पूरे दिन में हमारे साथ जो जो होता है उसका ही एक लेखा जोखा " बुरा भला " के नाम से आप सब के सामने लाने का प्रयास किया है | यह जरूरी नहीं जो हमारे साथ होता है वह सब " बुरा " हो, साथ साथ यह भी एक परम सत्य है कि सब " भला " भी नहीं होता | इस ब्लॉग में हमारी कोशिश यह होगी कि दिन भर के घटनाक्रम में से हम " बुरा " और " भला " छांट कर यहाँ पेश करे |
सदस्य
शनिवार, 31 दिसंबर 2011
मंगलवार, 27 दिसंबर 2011
जन-गण-मन के 100 साल
यह धुन सुनते ही हम सभी रोमाचित हो जाते हैं और शरीर खुद-ब-खुद सावधान की मुद्रा में आ जाता है। दोस्तों, हम बात कर रहे हैं देश के राष्ट्रगान 'जन-गण-मन' की। आज यानी 27 दिसबर को इस रचना के सौ साल पूरे हो रहे हैं। इस मौके पर आइए जानें इसके बारे में कुछ दिलचस्प बातें..
दोस्तों, क्या आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि स्कूल में आपके दिन की शुरुआत किस खास तरीके से होती है? वह तरीका, जो हर दिन आप सभी के भीतर राष्ट्रप्रेम और देश के लिए कुछ करने का जज्बा जगाता है। हम बात कर रहे हैं अपने देश के राष्ट्रगान जन-गण-मन की, जिससे स्कूल में आपके सुबह की शुरुआत होती है। देश के सभी स्कूलों में प्रार्थना और राष्ट्रगान के बाद ही कक्षाएं आरंभ होती हैं। राष्ट्रीय और प्रमुख सरकारी समारोहों की शुरुआत भी राष्ट्रगान से ही होती है।
क्या है राष्ट्रगान
देश के प्रति सम्मान व राष्ट्रप्रेम की भावना जताने के लिए जनता में लोकप्रिय खास गीत को ही शासकीय तौर पर राष्ट्रगान का दर्जा दिया जाता है। अन्य गीतों की तुलना में राष्ट्रगान की भावना अलग होती है। इसमें मुख्य भाव राष्ट्रभक्ति की भावना है।
राष्ट्रगान रचे जाने की कहानी
वैसे तो 1911 में ब्रिटेन के सम्राट जॉर्ज पचम के भारत आने पर उनके स्वागत के लिए रवींद्रनाथ टैगोर से यह गीत लिखवाया गया था [टैगोर ने यह बात खुद अपने एक मित्र पुलिन बिहारी सेन को पत्र लिखकर बताई थी], लेकिन एक सच्चे देशभक्त होने के कारण टैगोर ने इसमें अपने देश के महत्व का वर्णन किया। यह गीत कुछ ही साल में आजादी के लिए लड़ रहे स्वतत्रता सेनानियों में जोश भरने लगा। इस गीत की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए ही इसे 27 दिसबर, 1911 को भारतीय राष्ट्रीय काग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में गाया गया। इसके बाद आजादी के आदोलन से जुड़े हर आयोजन में इसकी गूंज सुनाई देनी लगी। रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा मूल रूप से बगला में रचित और सगीतबद्ध जन-गण-मन के हिंदी सस्करण को सविधान सभा ने भारत के राष्ट्रगान के रूप में 24 जनवरी, 1950 को अपना लिया। इस तरह देखा जाए तो 'जन-गण-मन' चार दिन बाद यानी 27 दिसबर को अपनी रचना के सौ साल पूरे कर रहा है। अगले ही महीने यानी 24 जनवरी, 2012 को इसे राष्ट्रगान के रूप में भी 61 वर्ष हो जाएंगे।
गायन का सही तरीका
राष्ट्रगान के रूप में 'जन-गण-मन' के गायन की अवधि लगभग 52 सेकेंड है। कुछ अवसरों पर इसे सक्षिप्त रूप में भी गाया जाता है। इसके तहत इसकी प्रथम तथा अंतिम पक्तिया ही बोलते हैं, जिसमें करीब 20 सेकेंड का समय लगता है।
जरूरी नियम
राष्ट्रगान की गरिमा को बनाये रखने के लिए इसे गाये या बजाये जाने पर श्रोताओं को सावधान की मुद्रा में खड़े रहना चाहिए। हालाकि किसी मूवी या डाक्यूमेंट्री के हिस्से के रूप में बजाने पर श्रोताओं से अपेक्षित नहीं होता कि वे खड़े हो जाएं।
कब गायें-बजायें
राष्ट्रगान के सही सस्करण के बारे में समय-समय पर सरकार द्वारा अनुदेश जारी किए जाते हैं। इसके पूर्ण सस्करण को विभिन्न अवसरों पर सामूहिक गान के रूप में गाया-बजाया जाता है। राष्ट्रीय ध्वज फहराने, सास्कृतिक कार्यक्रमों, परेड, सरकारी कार्यक्रम में राष्ट्रपति के आगमन और वहा से उनके जाने के समय, ऑल इंडिया रेडियो पर राष्ट्र के नाम राष्ट्रपति के सबोधन, राज्यपाल/लेफ्टिनेंट गवर्नर के औपचारिक राज्य कार्यक्रमों में आने-जाने, राष्ट्रीय ध्वज को परेड में लाए जाने आदि के समय इसे गाया-बजाया जाता है। विद्यालयों में सामूहिक रूप से गाकर शुरुआत की जा सकती है।
विदेशों में राष्ट्रगान
सबसे पुराना राष्ट्रगान ग्रेट ब्रिटेन के 'गॉड सेव द क्वीन' को माना जाता है। इसे वर्ष 1825 में राष्ट्रगान के रूप में वर्णित किया गया। हालाकि यह 18वीं सदी के मध्य से ही देशप्रेम के गीत के रूप में लोकप्रिय था और राजसी समारोहों के दौरान गाया जाता था। 19वीं तथा 20वीं सदी के आरंभ में अधिकाश यूरोपीय देशों ने ब्रिटेन का अनुसरण किया।
राष्ट्रगान के रचयिता
गुरुदेव के नाम से लोकप्रिय और पहले नोबेल पुरस्कार विजेता भारतीय रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी की सतान के रूप में 7 मई, 1861 को हुआ था। बैरिस्टर बनाने के लिए उनके पिता ने 1878 में उनका नाम इंग्लैंड के ब्रिजटोन में कराया। उन्होंने लदन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन भी किया, लेकिन 1880 में डिग्री हासिल किए बिना स्वदेश वापस आ गए। 1883 में मृणालिनी देवी से उनका विवाह हुआ। बचपन से ही कविता, छंद और भाषा पर अद्भुत पकड़ रखने वाले टैगोर ने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी। उन्होंने कविता, गीत, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबध, शिल्पकला-सभी विधाओं में रचना की। इनमें प्रमुख हैं गीताजलि, गीति माल्य, शिशु, खेया, मानसी, सोनार तारी, राजा, डाकघर, गोरा, घरे बहिरे, योगायोग आदि। बचपन से ही प्रकृति को पसद करने वाले टैगोर 1901 में सियालदह छोड़कर शातिनिकेतन आ गए और वहा लाइब्रेरी और विश्वभारती शिक्षा केंद्र बनाया, जो आज एक जाना-माना विश्वविद्यालय है। 1913 में 'गीताजलि' के लिए उन्हें साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह सम्मान पाने वाले वे पहले भारतीय थे। टैगोर ने दो हजार से ज्यादा गीतों की रचना की और उन्हें सगीत भी दिया। उनके नाम पर ही इसका नाम 'रवींद्र सगीत' पड़ गया। जीवन के आखिरी दिनों में उन्होंने चित्र भी बनाने आरंभ कर दिए। टैगोर महात्मा गांधी का बहुत सम्मान करते थे। उन्होंने गाधी जी को महात्मा का विशेषण दिया तो गाधी ने उन्हें गुरुदेव कहकर बुलाया।
* रवींद्रनाथ टैगोर दुनिया के अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जिनकी रचना को एक से अधिक देशों में राष्ट्रगान का दर्जा प्राप्त है। उनकी एक दूसरी कविता 'आमार सोनार बाग्ला' को आज भी बाग्लादेश में राष्ट्रगान का दर्जा मिला हुआ है।
* रवींद्रनाथ टैगोर नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले भारतीय भी हैं। कविताओं के सग्रह 'गीताजलि' के लिए उन्हें 1913 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
* 12 दिसबर, 1911 को जॉर्ज पचम ने कोलकाता की बजाय दिल्ली को भारत की राजधानी बनाने की घोषणा की थी। टैगोर ने इस अवसर के लिए उसी साल 'भारत भाग्य विधाता' गीत की रचना की थी।
* ब्रिटिश सरकार ने रवींद्रनाथ टैगोर को 'सर' की उपाधि दी थी, जिसे 1919 में जलियावाला बाग काड से दुखी होकर उन्होंने लौटा दिया।
* 1911 में जॉर्ज पचम के राज्याभिषेक के अवसर पर कई हिन्दी लेखकों ने भी रचनाएं लिखी थीं। इनमें बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' का 'सौभाग्य समागम', अयोध्या सिह उपाध्याय 'हरिऔध' का 'शुभ स्वागत', श्रीधर पाठक का 'श्री जॉर्ज वदना', नाथूराम शर्मा 'शकर' का 'महेंद्र मगलाष्टक' प्रमुख हैं।
[आलेख : -अरुण श्रीवास्तव]
रविवार, 25 दिसंबर 2011
चला गया कला का कोहिनूर ... सत्यदेव दुबे (१९३६ - २०११)
प्रख्यात निर्देशक, अभिनेता और पटकथा लेखक सत्यदेव दूबे का लंबी बीमारी के बाद रविवार दोपहर करीब साढ़े बारह बजे निधन हो गया। वह 75 वर्ष के थे।
सत्यदेव दूबे के पौत्र ने कहा, वह पिछले कई महीने से कोमा थे। वह मस्तिष्क आघात से पीडि़त थे और सुबह साढ़े 11 बजे अस्पताल में निधन हो गया। चर्चित नाटककार और निर्देशक सत्यदेव दूबे को इस साल सितंबर महीने में जूहू स्थित पृथ्वी थिएटर कैफे में दौरा पड़ा था और तभी से वह कोमा में थे।
पिछले कुछ समय से दूबे का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था और पिछले वर्षो में कई बार उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। पद्म विभूषण पुरस्कार से सम्मानित सत्यदेव दूबे ने मराठी-हिंदी थिएटर में काफी ख्याति हासिल थी। उनका जन्म छत्तीसगढ़ के विलासपुर में हुआ था लेकिन उन्होंने मुंबई को अपना घर बना लिया था। मराठी सिनेमा में उन्होंने काफी नाम कमाया। उन्होंने अपने लंबे करियर में स्वतंत्रता के बाद के लगभग प्रमुख नाटककारों के साथ काम किया था।
आइये एक नज़र डालते है उनके जीवन पर ...
जीवन परिचय
सत्यदेव दुबे देश के शीर्षस्थ रंगकर्मी और फिल्मकार थे. छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में 1936 में जन्मे सत्यदेव दुबे देश के उन विलक्षण नाटककारों में थे, जिन्होंने भारतीय रंगमंच को एक नई दिशा दी. उन्होंने फिल्मों में भी काम किया और कई पटकथाएं लिखीं. देश में हिंदी के अकेले नाटककार थे, जिन्होंने अलग-अलग भाषाओं के नाटकों में हिंदी में लाकर उन्हें अमर कर दिया. उनका निधन 25 दिसंबर 2011 को मुंबई में हुआ.
कार्यक्षेत्र
धर्मवीर भारती के नाटक अंधा युग को सबसे पहले सत्यदेव दुबे ने ही लोकप्रियता दिलाई. इसके अलावा गिरीश कर्नाड के आरंभिक नाटक ययाति और हयवदन, बादल सरकार के एवं इंद्रजीत और पगला घोड़ा, मोहन राकेश के आधे अधूरे और विजय तेंदुलकर के खामोश अदालत जारी है जैसे नाटकों को भी सत्यदेव दुबे के कारण ही पूरे देश में अलग पहचान मिली.
सम्मान और पुरस्कार
धर्मवीर भारती के नाटक अंधा युग को सबसे पहले सत्यदेव दुबे ने ही लोकप्रियता दिलाई. इसके अलावा गिरीश कर्नाड के आरंभिक नाटक ययाति और हयवदन, बादल सरकार के एवं इंद्रजीत और पगला घोड़ा, मोहन राकेश के आधे अधूरे और विजय तेंदुलकर के खामोश अदालत जारी है जैसे नाटकों को भी सत्यदेव दुबे के कारण ही पूरे देश में अलग पहचान मिली.
फिल्मोग्राफी
- अंकुर - 1974 - संवाद और पटकथा
- निशांत - 1975 -संवाद
- भूमिका - 1977 - संवाद और पटकथा
- जूनून - 1978 - संवाद
- कलयुग - 1980 - संवाद
- आक्रोश - 1980 - संवाद
- विजेता - 1982 - संवाद और पटकथा
- मंडी - 1983 - पटकथा
मैनपुरी के सभी कला प्रेमियों की ओर से सत्यदेव दुबे साहब को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !
सोमवार, 19 दिसंबर 2011
अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान के बलिदान दिवस पर विशेष रि-पोस्ट
राम प्रसाद बिस्मिल |
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में काकोरी कांड एक ऐसी घटना है जिसने अंग्रेजों की नींव झकझोर कर रख दी थी। अंग्रेजों ने आजादी के दीवानों द्वारा अंजाम दी गई इस घटना को काकोरी डकैती का नाम दिया और इसके लिए कई स्वतंत्रता सेनानियों को 19 दिसंबर 1927 को फांसी के फंदे पर लटका दिया।
अशफाक उल्ला खा |
फांसी की सजा से आजादी के दीवाने जरा भी विचलित नहीं हुए और वे हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। बात नौ अगस्त 1925 की है जब चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह सहित 10 क्रांतिकारियों ने मिलकर लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया।
दरअसल क्रांतिकारियों ने जो खजाना लूटा उसे जालिम अंग्रेजों ने हिंदुस्तान के लोगों से ही छीना था। लूटे गए धन का इस्तेमाल क्रांतिकारी हथियार खरीदने और आजादी के आंदोलन को जारी रखने में करना चाहते थे।
इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से जानी गई, जिससे गोरी हुकूमत बुरी तरह तिलमिला उठी। उसने अपना दमन चक्र और भी तेज कर दिया।
अपनों की ही गद्दारी के चलते काकोरी की घटना में शामिल सभी क्रांतिकारी पकडे़ गए, सिर्फ चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों के हाथ नहीं आए। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के 45 सदस्यों पर मुकदमा चलाया गया जिनमें से राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई।
ब्रिटिश हुकूमत ने पक्षपातपूर्ण ढंग से मुकदमा चलाया जिसकी बड़े पैमाने पर निंदा हुई क्योंकि डकैती जैसे मामले में फांसी की सजा सुनाना अपने आप में एक अनोखी घटना थी। फांसी की सजा के लिए 19 दिसंबर 1927 की तारीख मुकर्रर की गई लेकिन राजेंद्र लाहिड़ी को इससे दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही गोंडा जेल में फांसी पर लटका दिया गया। राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल और अशफाक उल्ला खान को इसी दिन फैजाबाद जेल में फांसी की सजा दी गई।
फांसी पर चढ़ते समय इन क्रांतिकारियों के चेहरे पर डर की कोई लकीर तक मौजूद नहीं थी और वे हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर चढ़ गए।
काकोरी की घटना को अंजाम देने वाले आजादी के सभी दीवाने उच्च शिक्षित थे। राम प्रसाद बिस्मिल प्रसिद्ध कवि होने के साथ ही भाषायी ज्ञान में भी निपुण थे। उन्हें अंग्रेजी, हिंदुस्तानी, उर्दू और बांग्ला भाषा का अच्छा ज्ञान था।
अशफाक उल्ला खान इंजीनियर थे। काकोरी की घटना को क्रांतिकारियों ने काफी चतुराई से अंजाम दिया था। इसके लिए उन्होंने अपने नाम तक बदल लिए। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने चार अलग-अलग नाम रखे और अशफाक उल्ला ने अपना नाम कुमार जी रख लिया।
खजाने को लूटते समय क्रांतिकारियों को ट्रेन में एक जान पहचान वाला रेलवे का भारतीय कर्मचारी मिल गया। क्रांतिकारी यदि चाहते तो सबूत मिटाने के लिए उसे मार सकते थे लेकिन उन्होंने किसी की हत्या करना उचित नहीं समझा।
उस रेलवे कर्मचारी ने भी वायदा किया था कि वह किसी को कुछ नहीं बताएगा लेकिन बाद में इनाम के लालच में उसने ही पुलिस को सब कुछ बता दिया। इस तरह अपने ही देश के एक गद्दार की वजह से काकोरी की घटना में शामिल सभी जांबाज स्वतंत्रता सेनानी पकड़े गए लेकिन चंद्रशेखर आजाद जीते जी कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।
सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान के बलिदान दिवस पर उनको शत शत नमन !
शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011
रि - पोस्ट विजय दिवस पर विशेष
ऊपर दी गई इस तस्वीर को देख कर कुछ याद आया आपको ?
आज १६ दिसम्बर है ... आज ही के दिन सन १९७१ में हमारी सेना ने पाकिस्तानी सेना को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था ... और बंगलादेश की आज़ादी का रास्ता साफ़ और पुख्ता किया था ! तब से हर साल १६ दिसम्बर विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है !
आइये कुछ और तस्वीरो से उस महान दिन की यादें ताज़ा करें !
आप सब को विजय दिवस की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
जय हिंद !!!
बुधवार, 14 दिसंबर 2011
डाइबिटिक रेटिनोपैथी हल्के में लेना पड़ेगा भारी
हम में से सब को अपना अपना परिवार बेहद प्रिय होता है ... और होना भी चाहिए ... अगर परिवार के एक भी सदस्य पर कोई विपत्ति आ जाये तो पूरा परिवार परेशान हो जाता है ... ख़ास कर अगर परिवार का सब से ज़िम्मेदार बन्दे पर कोई विपत्ति आ जाये तो मामला और भी संजीदा हो जाता है ... ऐसा ही कुछ हुआ है मेरी ससुराल पक्ष में ... मेरे मामा ससुर साहब श्री बाल कृष्ण चतुर्वेदी जी पिछले काफी महीनो से जूझ रहे है अपनी बीमारी से ... मामा जी को शुगर है और इसी के कारण लगभग ४ महिना पहले अचानक उनकी दोनों आँखों की रौशनी चली गयी ... हम सब काफी परेशान हो गए कि यह अचानक से क्या हो गया ... बाल कृष्ण मामा जी ही पूरे परिवार को संभालें हुए है पिछले २ सालों से ... जब एक एक सालों के अंतर से उनके दो भाइयो का निधन हो गया !
मेरी जानकारी में भी यह पहला मामला था कि जब शुगर के चलते किसी की आँखों की रौशनी जाने के बारे में सुना हो ... खैर आजकल मामा जी पहले से काफी बहेतर है ... उनका इलाज चल रहा है और भगवान् ने चाहा तो बहुत जल्द उनको पूरा आराम भी आ जायेगा!
आज ऐसे ही नेट पर कुछ खंगालते हुए एक आलेख पर नज़र पड़ी ... जिस को पढ़ कर मामाजी का ख्याल आ गया और साथ साथ उनकी बीमारी के बारे में भी काफी जानकारी मिल गयी ! यहाँ उस आलेख को आप सब के साथ साँझा कर रहा हूँ ताकि आप सब को यह जानकारी मिल सकें !
=====================================
मधुमेह के आँख पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से कम लोग ही वाकिफ हैं। डाइबिटिक रेटिनोपैथी एक ऐसा रोग है, जिसमें आँख की रेटिना पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की अनदेखी करने पर रोगी की आँख की रोशनी तक जा सकती है।
कैसे लाएं इस रोग को काबू में..?
मधुमेह या डाइबिटीज को नियत्रण में नहीं रखा गया तो यह कालातर में आँखों की रेटिना [आंख का पर्दा] पर दुष्प्रभाव डालती है। मधुमेह से गुर्र्दो, तत्रिकाओं [नर्व्स] व शरीर के अन्य अंगों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से अनेक लोग अवगत हैं, लेकिन इस रोग के आखों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से बहुत कम लोग वाकिफ हैं। डाइबिटिक रेटिनोपैथी एक ऐसा रोग है, जिसमें आँख की रेटिना पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव की अनदेखी की गयी, तो इस मर्ज में आँख की रोशनी तक जा सकती है।
रोग का स्वरूप
डाइबिटिक रेटिनोपैथी के प्रतिकूल प्रभाव से रेटिना की छोटी रक्त वाहिकाएं [स्माल ब्लड वेसेल्स] कमजोर हो जाती हैं और इनके मूल स्वरूप में बदलाव हो जाता है। रक्त वाहिकाओं में सूजन आ सकती है, रक्तवाहिकाओं से रक्तस्राव होने लगता है या फिर इन रक्त वाहिकाओं में ब्रश की तरह की कई शाखाएं सी विकसित हो जाती हैं। इस स्थिति में रेटिना को स्वस्थ रखने के लिए ऑक्सीजन और पोषक तत्वों की आपूर्ति में बाधा पड़ती है।
लक्षण
शुरुआती दौर में डाइबिटिक रेटिनोपैथी के लक्षण सामान्य तौर पर प्रकट नहीं होते, लेकिन जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है,वैसे-वैसे दृष्टि में धुंधलापन आने लगता है। अगर समुचित इलाज नहीं किया गया, तो अचानक आँख की रोशनी चली जाती है।
याद रखें
* गर्भावस्था में डाइबिटिक रेटिनोपैथी की समस्या बढ़ जाती है।
* उच्च रक्तचाप [हाई ब्लडप्रेशर] इस रोग की स्थिति को गभीर बना देता है।
* बचपन या किशोरावस्था में मधुमेह से ग्रस्त होने वाले बच्चों व किशोरों में यह मर्ज युवावस्था मे भी हो सकता है।
इलाज
डाइबिटिक रेटिनोपैथी का इलाज दो विधियों से किया जाता है
1. लेजर से उपचार: इसे 'लेजर फोटोकोएगुलेशन' भी कहते हैं, जिसका ज्यादातर मामलों में इस्तेमाल किया जाता है। मधुमेह से ग्रस्त जिन रोगियों की आँखों की रोशनी के जाने या उनकी दृष्टि के क्षीण होने का जोखिम होता है, उनमें इस उपचार विधि का प्रयोग किया जाता है। इस सदर्भ में यह बात याद रखी जानी चाहिए कि लेजर उपचार का प्रमुख उद्देश्य दृष्टि के मौजूदा स्तर को बरकरार रखकर उसे सुरक्षित रखना है, दृष्टि को बेहतर बनाना नहीं। रक्त वाहिकाओं [ब्लड वेसल्स] में लीकेज होने से रेटिना में सूजन आ जाती है। इस लीकेज को बंद करने के लिए इस विधि का इस्तेमाल किया जाता है। यदि नेत्रों में नई रक्तवाहिकाएं विकसित होने लगती हैं, तो उस स्थिति में पैन रेटिनल फोटोकोएगुलेशन [पीआरपी] तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। बहरहाल लेजर तकनीक से सामान्य तौर पर कारगर लाभ मिलने में तीन से चार महीने का वक्त लगता है।
2 वीट्रेक्टॅमी: कभी-कभी नई रक्त वाहिकाओं [ब्लड वैसल्स] से आँख के मध्य भाग में जेली की तरह रक्तस्राव होने लगता है। इस स्थिति को 'वीट्रीअॅस हेमरेज' कहते हैं, जिसके कारण दृष्टि की अचानक क्षति हो जाती है। अगर 'वीट्रीअॅस हेमरेज' बना रहता है, तब वीट्रेक्टॅमी की प्रक्रिया की जाती है। यह सूक्ष्म सर्जिकल प्रक्रिया है। जिसके माध्यम से आँख के मध्य से रक्त और दागदार ऊतकों [टिश्यूज] को हटाया जाता है।
कब बढ़ता है खतरा
मधुमेह की अवधि के बढ़ने के साथ इस रोग के होने की आशकाएं बढ़ती जाती हैं। फिर भी ऐसा देखा गया है कि 80 फीसदी लोग जो लगभग पिछले 15 सालों से अधिक वक्त से मधुमेह से ग्रस्त हैं, उनकी रेटिना की रक्त वाहिकाओं में कोई न कोई विकार [डिफेक्ट] आ जाता है।
=================================
रविवार, 4 दिसंबर 2011
मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया ... देव आनंद
२६ सितम्बर १९२३ - ०४ दिसम्बर २०११ |
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया। जिस वक्त यह गाना लिखा गया और फिल्माया गया किसी ने नहीं सोचा था कि देव आनंद बालीवुड में इतनी लंबी पारी खेलेंगे जिसको दुनिया सलाम करेगी। 1946 से लगातार 2011 तक बालीवुड में सक्रिय रहने के बाद बालीवुड के इस अभिनेता ने लंदन में अंतिम सांस ली। 88 वर्ष की उम्र में देव साहब का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। वह लंदन इलाज के सिलसिले में गए हुए थे। 26 सितंबर 1923 में पंजाब के गुरदासपुर जिले में जन्मे देव साहब का फिल्मों से बहुत पुराना नाता रहा है। उनका हमेशा से ही रुझान फिल्मों की तरफ रहा। बालीवुड का रुख करने से पहले उन्होंने चालीस के दशक की शुरुआत में मुंबई में मिलिट्री सेंसर आफिस में काम किया। इसके बाद उन्होंने आल इंडिया रेडियो में भी काम किया था। लेकिन जब उन्होंने बालीवुड का रुख किया तो फिर कभी पलट कर नहीं देखा। देव आनंद बालीवुड के दूसरे ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने शो-मैन राजकपूर के बाद अपने बैनर के तहत फिल्मों का निर्माण किया। अपने बैनर के तहत कुल 35 फिल्मों का निर्माण करने वाले देव आनंद ने जीनत अमान समेत कई दूसरी अभिनेत्रियों को बालीवुड के पर्दे पर लेकर आए थे। देव आनंद के संवाद बोलने का तरीका हो या उनके कपड़े पहने का अंदाज सभी लोगों के सर चढ़ कर बोलता था। देव साहब की शोहरत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लोगों के काले कपड़े पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया था।
देव साहब को आज भी फिल्म जगत में एक दिग्गज अभिनेता के रूप में जाना जाता है। आखिर तक उनके दिल और दिमाग से फिल्मों का जुनून कम नहीं होने पाया। एक फिल्म के निर्माण के दौरान ही वह दूसरी फिल्म की कहानी दिमाग में आने लगती थी। देव साहब के साथ उनके दोनों भाई चेतन आनंद और केतन आनंद का भी बालीवुड में काफी सक्रिय योगदान रहा। देव आनंद साहब के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने गुरू दत्ता साहब के साथ में एक समझौता किया था जिसके तहत यदि वह फिल्म का निर्माण करेंगे तो उसमें गुरू दत्ता अभिनय करेंगे और यदि वह फिल्म का निर्माण करेंगे तो गुरू दत्ता उसमें अभिनय करेंगे। गुरू दत्ता के अंतिम समय तक भी यह करार बरकरार था। अपने बैनर के तहत बनने वाली दूसरी फिल्म बाजी की सफलता ने उन्होंने पलट कर नहीं देखा। उनकी अदा के दीवाने खुद पूर्व प्रधानमंत्री पंडित नेहरू भी थे।
भारत सरकार ने उन्हें 2001 में पद्म विभूषण और 2002 में दादा साहब फालके पुरस्कार से उन्हें नवाजा था। मौजूदा समय में वह अपनी फिल्म चार्जशीट को लेकर चर्चा में थे।
लाहौर के गवर्नमेंट कालेज से इंग्लिश लिटरेचर से स्नातक करने वाले देव आनंद ने चालीस के दशक में मुंबई आकर मिलिट्री सेंसर आफिस में भी काम किया था। इसके बाद उन्होंने आल इंडिया रेडियो का रुख किया। 1941 में अपनी पहली फिल्म हम एक हैं से शुरुआत करने वाले देव आनंद ने प्रेम पुजारी, गाईड, हरे रामा हरे कृष्णा, बम्बई का बाबू, तेरे घर के सामने समेत अनेक सफल फिल्में दीं। आज उनके निधन से पूरा बालीवुड गमगीन है। उनके जाने से हिंदी सिनेमा में एक युग का अंत हो गया।
मैनपुरी के सभी सिने प्रेमियों की ओर से देव साहब को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !
गुरुवार, 1 दिसंबर 2011
ब्लॉगर पवन कुमार जी के पैतृक आवास में चोरी
आईएएस अधिकारी और जाने माने ब्लॉगर श्री पवन कुमार जी के पैतृक आवास में सो रहे परिजनों को एक कमरे में बंद कर चोरों ने नगदी, सोने चांदी के आभूषण चुरा लिए। चोरों की आहट पर मकान के नीचे के कमरे में सो रहे युवक के जागने पर चोर भाग गए। आईएएस अधिकारी के पैतृक आवास से चोरी की जानकारी होते ही पुलिस हरकत में आ गई। पवन जी के छोटे भाई हृदेश सिंह ने चोरी की तहरीर थाने में दे दी है।
थाना कोतवाली के राजा का बाग निवासी पवन कुमार सिंह नोएडा में सीडीओ के पद पर तैनात हैं। उनके परिवार के लोग राजा का बाग में निवास करते हैं। उनके आवास में पिछले दिनों निर्माण कार्य करने के लिए मजदूरों को लगाया गया था। मंगलवार की रात पवन जी के परिवार के लोग घर में सो रहे थे। रात दो बजे के बाद अज्ञात चोर घर में प्रवेश कर गए। चोरों ने मकान के ऊपरी हिस्से में बने उस कमरे की कुंडी बाहर से बंद कर दी। जिसमें परिवार की महिलायें तथा पुरुष लेटे थे। चोरों ने दूसरे कमरे का ताला तोड़कर प्रवेश कर लिया।
बताते हैं कि इस कमरे में रखी एक अलमारी का चोरों ने किसी तरह ताला खोल लिया। अलमारी में रखी 40 हजार रुपये की नगदी, सोने चांदी के आभूषण चुरा लिए। परिजनों के अनुसार चोर लगभग दो लाख कीमत के आभूषण चुरा ले गए हैं। इसी बीच चोरों की आहट पाकर मकान के नीचे के कमरे में सो रहा पवन जी का छोटा भाई श्यामकांत जाग गया। वह मकान के ऊपरी हिस्से में आया तो चोर छत से कूदकर भाग गए। श्यामकांत ने बंद कमरे की कुंडी खोलकर परिजनों को बाहर निकाला। परिजनों ने चोरी की पुलिस को सूचना दे दी। पवन जी को भी परिजनों ने चोरी हो जाने की सूचना रात में ही फोन से दे दी। पवन जी ने एस पी नितिन तिवारी को अपने आवास में चोरी हो जाने की सूचना दी। आईएएस के मकान में चोरी की जानकारी होते ही पुलिस में हड़कंप मच गया। सीओ सिटी आरके मिश्रा मौके पर आ गए। पुलिस ने परिजनों से भी चोरी के संबंध में जानकारी ली। परिजनों के बताए अनुसार पुलिस चोरी के शक में चार मजदूरों को हिरासत में लेकर पूछताछ की है। पवन जी के छोटे भाई हृदेश कुमार सिंह ने चोरी की रिपोर्ट दर्ज करा दी है।
थाना कोतवाली के राजा का बाग निवासी पवन कुमार सिंह नोएडा में सीडीओ के पद पर तैनात हैं। उनके परिवार के लोग राजा का बाग में निवास करते हैं। उनके आवास में पिछले दिनों निर्माण कार्य करने के लिए मजदूरों को लगाया गया था। मंगलवार की रात पवन जी के परिवार के लोग घर में सो रहे थे। रात दो बजे के बाद अज्ञात चोर घर में प्रवेश कर गए। चोरों ने मकान के ऊपरी हिस्से में बने उस कमरे की कुंडी बाहर से बंद कर दी। जिसमें परिवार की महिलायें तथा पुरुष लेटे थे। चोरों ने दूसरे कमरे का ताला तोड़कर प्रवेश कर लिया।
बताते हैं कि इस कमरे में रखी एक अलमारी का चोरों ने किसी तरह ताला खोल लिया। अलमारी में रखी 40 हजार रुपये की नगदी, सोने चांदी के आभूषण चुरा लिए। परिजनों के अनुसार चोर लगभग दो लाख कीमत के आभूषण चुरा ले गए हैं। इसी बीच चोरों की आहट पाकर मकान के नीचे के कमरे में सो रहा पवन जी का छोटा भाई श्यामकांत जाग गया। वह मकान के ऊपरी हिस्से में आया तो चोर छत से कूदकर भाग गए। श्यामकांत ने बंद कमरे की कुंडी खोलकर परिजनों को बाहर निकाला। परिजनों ने चोरी की पुलिस को सूचना दे दी। पवन जी को भी परिजनों ने चोरी हो जाने की सूचना रात में ही फोन से दे दी। पवन जी ने एस पी नितिन तिवारी को अपने आवास में चोरी हो जाने की सूचना दी। आईएएस के मकान में चोरी की जानकारी होते ही पुलिस में हड़कंप मच गया। सीओ सिटी आरके मिश्रा मौके पर आ गए। पुलिस ने परिजनों से भी चोरी के संबंध में जानकारी ली। परिजनों के बताए अनुसार पुलिस चोरी के शक में चार मजदूरों को हिरासत में लेकर पूछताछ की है। पवन जी के छोटे भाई हृदेश कुमार सिंह ने चोरी की रिपोर्ट दर्ज करा दी है।
रविवार, 27 नवंबर 2011
उस्ताद सुलतान खान का निधन
जाने माने सारंगी वादक और शास्त्रीय गायक उस्ताद सुलतान खान का रविवार को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। खान 71 साल के थे और पिछले दो महीने से बीमार चल रहे थे। वे अपने पीछे परिवार में संगीत की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र साबिर खान को छोड़ गए हैं। उस्ताद खान को वर्ष 2010 में देश के प्रतिष्ठित पद्म भूषण सम्मान से नवाजा गया था।
मीठे साजों में शुमार सारंगी के फनकार खान ने 'पिया बसंती रे' और 'अलबेला सजन आयो रे' जैसे मशहूर गीतों में भी अपनी आवाज दी। उनके परिवार के सदस्यों ने कहा कि पद्म भूषण से सम्मानित खान जोधपुर के सारंगी वादकों के परिवार से ताल्लुक रखते थे। वह पिछले कुछ समय से डायलिसिस पर थे। उन्हें कल जोधपुर में सुपुर्द-ए-खाक किया जाएगा।
सारंगी वादन के क्षेत्र में नई जान फूंकने का श्रेय खान को ही जाता है। उनकी अपने वाद्य पर गजब की पकड़ थी लेकिन उनकी आवाज भी उतनी ही सुरीली थी। वह 11 वर्ष की आयु में ही पंडित रविशंकर के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुति दे चुके थे। यह पेशकश उन्होंने वर्ष 1974 में जॉर्ज हैरीसन के 'डार्क हॉर्स वर्ल्ड टूर' में दी थी। खान राजस्थान के सारंगी वादकों के परिवार में जन्मे। शुरुआत में उन्होंने अपने पिता उस्ताद गुलाम खान से तालीम ली। बाद में उन्होंने इंदौर घराने के जाने माने शास्त्रीय गायक उस्ताद अमीर खां से संगीत के हुनर सीखे।
खुद को सारंगी वादक के तौर पर स्थापित करने के बाद उस्ताद सुल्तान खान ने लता मंगेशकर, खय्याम, संजय लीला भंसाली जैसी फिल्म जगत की हस्तियों और पश्चिमी देशों के संगीतकारों के साथ काम किया।
मीठे साजों में शुमार सारंगी के फनकार खान ने 'पिया बसंती रे' और 'अलबेला सजन आयो रे' जैसे मशहूर गीतों में भी अपनी आवाज दी। उनके परिवार के सदस्यों ने कहा कि पद्म भूषण से सम्मानित खान जोधपुर के सारंगी वादकों के परिवार से ताल्लुक रखते थे। वह पिछले कुछ समय से डायलिसिस पर थे। उन्हें कल जोधपुर में सुपुर्द-ए-खाक किया जाएगा।
सारंगी वादन के क्षेत्र में नई जान फूंकने का श्रेय खान को ही जाता है। उनकी अपने वाद्य पर गजब की पकड़ थी लेकिन उनकी आवाज भी उतनी ही सुरीली थी। वह 11 वर्ष की आयु में ही पंडित रविशंकर के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुति दे चुके थे। यह पेशकश उन्होंने वर्ष 1974 में जॉर्ज हैरीसन के 'डार्क हॉर्स वर्ल्ड टूर' में दी थी। खान राजस्थान के सारंगी वादकों के परिवार में जन्मे। शुरुआत में उन्होंने अपने पिता उस्ताद गुलाम खान से तालीम ली। बाद में उन्होंने इंदौर घराने के जाने माने शास्त्रीय गायक उस्ताद अमीर खां से संगीत के हुनर सीखे।
खुद को सारंगी वादक के तौर पर स्थापित करने के बाद उस्ताद सुल्तान खान ने लता मंगेशकर, खय्याम, संजय लीला भंसाली जैसी फिल्म जगत की हस्तियों और पश्चिमी देशों के संगीतकारों के साथ काम किया।
फिल्म 'हम दिल दे चुके सनम' में आपका गया हुआ 'अलबेला सजन घर आयो री' बेहद मकबूल हुआ था ... इस गाने में आपने शंकर महादेवन के साथ जुगलबंदी की थी !
लीजिये पेश है उनका एक ओर बेहद मकबूल गीत ...
"कटे नाही रात मोरी ... पिया तोरे कारण ..."
मैनपुरी के सभी संगीत प्रेमियों की ओर से खान साहब को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !
शनिवार, 26 नवंबर 2011
२६/११ की तीसरी बरसी - बस इतना याद रहे ... एक साथी और भी था ...
२६/११ के सभी अमर शहीदों को सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से शत शत नमन !
रविवार, 20 नवंबर 2011
शेर ऐ मैसूर के जन्मदिन पर विशेष
'मैसूर के शेर' के नाम से मशहूर और कई बार अंग्रेजों को धूल चटा देने वाले टीपू सुल्तान राकेट के अविष्कारक तथा कुशल योजनाकार भी थे।
उन्होंने अपने शासनकाल में कई सड़कों का निर्माण कराया और सिंचाई व्यवस्था के भी पुख्ता इंतजाम किए। टीपू ने एक बांध की नींव भी रखी थी। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने टीपू सुल्तान को राकेट का अविष्कारक बताया था। [देवनहल्ली वर्तमान में कर्नाटक का कोलर जिला] में 20 नवम्बर 1750 को जन्मे टीपू सुल्तान हैदर अली के पहले पुत्र थे।
इतिहासकार जीके भगत के अनुसार बहादुर और कुशल रणनीतिकार टीपू सुल्तान अपने जीते जी कभी भी ईस्ट इंडिया साम्राज्य के सामने नहीं झुके और फिरंगियों से जमकर लोहा लिया। मैसूर की दूसरी लड़ाई में अंग्रेजों को खदेड़ने में उन्होंने अपने पिता हैदर अली की काफी मदद की।
टीपू ने अपनी बहादुरी के चलते अंग्रेजों ही नहीं, बल्कि निजामों को भी धूल चटाई। अपनी हार से बौखलाए हैदराबाद के निजाम ने टीपू से गद्दारी की और अंग्रेजों से मिल गया।
मैसूर की तीसरी लड़ाई में अंग्रेज जब टीपू को नहीं हरा पाए तो उन्होंने मैसूर के इस शेर के साथ मेंगलूर संधि के नाम से एक सममझौता कर लिया, लेकिन फिरंगी धोखेबाज निकले। ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद के निजाम के साथ मिलकर चौथी बार टीपू पर जबर्दस्त हमला बोल दिया और आखिरकार 4 मई 1799 को श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए टीपू शहीद हो गए।
मैसूर के इस शेर की सबसे बड़ी ताकत उनकी रॉकेट सेना थी। रॉकेटों के हमलों ने अंग्रेजों और निजामों को तितर-बितर कर दिया था। टीपू की शहादत के बाद अंग्रेज रंगपट्टनम से निशानी के तौर पर दो रॉकेटों को ब्रिटेन स्थित वूलविच म्यूजियम आर्टिलरी गैलरी में प्रदर्शनी के लिए ले गए।
भारत माता के इस 'शेर' को सभी मैनपुरी वासीयों का शत शत नमन !
सोमवार, 14 नवंबर 2011
बाल दिवस के २ अलग अलग रूप
आज बाल दिवस है ... पर इतने सालों के बाद भी पूरे देश में ... यह सामान रूप से नहीं मनाया जाता ... २ चित्र दिखता हूँ आपको ... अपनी बात सिद्ध करने के लिए ...
साफ़ साफ़ समझ में आता है कि इस में किसकी गलती है ... एक जगह सारे तामझाम किये जाते है इस सालाना दिखावे के लिए वही दूसरी किसको भी इतनी फुर्सत नहीं है कि थोडा सा दिखावा ही कर जाता इन बच्चो के सामने ...
बुधवार, 9 नवंबर 2011
आज के ज़माने की A B C D
आज के ज़माने की A B C D |
आज अमित कुमार श्रीवास्तव जी की फेसबुक प्रोफाइल पर यह चित्र देखा तो सोचा आप सब को भी यहाँ दिखा दूँ ... आपका भी नया ज्ञान मिल जाए और हमारी भी एक पोस्ट तैयार हो जाए ... है कि नहीं ???
मंगलवार, 8 नवंबर 2011
हमारा नया रूप
लीजिये साहब पेश है हमारा नया अवतार एक कार्टून के रूप में ... सुरेश शर्मा जी कार्टूनिस्ट और उनके पुत्र सैम ने अपना जादू चला हमारा रूप बदला है ... आप भी देखिये और अपनी अपनी राय दीजिये ...
शनिवार, 5 नवंबर 2011
महान गायक भूपेन हजारिका का निधन
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . .. . . .
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई, निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यूँ. . . .
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . .
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..
अनपढ़ जन अक्षरहीन अनगिन जन खाद्यविहीन निद्रवीन देख मौन हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . .
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..
व्यक्ति रहित व्यक्ति केन्द्रित सकल समाज व्यक्तित्व रहित निष्प्राण समाज को छोडती न क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . .
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..
रुतस्विनी क्यूँ न रही ? तुम निश्चय चितन नहीं प्राणों में प्रेरणा प्रेरती न क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . .
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..
उन्मद अवनी कुरुक्षेत्र बनी गंगे जननी नव भारत में भीष्म रूपी सूत समरजयी जनती नहीं हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . .
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..
------------------------------------------------------------------
महान गायक भूपेन हजारिका नहीं रहे। मुंबई के एक अस्पताल में शनिवार को उनका निधन हो गया। हजारिका पिछले काफी समय से बीमार थे और यहां अस्पताल में भर्ती थे।
आपको सभी मैनपुरी वासियों की ओर से शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !
गुरुवार, 3 नवंबर 2011
१०५ वी जयंती पर विशेष - आवाज अलग, अंदाज अलग... - पृथ्वीराज कपूर
3 November 1906 – 29 May 1972 |
पृथ्वीराज कपूर की संवाद अदायगी की आज भी लोग दाद देते हैं, हालांकि कई बार उन्हें अलग आवाज की वजह से परेशान भी होना पड़ा..
जब 1931 में फिल्मों ने बोलना शुरू किया, तो फिल्म 'आलम आरा' में पृथ्वीराज कपूर की आवाज को लोगों ने दोष-युक्त बताया। बाद में वे लोग ही उनकी संवाद अदायगी के कायल हो गये। पृथ्वीराज कपूर ने जब फिल्मों में प्रवेश किया, तब फिल्में मूक होती थीं। मूक फिल्मों के इस दौर में कलाकार की आवाज के बजाय इस बात को महत्व दिया जाता था कि वह दिखने में कैसा है और उसकी भाव-भंगिमा कैसी है? तब सिर्फ सुंदरता पर ही नहीं, इस बात पर भी ध्यान दिया जाता था कि उसके शरीर की बनावट कैसी है और यदि वह ठीक डीलडौल का है, तो उसे प्रभावशाली माना जाता था।
पृथ्वीराज कपूर का जन्म अविभाजित भारत के पेशावर में 3 नवंबर 1906 को हुआ था। घर में किसी चीज की कमी नहीं थी। हां, एक दुख उन्हें तीन साल की उम्र में जरूर मिला और वह यह कि उनकी मां दुनिया से चल बसीं। पेशावर से ही उन्होंने ग्रेजुएशन किया। स्कूल और कॉलेज के समय से ही उनका नाटकों में मन लगने लगा था। स्कूल में आठ साल की उम्र में अभिनय किया और कॉलेज में नाटक 'राइडर्स टू द सी' में मुख्य महिला चरित्र निभाया। रंगमंच को उन्होंने अपनाया लाहौर में रहते हुए, लेकिन पढ़े-लिखे होने के कारण उन्हें नाटक मंडली में काम नहीं मिला।
पृथ्वीराज कपूर अच्छे और संस्कारी खानदान से थे न कि अखाड़े से, लेकिन डीलडौल में किसी पहलवान से कम नहीं थे। शारीरिक डीलडौल और खूबसूरती की बदौलत 1929 में इंपीरियल कंपनी ने उन्हें अपनी मूक फिल्म 'चैलेंज' में काम दिया। इसके कुछ समय बाद ही बोलती फिल्मों का दौर शुरू हो गया। मूक फिल्मों में काम करने वाले कई कलाकारों के पास संवाद अदायगी के हुनर और अच्छी आवाज का अभाव था। पृथ्वीराज कपूर भी अपवाद नहीं थे। 'आलम आरा' में पृथ्वीराज कपूर की आवाज को आलोचकों ने दोष-युक्त बताया, लेकिन पृथ्वीराज कपूर ने हार नहीं मानी। उन्होंने इस दोष को सुधारा और अपनी दमदार आवाज के बल पर लगभग चालीस साल इंडस्ट्री में टिके रहे। बीच में खुद की नाटक कंपनी बनाई और लगे पूरी दुनिया घूमने।
पृथ्वीराज कपूर की सफलता की एक खास वजह थी उनका राजसी व्यक्तित्व। कई भूमिकाओं में तो उनके राजसी व्यक्तित्व के सामने उनकी आवाज गौण हो गई। 'विद्यापति', 'सिकंदर', 'महारथी कर्ण, 'विक्रमादित्य' जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं।
अकबर के रूप में |
अकबर की भूमिका अनेक कलाकारों ने की है, लेकिन उनकी कभी चर्चा नहीं हुई। अकबर का नाम आते ही सिनेमा प्रेमियों की नजर के सामने आ जाते हैं 'मुगल-ए-आजम' के पृथ्वीराज कपूर। यही आलम उनके द्वारा निभाई गई सिकंदर की भूमिका का भी है।
सिकंदर के रूप में |
1968 में पृथ्वीराज कपूर अभिनीत फिल्म 'तीन बहूरानियां' रिलीज हुई। एस. एस. वासन इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक थे। उनकी भूमिका एक परिवार के सर्वेसर्वा की थी, इसीलिए वासन ने पृथ्वीराज कपूर का चुनाव किया। इस भूमिका में उनकी आवाज से कोई परेशानी न हो, इसलिए उनके संवाद अभिनेता विपिन गुप्ता की आवाज में डब करवाए गए।
1957 में आई फिल्म 'पैसा' का निर्देशन करने वाले पृथ्वीराज कपूर ने तमाम चर्चित नाटकों में अभिनय किया। उन्होंने कुल 82 फिल्मों में अभिनय किया। अपने कॅरियर के दौरान ही उन्होंने मुंबई में 1944 में पृथ्वी थियेटर की स्थापना की। उन्हें राज्यसभा का सदस्य भी बनाया गया। 1972 में उन्हें सिनेमा के क्षेत्र में योगदान के लिए दादा साहब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया। आज पृथ्वीराज कपूर को गुजरे हुए 38 साल से अधिक वक्त हो चुके हैं। वह 29 मई 1972 को इस दुनिया से चले गए, लेकिन आज भी जब हम उनकी फिल्में देखते हैं, तो यह नहीं लगता कि पृथ्वीराज कपूर हमसे दूर चले गए हैं।
(जागरण से साभार)
आज उनकी १०५ वी जयंती के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते है !
मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011
सोमवार, 24 अक्टूबर 2011
शनिवार, 15 अक्टूबर 2011
गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011
आजादी का अनोखा सपना बुना था दुर्गा भाभी ने
स्वतंत्रता संग्राम की मशाल थामने वाले हाथ एक ओर जहां चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, यतीन्द्रनाथ दास और राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों के थे तो दुर्गा भाभी और सुशीला जी जैसी वीरांगनाओं के भी। पढि़ये एक निर्भीक, साहसी और क्रांति समर्पित महिला की शौर्यगाथा ... बरेली के श्री सुधीर विद्यार्थी जी के शब्दों में ...
लखनऊ की एक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्था है 'लखनऊ माण्टेसरी इंटर कालेज'। इसकी स्थापना प्रसिद्ध क्रांतिकारी दुर्गा भाभी ने आजादी के बाद की थी। लखनऊ वे 1940 में ही आ गयी थीं। मॉडल हाउस में जहां श्रीयुत मोहनलाल गौतम रहा करते थे, उस मकान के बीच का हिस्सा उन्होंने किराए पर ले लिया और कैण्ट रोड पर पांच बच्चों को लेकर 'लखनऊ माण्टेसरी' की स्थापना की थी। यह स्कूल ही आज लखनऊ माण्टेसरी इंटर कालेज के नाम से जाना जाता है। भाभी के निधन के बाद इस विद्यालय के प्रांगण में भाभी की सीमेण्ट की आवक्ष प्रतिमा लग गई है। मैं भाभी के इस स्मारक के सामने खड़ा उनकी स्मृतियों में खो जाता हूं...
जब भगत सिंह की 'पत्नी' बनीं दुर्गा भाभी
क्रांतिकारी आन्दोलन में भाभी अपने पति भगवतीचरण वोहरा के साथ सक्रिय थीं। भगवतीचरण देश की मुक्ति के लिए चलाए जा रहे सशस्त्र क्रांतिकारी संग्राम के मस्तिष्क थे। वे बहुत बौद्धिक क्रांतिकारी थे। उन्होंने 'नौजवान भारत सभा' के घोषणापत्र के साथ ही गांधी जी के 'कल्ट ऑफ द बम' के जवाब में 'बम का दर्शन' जैसे तर्कपूर्ण दस्तावेजों को लिपिबद्ध किया था। क्रांतिकारी दल को वे भरपूर आर्थिक मदद भी देते थे। जिन दिनों साइमन कमीशन भारत आया तो देश भर में उसके विरोध में जबरदस्त प्रदर्शन हुए। ऐसे ही एक अभियान का नेतृत्व करते हुए लाला लाजपत राय पर पुलिस की लाठियां पड़ीं जिसमें वे बुरी तरह घायल होकर शहीद हो गए। चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में भगतसिंह और राजगुरु ने लाहौर की धरती पर पुलिस अफसर सॉण्डर्स को मार कर इसका बदला ले लिया। इस घटना से देश मानो सोते से जाग उठा। अब समस्या यह थी कि भगतसिंह को लाहौर से बाहर किस तरह निकाला जाए। भगतसिंह अपने केश कटवाकर एक सिख युवक से सिर पर हैट लगाए 'साहब' में तब्दील हो गए और दुर्गा भाभी अपने तीन वर्षीय बेटे शची को गोद में लेकर भगतसिंह के साथ उनकी पत्नी के रूप में कलकत्ता निकल गई। यह बहुत साहसपूर्ण कार्य था जिसे भाभी ने अत्यन्त सूझबूझ से सम्पन्न कर डाला। भगवतीचरण भी भाभी का यह कृत्य देखकर दंग रह गए। उनके मुंह से एकाएक निकला- 'तुम्हें आज समझा।'
कलकत्ता पहुंचकर भगतसिंह चुप नहीं बैठे। यहां यतीन्द्रनाथ दास से मिलकर दीर्घकालीन योजनाएं बनाई और ब्रिटिश सरकार के जनविरोधी कानूनों को पास किए जाने के विरोध में 8 अप्रैल 1929 को संसद भवन में उन्होंने बटुकेश्वर दत्त क साथ मिलकर बम विस्फोट करने के साथ ही क्रांतिकारी दल की नीतियों और कार्यक्रमों में छपे हुए पर्चे फेंके और अपनी गिरफ्तारी दे दी। कौन जाने कि इस अभियान पर जाने से पहले भाभी और सुशीला दीदी ने अपने रक्त से तिलक कर उन्हें अंतिम विदाई दी थी। इसके बाद भगतसिंह वाले मुकदमें में गिरफ्तार क्रांतिकारियों की मदद के लिए चन्दा मांगने वाली 40-50 महिलाओं में भाभी भी शामिल रहती थीं। जो मिलता उससे क्रांतिकारियों के लिए सामान आदि खरीदा जाता। कोई पैसा इधर-उधर हो जाए, यह संभव नहीं था। दल के संकट के समय भाभी यहां से वहां संदेश पहुंचाने का काम भी बड़ी सतर्कता से करती रहीं।
क्रांतिकारी दल की ओर से भगतसिंह को जबरदस्ती जेल से छुड़ाने की योजना बनी तो उस हमले में प्रयुक्तदल की ओर से भगतसिंह को जबरदस्ती जेल से छुड़ाने की योजना बनी किंतु उस हमले में प्रयुक्त किये जाने वाले बमों का रावी तट पर परीक्षण करते हुए दुर्घटनावश भगवतीचरण शहीद हो गए। वह 28 मई 1930 का दिन था जब भाभी ने चुपचाप अपना सुहाग पोंछ डाला था। उन क्षणों में भैया आज़ाद ने उन्हें धैर्य बंधाते हुए कहा था- 'भाभी, तुमने देश के लिए अपना सर्वस्व दे दिया है। तुम्हारे प्रति हम अपने कर्तव्य को कभी नहीं भूलेंगे।'
भैया आजाद का स्वर सुनकर भाभी के होठों पर दृढ़ संकल्प की एक रेखा खिंच गई थी उस दिन। वे उठ बैठीं। बोलीं- 'पति नहीं रहे, लेकिन दल का काम रुकेगा नहीं। मैं करूंगी..।' और वे दूने वेग से क्रांति की राह पर चल पड़ीं। अपने तीन साल के बेटे की परवाह नहीं की। वे बढ़ती गई, जिस राह पर जाना था उन्हें। रास्ते में दो पल बैठकर कभी सुस्ताई नहीं, छांव देखकर कहीं ठहरी नहीं। चलती रहीं- निरन्तर। जैसे चलना ही उनके लिए जीवन का ध्येय बन गया हो। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को जेल से छुड़ाने के लिए आजाद चले तो भाभी ने उनसे आग्रह किया- 'संघर्ष में मुझे भी साथ चलने दें, यह हक सर्वप्रथम मेरा है।' आजाद ने इसकी स्वीकृति नहीं दी। वह योजना भी कामयाब नहीं हो पाई। कहा जाता है कि भगतसिंह ने स्वयं ही इसके लिए मना कर दिया था।
और गोली चला दी भाभी ने
भाभी जेल में भगतसिंह से मिलीं। फिर लाहौर से दिल्ली पहुंची। गांधी जी वहीं थे। यह कराची कांग्रेस से पहले की बात है। भगतसिंह की रिहाई के सवाल को लेकर भाभी गांधी जी के पास गई। रात थी। कोई साढ़े ग्यारह का वक्त था। बैठक चल रही थी। नेहरू जी वहीं घूम रहे थे। वे सुशीला दीदी और भाभी को लेकर अंदर गए। गांधी जी ने देखा तो कहा- 'तुम आ गई हो। अपने को पुलिस में दे दो। मैं छुड़ा लूंगा।'
गांधी जी ने समझा कि वे अपने संकट से मुक्ति पाने आई हैं। भाभी तुरंत बोलीं- 'मैं इसलिए नहीं आई हूं। दरअसल, मैं चाहती हूं कि जहां आप अन्य राजनीतिक बंदियों को छुड़ाने की बात कर रहे हैं वहां भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को छुड़ाने की शर्त भी वायसराय के सामने रखें।'
गांधी जी इसके लिए सहमत नहीं थे। भाभी सारी स्थिति समझ गई और उन्हें प्रणाम करके वापस चली आई। फिर वे शची को लेकर बम्बई पहुंचीं। वहां पृथ्वी सिंह आजाद और सुखदेव राज के साथ लेमिंग्टन रोड पर गवर्नर पर गोलियां चलाई। पुलिस कोई भेद न पा सकी। ड्राइवर के बयानों से पता चला कि गोलियां चलाने वालों में लम्बे बालों वाला लड़का था। भाभी के बाल लम्बे थे ही। कद छोटा-सा। किसी को अनुमान न था कि इस कांड के पीछे कोई स्त्री भी हो सकती है। खोजबीन में लम्बे बालों को रखने के शौकीन युवक पकड़कर पीटे गए। उसके बाद पता नहीं कैसे भाभी को फरार घोषित कर दिया गया। वारंट में उनका नाम लिखा था 'शारदा बेन' और उनके पुत्र शची का 'हरीश'। लाहौर के भाभी के तीन मकान जब्त हो गए थे। इलाहाबाद के भी दो। भगवतीचरण के वारंट पर पहले ही सब कुछ कुर्क हो चुका था। श्वसुर ने जो 40 हजार रुपए दिए थे, उनमें से कुछ क्रांतिकारी कार्यो पर व्यय हो गए थे। बाकी जिस परिचित सज्जान के यहां रखे गए थे वे मिले नहीं। कितना कुछ सहा उन दिनों भाभी ने। बताती थीं मुझे कि उन्हीं दिनों राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन ने उन्हें बहुत स्नेहपूर्वक कहा था- 'बेटी, मेरे यहां आकर रहो।' भाभी उनके पास 5-6 महीने रहीं। फिर चली आई। अपने को गिरफ्तार कराया। बयान देने के लिए उन पर बहुत जोर डाला गया। लेकिन भाभी झुकने वाली कहां थीं? हार मान गए पुलिस वाले।
भाभी को देखता था तो बार-बार होठों पर आ जाता था- 'भाभी एक अनवरत यात्रा हैं।'
पर इस दीर्घ यात्रा में एकाएक 14 अक्टूबर 1999 को विराम लग गया..।
आजाद भारत में भाभी को आदर और उपेक्षा दोनों मिले। सरकारों ने उन्हें पैसे से तौलना चाहा। कई वर्ष पहले पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री दरबारा सिंह ने उन्हें 51 हजार रुपए भेंट किए। भाभी ने वे रुपए वहीं वापस कर दिए। कहा- 'जब हम आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे, उस समय किसी व्यक्तिगत लाभ या उपलब्धि की अपेक्षा नहीं थी। केवल देश की स्वतंत्रता ही हमारा ध्येय था। उस ध्येय पथ पर हमारे कितने ही साथी अपना सर्वस्व न्योछावर कर गए, शहीद हो गए। मैं चाहती हूं कि मुझे जो 51 हजार रुपए दिए गए हैं, उस पैसे से यहां शहीदों का एक बड़ा स्मारक बनाने की शुरुआत की जाए जिससे क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास का अध्ययन और अध्यापन हो क्योंकि देश की नई पीढ़ी को इसकी बहुत आवश्यकता है।
देश के स्वतंत्र होने के बाद की राजनीति भाभी को कभी रास नहीं आई। अनेक शीर्ष नेताओं से निकट संपर्क होने के बाद भी वे संसदीय राजनीति से दूर बनी रहीं। 1937 की बात है, जब कुछ क्रांतिकारी साथियों ने गाजियाबाद से तार भेजकर भाभी से चुनाव लड़ने की प्रार्थना की। भाभी ने तार से ही उत्तर दिया- 'चुनाव में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। अत: लड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता।'
मुझे स्मरण है कि एक बार मैंने लिखने के उद्देश्य से भाभी से कुछ जानना चाहा तो वे बोली थीं- 'भगवतीचरण (पति) के संबंध में छोड़कर बाकी सब कुछ पूछ सकते हो। उनकी चर्चा होने पर मैं कई दिन सामान्य नहीं रह पाती।' पर जब बातचीत चली तो भाभी ने भगवती भाई के अनेक मार्मिक संस्मरण मुझे सुना दिए।
भाभी से बातें करके मैंने भारतीय क्रांतिकारी संग्राम की कितनी ही दुर्लभ स्मृतियों को जाना-सुना है। ऐसा करते हुए कई बार मैंने उन्हें रुलाया तो अनेक बार वे दर्द की गलियों में मुझे भी ले जाती रही हैं। भगतसिंह वाले मामले में जब राजनीतिक कैदियों के लिए विशेष व्यवहार की मांग को लेकर क्रांतिकारियों ने लम्बी भूख हड़ताल की तब उसमें यतीन्द्रनाथ दास 63 दिन तिन-तिल जलकर शहीद हो गए। इन्हीं यतीन्द्र की बलिदान अर्धशती पर लखनऊ के बारादरी में जब भाभी ने भरी आंखों से यतीन्द्र की याद में एक डाक टिकट जारी किया तो वह दृश्य इतना मार्मिक बन गया था कि उसे मैं आज तक भूला नहीं हूं..
भाभी ने देश और समाज की मुक्ति में ही अपनी मुक्ति का सपना देखा था। उसके लिए उन्होंने अथक संघर्ष किया। अबोध बेटे के भविष्य की चिंता नहीं की और पति का बलिदान भी उन्हें कर्त्तव्य पथ से विचलित नहीं कर सका। इंकलाब की आग जो उनके भीतर धधकी, वह फिर बुझी नहीं कभी। मैंने उस आंच को निकट से महसूस किया है..
आज भाभी की स्मृतियों को बहुत आस्था के साथ नई पीढ़ी को बताने की कोशिश करता हूं तो कई जगह सवाल आता है- 'दुर्गा भाभी कौन?' मैं लज्जित भी होता हूं सुनकर। फिर गर्व के साथ मुक्ति-युद्ध की उस वीरांगना की जीवनकथा को बांचता हूं एक कथावाचक की भांति। कोई तो इसे सुने!
[सुधीर विद्यार्थी]
6, पवन विहार फेज-5 विस्तार,
पो. रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली
सभी मैनपुरी वासियों की ओर से अमर क्रांतिकारी दुर्गा भाभी को शत
शत नमन और हार्दिक विनम्र श्रद्धांजलि !
बुधवार, 5 अक्टूबर 2011
ऐसे भगाएं एसिडिटी
त्योहारों का मौसम शुरू हो चुका है। ऐसे में तीखा, चटपटा और मसालेदार खाना सभी को बहुत भाता है। भूख न होने पर भी लोग जरूरत से ज्यादा खा लेते हैं। नतीजा एसिडिटी यानी पेट में गैस बनने की समस्या। मामूली जान पड़ने वाली यह समस्या कभी-कभी गंभीर हो जाती है।
लक्षण : सीने और गले में जलन, मुंह में खत्र पानी आना, घबराहट होना, उल्टी आना, खाना खाने के बाद पेट भारी लगना, खाना हजम न होना, बेचैनी होना, भूख कम लगना, पेट साफ न होना। कई बार सांस लेने में भी कठिनाई होती है।
घरेलू उपाय :
-प्रतिदिन सुबह खाली पेट एक से दो गिलास पानी पिएं।
-रोजमर्रा के आहार में छाछ और दही शामिल करें। ताजे खीरे का रायता एसिडिटी का बेहतरीन उपचार है।
-हरी पत्तेदार सब्जियां और अंकुरित अनाज खूब खाएं।
-एक कप पानी में कुछ बूंदें पुदीने की रस की डालकर पिएं।
-खाली पेट नारियल पानी पिएं
-आइसक्रीम खाने से राहत मिलती है।
-खाने के बाद मुंह में एक लौंग रखें।
-केला खाने से आराम मिलता है।
-धूम्रपान बिल्कुल मत करें।
-सोने के ठीक पहले खाना न खाएं।
-खाना खाने के बाद थोड़ा सा गुड़ खाने की आदत डालें।
इस उम्मीद के साथ कि यह उपाय आपके लाभदायक सिद्ध होंगे ... और आप एसिडिटी पर विजय पायेंगे ...
आप सब को सपरिवार विजयदशमी की बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनयें !
रविवार, 2 अक्टूबर 2011
जय माँ दुर्गा - देखिये कलकत्ता की दुर्गा पूजा
मेरी पैदाइश और परवरिश दोनों कलकत्ता की है ! १९९७ में कलकात्ता छोड़ कर मैं मैनपुरी आया और तब से यहाँ का हो कर रह गया हूँ ! आज भी अकेले में कलकत्ता की यादो में खो सा जाता हूँ | कलकत्ता बहुत याद आता है , खास कर दुर्गा पूजा के मौके पर, इस लिए सोचा आज आप को अपने कलकत्ता या यह कहे कि बंगाल की दुर्गा पूजा के बारे में कुछ बताया जाये !
यूँ तो महाराष्ट्र की गणेश पूजा पूरे विश्व में मशहूर है, पर बंगाल में दुर्गापूजा के अवसर पर गणेश जी की पत्नी की भी पूजा की जाती है।
जानिए और क्या खास है यहां की पूजा में।
[षष्ठी के दिन]
मां दुर्गा का पंडाल सज चुका है। धाक, धुनुचि और शियूली के फूलों से मां की पूजा की जा रही है। षष्ठी के दिन भक्तगण पूरे हर्षोल्लास के साथ मां दुर्गा की प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। यह दुर्गापूजा का बोधन, यानी शुरुआत है। इसी दिन माता के मुख का आवरण हटाया जाता है।
[कोलाबोऊ की पूजा]
सप्तमी के दिन दुर्गा के पुत्र गणेश और उनकी पत्नी की विशेष पूजा होती है। एक केले के स्तंभ को लाल बॉर्डर वाली नई सफेद साड़ी से सजाकर उसे उनकी पत्नी का रूप दिया जाता है, जिसे कोलाबोऊ कहते हैं। उन्हें गणेश की मूर्ति के बगल में स्थापित कर पूजा की जाती है। साथ ही, दुर्गा पूजा के अवसर एक हवन कुंड बनाया जाता है, जिसमें धान, केला आम, पीपल, अशोक, कच्चू, बेल आदि की लकडि़यों से हवन किया जाता है। इस दिन दुर्गा के महासरस्वती रूप की पूजा होती है।
[108 कमल से पूजा]
माना जाता है कि अष्टमी के दिन देवी ने महिषासुर का वध किया था, इसलिए इस दिन विशेष पूजा की जाती है। 108 कमल के फूलों से देवी की पूजा की जाती है। साथ ही, देवी की मूर्ति के सामने कुम्हरा (लौकी-परिवार की सब्जी) खीरा और केले को असुर का प्रतीक मानकर बलि दी जाती है। संपत्ति और सौभाग्य की प्रतीक महालक्ष्मी के रूप में देवी की पूजा की जाती है।
[संधि पूजा]
अष्टमी तिथि के अंतिम 24 मिनट और नवमी तिथि शुरू होने के 24 मिनट, यानी कुल 48 मिनट के दौरान संधि पूजा की जाती है। 108 दीयों से देवी की पूजा की जाती है और नवमी भोग चढ़ाया जाता है। इस दिन देवी के चामुंडा रूप की पूजा की जाती है। माना जाता है कि इसी दिन चंड-मुंड असुरों का विनाश करने के लिए उन्होंने यह रूप धारण किया था।
[सिंदूर खेला व कोलाकुली]
दशमी पूजा के बाद मां की मूर्ति का विसर्जन होता है। श्रद्धालु मानते हैं कि मां पांच दिनों के लिए अपने बच्चों, गणेश और कार्तिकेय के साथ अपने मायके, यानी धरती पर आती हैं और फिर अपनी ससुराल, यानी कैलाश पर्वत चली जाती हैं। विसर्जन से पहले विवाहित महिलाएं मां की आरती उतारती हैं, उनके हाथ में पान के पत्ते डालती हैं, उनकी प्रतिमा के मुख से मिठाइयां लगाती हैं और आंखों (आंसू पोंछने की तरह) को पोंछती हैं। इसे दुर्गा बरन कहते हैं। अंत में विवाहित महिलाएं मां के माथे पर सिंदूर लगाती हैं। फिर आपस में एक-दूसरे के माथे से सिंदूर लगाती हैं और सभी लोगों को मिठाइयां खिलाई और बांटी जाती है। इसे सिंदूर खेला कहते हैं। वहीं, पुरुष एक-दूसरे के गले मिलते हैं, जिसे कोलाकुली कहते हैं। यहाँ सब एक दुसरे को विजय दशमी की बधाई 'शुभो बिजोया' कह कर देते है | यहाँ एक दुसरे को रसगुल्लों से भरी हंडी भेंट करना का भी प्रचालन है |
[मां की सवारी]
वैसे तो हम सब जानते है कि माँ दुर्गा सिंह की सवारी करती हैं, पर बंगाल में पूजा से पहेले और बाद में माँ की सवारी की चर्चा भी जोरो से होती है | यह माना जाता है कि यह उनकी एक अतरिक्त सवारी है जिस पर वो सिंह समेत सवार होती हैं |
जैसी कि जानकारी मिली है इस वर्ष देवी दुर्गा हाथी पर सवार होकर आ रही हैं और पालकी की सवारी कर लौटेंगी।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
मेरा परिचय
मेरे अन्य ब्लॉग
ब्लॉग आर्काइव
-
▼
2011
(100)
-
▼
दिसंबर
(9)
- नव वर्ष २०१२ की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
- जन-गण-मन के 100 साल
- चला गया कला का कोहिनूर ... सत्यदेव दुबे (१९३६ - २०११)
- सभी को क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनायें !
- अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान के ...
- रि - पोस्ट विजय दिवस पर विशेष
- डाइबिटिक रेटिनोपैथी हल्के में लेना पड़ेगा भारी
- मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया ... देव आनंद
- ब्लॉगर पवन कुमार जी के पैतृक आवास में चोरी
-
▼
दिसंबर
(9)