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शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

मेहमान का कोना

एक मुक्कमल शायरी


सांसों में लोबान जलाना आख़िर क्यों ?
पल-पल उसकी याद का आना आख़िर क्यों ?
तू दरिया है में क़तर हूँ.किस्मत है,
इस पर यूँ इतराना आख़िर क्यों ?
जिसको देखो वो मसरूफ है अपने में,
रिश्तों का फ़िर ताना बाना आख़िर क्यों ? 


एक खता यानि ख्वाहिश थी जीने की,
पुरी उम्र का जुर्माना आख़िर क्यों ?
मसले उसके शम्सो कमर के होते हैं,
मेरी मशक्कत आबो दाना आख़िर क्यों ?

- पवन कुमार  (IAS)



एक बानगी

हर पल आँख चुराना आख़िर क्यों?
दुश्मन के घर आना जाना आख़िर क्यों?
मेरे उसके जुर्म में कोई फर्क नही,
फ़िर मुझ पर इतना जुर्माना आख़िर क्यों ?
छोटे घर की बेटी दबकर रहती है,
  ढूंढ रहा वो बड़ा घराना आख़िर क्यों ?
मुठ्ठी में जो बंद किए है सूरज को,
उसको जुगनू से बहलाना आख़िर क्यों ?
मुझको तो हर पल पीने की आदत है,
उसकी आखों में मयखाना आख़िर क्यों ?
छोटे तबके वाले भी तो इंसां हैं,
महफिल में उनसे कतराना आख़िर क्यों ?
''अनवर''तेरी गज़लों के सब दीवाने
तू गालिब का दीवाना आख़िर क्यों ?


- फ़साहत अनवर

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