'हमारे अंग्रेजीदा दोस्त मानें या न मानें, मैं तो यही कहूंगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। न लॉन की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली और दो आदमी भी आ गए, तो खेल शुरू।'
क्रिकेट वर्ल्डकप के समय मुंशी प्रेमचंद की लघुकथा गुल्ली-डंडा' के ये अंश... ! चौंकें नहीं, कहानी यूं ही याद नहीं आई। उत्तर प्रदेश के सबसे हाईटेक जिले गौतमबुद्ध नगर में गुल्ली-डंडा की प्रतियोगिता अगर देखें तो पता नहीं कितनी स्मृतियों में आप भी खो जाएं।
गांव-कस्बों व शहरों की गली-मोहल्लों में कभी सबसे ज्यादा लोकप्रिय रहे गुल्ली-डंडा को हिकारत भाव से देखने वालों की तादाद खासी है। इसके बावजूद एकलव्य की कर्मभूमि दनकौर में इस पारंपरिक खेल को बचाने की पुरजोर कवायद चल रही है। गुल्ली-डंडे की यह प्रतियोगिता गौतमबुद्ध नगर के दनकौर कस्बे स्थित एकलव्य स्टेडियम में पिछले 20 साल से सर्दियों में आयोजित हो रही है। प्रतियोगिता के आयोजकों की कोशिश तो इसे कबड्डी की तर्ज पर राष्ट्रीय खेलों में शुमार कराने की है। उन्हें यह हौसला प्रतियोगिता को मिल रही लोकप्रियता और स्वीकार्यता से मिला है। शुरू में खिलाड़ी परिजन से छुपकर इसमें शामिल होते थे। अब उनकी हौसलाअफजाई के लिए परिजन ही नहीं, हजारों दर्शक जुटते हैं।
गुल्ली-डंडा टीमों के नाम स्टार क्लब, दुआ क्लब, दबंग क्लब, यंग स्टार क्लब और फना क्लब हो गए हैं तो पुरस्कार भी आधुनिक हो चुके हैं। इस बार फाइनल के विजेता कदीम क्लब को हीरो होंडा मोटरसाइकिल और उप विजेता दबंग क्लब को पाच हीरो रेंजर साइकिल दी गईं। दोनों टीमों को ब्लू टूथ और इन्फ्रारेड युक्त पाच-पाच मोबाइल फोन भी दिए गए। प्रत्येक टीम में पाच-पाच खिलाड़ी हैं। अब अगले वर्ष से मंडल स्तर पर यह प्रतियोगिता कराने की योजना है।
प्रतियोगिता की आयोजक द्रोण पर्यटन संघर्ष समिति के अध्यक्ष पंकज कौशिक कहते हैं कि यहीं एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा बना धनुर्विद्या सीखी थी।
मान्यता है कि कौरवों-पाडवों ने भी धनुर्विद्या सीखने के दौरान यहा गुल्ली-डंडा खेला था। इसलिए लोग इस खेल को जीवित रखना चाहते हैं। वह बताते हैं कि इसे राष्ट्रीय खेलों में शामिल करने के लिए खेल मंत्रालय और भारतीय खेल प्राधिकरण को भी पत्र भेजा जा चुका है।
गुल्ली-डंडा के नियम
यह खेल आप खुले मैदान में खेल सकते हैं। एक ओर जहां गिल्ली 3 से 6 इंच की होती है, वहीं डंडा 12 ले 18 इंच तक लंबा हो सकता है। जमीन पर एक छोटा घेरा (गिल्ली के आकार से छोटा) बनाया जाता है। गिल्ली को घेरे के ऊपर रखा जाता है। एक खिलाडी (स्ट्राइकर) डंडे से गिल्ली को हवा में उछालता है। इस दौरान यदि विपरीत दिशा में खडा खिलाडी गिल्ली को कैच कर लेता है, तो स्ट्राइकर आउट माना जाता है। यदि गिल्ली जमीन पर गिरती है, तो सामने वाला कोई खिलाडी (फील्डर) घेरे के ऊपर रखे डंडे को तीन बार हिट करता है। यदि वह कामयाब हो जाता है, तो स्ट्राइकर आउट माना जाता है। यदि वह कामयाब नहीं हो पाता है, तो स्ट्राइकर तीन बार डंडे के सहारे गिल्ली को हवा में उछालता है और उसके प्वाइंट्स बनते हैं। सबसे अधिक प्वाइंट्स लेने वाला खिलाडी गेम जीत जाता है।
विदेशों में भी है प्रचलित ...
भारत का यह पारंपरिक खेल विदेशों में भी खूब लोकप्रिय है। कंबोडिया में कॉन-को, इटली में लिप्पा, फिलिपींस में स्याटोंग और यूनाइटेड स्टेट में पी-वी नाम से इसे जाना जाता है।
कुछ खास ...
गिल्ली-डंडा को बांग्ला में डांगुली, कन्नड में चिन्नी डंडू, मराठी में विति डंडू कहा जाता है।
खेल खेल में विकास ...
यदि बच्चे गिल्ली-डंडा खेलते हैं, तो वे किसी भी चीज को अपने नियंत्रण में लेने और बैलेंस बनाना सीखते हैं।
वो दिन खूब याद दिलाए आपने सच मज़ेदार तोते थे.
जवाब देंहटाएंये आपने बहुत रोचक जानकारी दी है ... धन्यवाद ... और बीते दिन भी याद आ गए !
जवाब देंहटाएंये आपने बहुत रोचक जानकारी दी है| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंबचपन एक बार फिर से आने की जिद करने लगा है | अच्छी पोस्ट बधाई
जवाब देंहटाएंशिवम जी,
जवाब देंहटाएंबहुत आनंददायक पोस्ट है। ज्यादा नहीं खेल पाये यह खेल, लेकिन आकर्षित बहुत करता रहा है। मेरी नजर में इसकी कमी सिर्फ़ इसका देसी होना ही है, नहीं तो सीमित साधनों की जरूरत और खिलाडि़यों की संख्या में उपलब्धतानुसार रेंज जैसी बातें इसका प्लस प्वाईंट हैं।
अभी चंद दिन पहले ही ’किला रायपुर, लुधियाना’ में वार्षिक ग्रामीण खेल संपन्न हुये थे, और जो आनंद ऐसी जगह पर आता है, वो आई.पी.एल. जैसे टूर्नामेंट में भी नहीं आ सकता, क्योंकि ये मिट्टी से जुड़े आयोजन हैं।
कभी जरूर देखेंगे आपके बताये दनकौर का टूर्नामेंट।
शिवम बाबू! जबतक हमारे बचपन की यादें ज़िंदा हैं, ये खेल हमारी यादोंका हिस्सा बने रहेंगे.. अफसोस कि हम अगली पीढ़ी को यह सौंप नहीं पाएँगे!!
जवाब देंहटाएंवाह ये खूब याद दिलाया आपने ...गुल्ली डंडे में हम भी कभी उस्ताद हुआ करते थे ..बहुत ही खूबसूरत पोस्ट शिवम भाई
जवाब देंहटाएंगुल्ली डंडा क्रिकेट का देसी संस्करण ही है. बचपन में बहुत खेला था पर अब गुल्ली डंडा, कंचे, और लट्टू जैसे विशुद्ध भारतीय कम से कम अपनी दिल्ली से गायब हो चुके हैं. गुल्ली डंडा को बचाए रखने का प्रयास चल रहा है ये जानकर अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंनोट : मेरे उपरोक्त विचार आपके लेख को पढ़ कर ही उत्पन्न हुए हैं जिन्हें मैं "तेरा तुझको अर्पण" वाली तर्ज पर यहाँ टिपण्णी रूप में दर्ज कर रहा हूँ. इस टिपण्णी के पीछे कोई अन्य छिपा हुआ मंतव्य नहीं है. आप इसे उधार में दी गयी टिपण्णी समझ कर प्रतिउत्तर में मेरे ब्लॉग पर टिपण्णी करने के लिए बाध्य नहीं हैं.
हम ने बहुत खेला, जब डंडा हमारे हाथ मे होता था तो बहुत अच्छा लगता था, ओर जब पिद्ना पडता था तो हम कभी कभी हेरा फ़ेरी कर देते थे, लेकिन बहुत अच्छा, फ़िर कंच्चे... बचपन याद दिला दिया आप ने धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा रचना , बधाई स्वीकार करें .
जवाब देंहटाएंआइये हमारे साथ उत्तरप्रदेश ब्लॉगर्स असोसिएसन पर और अपनी आवाज़ को बुलंद करें .कृपया फालोवर बनकर उत्साह वर्धन कीजिये
बचपन याद दिला दिया आप ने..रोचक जानकारी दी है ... धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंjai ho gilli danda ki.......:)
जवाब देंहटाएंbachpan yaad kara diya aapne!