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सोमवार, 22 जून 2009

कुत्ते



ये गलियों के आवारह बेकार कुत्ते
के बख्शा गया जिनको ज़ौक़-ऐ-गदाई
ज़माने की फटकार सरमाया उन का
जहाँ भर की दुत्कार उन की कमाई ।

न आराम शब् को न राहत सबेरे,
गलाज़त में घर नालियों में बसेरे
जो बिगडें तो एक दूसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फ़ाकों से उकता के मर जाने वाले
ये मज़लूम मख्लूक़ गर सर उठाएँ
तो इंसान सब सरकशी भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बनालें
ये आक़ाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इन को अहसास-ऐ-ज़िल्लत दिखा दे
कोई इन की सोई हुई दुम हिला दे
-- फैज़ अहमद फैज़


फैज़ की यह नज्म इंसानी कुत्तो पर भी सटीक साबित होती है
,वैसे अपना अपना नज़रिया है |

2 टिप्‍पणियां:

  1. शिवम् फैज़ जी ने ये नज़्म मजलूमों और मजदूरों की जिन्दगी पर लिखी थी.हर जुल्म को सहने के बाद भी ये संतुष्ट हैं.मैनपुरी की अवाम की फितरत भी कुछ ऐसे ही बस उसे जगाने की जरुरत है...इंतजार कीजिए मैनपुरी के जगाने का..........

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  2. हिर्देश , केवल मैनपुरी ही नहीं बल्कि पूरे हिंदुस्तान को जागना है , यह इंतज़ार बहुत लम्बा है |

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