाले रसायन की खोज की। ये रसायन थे क्रमश: स्ट्रांशियम , बेरियम , कॉपर (नीला) और सोडियम (पीला)।
जब पोटाशियम क्लोरेट, बेरियम और स्ट्रांशियम नाइट्रेट जैसे रसायन के आविष्कार हुए, तब भारत में भी कई आतिशबाजी कंपनियां आई और पटाखों का उत्पादन तेजी से शुरू हुआ। इनमें स्टैंडर्ड फायरवर्क्स लिमिटेड, शिवकाशी एक ब्रांड नेम है। आज कोरिया, इंडोनेशिया, जापान के पटाखे भी आपको बाजार में मिल जाएंगे। बटरफ्लाई, स्पिनव्हील्स, फ्लॉवर पॉट्स इन खास आतिशबाजियों के नाम हैं। इनमें से कई ऐसे हैं, जिनको जलाने के लिए चिंगारी की नहीं, रिमोट की जरूरत पड़ती है।
[चर्बी से मोम तक]
प्राचीन सभ्यताओं में जानवरों के खाल की वसा और कीट पतंगों से मिले मोम को पेपर ट्यूब्स में डालकर मोमबत्ती बनाने के प्रमाण हैं। अमेरिकी कैंडल फिश नामक तैलीय मछली का उपयोग मोमबत्ती जैसी चीज बनाने के लिए करते थे। जब पैराफिन का आविष्कार हुआ, तब से चर्बी के प्रयोग की परंपरा बिल्कुल बंद हो गई।
कहते हैं मधुमक्खी के छत्ते से मोम बनाने की शुरुआत तेरहवीं सदी में हुई। इस पेशे में रहने वाले लोग घूम-घूमकर अपने कस्टमर की डिमांड के अनुसार चर्बी वाली या मधुमक्खी के छत्ते से मिले मोम से बनी मोमबत्ती बेचते थे। फिर स्टीरिक एसिड (मोम को कड़ा करने वाला केमिकल) और गुंथी हुई बातियों का इस्तेमाल होने के बाद मोमबत्ती ने नया स्वरूप ग्रहण किया। आज कई तरह की डिजाइनर मोमबत्तियां आ गई हैं। ऑयल कैंडल, फ्रेगरेंस वाली कैंडल और न जाने कितने प्रकार के कैंडल्स आप मार्केट में देख सकते हैं ।
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क्यों कि अब सब साधन मौजूद है चलिए दीवाली मानते है !
आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं !