सदस्य

 

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

क्यों हिन्दी पर शर्म ??

बचा रहे इस देह में, स्वाभिमान का अंश।
रखो बचाकर इसलिए, निज भाषा का वंश॥
कथा, कहानी, लोरियां, थपकी, लाड़-दुलार।
अपनी भाषा के सिवा, और कहां ये प्यार॥
निज भाषा, निज देश पर, रहा जिन्हे अभिमान।
गाये हरदम वक्त ने, उनके ही जयगान॥
हिन्दी से जिनको मिला, पद-पैसा-सम्मान।
हिन्दी उनके वास्ते, मस्ती का सामान॥
सम्मेलन, संगोष्ठियां, पुरस्कार, पदनाम।
हिन्दी के हिस्से यही, धोखे, दर्द तमाम॥
हिन्दी की उंगली पकड़, जो पहुंचे दरबार।
हिंदी के 'पर' नोचते, बनकर वे सरकार॥
अंग्रेजी पर गर्व क्यों, क्यों हिन्दी पर शर्म।
सोचो इसके मायने, सोचो इसका मर्म॥
दफ्तर से दरबार तक, खून सभी का सर्द।
'जय' किससे जाकर कहे, हिन्दी अपना दर्द॥
- जय चक्रवर्ती

4 टिप्‍पणियां:

  1. जिसको न निज भाषा तथा निज देश पर अभिमान है,
    वह नर नहीं नर-पशु निरा है, और मृतक सामान है !
    जय हिंदी ! जय भारत !!

    जवाब देंहटाएं
  2. आभार जय चक्रवर्ती जी की इस रचना को प्रस्तुत करने का.

    जवाब देंहटाएं
  3. आप का धन्यवाद चक्रवर्ती जी की इस रचना को प्रस्तुत करने का.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर रचना ..हिन्‍दी के प्रति आपकी भावना बहुत अच्‍छी लगी

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियों की मुझे प्रतीक्षा रहती है,आप अपना अमूल्य समय मेरे लिए निकालते हैं। इसके लिए कृतज्ञता एवं धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ।

ब्लॉग आर्काइव

Twitter