नेताजी की मृत्यु १८ अगस्त १९४५ के दिन किसी विमान दुर्घटना में  नहीं हुई थी।
( इस तथ्य को साबित करने के लिए आगे कुछ और तथ्य व चित्र आप सब के सामने रख रहा हूँ, यहाँ यह सपष्ट करना ठीक होगा कि यह सब तथ्य व चित्र श्री जयदीप शेखर के पुराने ब्लॉग से लिए गए है केवल इस उद्देश से कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में जितना ज्यादा से ज्यादा लोगो को पता चल सके उतना हमारे भारत देश का भला होगा  | आज कल जयदीप जी एक नए ब्लॉग पर काम कर रहे है .......वहाँ उन्होंने  नेताजी के विषय में और भी नयी जानकारियां दी है | उनके नए ब्लॉग का लिंक  मैं यहाँ दे रहा हूँ :-   नाज़-ए-हिन्द सुभाष     यहाँ यह भी बता देना उचित रहेगा कि इस से पहले भी २ बार यह जानकारी आप सब के सामने प्रस्तुत कर चूका हूँ पर यह मेरा संकल्प है कि जब तक मैं ब्लोगिंग करता रहूँगा हर साल १८ अगस्त को यह सारे तथ्य आप सब के सामने बार बार लाता रहूँगा !! )
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------  
 
नेताजी  को "मृत" दिखाने के पीछे क्या कारण था?
 
"धुरी  राष्ट्र" के तीनों देश- इटली,  जर्मनी और जापान- साम्राज्य बढाने के लिए  युद्ध कर रहे थे, जबकि नेताजी ने  इनकी मदद ली थी अपने देश को आजाद कराने  के लिए। इस  लिहाज से उनकी हैसियत एक 'स्वतंत्रता  सेनानी' की बनती है। उनपर  अंतर्राष्ट्रीय युद्धापराध का मुकदमा नही चलना  चाहिए था। मगर ब्रिटेन और  अमेरिका ने पहले ही अपनी मंशा जाहिर कर दी थी की  नेताजी पर भी  अंतर्राष्ट्रीय युद्धापराध का मुकदमा चलाया जाएगा। ब्रिटेन  भले भारत को  आजादी देने जा रहा था- फिर भी नेताजी को उसने राष्ट्रद्रोही  घोषित किया.  ब्रिटिश राजमुकुट के खिलाफ बगावत करने के जुर्म में उनपर  मुकदमा चलाने के  लिया वह बेताब था। 
स्तालिन  और तोजो (जापान के सम्राट)  नही चाहते थे की नेताजी ब्रिटिश-अमेरिकी हाथों  में पड़े। स्तालिन नेताजी को  सोवियत संघ में शरण देना तो चाहते थे, मगर  चूँकि वे "मित्र राष्ट्र" में  शामिल हो चुके थे, इसलिए अंदेशा यह था की  ब्रिटेन और अमेरिका उनपर भारी  दवाब बनायेंगे। इसलिए विमान दुर्घटना में  नेताजी को "मृत" दिखाने का नाटक  रचा गया। जब दस्तावेज पर नेताजी को "मृत"  ही दिखा दिया जाएगा, तो भला  ब्रिटेन और अमेरिका स्तालिन से नेताजी को  मांगेंगे कैसे? 
तो  फारमोसा (ताइवान) के ताइपेह हवाई अड्डे से मंचूरिया होते हुए  सोवियत संघ  जाने वाले विमान को ताइपेह हवाई अड्डे पर ही दुर्घटनाग्रस्त  दिखा दिया गया  और इसमे उन चारों को मृत बता दिया गया, जिन्हें सोवियत संघ  में प्रवेश  करना था- १। नेताजी, २। उनके सहयोगी और संरक्षक के रूप में जनरल  सिदेयी,  ३। विमान चालाक मेजर ताकिजावा और ४। सहायक विमान चालक आयोगी। 
इस  प्रकार नेताजी ने सोवियत संघ में शरण भी ले लिया  और ब्रिटेन तथा अमेरिका  ('मित्र राष्ट्र' की दुहाई देकर) स्तालिन से  नेताजी को मांग भी नही सके।  हालाँकि ब्रिटिश-अमेरिकी जासूसों ने अपने स्तर  पर विमान दुर्घटना की जांच  की थी, और कोई साबुत न पाकर इसे झूठ समझा था।  उनका अनुमान था की नेताजी  मंचूरिया के रस्ते सोवियत संघ में शरण ले चुके  हैं। वे जानते थे की  एडी-चोटी का जोर लगाकर भी वे नेताजी को सोवियत संघ से  हासिल नहीं कर सकते।  अंत में दोनों देशों ने "नेताजी जहाँ हैं, उन्हें वहीँ  रहने दिया जाय" का  निर्णय लेकर मामले का पटाक्षेप कर दिया। 
यहाँ  इस बात का जिक्र प्रासंगिक होगा की जर्मनी प्रवास के दौरान  नेताजी ने  आजाद हिंद रेडियो पर भाषण देते हुए कभी भी हिटलर की, या हिटलर के   नात्सीवाद की तारीफ नहीं की! अर्थात वे सिर्फ़ भारत की आजादी के लिए उनसे   मदद चाहते थे, उनके नात्सीवाद के समर्थक नेताजी नहीं थे।
नेताजी  की विमान यात्रा का आरेख
 नेताजी,  कर्नल हबीबुर्रहमान, जनरल  सिदेयी तथा कुछ अन्य जापानी सैन्य अधिकारीयों  को लेकर साय्गन (वर्तमान में  हो-ची-मिंह सिटी, वियेतनाम) से  विमान १७ अगस्त १९४५  को शाम ५ बजे उड़ा। रात पौने आठ बजे विमान वियेतनाम  के ही तुरें शहर में  उतरा। यहाँ विमान ने रात्री विश्राम किया। अगले दिन  यानि १८ अगस्त १९४५ की  सुबह इन्ही यात्रियों को लेकर विमान फिर उड़ा और  दोपहर दो बजे फारमोसा  द्वीप (वर्तमान में ताईवान) के तायिहोकू हवाई अड्डे  पर उतरा। कुछ देर रुकने  के बाद दोपहर दो-पैंतीस पर विमान फिर उड़ा और शाम  के धुंधलके में चीन के  मंचूरिया प्रान्त में उतरा। सोवियत सैनिक यहाँ  नेताजी का इंतजार कर ही रहे  थे। यहाँ से सोवियत सेना की मदद से या तो  जापानी विमान में ही, या किसी  सोवियत विमान में नेताजी को सोवियत संघ के  अन्दर ले जाया गया।
 नेताजी,  कर्नल हबीबुर्रहमान, जनरल  सिदेयी तथा कुछ अन्य जापानी सैन्य अधिकारीयों  को लेकर साय्गन (वर्तमान में  हो-ची-मिंह सिटी, वियेतनाम) से  विमान १७ अगस्त १९४५  को शाम ५ बजे उड़ा। रात पौने आठ बजे विमान वियेतनाम  के ही तुरें शहर में  उतरा। यहाँ विमान ने रात्री विश्राम किया। अगले दिन  यानि १८ अगस्त १९४५ की  सुबह इन्ही यात्रियों को लेकर विमान फिर उड़ा और  दोपहर दो बजे फारमोसा  द्वीप (वर्तमान में ताईवान) के तायिहोकू हवाई अड्डे  पर उतरा। कुछ देर रुकने  के बाद दोपहर दो-पैंतीस पर विमान फिर उड़ा और शाम  के धुंधलके में चीन के  मंचूरिया प्रान्त में उतरा। सोवियत सैनिक यहाँ  नेताजी का इंतजार कर ही रहे  थे। यहाँ से सोवियत सेना की मदद से या तो  जापानी विमान में ही, या किसी  सोवियत विमान में नेताजी को सोवियत संघ के  अन्दर ले जाया गया। यहाँ  "मंचूरिया" के पेंच को समझना  जरुरी है। मंचूरिया चीन का प्रान्त है, मगर  उन दिनों यह जापान के कब्जे में  था। जापान ने न केवल यहाँ ढेरों  उद्योग-धधे लगा रखे थे, बल्कि अपने युद्धक  साजो-सामान का बड़ा ज़खीरा भी  इकठ्ठा कर रखा था। यूरोप में इटली और जर्मनी  के पतन के बाद जब यह तय हो  गया की जापान भी अब ज्यादा दिनों तक नही टिक  सकेगा, तब जापान ने यह फ़ैसला  किया की मंचूरिया प्रान्त को ब्रिटिश-अमेरिकी  सेना के हाथों जाने से  बचाने के लिए इसे सोवियत संघ के ही हवाले कर दिया  जाय। सोवियत संघ भले  "मित्र राष्ट्र" में शामिल हो चुका था, पर जापान के  साथ स्तालिन ने  मित्रता बनाए राखी थी। तो जापान की  गुप्त सहमती से  युद्ध के आखिरी दिनों में सोवियत संघ ने जापान के खिलाफ  युद्ध की घोषणा की  और आगे बढ़कर चीन के इस समृद्ध मंचूरिया प्रान्त पर  कब्जा कर लिया। 
आरेख  में सिंगापुर से तयिपेह तक की विमान यात्रा को  नारंगी रंग में दिखाया गया  है, जो की ज्ञात है। इसके बाद नीले रंग में  मंचूरिया तक की यात्रा को  दिखाया गया है, जिसके बारे में जापान का कहना था  की जनरल सिदेयी तथा अन्य  सैनिकों की नियुक्ति मंचूरिया के दायिरें नामक  स्थान में की गई थी और वे  योगदान देने जा रहे थे। यह एक सफ़ेद झूठ था,  क्योंकि दो दिनों पहले ही  मंचूरिया पर सोवियत संघ ने बिना जापानी प्रतिरोध  के (वास्तव में जापान की  गुप्त सहमती से) कब्जा कर लिया था- अब वहाँ जापानी  सैनिकों की नियुक्ति का  भला क्या तुक बनता है?
हरे  रंग में मंचूरिया  से टोकियो तक की यात्रा को दर्शाया गया है, जिसके बारे  में जापान का कहना  था की नेताजी को मंचूरिया से टोकियो जाना था- बदली  परिस्थितियों में जापान  सरकार से मशविरा करने के लिए। इस बात में भी दम  नही है, क्योंकि तीन दिनों  पहले जापान आत्म-समर्पण कर चुका था,  ब्रिटिश-अमेरिकी सैनिक एक-एक कर टोकियो  के महत्वपूर्ण संस्थानों को अपने  कब्जे में ले रहे थे। टोकियो का आकाश पथ  भी उनके नियंत्रण में चला गया था।  ऐसे में नेताजी को आकाश पथ से टोकियो  जाना था, वह भी एक जापानी बम-वर्षक  विमान में बैठकर- विश्वसनीय नही है। 
लाल रंग में मंचूरिया  से सोवियत संघ में प्रवेश का रास्ता दिखाया गया है- यही वास्तविक यात्रा  थी।
वह  शव एक ताईवानी सैनिक का था
 
या  तो यह एक दुर्लभ संयोग था कि १८  अगस्त १९४५ की रात ताइपेह के सैन्य  अस्पताल में एक ताईवानी सैनिक की मृत्यु  'हृदयाघात' से हो गई; या फिर वह  सैनिक "महान भारतीय नेता चंद्र बोस" की  प्राण रक्षा के लिए अपना प्राण  उत्सर्ग करने के लिए तैयार हो गया। सत्य  चाहे जो हो, मगर इतना है कि उस  रात उस सैन्य अस्पताल में "इचिरो ओकुरा"  नामक एक ताईवानी सैनिक की मृत्यु  हुई और उसी के शव को नेताजी का शव बताकर  नाटक को आगे बढ़ाने का निर्णय  लिया गया। पहले नेताजी के शव के रूप में खाली  ताबूत टोकियो भेजने की  तैयारी थी। 
इचिरो  ओकुरा एक बौद्ध था और बौद्ध परम्परा के अनुसार शव का अन्तिम  संस्कार तीन  दिनों के बाद होता है। १८ अगस्त को इचिरो की मृत्यु हुई और तीन  दिनों बाद  २१ अगस्त १९४५ के दिन शव को ताइपेह नगरपालिका के ब्यूरो ऑफ़  हैल्थ एंड  हाइजीन विभाग में ले जाया गया- अन्तिम संस्कार के लिया  अनुमतिपत्र प्राप्त  करने के लिए। वहाँ दो कर्मचारियों की ड्यूटी थी- लाये  गए शव की "मृत्यु  प्रमाणपत्र" के अनुसार जांच करना। शव लेकर गए थे- कर्नल  हबीबुर्रहमान तथा  कुछ जापानी सैन्य अधिकारी। जापानी सैन्य अधिकारियों ने उन  दोनों  कर्मचारियों को समझाया की यह महान भारतीय नेता "काटा काना" (जापानी  भाषा  में नेताजी को "काटा काना" नाम से संबोधित किया जाता है, जिसका अर्थ  है-  "चंद्र बोस") का शव है, गोपनीय कारणों से इनका अन्तिम संस्कार "इचिरो   ओकुरा" नाम से किया जा रहा है और जापान सरकार नही चाहती है की इनकी शव की   जांच की जाय। भले जापान आत्म-समर्पण कर चुका था, मगर जापानी सैन्य अफसरों   का इतना प्रभाव तो था ही की उन दोनों ताईवानी कर्मचारियों ने शव की जांच   नही की। 
वहाँ  से शव को ताइपेह नगरपालिका के  शवदाह गृह में लाया गया। अस्पताल के कम्बल  में लपेटे-लपेटे ही शव का अन्तिम  संस्कार कर दिया गया। कोई भी ताईवानी  कर्मचारी यह नही देख पाया की शव एक  भारतीय का है या एक ताईवानी का! कर्नल  हबीबुर्रहमान ने भी फोटो खींचा, तो  चेहरे को छोड़कर- कम्बल में  लिपटे-लिपटे ही। 
अगले  दिन यानि २२ अगस्त १९४५ को सुबह यही कुछ सैन्य अधिकारी फिर  शवदाह गृह में  गए और "अस्थि भस्म" को इकठ्ठा किया। यही अस्थि-भस्म टोकियो  के रेंकोजी  मन्दिर में रखा है। इसे ही नेताजी का अस्थि भस्म बताया जाता है,  जबकि यह  एक ताईवानी बौद्ध सैनिक "इचिरो ओकुरा" का अस्थि भस्म है।
अन्तिम  संस्कार में देरी क्यों? 
 
अब  तक आप  नेताजी की 'विमान दुर्घटना में मृत्यु' की असलियत जान चुके हैं। अब  यहाँ से  मैं छोटी-छोटी विन्दुओं के माध्यम से इस पुरे मामले को और भी  स्पष्ट करने  की कोशिश करूँगा।
शुरुआत  इस विन्दु से कि भारतीय (और  बेशक, हिंदू) परम्परा के अनुसार शव का अन्तिम  संस्कार "यथाशीघ्र" होना  चाहिए। इस लिहाज से नेताजी के शव का अन्तिम  संस्कार १९ या २० अगस्त १९४५ को  होना चाहिए था, मगर हुआ २२ अगस्त को। ऐसा  इसलिए हुआ की वह शव जिस ताईवानी  सैनिक का था, वह एक बौद्ध था। बौद्ध  परम्परा के अनुसार, मृत्यु के बाद तीन  दिनों तक शव से कुछ विकिरण निकलते  रहते हैं और इसलिए वे तीन दिनों बाद  अन्तिम संस्कार करते हैं। 
एक  और बात। नेताजी जिस  "आजाद भारत सरकार" के प्रधान थे, उसे विश्व के कुल ९  स्वतंत्र राष्ट्र  मान्यता प्रदान करते थे। फिर जापान सरकार नेताजी के  अन्तिम संस्कार को  "राष्ट्राध्यक्षों वाला" सम्मान देना कैसे भूल गई?
बाकी  तीनों शव कहाँ गए? 
ताइपेह नगरपालिका  के शवदाह गृह के "क्रिमेशन रजिस्टर" में  २२ अगस्त १९४५ के दिन "इचिरो  ओकुरा" का अन्तिम संस्कार तो दर्ज है, मगर  जनरल सिदेयी तथा दोनों विमान  चालकों (मेजर ताकिजावा और आयोगी) का अन्तिम  संस्कार दर्ज नही है। ऐसा कैसे  हुआ? क्या जापानी सेना इन तीनों का अन्तिम  संस्कार करना भूल गई? जबकि इन  तीनों की मृत्यु की बात उसी विमान दुर्घटना  में हुई बताई जाती है। 
"मृत्यु  प्रमाणपत्र" क्या कहता है?

जिस  "मृत्यु प्रमाणपत्र" को वर्षों तक  नेताजी का मृत्यु प्रमाणपत्र बताया  जाता रहा, उसमे मृतक का नाम "इचिरो  ओकुरा", पेशा- ताइवान गवर्नमेंट  मिलिटरी का सैनिक और मृत्यु का कारण  'हृदयाघात' बताया गया है। पुरे ४३  वर्षों बाद १८ अगस्त १९८८ को जापान सरकार  ने एक नया "मृत्यु प्रमाणपत्र"  जारी किया, जिसमे मृतक का नाम "काटा काना"  (जापानी भाषा में "चंद्र बोस")  और मृत्यु का कारण "थर्ड डिग्री बर्न" बताया  गया। इसे जारी उन्ही डॉक्टरों  से करवाया गया, यानी- डॉक्टर इयोशिमी और  डॉक्टर सुरुता से। इसकी जरुरत  क्यों महसूस की गई?
यह  कैसी 'गोपनीयता' थी?
 नेताजी  का अन्तिम संस्कार- कहानी के  अनुसार- छद्म नाम से किया गया, क्योंकि उनकी  मृत्यु को गोपनीय रखना था।  पहली बात, नेताजी की मृत्यु को गोपनीय रखने का  कोई तुक नही बनता। दूसरी  बात, २२ अगस्त १९४५ को जैसे ही "इचिरो ओकुरा" के  शव का अन्तिम संस्कार हुआ,  वैसे ही जापान सरकार की संवाद संस्था 'दोमेयी  न्यूज़ एजेन्सी' ने टोकियो  से "विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु" का  समाचार प्रसारित कर दिया। यह  कैसे गोपनीयता थी? जाहिर है- वह शव नेताजी का  नही था। जब तक शव राख में  तब्दील नही हुआ था, तभी तक इस समाचार को गोपनीय  रखना था!
नेताजी  का अन्तिम संस्कार- कहानी के  अनुसार- छद्म नाम से किया गया, क्योंकि उनकी  मृत्यु को गोपनीय रखना था।  पहली बात, नेताजी की मृत्यु को गोपनीय रखने का  कोई तुक नही बनता। दूसरी  बात, २२ अगस्त १९४५ को जैसे ही "इचिरो ओकुरा" के  शव का अन्तिम संस्कार हुआ,  वैसे ही जापान सरकार की संवाद संस्था 'दोमेयी  न्यूज़ एजेन्सी' ने टोकियो  से "विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु" का  समाचार प्रसारित कर दिया। यह  कैसे गोपनीयता थी? जाहिर है- वह शव नेताजी का  नही था। जब तक शव राख में  तब्दील नही हुआ था, तभी तक इस समाचार को गोपनीय  रखना था!
ताईवानी  अख़बार क्या कहता है?
 
जिस प्रकार एक भारतीय धर्म होते हुए  भी बौद्ध धर्म को भारत में कम, मगर जापान और अन्य दक्षिण-पूर्वी  एशियाई देशों में ज्यादा सम्मान हासिल है; ठीक उसी प्रकार, "चंद्र  बोस" को भी भारत में कम मगर जापान और अन्य दक्षिण-पूर्वी एशियाई   देशों में ज्यादा- बल्कि देवताओं जैसा- सम्मान हासिल है। हम उन्हें   "नेताजी" कहकर संबोधित करते हैं, और वे उन्हें "महान भारतीय नेता" कहते   हैं!
खैर,  तो ताईवानी अख़बार 'सेंट्रल डेली  न्यूज़' की "माइक्रो फिल्मों" के अध्ययन  से पता चलता है की १८ अगस्त १९४५  के दिन ताइवान (तत्कालीन फारमोसा) की  राजधानी ताइपेह के ताइहोकू हवाई अड्डे  पर कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नही  हुआ था। न केवल नेताजी एक प्रसिद्ध  व्यक्ति थे, बल्कि जनरल सिदेयी भी  जापानी सेना के दक्षिण-पूर्वी कमान के  कमांडर थे। इनकी मृत्यु एक विमान  दुर्घटना में हो जाए और उस अख़बार में न  छपे ऐसा हो ही नही सकता! कम-से-कम  २२ अगस्त को जापान द्वारा (गोपनीयता  समाप्त करते हुए) इस दुर्घटना की  ख़बर प्रसारित करने के बाद तो इस अख़बार  में इस ख़बर को छपना ही चाहिए था।  मगर ऐसा नही हुआ, क्यों? क्योंकि कोई  विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नही  था। जबकि इसी अख़बार में कुछ ही दिनों बाद  १४ सितम्बर १९४५ को भारत में  नेताजी के परिवारजनों की रिहाई की मामूली-सी  ख़बर छपती है।
वह  एक बम-वर्षक विमान था....
 
प्रचारित  कहानी के  अनुसार १८ अगस्त १९४५ को ताइहोकू हवाई अड्डे से दोपहर दो-पैंतीस  पर उड़ान  भरने के कुछ ही मिनटों बाद विमान धरती पर आ गिरा था। विमान का  इंजन खुल कर  गिर गया था। विमान में आग लग गई। जनरल सिदेयी और मुख्य विमान  चालक घटनास्थल  पर मारे गए, नेताजी और सह-पायलट झुलस गए और कर्नल  हबीबुर्रहमान तथा अन्य  जापानी सैन्य अफसर मामूली घायल हुए। घायलों को कुछ  किलोमीटर दूर मिनामी बोन  सैन्य अस्पताल में लाया गया, जहाँ रात में नेताजी  और सह-विमान चालाक की  मृत्यु हो गई। 
अब  ध्यान देने की बात यह है कि वह एक  बम-वर्षक विमान था, जिसमे न सीट थे और न  सीट-बेल्ट। सभी विमान के फर्श पर  बैठे थे। ऐसे में विमान के नीचे गिरते  वक्त सभी को सिमट कर "Cockpit" (चालक  कक्ष) के पास आ जाना था। फिर ऐसा  चमत्कार कैसे हुआ कि दुर्घटना में ठीक वे  ही चार लोग मृत हुए, जिनकी  सोवियत संघ पहुँचने की संभावना थी और बाकी सभी  बच गए?
गाँधी-नेहरू  और सुभाष
 
भारत   में यह धारणा आम है कि स्तालिन ने नेताजी को साइबेरिया में कैद कर रखा  था।  जबकि मेरी धारणा यह है कि स्तालिन और तोजो ने मिलकर नेताजी को सोवियत  संघ  में शरण दिया था। साइबेरिया की जेल को नेताजी ने ख़ुद चुना था- अपने   अज्ञातवास के लिए। इसी प्रकार, गांधीजी और नेहरूजी के प्रति भी मेरी कुछ   धारणाएं हैं, जिन्हें इस संदेश में मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
पहले  गांधीजी। गांधीजी सिर्फ़ उन्हीं लोगों को  पसंद करते थे, जो उनकी 'महानता'  के आगे नतमस्तक होना स्वीकार करते थे।  सुभाष ऐसे नही थे। सुभाष का कहना  था- गांधीजी, अभी 'अहिंसा' की बातें मत  कीजिये। पहले देश आजाद हो जाए, फिर  हम आपको देश के सिंहासन पर बैठाएंगे,  आपके पैर धोयेंगे और तब कहेंगे- अब  आपकी 'अहिंसा' की बातों का समय आ गया।  सुभाष के व्यक्तित्व से प्रभावित  होते हुए भी गांधीजी उसे कभी पसंद नहीं कर  सके। सुभाष जन्मजात "नेता" थे,  किसी के भी सामने वे 'नतमस्तक' नही हो सकते  थे- हालाँकि, गांधीजी की वे  बहुत इज्जत करते थे। १९३८ में गांधीजी के खुले  विरोध के बावजूद सुभाष  कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए (हरिपुरा अधिवेशन)।  १९३९ में (त्रिपुरा  अधिवेशन) तो गांधीजी ने स्पष्ट कहा कि 'पट्टाभि  सीतारामैय्या की हार मेरी  हार होगी', फिर भी सुभाष अध्यक्ष चुन लिए गए।  संदेश साफ़ था कि देश का भावी  नेता सुभाष बनने वाले थे... नेहरू नहीं... और  यह बात गांधीजी के लिए  बर्दाश्त से बाहर थी। नेहरू के प्रति गांधीजी का जो  यह "सॉफ्ट कार्नर" था,  वह सिर्फ़ इसलिए कि नेहरू गांधीजी के सामने  'नतमस्तक' थे (कम-से-कम  नतमस्तक होने का ढोंग कर रहे थे। 'ढोंग' इसलिए कि  सत्ता अधिग्रहण के बाद  गांधीजी के सिद्धांतों के ठीक विपरीत जाकर उन्होंने  शासन किया। जहाँ  गांधीजी छोटे-छोटे उद्योग-धंधों का जाल देश में बिछाना  चाहते थे, वहीँ  नेहरू ने बड़े-बड़े उद्योग खड़े कर दिए। गांधीजी सत्ता का  विकेद्रीकरण  चाहते थे, नेहरू ने सत्ता का केन्द्रीकरण कर दिया।) - जबकि  सुभाष नही।
१९२२  में आजादी मिलने ही वाली थी, मगर एक  'अहिंसा' की बात पर गांधीजी ने  असहयोग आन्दोलन ही वापस ले लिया- वे चाहते  तो ख़ुद को आन्दोलन से अलग कर  सकते थे। १९३९ में गांधीजी की जिद्द और विरोध  के चलते सुभाष को कांग्रस के  अध्यक्ष पड़ से इस्तीफा देना पड़ा। १९४५ में  नेताजी दिल्ली पहुचते, इसके  पहले ही 'अनु बम' का अविष्कार हो गया और उसे  जापान पर गिरा दिया गया।  हालाँकि, भारी बारिश ने भी आजाद हिंद सेना को  मणिपुर से आगे बद्गने से रोक  दिया था। आजादी (वास्तव में "सत्ता  हस्तांतरण") से ठीक पहले कांग्रेस की  प्रांतीय कमिटियों ने सरदार पटेल को  अध्यक्ष चुना था- नेहरू को नहीं; मगर  यहाँ भी गांधीजी की जिद्द ने नेहरू को  अध्यक्ष बनाया, जिससे प्रधानमन्त्री  बनने के लिए उनका रास्ता साफ़ हुआ। 
अब  नेहरूजी की बात। नेहरू के मन में  सुभाष को लेकर दो ग्रंथियां थीं। एक-  सुभाष नेहरू के मुकाबले बहुत ज्यादा  प्रतिभाशाली थे। दो- सुभाष का  व्यक्तित्व नेहरू से कहीं ज्यादा प्रभावशाली  था। सुभाष की प्रतिभा का  अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं की अपने पिता का  मन रखने के लिए वे ICS  (अब IAS) की परीक्षा में शामिल होने (जुलाई १९२०  में) इंग्लैंड गए। आठ  महीनों की तयारी में ही उन्होंने परीक्षा में दूसरा  स्थान प्राप्त किया।  जहाँ तक व्यक्तित्व की श्रेष्ठता का सवाल है, आप दोनों  की तस्वीरों को  सामने रखकर देखें- फर्क नजर आ जाएगा की किसके चेहरे पर तेज  है और किसका  चेहरा निस्तेज है। इन्ही दोनों ग्रंथियों के कारण जब स्तालिन  का गोपनीय  पत्र उन्हें मिला (जिसमे भारतीय स्वतंत्रता सेनानी- यानि नेताजी-  को वापस  भारत बुलाने का आग्रह था), तो उन्होंने यही जवाब दिया की वे जहाँ  है,  उन्हें वही रहने दिया जाय। 
उन  दिनों भारत में कुछ ऐसा माहौल था की सोवियत संघ से  नेताजी की हवाई सेना  अब दिल्ली पहुँची की तब पहुँची! ऐसे में अगर भारत  सरकार "राष्ट्रद्रोह" का  आरोप (जो की अंग्रेज लगाकर गए थे और भारत जिसका  पालन कर रहा था) समाप्त  करते हुए नेताजी को भारत आने की अनुमति दे देती, तो  देश की जनता खुशी से  पागल होकर उनको सर-आंखों पर बिठा लेती। यह किसी के  लिए ना-काबिले-बर्दाश्त  होता। सो, नेताजी को भारत आने से रोक दिया गया।
विमान-दुर्घटना में  नेताजी की मृत्यु की बात पर गांधीजी ने भरोसा नहीं  किया था। जब उनसे  कहा गया की टोकियो के रेंकोजी मन्दिर में उनका  अस्थि-भस्म भी रखा है, तो  गांधीजी का जवाब था- अरे, किसी और का भस्म वहाँ  लाकर रख दिया होगा!
भारत  सरकार का रवैया...
 
अब जरा  भारत सरकार का रवैया देखिये-
१- वर्ष १९६५ में गठित 'शाहनवाज आयोग' को  ताइवान जाने की अनुमति नहीं दी गई। 
२-  वर्ष १९७० में गठित 'खोसला आयोग' को भी रोका जा रहा था; बाद  में, कुछ  सांसदों तथा नेताजी की स्मृति से जुड़े संगठनों के भारी दवाब के  चलते उसे  ताइवान जाने दिया गया; मगर पता नहीं उसे क्या घुट्टी पिलाई गई कि  उसने  ताइवान में किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी संस्था से संपर्क नहीं किया।   दस्तावेज इकठ्ठा करना या गवाही लेना तो बहुत दूर कि बात है! बस उस हवाई   अड्डे के रन-वे (जो की परित्यक्त था) का कार में बैठकर एक चक्कर लगाकर आयोग   भारत वापस आ गया!
३-  १९९९ में गठित मुखर्जी आयोग को एक  भारतीय पत्रकार 'अनुज धर' के प्रयासों  के चलते जाने दिया गया। वरना सरकार  उसे भी रोक रही थी। मुखर्जी आयोग को एक  टुकडा भी दस्तावेज वहाँ नहीं मिला,  जो विमान दुर्घटना की कहानी को सच  साबित कर सके!
४-  मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार से जिन फाइलों की मांग की थी, उनमें  से तीन  महत्वपूर्ण फाइल आयोग को नहीं दिए गए। अधिकारियों का कहना था कि  एविडेंस  एक्ट की धारा १२३ एवं १२४ तथा संविधान की धारा ७४(२) के तहत इन  फाइलों को  नहीं दिखाने का "प्रिविलेज" उन्हें प्राप्त है!!!
५-  वर्ष १९५६ के एक और महत्वपूर्ण फाइल (नम्बर- १२(२२६)/५६ पी एम,  विषय-  सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु की परिस्थितियाँ) के बारे में विदेश  मंत्रालय,  गृह मंत्रालय एवं प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों ने  बाकायदे शपथपत्र  दाखिल करके कहा कि इस फाइल को वर्ष १९७२ में ही नष्ट कर  दिया गया है! ...  वह भी बिना 'प्रतिलिपि' तैयार किए!! ....... जरा सोचिये,  उस वक्त 'खोसला  आयोग' इसी विषय पर जांच कर रहा था!!! ........
६-  मुखजी आयोग ने बार-बार सरकार से अनुरोध किया कि ब्रिटेन और  अमेरिका से  अनुरोध किया जाय कि वे नेताजी से जुड़े दस्तावेजों की प्रति  आयोग को  सौपें, मगर सरकार ने ऐसा नहीं किया!
७-  रूस सरकार ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि जब तक भारत सरकार  "आधिकारिक"  रूप से अनुरोध नहीं करती है, तब तक वह आयोग की सहायता नहीं कर  सकती. ...  और हमारी महान भारत सरकार ने यह अनुरोध नही किया! पहले तो आयोग  को रूस  जाने से ही रोका जा रहा था। खैर, भारत सरकार की "अनुमति" के अभाव  में आयोग  को न तो रूस में नेताजी से जुड़े दस्तावेज देखने दिए गए और न ही   कलाश्निकोव तथा कुज्नेट्स-जैसे महत्वपूर्ण गवाहों के बयान लेने दिए गए।
८- भारत सरकार ने १९४७ से लेकर अबतक ताइवान सरकार से उस दुर्घटना  की जाँच कराने का अनुरोध भी नहीं किया है। 
अब  आप सोचते रहिये और सर धुनते रहिये कि जब सरकार नेताजी से जुड़ी  फाइलों को  आयोग को दिखाना ही नहीं चाहती, इनकी "गोपनीयता" समाप्त करना ही  नहीं  चाहती, तो फिर नेताजी की मृत्यु के रहस्य पर से परदा उठाने के लिए  आयोग पर  आयोग गठित करने की जरुरत क्या है???
यहाँ  एक और बात का जिक्र प्रासंगिक होगा।  आजादी के बाद कर्नल हबीबुर्रहमान  पाकिस्तान चले गए थे। पाकिस्तान सरकार ने  कर्नल हबीबुर्रहमान को पाक सेना  में सम्मान के साथ शामिल किया था। उन्हें  तरक्की भी मिली थी और वे  सम्मानजनक तरीके से ही रिटायर हुए थे। इसके  विपरीत, भारत सरकार ने आजाद  हिंद सेना के सैनिकों एवं अधिकारीयों को भारतीय  सेना में शामिल नहीं किया,  उन्हें कदम-कदम पर ज़लील किया और उनपर  'राष्ट्रद्रोह' का मुकदमा भी चलने  दिया। अपने देश की आजादी के लिए लड़ना भी  भारत सरकार की नजर में  'राष्ट्रद्रोह' हो गया!
न्यायपालिका की भूमिका
 
 
मुखर्जी  आयोग का गठन  कोलकाता उच्च न्यायालय के एक आदेश पर हुआ था। भारत सरकार तो  यह कहकर पल्ला  झाड़ चुकी थी कि दो-दो आयोग नेताजी को मृत घोषित कर चुके  है, इसलिए इस बारे  में अब और जांच की जरुरत नहीं है। आयोग के अध्यक्ष के  रूप में विद्वान  न्यायाधीश (अवकाशप्राप्त) श्री मनोज कुमार मुखर्जी की  नियुक्ति स्वयं  सर्वोच्च न्यायालय ने की थी। यहाँ तक न्यायपालिका की  भूमिका सराहनीय है।  मगर इसके बाद हमारी न्यायपालिका ने जांच की  "मॉनीटरिंग" नहीं की। सरकार  द्वारा आयोग के साथ असहयोग की खबरें आती रहीं,  सरकार ने वांछित दस्तावेज  आयोग को नही देखने दिए, फिर भी हमारी  न्यायपालिका ने इस मामले में रूचि  नहीं दिखाई। अगर एक बार सर्वोच्च  न्यायालय भारत सरकार को आदेश दे देती कि  आयोग के साथ पुरा सहयोग किया जाय,  तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता!  विदेश विभाग की आलमारियों में  कैद वह 'गोपनीय' पत्र भी शायद सामने आ जाता,  जिसमे (देश की आजादी के बाद)  स्तालिन ने नेहरूजी को लिखा था कि अब वे चाहे  तो अपने "स्वतंत्रता सेनानी"  को वापस भारत बुला सकते हैं। नेहरूजी ने इस  पत्र का क्या जवाब दिया था,  वह भी देश की जनता के सामने आ जाता!
क्या  आप यकीन करेंगे कि महीनों तक आयोग को दफ्तर और स्टाफ नहीं दिए  गए, खोसला  आयोग को दिखलाये गए दस्तावेज तक 'गोपनीयता' के नाम पर मुखर्जी  आयोग को  नहीं देखने दिए गए! बहुत-बहुत कष्ट उठाकर मुखर्जी आयोग ने जांच  पुरी की  थी। अंत में उनका निष्कर्ष यही था कि 'विमान दुर्घटना में नेताजी  की  मृत्यु की बात कुशलतापूर्वक रची गई एक झूठी कहानी है, जिसे सच साबित कर   सके, ऐसा एक टुकडा भी दस्तावेज कहीं उपलब्ध नहीं है!'
अनुज  धर के ई-मेल और ताइवान का जवाब
 
फारमोसा   टापू ही आज ताइवान है।विश्व-युद्ध तक यह जापान के कब्जे में था, उसके बाद   से अमेरिकी छत्रछाया में एक स्वतंत्र देश है। ताइपेह यहाँ की राजधानी है।   इसी टापू पर विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु का नाटक रचा गया था।  भारत  सरकार ने आजादी के बाद से लेकर अबतक न तो ताइवान के साथ कूटनीतिक  सम्बन्ध  कायम किए हैं और न ही उससे कभी इस विमान दुर्घटना की जांच कराने  का अनुरोध  किया है। 
वर्ष  २००३ में हिंदुस्तान टाईम्स  (ऑनलाइन संस्करण) के युवा कश्मीरी पत्रकार  अनुज धर ने दो ई-मेल भेजकर  ताइवान सरकार और ताइपेह के मेयर से इस विमान  दुर्घटना की सच्चाई जाननी चाही  थी। एक भारतीय नागरिक के अनुरोध पर ही  ताइवान सरकार ने बाकायदे जांच करवाई  और ताइवान के विदेश मंत्रालय के एक  मंत्री तथा ताइपेह के मेयर ने दो  अलग-अलग पत्र भेजकर जांच के परिणाम की  जानकारी अनुज दार को भेजी। पत्रों  में बताया गया की ताइहोकू हवाई अड्डे के  एयर ट्रैफिक कंट्रोल के लोग-बुक के  अनुसार १८ अगस्त १९४५, या इसके आस-पास  (१४ अगस्त से लेकर २० सितम्बर १९४५  तक) वहां कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त  नहीं हुआ था। हाँ, इसके महीने भर बाद  ताइहोकू से २०० मील दक्षिण-पूर्व में  एक अमेरिकी यात्रीवाही विमान सी-४८  जरुर दुर्घटनाग्रस्त हुआ था, जो  फिलिपींस जेल से रिहा हुए अमेरिकी  युद्धबंदियों को ले जा रहा था।
इन्हीं  पत्रों के आलोक  में सरकार को बाध्य होकर मुखर्जी आयोग को ताइवान जाने की  अनुमति देनी पड़ी  थी। आयोग ने वहां जाकर उस लोंग बुक का, अख़बारों की  माइक्रो-फिल्मों का,  तथा और भी दस्तावेजों का अध्ययन किया; बहुत-सी  गवाहियाँ लीं, मगर कहीं कोई  सबूत नहीं मिला की १८ अगस्त १९४५ को वहां कोई  विमान दुर्घटना ग्रस्त हुआ  था।
क्या  आप अनुमान लगाना चाहेंगे की  आजादी के बाद हमारी भारत सरकार ने ताइवान के  साथ कूटनीतिक सम्बन्ध क्यों  नहीं कायम किया था? एक कारण तो नेहरूजी का  'चीन प्रेम' हो सकता है, दूसरा?
आज  इतने बरसो के बाद भी  भारत सरकार एसा कोई भी ठोस कदम नहीं उठा रही है  जिससे कि नेता  जी के विषय में आम जनता को जानकारी मिले | यह केवल येही  साबित करता है कि  भारत माता के इस लाल को एक सोची समझी साजिश के तहत  इतिहास के पन्नो में  दफ़न किया जा रहा है | पर यह होगा नहीं  .............................हम भारत वासी चंद लोगो की साजिश के शिकार  नहीं होगे |
 
|| नेताजी जिंदाबाद ||
|| जय हिंद ||