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बुधवार, 29 अगस्त 2012

१०७ वी जयंती पर विशेष - हॉकी मतलब मेजर ध्यानचंद सिंह !!!


'हॉकी के जादूगर' ध्यानचंद के जन्म दिन पर 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस मनाया जाता है। हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल भी है। आओ कुछ बातें करें हॉकी की ....
[पुराना है इतिहास]
ओलंपिक खेलों से भी काफी पुराना है हॉकी का खेल। दुनिया की लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं में इस खेल का प्रमाण मिलता है। अरब, ग्रीक, रोमन, परसियन, सभी किसी न किसी रूप में अपने तरीके से हॉकी खेलते थे। बेशक वह इस खेल का पुराना रूप था। धीरे-धीरे विकसित होते हुए यह आधुनिक रूप में आया। आधुनिक हॉकी यानी फील्ड हॉकी का विकास किया था ब्रिटेन के लोगों ने। यह समय था 19वीं सदी के आसपास का।
[भारत में हॉकी]
भारत में हॉकी लाने वाले ब्रिटिशर्स ही थे। उस समय स्कूलों मे यह छात्रों का फेवरेट गेम हुआ करता था। धीरे-धीरे इस गेम की लोकप्रियता बढ़ने लगी। भारत में पहला हॉकी क्लब कोलकाता में बना। इसके बाद मुंबई और पंजाब में।
पहली बार एम्सटर्डम ओलंपिक गेम में भारत की हॉकी की प्रतिभा सामने आई। इसमें भारतीय हॉकी टीम ने ओलंपिक का पहला स्वर्ण पदक जीता। पूरा एम्सटर्डम स्टेडियम भारतीय हॉकी टीम की वाहवाही कर रहा था और विशेष रूप से उस शख्स का, जिसे हम कहते हैं 'हॉकी के जादूगर' मेजर ध्यानचंद सिंह।
[बलबीर का करिश्मा]
वर्ष 1928-1956 की अवधि को भारतीय हॉकी का स्वर्णकाल माना जाता है। ध्यानचंद के अलावा एक और नाम इस दौरान सबकी जुबान पर था। यह नाम था बलबीर सिंह। तीन दशक तक यह सितारा भारतीय हॉकी टीम में चमकता रहा। महज यह संयोग कहा जा सकता है कि अलग-अलग पांच खिलाड़ियों का नाम बलबीर सिंह था। बलबीर सिंह ने भारतीय हॉकी टीम की जीत में अपना अहम रोल निभाया था। आज भी हॉकी के दिग्गज और संभावनाशील खिलाड़ी हैं, जो भारत का नाम रोशन कर रहे हैं। इनमें धनराज पिल्लई, दिलीप टर्की, प्रबोध टर्की, बलजीत सिंह, तुषार खांडेकर जैसे कई खिलाड़ियों का नाम लिया जा सकता है।
[दद्दा की जादूगरी]

'हॉकी के जादूगर' मेजर ध्यानचंद सिंह को लोग प्यार और सम्मान से कहते थे-दद्दा। जबकि उनके नाम में चंद शब्द जोड़ा था उनके कोच पंकज गुप्ता ने। उनकी प्रतिभा देखकर उन्हें यह आभास हो चुका था कि हॉकी के आसमान पर सितारों के बीच अगर कोई चांद बनने की काबिलियत रखता है, तो वह ध्यान सिंह ही हैं।

और हां, लेजेंड क्रिकेटर सर डॉन ब्रैडमैन ने उनका खेल देखकर कहा था कि वे हॉकी से गोल ऐसे दागते हैं, जैसे कि वे क्रिकेट के बल्ले से रन बना रहे हों।
हॉकी के इस बादशाह का जन्म 29 अगस्त, 1905 को हुआ था। उन्होंने आर्मी से अपना करियर शुरू किया। यहीं उनकी प्रतिभा की पहचान हुई। वे सेंटर फॉरवर्ड पोजीशन पर खेलते थे। उनके गोल करने के जादुई कारनामे को देखकर पूरा खेल जगत हतप्रभ रह जाता था। कहते हैं कि उनकी प्रतिभा की भनक हिटलर को लगी, तो उसने ध्यानचंद को जर्मन आर्मी ज्वाइन करने का ऑफर दे दिया था। दद्दा की जादूगरी कमाल की थी। उनकी कैप्टनशिप में भारत ने ओलंपिक में तीन बार गोल्ड मेडल जीता था। उन्हें पद्म भूषण सम्मान से नवाजा गया।

दद्दा को सम्मान देने के खातिर ही देश में कई जगह उनकी हॉकी खेलने की मुद्रा में मूर्तियां लगाई गई हैं। जैसे, इंडिया गेट के नजदीक नेशनल स्टेडियम में और आंध्र प्रदेश के मेडक में। विदेशों में भी हॉकी बॉल पर स्टिक की मास्टरी प्रदर्शित करते हुए स्टेचू लगाए गए हैं। वियाना और ऑस्ट्रिया रेजिडेंट्स ने भी उन्हें इस सम्मान से नवाजा है।
दद्दा ध्यानचंद को सभी मैनपुरी वासियों का शत शत नमन |

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

अमर शहीद राजगुरु जी १०४ वी जयंती पर विशेष

शिवराम हरि राजगुरु (मराठी: शिवराम हरी राजगुरू, जन्म:२४ अगस्त १९०८ - मृत्यु: २३ मार्च १९३१) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे । इन्हें भगत सिंह और सुखदेव के साथ २३ मार्च १९३१ को फाँसी पर लटका दिया गया था । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में राजगुरु की शहादत एक महत्वपूर्ण घटना थी ।

शिवराम हरि राजगुरु का जन्म भाद्रपद के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी सम्वत् १९६५ (विक्रमी) तदनुसार सन् १९०८ में पुणेजिला के खेडा गाँव में हुआ था । ६ वर्ष की आयु में पिता का निधन हो जाने से बहुत छोटी उम्र में ही ये वाराणसी विद्याध्ययन करने एवं संस्कृत सीखने आ गये थे । इन्होंने हिन्दू धर्म-ग्रंन्थों तथा वेदो का अध्ययन तो किया ही लघु सिद्धान्त कौमुदी जैसा क्लिष्ट ग्रन्थ बहुत कम आयु में कण्ठस्थ कर लिया था। इन्हें कसरत (व्यायाम) का बेहद शौक था और छत्रपति शिवाजी की छापामार युद्ध-शैली के बडे प्रशंसक थे ।

वाराणसी में विद्याध्ययन करते हुए राजगुरु का सम्पर्क अनेक क्रान्तिकारियों से हुआ । चन्द्रशेखर आजाद से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनकी पार्टी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से तत्काल जुड़ गये। आजाद की पार्टी के अन्दर इन्हें रघुनाथ के छद्म-नाम से जाना जाता था; राजगुरु के नाम से नहीं। पण्डित चन्द्रशेखर आज़ाद, सरदार भगत सिंह और यतीन्द्रनाथ दास आदि क्रान्तिकारी इनके अभिन्न मित्र थे। राजगुरु एक अच्छे निशानेबाज भी थे। साण्डर्स का वध करने में इन्होंने भगत सिंह तथा सुखदेव का पूरा साथ दिया था जबकि चन्द्रशेखर आज़ाद ने छाया की भाँति इन तीनों को सामरिक सुरक्षा प्रदान की थी।

२३ मार्च १९३१ को इन्होंने भगत सिंह तथा सुखदेव के साथ लाहौर सेण्ट्रल जेल में फाँसी के तख्ते पर झूल कर अपने नाम को हिन्दुस्तान के अमर शहीदों की सूची में अहमियत के साथ दर्ज करा दिया ।
 
आज अमर शहीद राजगुरु जी की 104 वी जयंती के मौके पर हम सब उनको शत शत नमन करते है !

इंकलाब ज़िंदाबाद !!

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

ड़ा॰ अमर कुमार को पहली पुण्यतिथि पर सादर नमन

अमर मरे नहीं, अमर मरा करते नहीं..
वो दिलों में रहते हैं, हमेशा हमेशा के लिए...
पूरे ब्लॉग जगत की ओर से स्व॰ ड़ा॰ अमर कुमार जी को सादर नमन और हार्दिक श्रद्धांजलि !!

शनिवार, 18 अगस्त 2012

१८ अगस्त १९४५ और नेताजी सुभाष चंद्र बोस

नेताजी की मृत्यु १८ अगस्त १९४५ के दिन किसी विमान दुर्घटना में नहीं हुई थी।


( इस तथ्य को साबित करने के लिए आगे कुछ और तथ्य चित्र आप सब के सामने रख रहा हूँ, यहाँ यह सपष्ट करना ठीक होगा कि यह सब तथ्य चित्र श्री जयदीप शेखर के पुराने ब्लॉग से लिए गए है केवल इस उद्देश से कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में जितना ज्यादा से ज्यादा लोगो को पता चल सके उतना हमारे भारत देश का भला होगा | आज कल जयदीप जी एक नए ब्लॉग पर काम कर रहे है .......वहाँ उन्होंने नेताजी के विषय में और भी नयी जानकारियां दी है | उनके नए ब्लॉग का लिंक मैं यहाँ दे रहा हूँ :-  नाज़-ए-हिन्द सुभाष   
 यहाँ यह भी बता देना उचित रहेगा कि इस से पहले भी ३ बार यह जानकारी आप सब के सामने प्रस्तुत कर चूका हूँ पर यह मेरा संकल्प है कि जब तक मैं ब्लोगिंग करता रहूँगा हर साल १८ अगस्त को यह सारे तथ्य आप सब के सामने बार बार लाता रहूँगा !! )

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नेताजी को "मृत" दिखाने के पीछे क्या कारण था?



"धुरी राष्ट्र" के तीनों देश- इटली, जर्मनी और जापान- साम्राज्य बढाने के लिए युद्ध कर रहे थे, जबकि नेताजी ने इनकी मदद ली थी अपने देश को आजाद कराने के लिए। इस लिहाज से उनकी हैसियत एक 'स्वतंत्रता सेनानी' की बनती है। उनपर अंतर्राष्ट्रीय युद्धापराध का मुकदमा नही चलना चाहिए था। मगर ब्रिटेन और अमेरिका ने पहले ही अपनी मंशा जाहिर कर दी थी की नेताजी पर भी अंतर्राष्ट्रीय युद्धापराध का मुकदमा चलाया जाएगा। ब्रिटेन भले भारत को आजादी देने जा रहा था- फिर भी नेताजी को उसने राष्ट्रद्रोही घोषित किया. ब्रिटिश राजमुकुट के खिलाफ बगावत करने के जुर्म में उनपर मुकदमा चलाने के लिया वह बेताब था।


स्तालिन और तोजो (जापान के सम्राट) नही चाहते थे की नेताजी ब्रिटिश-अमेरिकी हाथों में पड़े। स्तालिन नेताजी को सोवियत संघ में शरण देना तो चाहते थे, मगर चूँकि वे "मित्र राष्ट्र" में शामिल हो चुके थे, इसलिए अंदेशा यह था की ब्रिटेन और अमेरिका उनपर भारी दवाब बनायेंगे। इसलिए विमान दुर्घटना में नेताजी को "मृत" दिखाने का नाटक रचा गया। जब दस्तावेज पर नेताजी को "मृत" ही दिखा दिया जाएगा, तो भला ब्रिटेन और अमेरिका स्तालिन से नेताजी को मांगेंगे कैसे?


तो फारमोसा (ताइवान) के ताइपेह हवाई अड्डे से मंचूरिया होते हुए सोवियत संघ जाने वाले विमान को ताइपेह हवाई अड्डे पर ही दुर्घटनाग्रस्त दिखा दिया गया और इसमे उन चारों को मृत बता दिया गया, जिन्हें सोवियत संघ में प्रवेश करना था- १। नेताजी, २। उनके सहयोगी और संरक्षक के रूप में जनरल सिदेयी, ३। विमान चालाक मेजर ताकिजावा और ४। सहायक विमान चालक आयोगी।


इस प्रकार नेताजी ने सोवियत संघ में शरण भी ले लिया और ब्रिटेन तथा अमेरिका ('मित्र राष्ट्र' की दुहाई देकर) स्तालिन से नेताजी को मांग भी नही सके। हालाँकि ब्रिटिश-अमेरिकी जासूसों ने अपने स्तर पर विमान दुर्घटना की जांच की थी, और कोई साबुत न पाकर इसे झूठ समझा था। उनका अनुमान था की नेताजी मंचूरिया के रस्ते सोवियत संघ में शरण ले चुके हैं। वे जानते थे की एडी-चोटी का जोर लगाकर भी वे नेताजी को सोवियत संघ से हासिल नहीं कर सकते। अंत में दोनों देशों ने "नेताजी जहाँ हैं, उन्हें वहीँ रहने दिया जाय" का निर्णय लेकर मामले का पटाक्षेप कर दिया।


यहाँ इस बात का जिक्र प्रासंगिक होगा की जर्मनी प्रवास के दौरान नेताजी ने आजाद हिंद रेडियो पर भाषण देते हुए कभी भी हिटलर की, या हिटलर के नात्सीवाद की तारीफ नहीं की! अर्थात वे सिर्फ़ भारत की आजादी के लिए उनसे मदद चाहते थे, उनके नात्सीवाद के समर्थक नेताजी नहीं थे।


नेताजी की विमान यात्रा का आरेख
नेताजी, कर्नल हबीबुर्रहमान, जनरल सिदेयी तथा कुछ अन्य जापानी सैन्य अधिकारीयों को लेकर साय्गन (वर्तमान में हो-ची-मिंह सिटी, वियेतनाम) से विमान १७ अगस्त १९४५ को शाम ५ बजे उड़ा। रात पौने आठ बजे विमान वियेतनाम के ही तुरें शहर में उतरा। यहाँ विमान ने रात्री विश्राम किया। अगले दिन यानि १८ अगस्त १९४५ की सुबह इन्ही यात्रियों को लेकर विमान फिर उड़ा और दोपहर दो बजे फारमोसा द्वीप (वर्तमान में ताईवान) के तायिहोकू हवाई अड्डे पर उतरा। कुछ देर रुकने के बाद दोपहर दो-पैंतीस पर विमान फिर उड़ा और शाम के धुंधलके में चीन के मंचूरिया प्रान्त में उतरा। सोवियत सैनिक यहाँ नेताजी का इंतजार कर ही रहे थे। यहाँ से सोवियत सेना की मदद से या तो जापानी विमान में ही, या किसी सोवियत विमान में नेताजी को सोवियत संघ के अन्दर ले जाया गया।
यहाँ "मंचूरिया" के पेंच को समझना जरुरी है। मंचूरिया चीन का प्रान्त है, मगर उन दिनों यह जापान के कब्जे में था। जापान ने न केवल यहाँ ढेरों उद्योग-धधे लगा रखे थे, बल्कि अपने युद्धक साजो-सामान का बड़ा ज़खीरा भी इकठ्ठा कर रखा था। यूरोप में इटली और जर्मनी के पतन के बाद जब यह तय हो गया की जापान भी अब ज्यादा दिनों तक नही टिक सकेगा, तब जापान ने यह फ़ैसला किया की मंचूरिया प्रान्त को ब्रिटिश-अमेरिकी सेना के हाथों जाने से बचाने के लिए इसे सोवियत संघ के ही हवाले कर दिया जाय। सोवियत संघ भले "मित्र राष्ट्र" में शामिल हो चुका था, पर जापान के साथ स्तालिन ने मित्रता बनाए राखी थी। तो जापान की गुप्त सहमती से युद्ध के आखिरी दिनों में सोवियत संघ ने जापान के खिलाफ युद्ध की घोषणा की और आगे बढ़कर चीन के इस समृद्ध मंचूरिया प्रान्त पर कब्जा कर लिया।
आरेख में सिंगापुर से तयिपेह तक की विमान यात्रा को नारंगी रंग में दिखाया गया है, जो की ज्ञात है। इसके बाद नीले रंग में मंचूरिया तक की यात्रा को दिखाया गया है, जिसके बारे में जापान का कहना था की जनरल सिदेयी तथा अन्य सैनिकों की नियुक्ति मंचूरिया के दायिरें नामक स्थान में की गई थी और वे योगदान देने जा रहे थे। यह एक सफ़ेद झूठ था, क्योंकि दो दिनों पहले ही मंचूरिया पर सोवियत संघ ने बिना जापानी प्रतिरोध के (वास्तव में जापान की गुप्त सहमती से) कब्जा कर लिया था- अब वहाँ जापानी सैनिकों की नियुक्ति का भला क्या तुक बनता है?
हरे रंग में मंचूरिया से टोकियो तक की यात्रा को दर्शाया गया है, जिसके बारे में जापान का कहना था की नेताजी को मंचूरिया से टोकियो जाना था- बदली परिस्थितियों में जापान सरकार से मशविरा करने के लिए। इस बात में भी दम नही है, क्योंकि तीन दिनों पहले जापान आत्म-समर्पण कर चुका था, ब्रिटिश-अमेरिकी सैनिक एक-एक कर टोकियो के महत्वपूर्ण संस्थानों को अपने कब्जे में ले रहे थे। टोकियो का आकाश पथ भी उनके नियंत्रण में चला गया था। ऐसे में नेताजी को आकाश पथ से टोकियो जाना था, वह भी एक जापानी बम-वर्षक विमान में बैठकर- विश्वसनीय नही है।
लाल रंग में मंचूरिया से सोवियत संघ में प्रवेश का रास्ता दिखाया गया है- यही वास्तविक यात्रा थी।


वह शव एक ताईवानी सैनिक का था


या तो यह एक दुर्लभ संयोग था कि १८ अगस्त १९४५ की रात ताइपेह के सैन्य अस्पताल में एक ताईवानी सैनिक की मृत्यु 'हृदयाघात' से हो गई; या फिर वह सैनिक "महान भारतीय नेता चंद्र बोस" की प्राण रक्षा के लिए अपना प्राण उत्सर्ग करने के लिए तैयार हो गया। सत्य चाहे जो हो, मगर इतना है कि उस रात उस सैन्य अस्पताल में "इचिरो ओकुरा" नामक एक ताईवानी सैनिक की मृत्यु हुई और उसी के शव को नेताजी का शव बताकर नाटक को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया गया। पहले नेताजी के शव के रूप में खाली ताबूत टोकियो भेजने की तैयारी थी।


इचिरो ओकुरा एक बौद्ध था और बौद्ध परम्परा के अनुसार शव का अन्तिम संस्कार तीन दिनों के बाद होता है। १८ अगस्त को इचिरो की मृत्यु हुई और तीन दिनों बाद २१ अगस्त १९४५ के दिन शव को ताइपेह नगरपालिका के ब्यूरो ऑफ़ हैल्थ एंड हाइजीन विभाग में ले जाया गया- अन्तिम संस्कार के लिया अनुमतिपत्र प्राप्त करने के लिए। वहाँ दो कर्मचारियों की ड्यूटी थी- लाये गए शव की "मृत्यु प्रमाणपत्र" के अनुसार जांच करना। शव लेकर गए थे- कर्नल हबीबुर्रहमान तथा कुछ जापानी सैन्य अधिकारी। जापानी सैन्य अधिकारियों ने उन दोनों कर्मचारियों को समझाया की यह महान भारतीय नेता "काटा काना" (जापानी भाषा में नेताजी को "काटा काना" नाम से संबोधित किया जाता है, जिसका अर्थ है- "चंद्र बोस") का शव है, गोपनीय कारणों से इनका अन्तिम संस्कार "इचिरो ओकुरा" नाम से किया जा रहा है और जापान सरकार नही चाहती है की इनकी शव की जांच की जाय। भले जापान आत्म-समर्पण कर चुका था, मगर जापानी सैन्य अफसरों का इतना प्रभाव तो था ही की उन दोनों ताईवानी कर्मचारियों ने शव की जांच नही की।


वहाँ से शव को ताइपेह नगरपालिका के शवदाह गृह में लाया गया। अस्पताल के कम्बल में लपेटे-लपेटे ही शव का अन्तिम संस्कार कर दिया गया। कोई भी ताईवानी कर्मचारी यह नही देख पाया की शव एक भारतीय का है या एक ताईवानी का! कर्नल हबीबुर्रहमान ने भी फोटो खींचा, तो चेहरे को छोड़कर- कम्बल में लिपटे-लिपटे ही।


अगले दिन यानि २२ अगस्त १९४५ को सुबह यही कुछ सैन्य अधिकारी फिर शवदाह गृह में गए और "अस्थि भस्म" को इकठ्ठा किया। यही अस्थि-भस्म टोकियो के रेंकोजी मन्दिर में रखा है। इसे ही नेताजी का अस्थि भस्म बताया जाता है, जबकि यह एक ताईवानी बौद्ध सैनिक "इचिरो ओकुरा" का अस्थि भस्म है।



अन्तिम संस्कार में देरी क्यों?


अब तक आप नेताजी की 'विमान दुर्घटना में मृत्यु' की असलियत जान चुके हैं। अब यहाँ से मैं छोटी-छोटी विन्दुओं के माध्यम से इस पुरे मामले को और भी स्पष्ट करने की कोशिश करूँगा।


शुरुआत इस विन्दु से कि भारतीय (और बेशक, हिंदू) परम्परा के अनुसार शव का अन्तिम संस्कार "यथाशीघ्र" होना चाहिए। इस लिहाज से नेताजी के शव का अन्तिम संस्कार १९ या २० अगस्त १९४५ को होना चाहिए था, मगर हुआ २२ अगस्त को। ऐसा इसलिए हुआ की वह शव जिस ताईवानी सैनिक का था, वह एक बौद्ध था। बौद्ध परम्परा के अनुसार, मृत्यु के बाद तीन दिनों तक शव से कुछ विकिरण निकलते रहते हैं और इसलिए वे तीन दिनों बाद अन्तिम संस्कार करते हैं।

एक और बात। नेताजी जिस "आजाद भारत सरकार" के प्रधान थे, उसे विश्व के कुल ९ स्वतंत्र राष्ट्र मान्यता प्रदान करते थे। फिर जापान सरकार नेताजी के अन्तिम संस्कार को "राष्ट्राध्यक्षों वाला" सम्मान देना कैसे भूल गई?



बाकी तीनों शव कहाँ गए?

ताइपेह नगरपालिका के शवदाह गृह के "क्रिमेशन रजिस्टर" में २२ अगस्त १९४५ के दिन "इचिरो ओकुरा" का अन्तिम संस्कार तो दर्ज है, मगर जनरल सिदेयी तथा दोनों विमान चालकों (मेजर ताकिजावा और आयोगी) का अन्तिम संस्कार दर्ज नही है। ऐसा कैसे हुआ? क्या जापानी सेना इन तीनों का अन्तिम संस्कार करना भूल गई? जबकि इन तीनों की मृत्यु की बात उसी विमान दुर्घटना में हुई बताई जाती है।



"मृत्यु प्रमाणपत्र" क्या कहता है?




जिस "मृत्यु प्रमाणपत्र" को वर्षों तक नेताजी का मृत्यु प्रमाणपत्र बताया जाता रहा, उसमे मृतक का नाम "इचिरो ओकुरा", पेशा- ताइवान गवर्नमेंट मिलिटरी का सैनिक और मृत्यु का कारण 'हृदयाघात' बताया गया है। पुरे ४३ वर्षों बाद १८ अगस्त १९८८ को जापान सरकार ने एक नया "मृत्यु प्रमाणपत्र" जारी किया, जिसमे मृतक का नाम "काटा काना" (जापानी भाषा में "चंद्र बोस") और मृत्यु का कारण "थर्ड डिग्री बर्न" बताया गया। इसे जारी उन्ही डॉक्टरों से करवाया गया, यानी- डॉक्टर इयोशिमी और डॉक्टर सुरुता से। इसकी जरुरत क्यों महसूस की गई?



यह कैसी 'गोपनीयता' थी?

नेताजी का अन्तिम संस्कार- कहानी के अनुसार- छद्म नाम से किया गया, क्योंकि उनकी मृत्यु को गोपनीय रखना था। पहली बात, नेताजी की मृत्यु को गोपनीय रखने का कोई तुक नही बनता। दूसरी बात, २२ अगस्त १९४५ को जैसे ही "इचिरो ओकुरा" के शव का अन्तिम संस्कार हुआ, वैसे ही जापान सरकार की संवाद संस्था 'दोमेयी न्यूज़ एजेन्सी' ने टोकियो से "विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु" का समाचार प्रसारित कर दिया। यह कैसे गोपनीयता थी? जाहिर है- वह शव नेताजी का नही था। जब तक शव राख में तब्दील नही हुआ था, तभी तक इस समाचार को गोपनीय रखना था!



ताईवानी अख़बार क्या कहता है?



जिस प्रकार एक भारतीय धर्म होते हुए भी बौद्ध धर्म को भारत में कम, मगर जापान और अन्य दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में ज्यादा सम्मान हासिल है; ठीक उसी प्रकार, "चंद्र बोस" को भी भारत में कम मगर जापान और अन्य दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में ज्यादा- बल्कि देवताओं जैसा- सम्मान हासिल है। हम उन्हें "नेताजी" कहकर संबोधित करते हैं, और वे उन्हें "महान भारतीय नेता" कहते हैं!


खैर, तो ताईवानी अख़बार 'सेंट्रल डेली न्यूज़' की "माइक्रो फिल्मों" के अध्ययन से पता चलता है की १८ अगस्त १९४५ के दिन ताइवान (तत्कालीन फारमोसा) की राजधानी ताइपेह के ताइहोकू हवाई अड्डे पर कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नही हुआ था। न केवल नेताजी एक प्रसिद्ध व्यक्ति थे, बल्कि जनरल सिदेयी भी जापानी सेना के दक्षिण-पूर्वी कमान के कमांडर थे। इनकी मृत्यु एक विमान दुर्घटना में हो जाए और उस अख़बार में न छपे ऐसा हो ही नही सकता! कम-से-कम २२ अगस्त को जापान द्वारा (गोपनीयता समाप्त करते हुए) इस दुर्घटना की ख़बर प्रसारित करने के बाद तो इस अख़बार में इस ख़बर को छपना ही चाहिए था। मगर ऐसा नही हुआ, क्यों? क्योंकि कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नही था। जबकि इसी अख़बार में कुछ ही दिनों बाद १४ सितम्बर १९४५ को भारत में नेताजी के परिवारजनों की रिहाई की मामूली-सी ख़बर छपती है।



वह एक बम-वर्षक विमान था....

प्रचारित कहानी के अनुसार १८ अगस्त १९४५ को ताइहोकू हवाई अड्डे से दोपहर दो-पैंतीस पर उड़ान भरने के कुछ ही मिनटों बाद विमान धरती पर आ गिरा था। विमान का इंजन खुल कर गिर गया था। विमान में आग लग गई। जनरल सिदेयी और मुख्य विमान चालक घटनास्थल पर मारे गए, नेताजी और सह-पायलट झुलस गए और कर्नल हबीबुर्रहमान तथा अन्य जापानी सैन्य अफसर मामूली घायल हुए। घायलों को कुछ किलोमीटर दूर मिनामी बोन सैन्य अस्पताल में लाया गया, जहाँ रात में नेताजी और सह-विमान चालाक की मृत्यु हो गई।


अब ध्यान देने की बात यह है कि वह एक बम-वर्षक विमान था, जिसमे न सीट थे और न सीट-बेल्ट। सभी विमान के फर्श पर बैठे थे। ऐसे में विमान के नीचे गिरते वक्त सभी को सिमट कर "Cockpit" (चालक कक्ष) के पास आ जाना था। फिर ऐसा चमत्कार कैसे हुआ कि दुर्घटना में ठीक वे ही चार लोग मृत हुए, जिनकी सोवियत संघ पहुँचने की संभावना थी और बाकी सभी बच गए?




गाँधी-नेहरू और सुभाष

भारत में यह धारणा आम है कि स्तालिन ने नेताजी को साइबेरिया में कैद कर रखा था। जबकि मेरी धारणा यह है कि स्तालिन और तोजो ने मिलकर नेताजी को सोवियत संघ में शरण दिया था। साइबेरिया की जेल को नेताजी ने ख़ुद चुना था- अपने अज्ञातवास के लिए। इसी प्रकार, गांधीजी और नेहरूजी के प्रति भी मेरी कुछ धारणाएं हैं, जिन्हें इस संदेश में मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ।


पहले गांधीजी। गांधीजी सिर्फ़ उन्हीं लोगों को पसंद करते थे, जो उनकी 'महानता' के आगे नतमस्तक होना स्वीकार करते थे। सुभाष ऐसे नही थे। सुभाष का कहना था- गांधीजी, अभी 'अहिंसा' की बातें मत कीजिये। पहले देश आजाद हो जाए, फिर हम आपको देश के सिंहासन पर बैठाएंगे, आपके पैर धोयेंगे और तब कहेंगे- अब आपकी 'अहिंसा' की बातों का समय आ गया। सुभाष के व्यक्तित्व से प्रभावित होते हुए भी गांधीजी उसे कभी पसंद नहीं कर सके। सुभाष जन्मजात "नेता" थे, किसी के भी सामने वे 'नतमस्तक' नही हो सकते थे- हालाँकि, गांधीजी की वे बहुत इज्जत करते थे। १९३८ में गांधीजी के खुले विरोध के बावजूद सुभाष कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए (हरिपुरा अधिवेशन)। १९३९ में (त्रिपुरा अधिवेशन) तो गांधीजी ने स्पष्ट कहा कि 'पट्टाभि सीतारामैय्या की हार मेरी हार होगी', फिर भी सुभाष अध्यक्ष चुन लिए गए। संदेश साफ़ था कि देश का भावी नेता सुभाष बनने वाले थे... नेहरू नहीं... और यह बात गांधीजी के लिए बर्दाश्त से बाहर थी। नेहरू के प्रति गांधीजी का जो यह "सॉफ्ट कार्नर" था, वह सिर्फ़ इसलिए कि नेहरू गांधीजी के सामने 'नतमस्तक' थे (कम-से-कम नतमस्तक होने का ढोंग कर रहे थे। 'ढोंग' इसलिए कि सत्ता अधिग्रहण के बाद गांधीजी के सिद्धांतों के ठीक विपरीत जाकर उन्होंने शासन किया। जहाँ गांधीजी छोटे-छोटे उद्योग-धंधों का जाल देश में बिछाना चाहते थे, वहीँ नेहरू ने बड़े-बड़े उद्योग खड़े कर दिए। गांधीजी सत्ता का विकेद्रीकरण चाहते थे, नेहरू ने सत्ता का केन्द्रीकरण कर दिया।) - जबकि सुभाष नही।
१९२२ में आजादी मिलने ही वाली थी, मगर एक 'अहिंसा' की बात पर गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन ही वापस ले लिया- वे चाहते तो ख़ुद को आन्दोलन से अलग कर सकते थे। १९३९ में गांधीजी की जिद्द और विरोध के चलते सुभाष को कांग्रस के अध्यक्ष पड़ से इस्तीफा देना पड़ा। १९४५ में नेताजी दिल्ली पहुचते, इसके पहले ही 'अनु बम' का अविष्कार हो गया और उसे जापान पर गिरा दिया गया। हालाँकि, भारी बारिश ने भी आजाद हिंद सेना को मणिपुर से आगे बद्गने से रोक दिया था। आजादी (वास्तव में "सत्ता हस्तांतरण") से ठीक पहले कांग्रेस की प्रांतीय कमिटियों ने सरदार पटेल को अध्यक्ष चुना था- नेहरू को नहीं; मगर यहाँ भी गांधीजी की जिद्द ने नेहरू को अध्यक्ष बनाया, जिससे प्रधानमन्त्री बनने के लिए उनका रास्ता साफ़ हुआ।
अब नेहरूजी की बात। नेहरू के मन में सुभाष को लेकर दो ग्रंथियां थीं। एक- सुभाष नेहरू के मुकाबले बहुत ज्यादा प्रतिभाशाली थे। दो- सुभाष का व्यक्तित्व नेहरू से कहीं ज्यादा प्रभावशाली था। सुभाष की प्रतिभा का अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं की अपने पिता का मन रखने के लिए वे ICS (अब IAS) की परीक्षा में शामिल होने (जुलाई १९२० में) इंग्लैंड गए। आठ महीनों की तयारी में ही उन्होंने परीक्षा में दूसरा स्थान प्राप्त किया। जहाँ तक व्यक्तित्व की श्रेष्ठता का सवाल है, आप दोनों की तस्वीरों को सामने रखकर देखें- फर्क नजर आ जाएगा की किसके चेहरे पर तेज है और किसका चेहरा निस्तेज है। इन्ही दोनों ग्रंथियों के कारण जब स्तालिन का गोपनीय पत्र उन्हें मिला (जिसमे भारतीय स्वतंत्रता सेनानी- यानि नेताजी- को वापस भारत बुलाने का आग्रह था), तो उन्होंने यही जवाब दिया की वे जहाँ है, उन्हें वही रहने दिया जाय।
उन दिनों भारत में कुछ ऐसा माहौल था की सोवियत संघ से नेताजी की हवाई सेना अब दिल्ली पहुँची की तब पहुँची! ऐसे में अगर भारत सरकार "राष्ट्रद्रोह" का आरोप (जो की अंग्रेज लगाकर गए थे और भारत जिसका पालन कर रहा था) समाप्त करते हुए नेताजी को भारत आने की अनुमति दे देती, तो देश की जनता खुशी से पागल होकर उनको सर-आंखों पर बिठा लेती। यह किसी के लिए ना-काबिले-बर्दाश्त होता। सो, नेताजी को भारत आने से रोक दिया गया।
विमान-दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु की बात पर गांधीजी ने भरोसा नहीं किया था। जब उनसे कहा गया की टोकियो के रेंकोजी मन्दिर में उनका अस्थि-भस्म भी रखा है, तो गांधीजी का जवाब था- अरे, किसी और का भस्म वहाँ लाकर रख दिया होगा!


भारत सरकार का रवैया...

अब जरा भारत सरकार का रवैया देखिये-


१- वर्ष १९६५ में गठित 'शाहनवाज आयोग' को ताइवान जाने की अनुमति नहीं दी गई।


२- वर्ष १९७० में गठित 'खोसला आयोग' को भी रोका जा रहा था; बाद में, कुछ सांसदों तथा नेताजी की स्मृति से जुड़े संगठनों के भारी दवाब के चलते उसे ताइवान जाने दिया गया; मगर पता नहीं उसे क्या घुट्टी पिलाई गई कि उसने ताइवान में किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी संस्था से संपर्क नहीं किया। दस्तावेज इकठ्ठा करना या गवाही लेना तो बहुत दूर कि बात है! बस उस हवाई अड्डे के रन-वे (जो की परित्यक्त था) का कार में बैठकर एक चक्कर लगाकर आयोग भारत वापस आ गया!


३- १९९९ में गठित मुखर्जी आयोग को एक भारतीय पत्रकार 'अनुज धर' के प्रयासों के चलते जाने दिया गया। वरना सरकार उसे भी रोक रही थी। मुखर्जी आयोग को एक टुकडा भी दस्तावेज वहाँ नहीं मिला, जो विमान दुर्घटना की कहानी को सच साबित कर सके!


४- मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार से जिन फाइलों की मांग की थी, उनमें से तीन महत्वपूर्ण फाइल आयोग को नहीं दिए गए। अधिकारियों का कहना था कि एविडेंस एक्ट की धारा १२३ एवं १२४ तथा संविधान की धारा ७४(२) के तहत इन फाइलों को नहीं दिखाने का "प्रिविलेज" उन्हें प्राप्त है!!!


५- वर्ष १९५६ के एक और महत्वपूर्ण फाइल (नम्बर- १२(२२६)/५६ पी एम, विषय- सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु की परिस्थितियाँ) के बारे में विदेश मंत्रालय, गृह मंत्रालय एवं प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों ने बाकायदे शपथपत्र दाखिल करके कहा कि इस फाइल को वर्ष १९७२ में ही नष्ट कर दिया गया है! ... वह भी बिना 'प्रतिलिपि' तैयार किए!! ....... जरा सोचिये, उस वक्त 'खोसला आयोग' इसी विषय पर जांच कर रहा था!!! ........


६- मुखजी आयोग ने बार-बार सरकार से अनुरोध किया कि ब्रिटेन और अमेरिका से अनुरोध किया जाय कि वे नेताजी से जुड़े दस्तावेजों की प्रति आयोग को सौपें, मगर सरकार ने ऐसा नहीं किया!


७- रूस सरकार ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि जब तक भारत सरकार "आधिकारिक" रूप से अनुरोध नहीं करती है, तब तक वह आयोग की सहायता नहीं कर सकती. ... और हमारी महान भारत सरकार ने यह अनुरोध नही किया! पहले तो आयोग को रूस जाने से ही रोका जा रहा था। खैर, भारत सरकार की "अनुमति" के अभाव में आयोग को न तो रूस में नेताजी से जुड़े दस्तावेज देखने दिए गए और न ही कलाश्निकोव तथा कुज्नेट्स-जैसे महत्वपूर्ण गवाहों के बयान लेने दिए गए।


८- भारत सरकार ने १९४७ से लेकर अबतक ताइवान सरकार से उस दुर्घटना की जाँच कराने का अनुरोध भी नहीं किया है।


अब आप सोचते रहिये और सर धुनते रहिये कि जब सरकार नेताजी से जुड़ी फाइलों को आयोग को दिखाना ही नहीं चाहती, इनकी "गोपनीयता" समाप्त करना ही नहीं चाहती, तो फिर नेताजी की मृत्यु के रहस्य पर से परदा उठाने के लिए आयोग पर आयोग गठित करने की जरुरत क्या है???


यहाँ एक और बात का जिक्र प्रासंगिक होगा। आजादी के बाद कर्नल हबीबुर्रहमान पाकिस्तान चले गए थे। पाकिस्तान सरकार ने कर्नल हबीबुर्रहमान को पाक सेना में सम्मान के साथ शामिल किया था। उन्हें तरक्की भी मिली थी और वे सम्मानजनक तरीके से ही रिटायर हुए थे। इसके विपरीत, भारत सरकार ने आजाद हिंद सेना के सैनिकों एवं अधिकारीयों को भारतीय सेना में शामिल नहीं किया, उन्हें कदम-कदम पर ज़लील किया और उनपर 'राष्ट्रद्रोह' का मुकदमा भी चलने दिया। अपने देश की आजादी के लिए लड़ना भी भारत सरकार की नजर में 'राष्ट्रद्रोह' हो गया!



न्यायपालिका की भूमिका




मुखर्जी आयोग का गठन कोलकाता उच्च न्यायालय के एक आदेश पर हुआ था। भारत सरकार तो यह कहकर पल्ला झाड़ चुकी थी कि दो-दो आयोग नेताजी को मृत घोषित कर चुके है, इसलिए इस बारे में अब और जांच की जरुरत नहीं है। आयोग के अध्यक्ष के रूप में विद्वान न्यायाधीश (अवकाशप्राप्त) श्री मनोज कुमार मुखर्जी की नियुक्ति स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने की थी। यहाँ तक न्यायपालिका की भूमिका सराहनीय है। मगर इसके बाद हमारी न्यायपालिका ने जांच की "मॉनीटरिंग" नहीं की। सरकार द्वारा आयोग के साथ असहयोग की खबरें आती रहीं, सरकार ने वांछित दस्तावेज आयोग को नही देखने दिए, फिर भी हमारी न्यायपालिका ने इस मामले में रूचि नहीं दिखाई। अगर एक बार सर्वोच्च न्यायालय भारत सरकार को आदेश दे देती कि आयोग के साथ पुरा सहयोग किया जाय, तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता! विदेश विभाग की आलमारियों में कैद वह 'गोपनीय' पत्र भी शायद सामने आ जाता, जिसमे (देश की आजादी के बाद) स्तालिन ने नेहरूजी को लिखा था कि अब वे चाहे तो अपने "स्वतंत्रता सेनानी" को वापस भारत बुला सकते हैं। नेहरूजी ने इस पत्र का क्या जवाब दिया था, वह भी देश की जनता के सामने आ जाता!

क्या आप यकीन करेंगे कि महीनों तक आयोग को दफ्तर और स्टाफ नहीं दिए गए, खोसला आयोग को दिखलाये गए दस्तावेज तक 'गोपनीयता' के नाम पर मुखर्जी आयोग को नहीं देखने दिए गए! बहुत-बहुत कष्ट उठाकर मुखर्जी आयोग ने जांच पुरी की थी। अंत में उनका निष्कर्ष यही था कि 'विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु की बात कुशलतापूर्वक रची गई एक झूठी कहानी है, जिसे सच साबित कर सके, ऐसा एक टुकडा भी दस्तावेज कहीं उपलब्ध नहीं है!'



अनुज धर के ई-मेल और ताइवान का जवाब

फारमोसा टापू ही आज ताइवान है।विश्व-युद्ध तक यह जापान के कब्जे में था, उसके बाद से अमेरिकी छत्रछाया में एक स्वतंत्र देश है। ताइपेह यहाँ की राजधानी है। इसी टापू पर विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु का नाटक रचा गया था। भारत सरकार ने आजादी के बाद से लेकर अबतक न तो ताइवान के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध कायम किए हैं और न ही उससे कभी इस विमान दुर्घटना की जांच कराने का अनुरोध किया है।


वर्ष २००३ में हिंदुस्तान टाईम्स (ऑनलाइन संस्करण) के युवा कश्मीरी पत्रकार अनुज धर ने दो ई-मेल भेजकर ताइवान सरकार और ताइपेह के मेयर से इस विमान दुर्घटना की सच्चाई जाननी चाही थी। एक भारतीय नागरिक के अनुरोध पर ही ताइवान सरकार ने बाकायदे जांच करवाई और ताइवान के विदेश मंत्रालय के एक मंत्री तथा ताइपेह के मेयर ने दो अलग-अलग पत्र भेजकर जांच के परिणाम की जानकारी अनुज दार को भेजी। पत्रों में बताया गया की ताइहोकू हवाई अड्डे के एयर ट्रैफिक कंट्रोल के लोग-बुक के अनुसार १८ अगस्त १९४५, या इसके आस-पास (१४ अगस्त से लेकर २० सितम्बर १९४५ तक) वहां कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ था। हाँ, इसके महीने भर बाद ताइहोकू से २०० मील दक्षिण-पूर्व में एक अमेरिकी यात्रीवाही विमान सी-४८ जरुर दुर्घटनाग्रस्त हुआ था, जो फिलिपींस जेल से रिहा हुए अमेरिकी युद्धबंदियों को ले जा रहा था।


इन्हीं पत्रों के आलोक में सरकार को बाध्य होकर मुखर्जी आयोग को ताइवान जाने की अनुमति देनी पड़ी थी। आयोग ने वहां जाकर उस लोंग बुक का, अख़बारों की माइक्रो-फिल्मों का, तथा और भी दस्तावेजों का अध्ययन किया; बहुत-सी गवाहियाँ लीं, मगर कहीं कोई सबूत नहीं मिला की १८ अगस्त १९४५ को वहां कोई विमान दुर्घटना ग्रस्त हुआ था।

क्या आप अनुमान लगाना चाहेंगे की आजादी के बाद हमारी भारत सरकार ने ताइवान के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध क्यों नहीं कायम किया था? एक कारण तो नेहरूजी का 'चीन प्रेम' हो सकता है, दूसरा?




आज इतने बरसो के बाद भी भारत सरकार एसा कोई भी ठोस कदम नहीं उठा रही है जिससे कि नेता जी के विषय में आम जनता को जानकारी मिले | यह केवल यही साबित करता है कि भारत माता के इस लाल को एक सोची समझी साजिश के तहत इतिहास के पन्नो में दफ़न किया जा रहा है | पर यह होगा नहीं .............................हम भारत वासी चंद लोगो की साजिश के शिकार नहीं होगे |












|| नेताजी जिंदाबाद ||






|| जय हिंद ||

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अप्रतिम क्रान्तिकारी - मदनलाल ढींगरा की १०३ वी पुण्यतिथि पर विशेष

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अप्रतिम क्रान्तिकारी
मदन लाल ढींगरा का भारतवासियों के नाम ऐतिहासिक पत्र
मदनलाल ढींगरा (१८८३-१९०९) : युवा क्रान्तिकारी
"प्यारे देशवासियों ,
 
मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैंने एक अंग्रेज का खून बहाया है और वह इसलिये बहाया है कि मैं भारतीय देशभक्त नौजवानों को अमानवीय रूप से फाँसी के फंदों पर लटकाए जाने और उन्हें आजन्म कालेपानी की सजा दिये जाने का बदला ले सकूँ । इस प्रयत्न में अपनी अन्तरात्मा के अतिरिक्त मैंने किसी और से परामर्श नहीं लिया और अपने कर्तव्य के अतिरिक्त किसी अन्य से सांठ - गांठ नहीं की । मेरा विश्वास है कि जिस देश को संगीनों के बल पर दबाकर रखा जाता हो , वह हमेशा ही आजादी की लडाई लडता रहता है । जिस देश के हथियार छीन लिये गए हों , वह खुली लडाई लडने की स्थिति में नहीं होता । मैं खुली लडाई नहीं लड सकता था , इस कारण मैंने आकस्मिक रूप से आक्रमण किया । मुझे बंदूक रखने की मनाही थी , इस कारण मैंने पिस्तौल चला कर आक्रमण किया ।
हिन्दू होने के नाते मैं यह विश्वास करता हूँ कि मेरे देश के प्रति किया गया अपराध ईश्वर का अपमान है । मेरे मातृभूमि का कार्य ही भगवान राम का कार्य है । मातृभूमि की सेवा ही भगवान श्रीकृष्ण की सेवा है । मुझ जैसे धनहीन और बुद्धिहीन व्यक्ति के पास अपने रक्त के अतिरिक्त मातृभूमि को समर्पित करने के लिये और क्या था , इसी कारण मैं मातृ - देवी पर अपनी रक्ताञ्जली अर्पित कर रहा हूँ । भारतवर्ष के लोगों को सीखने के लिये इस समय एक ही सबक है और वह यह है कि मृत्यु का आलिंगन किस प्रकार किया जाए और यह सबक सिखाने का एक ही तरीका है कि स्वयं ही मर कर दिखाया जाए , इसीलिये मैं मर कर दिखा रहा हूँ और अपनी शहादत पर मुझे गर्व है । यह पद्धति उस समय तक चलती रहेगी जब तक पृथ्वी के धरातल पर हिन्दू और अंग्रेज जातियों का अस्तित्व है । ( पराधीनता का यह अस्वाभाविक सम्बन्ध समाप्त हो जाए तो अलग बात है । )
ईश्वर से मेरी एक ही प्रार्थना है कि वह मुझे नया जीवन भी भारत - माता की गोद में ही प्रदान करे और मेरा वह जीवन भी भारत - माता की आजादी के पवित्र कार्य के लिये समर्पित हो । मेरे जन्म और बलिदान का यह क्रम उस समय तक चलता रहे जब तक भारत - माता आजाद न हो जाए । मेरी मातृभूमि की आजादी मानवता के हित - चिंतन और परम - पिता परमेश्वर के गौरव - संवर्द्धन के लिये होगी ।

वन्दे मातरम् !! "
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मदनलाल ढींगरा ( जन्म: १८ सितम्बर १८८३ - फाँसी: १७ अगस्त, १९०९)
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अप्रतिम क्रान्तिकारी थे।
वे इंग्लैण्ड में अध्ययन कर रहे थे जहाँ उन्होने विलियम हट कर्जन वायली नामक एक ब्रिटिश अधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी।
यह घटना बीसवीं शताब्दी में भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की कुछेक प्रथम घटनाओं में से एक है।
इसी क्रान्तिकारी घटना से भयाक्रान्त होकर अंग्रेजों ने मोहनदास करमचन्द गान्धी को महात्मा के वेष में दक्षिण अफ्रीका से बुलाकर भारत भिजवाने की रणनीति अपनायी


आरम्भिक जीवन


मदनलाल ढींगरा का जन्म १८ सितम्बर,सन् १८८३ को पंजाब प्रान्त के एक सम्पन्न हिन्दू परिवार में हुआ था। उनके पिता दित्तामल जी सिविल सर्जन थे और अंग्रेजी रंग में पूरी तरह रंगे हुए थे किन्तु माताजी अत्यन्त धार्मिक एवं भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण महिला थीं।


उनका परिवार अंग्रेजों का विश्वासपात्र था और जब मदनलाल को भारतीय स्वतन्त्रता सम्बन्धी क्रान्ति के आरोप में लाहौर के एक कालेज से निकाल दिया गया तो परिवार ने मदनलाल से नाता तोड़ लिया।


मदनलाल को जीवन यापन के लिये पहले एक क्लर्क के रूप में, फिर एक तांगा-चालक के रूप में और अन्त में एक कारखाने में श्रमिक के रूप में काम करना पड़ा। कारखाने में श्रमिकों की दशा सुधारने हेतु उन्होने यूनियन (संघ) बनाने की कोशिश की किन्तु वहाँ से भी उन्हें निकाल दिया गया।


कुछ दिन उन्होंने मुम्बई में काम किया फिर अपनी बड़े भाई की सलाह पर सन् १९०६ में उच्च शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैण्ड चले गये जहाँ उन्होंने यूनिवर्सिटी कालेज लन्दन में यान्त्रिक प्रौद्योगिकी (Mechanical Engineering) में प्रवेश ले लिया।


विदेश में रहकर अध्ययन करने के लिये उन्हें उनके बड़े भाई ने तो सहायता दी ही, इंग्लैण्ड में रह रहे कुछ राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं से भी आर्थिक मदद मिली थी।

 
सावरकर के सानिध्य में


लन्दन में ढींगरा भारत के प्रख्यात राष्ट्रवादी विनायक दामोदर सावरकर एवं श्यामजी कृष्ण वर्मा के सम्पर्क में आये।

वे लोग ढ़ींगरा की प्रचण्ड देशभक्ति से बहुत प्रभावित हुए। ऐसा विश्वास किया जाता है कि सावरकर ने ही मदनलाल को अभिनव भारत नामक क्रान्तिकारी संस्था का सदस्य बनाया और हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया।


मदनलाल इण्डिया हाउस में रहते थे जो उन दिनों भारतीय विद्यार्थियों के राजनैतिक क्रियाकलापों का केन्द्र हुआ करता था।


ये लोग उस समय खुदीराम बोस, कन्हाई लाल दत्त, सतिन्दर पाल और काशी राम जैसे क्रान्तिकारियों को मृत्युदण्ड दिये जाने से बहुत क्रोधित थे।


कई इतिहासकार मानते हैं कि इन्ही घटनाओं ने सावरकर और ढींगरा को सीधे बदला लेने के लिये विवश किया।



कर्जन वायली का वध


१ जुलाई सन् १९०९ की शाम को इण्डियन नेशनल ऐसोसिएशन के वार्षिकोत्सव में भाग लेने के लिये भारी संख्या में भारतीय और अंग्रेज इकठे हुए।


जैसे ही भारत सचिव के राजनीतिक सलाहकार सर विलियम हट कर्जन वायली अपनी पत्नी के साथ हाल में घुसे, ढींगरा ने उनके चेहरे पर पाँच गोलियाँ दागी; इसमें से चार सही निशाने पर लगीं।


उसके बाद ढींगरा ने अपने पिस्तौल से स्वयं को भी गोली मारनी चाही किन्तु उन्हें पकड़ लिया गया।



अभियोग

२३ जुलाई १९०९ को ढींगरा के केस की सुनवाई पुराने बेली कोर्ट में हुई। अदालत ने उन्हें मृत्युदण्ड का आदेश दिया और १७ अगस्त सन् १९०९ को फाँसी पर लटका कर उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी। मदनलाल मर कर भी अमर हो गये।
 भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अप्रतिम क्रान्तिकारी - मदनलाल ढींगरा जी की १०३ वी पुण्यतिथि पर हम सब उन्हें शत शत नमन करते है !
 वन्दे मातरम् !!

बुधवार, 15 अगस्त 2012

१५ अगस्त १९४७ -- १५ अगस्त २०१२



                                   

वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यशामलां मातरम् ।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीं
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीं
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीं
सुखदां वरदां मातरम् ।। १ ।। वन्दे मातरम् ।
कोटि-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले ।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं मातरम् ।। २ ।। वन्दे मातरम् ।
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वं हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडि
मन्दिरे-मन्दिरे मातरम् ।। ३ ।। वन्दे मातरम् ।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलां
सुजलां सुफलां मातरम् ।। ४ ।। वन्दे मातरम् ।
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितां
धरणीं भरणीं मातरम् ।। ५ ।। वन्दे मातरम् ।
 
 
आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
 
जय हिंद !!
 

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

उषा मेहता का खुफिया कांग्रेस रेडियो

भारत छोड़ो आंदोलन के समय खुफिया कांग्रेस रेडियो चलाने के कारण पूरे देश में विख्यात हुई उषा मेहता ने आजादी के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी और आजादी के बाद वह गांधीवादी दर्शन के अनुरूप महिलाओं के उत्थान के लिए प्रयासरत रही।
उषा ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अपने सहयोगियों के साथ 14 अगस्त 1942 को सीक्रेट कांग्रेस रेडियो की शुरूआत की थी। इस रेडियो से पहला प्रसारण भी उषा की आवाज में हुआ था। यह रेडियो लगभग हर दिन अपनी जगह बदलता था, ताकि अंग्रेज अधिकारी उसे पकड़ न सकें। इस खुफिया रेडियो को डा. राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन सहित कई प्रमुख नेताओं ने सहयोग दिया। रेडियो पर महात्मा गांधी सहित देश के प्रमुख नेताओं के रिकार्ड किए गए संदेश बजाए जाते थे।
तीन माह तक प्रसारण के बाद अंतत: अंग्रेज सरकार ने उषा और उनके सहयोगियों को पकड़ा लिया और उन्हें जेल की सजा दी गई। गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव सुरेन्द्र कुमार के अनुसार उषा एक जुझारु स्वतंत्रता सेनानी थी जिन्होंने आजादी के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। वह बचपन से ही गांधीवादी विचारों से प्रभावित थी और उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए कई कार्यक्रमों में बेहद रुचि से कार्य किया।
गांधीवादी सुरेन्द्र कुमार ने भाषा को बताया कि आजादी के बाद उषा मेहता गांधीवादी विचारों को आगे बढ़ाने विशेषकर महिलाओं से जुडे़ कार्यक्रमों में काफी सक्रिय रही। उन्हें गांधी स्मारक निधि की अध्यक्ष चुना गया और वह गांधी शांति प्रतिष्ठान की सदस्य भी थीं। 25 मार्च 1920 को सूरत के एक गांव में जन्मी उषा का महात्मा गांधी से परिचय मात्र पांच वर्ष की उम्र में ही हो गया था। कुछ समय बाद राष्ट्रपिता ने उनके गांव के समीप एक शिविर का आयोजन किया जिससे उन्हें बापू को समझने का और मौका मिला। इसके बाद उन्होंने खादी पहनने और आजादी के आंदोलन में भाग लेने का प्रण किया।
उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में स्नातक डिग्री ली और कानून की पढ़ाई के दौरान वह भारत छोड़ो आंदोलन में पूरी तरह से सामाजिक जीवन में उतर गई। सीक्रेट कांग्रेस रेडियो चलाने के कारण उन्हें चार साल की जेल हुई। जेल में उनका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। बाद में 1946 में रिहा किया गया।
आजादी के बाद उन्होंने गांधी के सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों पर पीएचडी की और बंबई विश्वविद्यालय में अध्यापन शुरू किया। बाद में वह नागरिक शास्त्र एवं राजनीति विभाग की प्रमुख बनी। इसी के साथ वह विभिन्न गांधीवादी संस्थाओं से जुड़ी रही। भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया। उषा मेहता का निधन 11 अगस्त 2000 को हुआ।
 
आप को सभी मैनपुरी वासियों का शत शत नमन |

शनिवार, 11 अगस्त 2012

एक बार विदाई दे माँ ... खुदीराम बोस (03/12/1889 - 11/08/1908)


आजादी की लड़ाई का इतिहास क्रांतिकारियों के त्याग और बलिदान के अनगिनत कारनामों से भरा पड़ा है। क्रांतिकारियों की सूची में ऐसा ही एक नाम है खुदीराम बोस का, जो शहादत के बाद इतने लोकप्रिय हो गए कि नौजवान एक खास किस्म की धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था!


कुछ इतिहासकार उन्हें देश के लिए फांसी पर चढ़ने वाला सबसे कम उम्र का देशभक्त मानते हैं। खुदीराम का जन्म तीन दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में त्रैलोक्यनाथ बोस के घर हुआ था। खुदीराम को आजादी हासिल करने की ऐसी लगन लगी कि नौवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़कर वह स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद वह रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदेमातरम लिखे पर्चे वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में चले आंदोलन में भी उन्होंने बढ़ चढ़ कर भाग लिया। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते 28 फरवरी 1906 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन वह कैद से भाग निकले। लगभग दो महीने बाद अप्रैल में वह फिर से पकड़े गए। 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया।
छह दिसंबर 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया, परंतु गवर्नर बच गया। सन 1908 में खुदीराम ने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया, लेकिन वे भी बच निकले।
खुदीराम बोस मुजफ्फरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड से बेहद खफा थे जिसने बंगाल के कई देशभक्तों को कड़ी सजा दी थी। उन्होंने अपने साथी प्रफुल चंद चाकी के साथ मिलकर किंग्सफोर्ड को सबक सिखाने की ठानी। दोनों मुजफ्फरपुर आए और 30 अप्रैल 1908 को सेशन जज की गाड़ी पर बम फेंक दिया, लेकिन उस गाड़ी में उस समय सेशन जज की जगह उसकी परिचित दो यूरोपीय महिलाएं कैनेडी और उसकी बेटी सवार थीं। किंग्सफोर्ड के धोखे में दोनों महिलाएं मारी गईं जिसका खुदीराम और प्रफुल चंद चाकी को काफी अफसोस हुआ।
अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लगी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल चंद चाकी ने खुद को गोली से उड़ा लिया, जबकि खुदीराम पकड़े गए। मुजफ्फरपुर जेल में 11 अगस्त 1908 को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 19 साल थी। देश के लिए शहादत देने के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे।
इतिहासवेत्ता शिरोल ने लिखा है कि बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। कई दिन तक स्कूल बंद रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।

आप को सभी मैनपुरी वासियों का शत शत नमन |

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

काकोरी कांड की ८७ वी वर्षगांठ पर विशेष




भारतीय स्वाधीनता संग्राम में काकोरी कांड एक ऐसी घटना है जिसने अंग्रेजों की नींव झकझोर कर रख दी थी। अंग्रेजों ने आजादी के दीवानों द्वारा अंजाम दी गई इस घटना को काकोरी डकैती का नाम दिया और इसके लिए कई स्वतंत्रता सेनानियों को 19 दिसंबर 1927 को फांसी के फंदे पर लटका दिया।
फांसी की सजा से आजादी के दीवाने जरा भी विचलित नहीं हुए और वे हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। बात 9 अगस्त 1925 की है जब चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह सहित 10 क्रांतिकारियों ने मिलकर लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया।
दरअसल क्रांतिकारियों ने जो खजाना लूटा उसे जालिम अंग्रेजों ने हिंदुस्तान के लोगों से ही छीना था। लूटे गए धन का इस्तेमाल क्रांतिकारी हथियार खरीदने और आजादी के आंदोलन को जारी रखने में करना चाहते थे।
इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से जानी गई, जिससे गोरी हुकूमत बुरी तरह तिलमिला उठी। उसने अपना दमन चक्र और भी तेज कर दिया।
अपनों की ही गद्दारी के चलते काकोरी की घटना में शामिल सभी क्रांतिकारी पकडे़ गए, सिर्फ चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों के हाथ नहीं आए। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के 45 सदस्यों पर मुकदमा चलाया गया जिनमें से राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई।
ब्रिटिश हुकूमत ने पक्षपातपूर्ण ढंग से मुकदमा चलाया जिसकी बड़े पैमाने पर निंदा हुई क्योंकि डकैती जैसे मामले में फांसी की सजा सुनाना अपने आप में एक अनोखी घटना थी। फांसी की सजा के लिए 19 दिसंबर 1927 की तारीख मुकर्रर की गई लेकिन राजेंद्र लाहिड़ी को इससे दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही गोंडा जेल में फांसी पर लटका दिया गया। राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल और अशफाक उल्ला खान को इसी दिन फैजाबाद जेल में फांसी की सजा दी गई।
फांसी पर चढ़ते समय इन क्रांतिकारियों के चेहरे पर डर की कोई लकीर तक मौजूद नहीं थी और वे हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर चढ़ गए।
काकोरी की घटना को अंजाम देने वाले आजादी के सभी दीवाने उच्च शिक्षित थे। राम प्रसाद बिस्मिल प्रसिद्ध कवि होने के साथ ही भाषायी ज्ञान में भी निपुण थे। उन्हें अंग्रेजी, हिंदुस्तानी, उर्दू और बांग्ला भाषा का अच्छा ज्ञान था।
अशफाक उल्ला खान इंजीनियर थे। काकोरी की घटना को क्रांतिकारियों ने काफी चतुराई से अंजाम दिया था। इसके लिए उन्होंने अपने नाम तक बदल लिए। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने चार अलग-अलग नाम रखे और अशफाक उल्ला ने अपना नाम कुमार जी रख लिया।
खजाने को लूटते समय क्रान्तिकारियों को ट्रेन में एक जान पहचान वाला रेलवे का भारतीय कर्मचारी मिल गया। क्रांतिकारी यदि चाहते तो सबूत मिटाने के लिए उसे मार सकते थे लेकिन उन्होंने किसी की हत्या करना उचित नहीं समझा।
उस रेलवे कर्मचारी ने भी वायदा किया था कि वह किसी को कुछ नहीं बताएगा लेकिन बाद में इनाम के लालच में उसने ही पुलिस को सब कुछ बता दिया। इस तरह अपने ही देश के एक गद्दार की वजह से काकोरी की घटना में शामिल सभी जांबाज स्वतंत्रता सेनानी पकड़े गए लेकिन चंद्रशेखर आजाद जीते जी कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।
सभी जांबाज क्रांतिकारियों को शत शत नमन |
 
इंक़लाब जिंदाबाद !!!

बुधवार, 8 अगस्त 2012

भीष्म साहनी जी की ९७ वी जयंती पर विशेष


तमस के रचनाकार भीष्म साहनी को हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। वह मानवीय मूल्यों के लिए हिमायती रहे और उन्होंने विचारधारा को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। वरिष्ठ लेखक महीप सिंह के अनुसार, भीष्म साहनी वामपंथी विचारधारा के साथ जुड़े होने के बावजूद मानवीय मूल्यों को कभी आंखो से ओझल नहीं करते थे। इस अर्थ में वे अजातशत्रु थे। किसी लेखक का किसी विचारधारा से संबद्ध होना संकट की बात नहीं हैं। संकट वहां उत्पन्न होता है जब लेखक की विचारधारा साहित्य की अपनी मांगों के सिर चढ़कर बोलना प्रारंभ कर देती है और साहित्य हाथों में विचारधारा के प्रचार का झंडा पकड़ा देती है।
सिंह के मुताबिक, ऐसे लेखक साहित्य का सृजन करने की बजाय किसी वाद के प्रचारक बनकर रह जाते हैं। कई दफा लेखक अपने मत से असहमत लोगों को विरोधी मान लेते हैं और उनके साथ सौहार्दपूर्ण, शिष्ट और आत्मीय संबंध बनाए नहीं रख पाते हैं। भीष्म साहनी का जन्म ८ अगस्त १९१५ को रावलपिंडी में हुआ था। विभाजन के पहले अवैतनिक शिक्षक होने के साथ व्यापार भी करते थे। विभाजन के बाद वे भारत आ गए और समाचार पत्रों में लिखने लगे। बाद में वह भारतीय जन नाट्य संघ [इप्टा] के सदस्य बन गए।
हिन्दी फिल्मों के जाने माने अभिनेता बलराज साहनी के भाई भीष्म का निधन ११ जुलाई २००३ को दिल्ली में हुआ था। साहनी दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर रहे। उन्होंने मास्को के फॉरेन लैंग्वेजस पब्लिकेशन हाउस में अनुवादक के तौर पर दो दर्जन रूसी किताबों का हिन्दी में अनुवाद किया। इसमें टालस्टॉय और आस्ट्रोवस्की जैसे लेखकों की रचनाएं शामिल हैं।
भीष्म साहनी के उपन्यास 'झरोखे', 'तमस', 'बसंती', 'मैय्यादास की माड़ी', कहानी संग्रह 'भाग्यरेखा', 'वांगचू' और 'निशाचर', नाटक 'हानूश', 'माधवी', 'कबीरा खड़ा बाजार में', आत्मकथा 'बलराज माई ब्रदर' और बालकथा 'गुलेल का खेल' ने साहित्य को समृद्ध किया। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और पद्म भूषण से नवाजा गया।
भीष्म साहनी के अनुसार, ''गप-शप का अपना रस होता है। इससे हम सांस्कृतिक क्षेत्र में चलने वाले कार्यकलाप, आपसी रिश्ते, परेशान करने वाले मसले, आपसी झगड़े और मनमुटाव से पर्दा उठाते हैं, जबकि हम लेखक को मात्र हाड़-मास के पुतले के रूप में ही देख पाते हैं। बकौल साहनी, ''लेखक अपनी इन कमजोरियों के रहते अपनी लीक पर चलता हुआ सृजन के क्षेत्र में सफल और असफल होता हुआ अपनी यात्रा को कैसे निभा पाता है। इसे हम जीवन के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। महीप सिंह के मुताबिक, चीफ की दावत, अमृतसर आ गया, इंद्रजाल, ओ हरामजादे जैसी कहानियां शायद भीष्म साहनी ही लिख सकते थे। आपाधापी और उठापटक के युग में भीष्म साहनी का व्यक्तित्व बिल्कुल अलग था। प्रेमचंद के बाद वे उस परंपरा के बड़े लेखक थे। उन्हें उनके लेखन के लिए तो स्मरण किया ही जाएगा लेकिन अपनी सहृदयता के लिए वे चिरस्मरणीय रहेंगे।
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