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शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

स्व॰ डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी की ११७ वीं जयंती

डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी (जन्म: 6 जुलाई, 1901 - मृत्यु: 23 जून, 1953) महान शिक्षाविद्, चिन्तक और भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में भारतवर्ष की जनता उन्हें स्मरण करती है। एक कट्टर राष्ट्र भक्त के रूप में उनकी मिसाल दी जाती है। भारतीय इतिहास उन्हें एक जुझारू कर्मठ विचारक और चिन्तक के रूप में स्वीकार करता है। भारतवर्ष के लाखों लोगों के मन में एक निरभिमानी देशभक्त की उनकी गहरी छबि अंकित है। वे आज भी बुद्धिजीवियों और मनीषियों के आदर्श हैं। वे लाखों भारतवासियों के मन में एक पथप्रदर्शक एवं प्रेरणापुंज के रूप में आज भी समाये हुए हैं।

जीवन वृत्त

6 जुलाई, 1901 को कलकत्ता के अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार में डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी का जन्म हुआ। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। "होनहार बिरवान के होत चिकने पात पात" कहावत को डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने चरितार्थ किया। बाल्यकाल से ही उनमें अप्रतिम प्रतिभा की छाप दिखने लग गयी थी। कुशाग्र बुद्धि और जन्मजात प्रतिभासम्पन्न डॉ० मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक किया तथा 1921 में बी०ए० की उपाधि प्राप्त की। 1923 में लॉ की उपाधि अर्जित करने के पश्चात् वे विदेश चले गये और 1926 में इंग्लैण्ड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। अपने पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अल्पायु में ही विद्याध्ययन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएँ अर्जित कर ली थीं। शीघ्र ही उनकी ख्याति एक शिक्षाविद् और लोकप्रिय प्रशासक के रूप में चारो ओर फैल गयी। उन्होंने अपने ज्ञानपूर्ण विचारों से तात्कालिक परिदृश्य की ज्वलन्त परिस्थितियों का इतना सटीक विश्लेषण किया कि समाज के हर वर्ग को उनकी कुशाग्र बुद्धि का लोहा मानना पड़ा। उनकी ख्याति और कीर्तिमानों को मान्यता मिली और मात्र 33 वर्ष की अल्पायु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे। एक विचारक तथा प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरन्तर आगे बढ़ती गयी।

राजनीतिक जीवन

तत्कालीन शासन व्यवस्था में सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों के विशद् जानकार के रूप में उन्होंने समाज में अपना विशिष्ट स्थान अर्जित कर लिया था। एक राजनीतिक दल की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के कारण जब बंगाल की सत्ता मुस्लिम लीग की गोद में डाल दी गई और 1938 में आठ प्रदेशों में अपनी सत्ता छोड़ने की आत्मघाती और देश विरोधी नीति अपनायी गयी तब डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने स्वेच्छा से देशप्रेम और राष्ट्रप्रेम का अलख जगाने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश किया और राष्ट्रप्रेम का सन्देश जन-जन में फैलाने की अपनी पावन यात्रा का श्रीगणेश किया। डॉ० मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धान्तवादी थे। इसलिए उन्होंने सक्रिय राजनीति कुछ आदर्शों और सिद्धान्तों के साथ प्रारम्भ की थी। राजनीति में प्रवेश से पूर्व देश सेवा के प्रति उनकी आसक्ति की झलक उनकी डायरी में 07 जनवरी, 1939 को उनके द्वारा लिखे गये निम्न उद्गारों से मिलती है :
हे प्रभु! मुझे निष्ठा, साहस, शक्ति और मन की शान्ति दीजिए,
मुझे दूसरों का भला करने की हिम्मत और दृढ़ संकल्प दीजिए,
मुझे अपना आशीर्वाद दीजिए कि मैं सुख में भी और दुख में भी,
आपको याद करता रहूँ और आपके स्नेह में पलता रहूँ।
हे प्रभु! मुझसे हुई गलतियों के लिये क्षमा कीजिए और मुझे सद्प्रेरणा देते रहिए।
उन्होंने अपना जीवन अक्षरश: इन उद्गारों के अनुरूप व्यतीत किया। सार्वजनिक जीवन में पदार्पण करने के पश्चात् उन्होंने अपनी प्रखर विचारधारा से, सम्मेलनों, जनसमपर्क एवं सभाओं के माध्यम से, अपने ज्वलन्त उद्बोधनों से, जनता के मन में एक नयी ऊर्जा व नये प्राण का संचार किया। उनकी लोकप्रियता और उनकी ख्याति दिनोंदिन बढ़ती गयी। डॉ० मुखर्जी ने यह भाँप लिया था कि यदि मुस्लिम लीग को निरंकुश रहने दिया गया तो उससे बंगाल और हिन्दू हितों को भयंकर क्षति पहुँचेगी। इसलिए उन्होंने मुस्लिम लीग सरकार का तख्ता पलटने का निश्चय किया और बहुत से गैर कांग्रेसी हिन्दुओं की मदद से कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर प्रगतिशील गठबन्धन का निर्माण किया। इस सरकार में वे वित्तमन्त्री बने। इसी समय वे वीर सावरकर के प्रखर राष्ट्रवाद के प्रति आकिर्षत हुए और हिन्दू महासभा में सिम्मलित हुए।
मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का वातावरण दूषित हो रहा था। वहाँ साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी। साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया। उनके प्रयत्नों से हिन्दुओं के हितों की रक्षा हुई। 1942 में जब ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में ठूँस दिया और देश नेतृत्व विहीन और दिशा विहीन नज़र आने लगा उन परिस्थितियों में डॉ० मुखर्जी ने बंगाल के हक मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र देकर भारत को नयी दिशा दी।
डॉ० मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया। डॉ० मुखर्जी ने अल्प आयु में ही बहुत बड़ी राजनैतिक ऊँचाइयों को पा लिया था। भविष्य का भारत उनकी ओर एक आशा भरी दृष्टि से देख रहा था। उस समय लोग यह अनुभव कर रहे थे कि भारत एक संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है। उन्होंने अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति के साथ भारत के विभाजन की पूर्व स्थितियों का डटकर सामना किया। देश भर में विप्लव, दंगा-फसाद, साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने के लिये भाषाई, दलीय आधार पर बलवे की घटनाओं से पूरा देश आक्रान्त था। उधर इन विषम परिस्थितियों में भी डटकर, सीना तानकर "एकला चलो" के सिद्धान्त का पालन करते हुए डॉ० मुखर्जी अखण्ड राष्ट्रवाद का पावन नारा लेकर महासमर में संघर्ष करते रहे। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट हुई। उस समय कांग्रेस का नेतृत्व सामूहिक रूप से आतंकित था। मुस्लिम लीग की हर माँग को पूरा कर उससे छुटकारा पाना चाहता था। लोग आशंकित और भयभीत थे। किन्तु डॉ० श्यामाप्रसाद उस माहौल में चट्टान की तरह अडिग डटे रहे। वे एक मात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने अपने पुरुषार्थ से देश हित की वाणी को शब्द दिया और मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का विरोध किया।

जनसंघ की स्थापना

ब्रिटिश सरकार की भारत विभाजन की गुप्त योजना और षड्यन्त्र को एक कांग्रेस के नेताओं ने अखण्ड भारत सम्बन्धी अपने वादों को ताक पर रखकर स्वीकार कर लिया। उस समय डॉ० मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की माँग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खण्डित भारत के लिए बचा लिया। गान्धी जी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे खण्डित भारत के पहले मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए। उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गयी। संविधान सभा और प्रान्तीय संसद के सदस्य और केन्द्रीय मन्त्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किन्तु उनके राष्ट्रवादी चिन्तन के चलते अन्य नेताओं से मतभेद बराबर बने रहे। फलत: राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने प्रतिपक्ष के सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निर्वहन को चुनौती के रूप में स्वीकार किया और शीघ्र ही अन्य राष्ट्रवादी दलों और तत्वों को मिलाकर एक नई पार्टी बनायी जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बडा दल था। उन्हें पं० जवाहरलाल नेहरू का सशक्त विकल्प माने जाने लगा। अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ का उद्भव हुआ जिसके संस्थापक अध्यक्ष के रूप में डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नाम इतिहास में दर्ज़ हो गया।

संसद में

संसद में उन्होंने सदैव राष्ट्रीय एकता की स्थापना को प्रथम लक्ष्य रखा। संसद में दिये गये अपने भाषण में उन्होंने पुरजोर शब्दों में कहा था कि राष्ट्रीय एकता की शिला पर ही भविष्य की नींव रखी जा सकती है। देश के राष्ट्रीय जीवन में इन तत्वों को स्थान देकर ही एकता स्थापित करनी चाहिए। क्योंकि इस समय इनका बहुत महत्व है। इन्हें आत्म सम्मान तथा पारस्परिक सामंजस्य के साथ सजीव रखने की आवश्यकता है। है। डॉ० मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आज़म) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। ऐसी परिस्थितियों में डॉ० मुखर्जी ने जोरदार नारा बुलन्द किया - "एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान - नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगें।" संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में डॉ० मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तात्कालिन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया। 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार वे भारत के लिये एक प्रकार से शहीद हो गये। डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी के रूप में भारत ने एक ऐसा व्यक्तित्व खो दिया जो हिन्दुस्तान को नयी दिशा दे सकता था।
(जानकारी मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से साभार) 
 आज स्व॰ डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी की ११७ वीं जयंती के अवसर पर हम उन्हें शत शत नमन करते है |

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