पूरे दिन में हमारे साथ जो जो होता है उसका ही एक लेखा जोखा " बुरा भला " के नाम से आप सब के सामने लाने का प्रयास किया है | यह जरूरी नहीं जो हमारे साथ होता है वह सब " बुरा " हो, साथ साथ यह भी एक परम सत्य है कि सब " भला " भी नहीं होता | इस ब्लॉग में हमारी कोशिश यह होगी कि दिन भर के घटनाक्रम में से हम " बुरा " और " भला " छांट कर यहाँ पेश करे |
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शनिवार, 31 दिसंबर 2011
मंगलवार, 27 दिसंबर 2011
जन-गण-मन के 100 साल
यह धुन सुनते ही हम सभी रोमाचित हो जाते हैं और शरीर खुद-ब-खुद सावधान की मुद्रा में आ जाता है। दोस्तों, हम बात कर रहे हैं देश के राष्ट्रगान 'जन-गण-मन' की। आज यानी 27 दिसबर को इस रचना के सौ साल पूरे हो रहे हैं। इस मौके पर आइए जानें इसके बारे में कुछ दिलचस्प बातें..
दोस्तों, क्या आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि स्कूल में आपके दिन की शुरुआत किस खास तरीके से होती है? वह तरीका, जो हर दिन आप सभी के भीतर राष्ट्रप्रेम और देश के लिए कुछ करने का जज्बा जगाता है। हम बात कर रहे हैं अपने देश के राष्ट्रगान जन-गण-मन की, जिससे स्कूल में आपके सुबह की शुरुआत होती है। देश के सभी स्कूलों में प्रार्थना और राष्ट्रगान के बाद ही कक्षाएं आरंभ होती हैं। राष्ट्रीय और प्रमुख सरकारी समारोहों की शुरुआत भी राष्ट्रगान से ही होती है।
क्या है राष्ट्रगान
देश के प्रति सम्मान व राष्ट्रप्रेम की भावना जताने के लिए जनता में लोकप्रिय खास गीत को ही शासकीय तौर पर राष्ट्रगान का दर्जा दिया जाता है। अन्य गीतों की तुलना में राष्ट्रगान की भावना अलग होती है। इसमें मुख्य भाव राष्ट्रभक्ति की भावना है।
राष्ट्रगान रचे जाने की कहानी
वैसे तो 1911 में ब्रिटेन के सम्राट जॉर्ज पचम के भारत आने पर उनके स्वागत के लिए रवींद्रनाथ टैगोर से यह गीत लिखवाया गया था [टैगोर ने यह बात खुद अपने एक मित्र पुलिन बिहारी सेन को पत्र लिखकर बताई थी], लेकिन एक सच्चे देशभक्त होने के कारण टैगोर ने इसमें अपने देश के महत्व का वर्णन किया। यह गीत कुछ ही साल में आजादी के लिए लड़ रहे स्वतत्रता सेनानियों में जोश भरने लगा। इस गीत की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए ही इसे 27 दिसबर, 1911 को भारतीय राष्ट्रीय काग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में गाया गया। इसके बाद आजादी के आदोलन से जुड़े हर आयोजन में इसकी गूंज सुनाई देनी लगी। रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा मूल रूप से बगला में रचित और सगीतबद्ध जन-गण-मन के हिंदी सस्करण को सविधान सभा ने भारत के राष्ट्रगान के रूप में 24 जनवरी, 1950 को अपना लिया। इस तरह देखा जाए तो 'जन-गण-मन' चार दिन बाद यानी 27 दिसबर को अपनी रचना के सौ साल पूरे कर रहा है। अगले ही महीने यानी 24 जनवरी, 2012 को इसे राष्ट्रगान के रूप में भी 61 वर्ष हो जाएंगे।
गायन का सही तरीका
राष्ट्रगान के रूप में 'जन-गण-मन' के गायन की अवधि लगभग 52 सेकेंड है। कुछ अवसरों पर इसे सक्षिप्त रूप में भी गाया जाता है। इसके तहत इसकी प्रथम तथा अंतिम पक्तिया ही बोलते हैं, जिसमें करीब 20 सेकेंड का समय लगता है।
जरूरी नियम
राष्ट्रगान की गरिमा को बनाये रखने के लिए इसे गाये या बजाये जाने पर श्रोताओं को सावधान की मुद्रा में खड़े रहना चाहिए। हालाकि किसी मूवी या डाक्यूमेंट्री के हिस्से के रूप में बजाने पर श्रोताओं से अपेक्षित नहीं होता कि वे खड़े हो जाएं।
कब गायें-बजायें
राष्ट्रगान के सही सस्करण के बारे में समय-समय पर सरकार द्वारा अनुदेश जारी किए जाते हैं। इसके पूर्ण सस्करण को विभिन्न अवसरों पर सामूहिक गान के रूप में गाया-बजाया जाता है। राष्ट्रीय ध्वज फहराने, सास्कृतिक कार्यक्रमों, परेड, सरकारी कार्यक्रम में राष्ट्रपति के आगमन और वहा से उनके जाने के समय, ऑल इंडिया रेडियो पर राष्ट्र के नाम राष्ट्रपति के सबोधन, राज्यपाल/लेफ्टिनेंट गवर्नर के औपचारिक राज्य कार्यक्रमों में आने-जाने, राष्ट्रीय ध्वज को परेड में लाए जाने आदि के समय इसे गाया-बजाया जाता है। विद्यालयों में सामूहिक रूप से गाकर शुरुआत की जा सकती है।
विदेशों में राष्ट्रगान
सबसे पुराना राष्ट्रगान ग्रेट ब्रिटेन के 'गॉड सेव द क्वीन' को माना जाता है। इसे वर्ष 1825 में राष्ट्रगान के रूप में वर्णित किया गया। हालाकि यह 18वीं सदी के मध्य से ही देशप्रेम के गीत के रूप में लोकप्रिय था और राजसी समारोहों के दौरान गाया जाता था। 19वीं तथा 20वीं सदी के आरंभ में अधिकाश यूरोपीय देशों ने ब्रिटेन का अनुसरण किया।
राष्ट्रगान के रचयिता
गुरुदेव के नाम से लोकप्रिय और पहले नोबेल पुरस्कार विजेता भारतीय रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी की सतान के रूप में 7 मई, 1861 को हुआ था। बैरिस्टर बनाने के लिए उनके पिता ने 1878 में उनका नाम इंग्लैंड के ब्रिजटोन में कराया। उन्होंने लदन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन भी किया, लेकिन 1880 में डिग्री हासिल किए बिना स्वदेश वापस आ गए। 1883 में मृणालिनी देवी से उनका विवाह हुआ। बचपन से ही कविता, छंद और भाषा पर अद्भुत पकड़ रखने वाले टैगोर ने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी। उन्होंने कविता, गीत, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबध, शिल्पकला-सभी विधाओं में रचना की। इनमें प्रमुख हैं गीताजलि, गीति माल्य, शिशु, खेया, मानसी, सोनार तारी, राजा, डाकघर, गोरा, घरे बहिरे, योगायोग आदि। बचपन से ही प्रकृति को पसद करने वाले टैगोर 1901 में सियालदह छोड़कर शातिनिकेतन आ गए और वहा लाइब्रेरी और विश्वभारती शिक्षा केंद्र बनाया, जो आज एक जाना-माना विश्वविद्यालय है। 1913 में 'गीताजलि' के लिए उन्हें साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह सम्मान पाने वाले वे पहले भारतीय थे। टैगोर ने दो हजार से ज्यादा गीतों की रचना की और उन्हें सगीत भी दिया। उनके नाम पर ही इसका नाम 'रवींद्र सगीत' पड़ गया। जीवन के आखिरी दिनों में उन्होंने चित्र भी बनाने आरंभ कर दिए। टैगोर महात्मा गांधी का बहुत सम्मान करते थे। उन्होंने गाधी जी को महात्मा का विशेषण दिया तो गाधी ने उन्हें गुरुदेव कहकर बुलाया।
* रवींद्रनाथ टैगोर दुनिया के अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जिनकी रचना को एक से अधिक देशों में राष्ट्रगान का दर्जा प्राप्त है। उनकी एक दूसरी कविता 'आमार सोनार बाग्ला' को आज भी बाग्लादेश में राष्ट्रगान का दर्जा मिला हुआ है।
* रवींद्रनाथ टैगोर नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले भारतीय भी हैं। कविताओं के सग्रह 'गीताजलि' के लिए उन्हें 1913 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
* 12 दिसबर, 1911 को जॉर्ज पचम ने कोलकाता की बजाय दिल्ली को भारत की राजधानी बनाने की घोषणा की थी। टैगोर ने इस अवसर के लिए उसी साल 'भारत भाग्य विधाता' गीत की रचना की थी।
* ब्रिटिश सरकार ने रवींद्रनाथ टैगोर को 'सर' की उपाधि दी थी, जिसे 1919 में जलियावाला बाग काड से दुखी होकर उन्होंने लौटा दिया।
* 1911 में जॉर्ज पचम के राज्याभिषेक के अवसर पर कई हिन्दी लेखकों ने भी रचनाएं लिखी थीं। इनमें बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' का 'सौभाग्य समागम', अयोध्या सिह उपाध्याय 'हरिऔध' का 'शुभ स्वागत', श्रीधर पाठक का 'श्री जॉर्ज वदना', नाथूराम शर्मा 'शकर' का 'महेंद्र मगलाष्टक' प्रमुख हैं।
[आलेख : -अरुण श्रीवास्तव]
रविवार, 25 दिसंबर 2011
चला गया कला का कोहिनूर ... सत्यदेव दुबे (१९३६ - २०११)
प्रख्यात निर्देशक, अभिनेता और पटकथा लेखक सत्यदेव दूबे का लंबी बीमारी के बाद रविवार दोपहर करीब साढ़े बारह बजे निधन हो गया। वह 75 वर्ष के थे।
सत्यदेव दूबे के पौत्र ने कहा, वह पिछले कई महीने से कोमा थे। वह मस्तिष्क आघात से पीडि़त थे और सुबह साढ़े 11 बजे अस्पताल में निधन हो गया। चर्चित नाटककार और निर्देशक सत्यदेव दूबे को इस साल सितंबर महीने में जूहू स्थित पृथ्वी थिएटर कैफे में दौरा पड़ा था और तभी से वह कोमा में थे।
पिछले कुछ समय से दूबे का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था और पिछले वर्षो में कई बार उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। पद्म विभूषण पुरस्कार से सम्मानित सत्यदेव दूबे ने मराठी-हिंदी थिएटर में काफी ख्याति हासिल थी। उनका जन्म छत्तीसगढ़ के विलासपुर में हुआ था लेकिन उन्होंने मुंबई को अपना घर बना लिया था। मराठी सिनेमा में उन्होंने काफी नाम कमाया। उन्होंने अपने लंबे करियर में स्वतंत्रता के बाद के लगभग प्रमुख नाटककारों के साथ काम किया था।
आइये एक नज़र डालते है उनके जीवन पर ...
जीवन परिचय
सत्यदेव दुबे देश के शीर्षस्थ रंगकर्मी और फिल्मकार थे. छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में 1936 में जन्मे सत्यदेव दुबे देश के उन विलक्षण नाटककारों में थे, जिन्होंने भारतीय रंगमंच को एक नई दिशा दी. उन्होंने फिल्मों में भी काम किया और कई पटकथाएं लिखीं. देश में हिंदी के अकेले नाटककार थे, जिन्होंने अलग-अलग भाषाओं के नाटकों में हिंदी में लाकर उन्हें अमर कर दिया. उनका निधन 25 दिसंबर 2011 को मुंबई में हुआ.
कार्यक्षेत्र
धर्मवीर भारती के नाटक अंधा युग को सबसे पहले सत्यदेव दुबे ने ही लोकप्रियता दिलाई. इसके अलावा गिरीश कर्नाड के आरंभिक नाटक ययाति और हयवदन, बादल सरकार के एवं इंद्रजीत और पगला घोड़ा, मोहन राकेश के आधे अधूरे और विजय तेंदुलकर के खामोश अदालत जारी है जैसे नाटकों को भी सत्यदेव दुबे के कारण ही पूरे देश में अलग पहचान मिली.
सम्मान और पुरस्कार
धर्मवीर भारती के नाटक अंधा युग को सबसे पहले सत्यदेव दुबे ने ही लोकप्रियता दिलाई. इसके अलावा गिरीश कर्नाड के आरंभिक नाटक ययाति और हयवदन, बादल सरकार के एवं इंद्रजीत और पगला घोड़ा, मोहन राकेश के आधे अधूरे और विजय तेंदुलकर के खामोश अदालत जारी है जैसे नाटकों को भी सत्यदेव दुबे के कारण ही पूरे देश में अलग पहचान मिली.
फिल्मोग्राफी
- अंकुर - 1974 - संवाद और पटकथा
- निशांत - 1975 -संवाद
- भूमिका - 1977 - संवाद और पटकथा
- जूनून - 1978 - संवाद
- कलयुग - 1980 - संवाद
- आक्रोश - 1980 - संवाद
- विजेता - 1982 - संवाद और पटकथा
- मंडी - 1983 - पटकथा
मैनपुरी के सभी कला प्रेमियों की ओर से सत्यदेव दुबे साहब को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !
सोमवार, 19 दिसंबर 2011
अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान के बलिदान दिवस पर विशेष रि-पोस्ट
राम प्रसाद बिस्मिल |
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में काकोरी कांड एक ऐसी घटना है जिसने अंग्रेजों की नींव झकझोर कर रख दी थी। अंग्रेजों ने आजादी के दीवानों द्वारा अंजाम दी गई इस घटना को काकोरी डकैती का नाम दिया और इसके लिए कई स्वतंत्रता सेनानियों को 19 दिसंबर 1927 को फांसी के फंदे पर लटका दिया।
अशफाक उल्ला खा |
फांसी की सजा से आजादी के दीवाने जरा भी विचलित नहीं हुए और वे हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। बात नौ अगस्त 1925 की है जब चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह सहित 10 क्रांतिकारियों ने मिलकर लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया।
दरअसल क्रांतिकारियों ने जो खजाना लूटा उसे जालिम अंग्रेजों ने हिंदुस्तान के लोगों से ही छीना था। लूटे गए धन का इस्तेमाल क्रांतिकारी हथियार खरीदने और आजादी के आंदोलन को जारी रखने में करना चाहते थे।
इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से जानी गई, जिससे गोरी हुकूमत बुरी तरह तिलमिला उठी। उसने अपना दमन चक्र और भी तेज कर दिया।
अपनों की ही गद्दारी के चलते काकोरी की घटना में शामिल सभी क्रांतिकारी पकडे़ गए, सिर्फ चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों के हाथ नहीं आए। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के 45 सदस्यों पर मुकदमा चलाया गया जिनमें से राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई।
ब्रिटिश हुकूमत ने पक्षपातपूर्ण ढंग से मुकदमा चलाया जिसकी बड़े पैमाने पर निंदा हुई क्योंकि डकैती जैसे मामले में फांसी की सजा सुनाना अपने आप में एक अनोखी घटना थी। फांसी की सजा के लिए 19 दिसंबर 1927 की तारीख मुकर्रर की गई लेकिन राजेंद्र लाहिड़ी को इससे दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही गोंडा जेल में फांसी पर लटका दिया गया। राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल और अशफाक उल्ला खान को इसी दिन फैजाबाद जेल में फांसी की सजा दी गई।
फांसी पर चढ़ते समय इन क्रांतिकारियों के चेहरे पर डर की कोई लकीर तक मौजूद नहीं थी और वे हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर चढ़ गए।
काकोरी की घटना को अंजाम देने वाले आजादी के सभी दीवाने उच्च शिक्षित थे। राम प्रसाद बिस्मिल प्रसिद्ध कवि होने के साथ ही भाषायी ज्ञान में भी निपुण थे। उन्हें अंग्रेजी, हिंदुस्तानी, उर्दू और बांग्ला भाषा का अच्छा ज्ञान था।
अशफाक उल्ला खान इंजीनियर थे। काकोरी की घटना को क्रांतिकारियों ने काफी चतुराई से अंजाम दिया था। इसके लिए उन्होंने अपने नाम तक बदल लिए। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने चार अलग-अलग नाम रखे और अशफाक उल्ला ने अपना नाम कुमार जी रख लिया।
खजाने को लूटते समय क्रांतिकारियों को ट्रेन में एक जान पहचान वाला रेलवे का भारतीय कर्मचारी मिल गया। क्रांतिकारी यदि चाहते तो सबूत मिटाने के लिए उसे मार सकते थे लेकिन उन्होंने किसी की हत्या करना उचित नहीं समझा।
उस रेलवे कर्मचारी ने भी वायदा किया था कि वह किसी को कुछ नहीं बताएगा लेकिन बाद में इनाम के लालच में उसने ही पुलिस को सब कुछ बता दिया। इस तरह अपने ही देश के एक गद्दार की वजह से काकोरी की घटना में शामिल सभी जांबाज स्वतंत्रता सेनानी पकड़े गए लेकिन चंद्रशेखर आजाद जीते जी कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।
सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान के बलिदान दिवस पर उनको शत शत नमन !
शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011
रि - पोस्ट विजय दिवस पर विशेष
ऊपर दी गई इस तस्वीर को देख कर कुछ याद आया आपको ?
आज १६ दिसम्बर है ... आज ही के दिन सन १९७१ में हमारी सेना ने पाकिस्तानी सेना को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था ... और बंगलादेश की आज़ादी का रास्ता साफ़ और पुख्ता किया था ! तब से हर साल १६ दिसम्बर विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है !
आइये कुछ और तस्वीरो से उस महान दिन की यादें ताज़ा करें !
आप सब को विजय दिवस की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
जय हिंद !!!
बुधवार, 14 दिसंबर 2011
डाइबिटिक रेटिनोपैथी हल्के में लेना पड़ेगा भारी
हम में से सब को अपना अपना परिवार बेहद प्रिय होता है ... और होना भी चाहिए ... अगर परिवार के एक भी सदस्य पर कोई विपत्ति आ जाये तो पूरा परिवार परेशान हो जाता है ... ख़ास कर अगर परिवार का सब से ज़िम्मेदार बन्दे पर कोई विपत्ति आ जाये तो मामला और भी संजीदा हो जाता है ... ऐसा ही कुछ हुआ है मेरी ससुराल पक्ष में ... मेरे मामा ससुर साहब श्री बाल कृष्ण चतुर्वेदी जी पिछले काफी महीनो से जूझ रहे है अपनी बीमारी से ... मामा जी को शुगर है और इसी के कारण लगभग ४ महिना पहले अचानक उनकी दोनों आँखों की रौशनी चली गयी ... हम सब काफी परेशान हो गए कि यह अचानक से क्या हो गया ... बाल कृष्ण मामा जी ही पूरे परिवार को संभालें हुए है पिछले २ सालों से ... जब एक एक सालों के अंतर से उनके दो भाइयो का निधन हो गया !
मेरी जानकारी में भी यह पहला मामला था कि जब शुगर के चलते किसी की आँखों की रौशनी जाने के बारे में सुना हो ... खैर आजकल मामा जी पहले से काफी बहेतर है ... उनका इलाज चल रहा है और भगवान् ने चाहा तो बहुत जल्द उनको पूरा आराम भी आ जायेगा!
आज ऐसे ही नेट पर कुछ खंगालते हुए एक आलेख पर नज़र पड़ी ... जिस को पढ़ कर मामाजी का ख्याल आ गया और साथ साथ उनकी बीमारी के बारे में भी काफी जानकारी मिल गयी ! यहाँ उस आलेख को आप सब के साथ साँझा कर रहा हूँ ताकि आप सब को यह जानकारी मिल सकें !
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मधुमेह के आँख पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से कम लोग ही वाकिफ हैं। डाइबिटिक रेटिनोपैथी एक ऐसा रोग है, जिसमें आँख की रेटिना पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की अनदेखी करने पर रोगी की आँख की रोशनी तक जा सकती है।
कैसे लाएं इस रोग को काबू में..?
मधुमेह या डाइबिटीज को नियत्रण में नहीं रखा गया तो यह कालातर में आँखों की रेटिना [आंख का पर्दा] पर दुष्प्रभाव डालती है। मधुमेह से गुर्र्दो, तत्रिकाओं [नर्व्स] व शरीर के अन्य अंगों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से अनेक लोग अवगत हैं, लेकिन इस रोग के आखों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से बहुत कम लोग वाकिफ हैं। डाइबिटिक रेटिनोपैथी एक ऐसा रोग है, जिसमें आँख की रेटिना पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव की अनदेखी की गयी, तो इस मर्ज में आँख की रोशनी तक जा सकती है।
रोग का स्वरूप
डाइबिटिक रेटिनोपैथी के प्रतिकूल प्रभाव से रेटिना की छोटी रक्त वाहिकाएं [स्माल ब्लड वेसेल्स] कमजोर हो जाती हैं और इनके मूल स्वरूप में बदलाव हो जाता है। रक्त वाहिकाओं में सूजन आ सकती है, रक्तवाहिकाओं से रक्तस्राव होने लगता है या फिर इन रक्त वाहिकाओं में ब्रश की तरह की कई शाखाएं सी विकसित हो जाती हैं। इस स्थिति में रेटिना को स्वस्थ रखने के लिए ऑक्सीजन और पोषक तत्वों की आपूर्ति में बाधा पड़ती है।
लक्षण
शुरुआती दौर में डाइबिटिक रेटिनोपैथी के लक्षण सामान्य तौर पर प्रकट नहीं होते, लेकिन जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है,वैसे-वैसे दृष्टि में धुंधलापन आने लगता है। अगर समुचित इलाज नहीं किया गया, तो अचानक आँख की रोशनी चली जाती है।
याद रखें
* गर्भावस्था में डाइबिटिक रेटिनोपैथी की समस्या बढ़ जाती है।
* उच्च रक्तचाप [हाई ब्लडप्रेशर] इस रोग की स्थिति को गभीर बना देता है।
* बचपन या किशोरावस्था में मधुमेह से ग्रस्त होने वाले बच्चों व किशोरों में यह मर्ज युवावस्था मे भी हो सकता है।
इलाज
डाइबिटिक रेटिनोपैथी का इलाज दो विधियों से किया जाता है
1. लेजर से उपचार: इसे 'लेजर फोटोकोएगुलेशन' भी कहते हैं, जिसका ज्यादातर मामलों में इस्तेमाल किया जाता है। मधुमेह से ग्रस्त जिन रोगियों की आँखों की रोशनी के जाने या उनकी दृष्टि के क्षीण होने का जोखिम होता है, उनमें इस उपचार विधि का प्रयोग किया जाता है। इस सदर्भ में यह बात याद रखी जानी चाहिए कि लेजर उपचार का प्रमुख उद्देश्य दृष्टि के मौजूदा स्तर को बरकरार रखकर उसे सुरक्षित रखना है, दृष्टि को बेहतर बनाना नहीं। रक्त वाहिकाओं [ब्लड वेसल्स] में लीकेज होने से रेटिना में सूजन आ जाती है। इस लीकेज को बंद करने के लिए इस विधि का इस्तेमाल किया जाता है। यदि नेत्रों में नई रक्तवाहिकाएं विकसित होने लगती हैं, तो उस स्थिति में पैन रेटिनल फोटोकोएगुलेशन [पीआरपी] तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। बहरहाल लेजर तकनीक से सामान्य तौर पर कारगर लाभ मिलने में तीन से चार महीने का वक्त लगता है।
2 वीट्रेक्टॅमी: कभी-कभी नई रक्त वाहिकाओं [ब्लड वैसल्स] से आँख के मध्य भाग में जेली की तरह रक्तस्राव होने लगता है। इस स्थिति को 'वीट्रीअॅस हेमरेज' कहते हैं, जिसके कारण दृष्टि की अचानक क्षति हो जाती है। अगर 'वीट्रीअॅस हेमरेज' बना रहता है, तब वीट्रेक्टॅमी की प्रक्रिया की जाती है। यह सूक्ष्म सर्जिकल प्रक्रिया है। जिसके माध्यम से आँख के मध्य से रक्त और दागदार ऊतकों [टिश्यूज] को हटाया जाता है।
कब बढ़ता है खतरा
मधुमेह की अवधि के बढ़ने के साथ इस रोग के होने की आशकाएं बढ़ती जाती हैं। फिर भी ऐसा देखा गया है कि 80 फीसदी लोग जो लगभग पिछले 15 सालों से अधिक वक्त से मधुमेह से ग्रस्त हैं, उनकी रेटिना की रक्त वाहिकाओं में कोई न कोई विकार [डिफेक्ट] आ जाता है।
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रविवार, 4 दिसंबर 2011
मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया ... देव आनंद
२६ सितम्बर १९२३ - ०४ दिसम्बर २०११ |
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया। जिस वक्त यह गाना लिखा गया और फिल्माया गया किसी ने नहीं सोचा था कि देव आनंद बालीवुड में इतनी लंबी पारी खेलेंगे जिसको दुनिया सलाम करेगी। 1946 से लगातार 2011 तक बालीवुड में सक्रिय रहने के बाद बालीवुड के इस अभिनेता ने लंदन में अंतिम सांस ली। 88 वर्ष की उम्र में देव साहब का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। वह लंदन इलाज के सिलसिले में गए हुए थे। 26 सितंबर 1923 में पंजाब के गुरदासपुर जिले में जन्मे देव साहब का फिल्मों से बहुत पुराना नाता रहा है। उनका हमेशा से ही रुझान फिल्मों की तरफ रहा। बालीवुड का रुख करने से पहले उन्होंने चालीस के दशक की शुरुआत में मुंबई में मिलिट्री सेंसर आफिस में काम किया। इसके बाद उन्होंने आल इंडिया रेडियो में भी काम किया था। लेकिन जब उन्होंने बालीवुड का रुख किया तो फिर कभी पलट कर नहीं देखा। देव आनंद बालीवुड के दूसरे ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने शो-मैन राजकपूर के बाद अपने बैनर के तहत फिल्मों का निर्माण किया। अपने बैनर के तहत कुल 35 फिल्मों का निर्माण करने वाले देव आनंद ने जीनत अमान समेत कई दूसरी अभिनेत्रियों को बालीवुड के पर्दे पर लेकर आए थे। देव आनंद के संवाद बोलने का तरीका हो या उनके कपड़े पहने का अंदाज सभी लोगों के सर चढ़ कर बोलता था। देव साहब की शोहरत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लोगों के काले कपड़े पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया था।
देव साहब को आज भी फिल्म जगत में एक दिग्गज अभिनेता के रूप में जाना जाता है। आखिर तक उनके दिल और दिमाग से फिल्मों का जुनून कम नहीं होने पाया। एक फिल्म के निर्माण के दौरान ही वह दूसरी फिल्म की कहानी दिमाग में आने लगती थी। देव साहब के साथ उनके दोनों भाई चेतन आनंद और केतन आनंद का भी बालीवुड में काफी सक्रिय योगदान रहा। देव आनंद साहब के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने गुरू दत्ता साहब के साथ में एक समझौता किया था जिसके तहत यदि वह फिल्म का निर्माण करेंगे तो उसमें गुरू दत्ता अभिनय करेंगे और यदि वह फिल्म का निर्माण करेंगे तो गुरू दत्ता उसमें अभिनय करेंगे। गुरू दत्ता के अंतिम समय तक भी यह करार बरकरार था। अपने बैनर के तहत बनने वाली दूसरी फिल्म बाजी की सफलता ने उन्होंने पलट कर नहीं देखा। उनकी अदा के दीवाने खुद पूर्व प्रधानमंत्री पंडित नेहरू भी थे।
भारत सरकार ने उन्हें 2001 में पद्म विभूषण और 2002 में दादा साहब फालके पुरस्कार से उन्हें नवाजा था। मौजूदा समय में वह अपनी फिल्म चार्जशीट को लेकर चर्चा में थे।
लाहौर के गवर्नमेंट कालेज से इंग्लिश लिटरेचर से स्नातक करने वाले देव आनंद ने चालीस के दशक में मुंबई आकर मिलिट्री सेंसर आफिस में भी काम किया था। इसके बाद उन्होंने आल इंडिया रेडियो का रुख किया। 1941 में अपनी पहली फिल्म हम एक हैं से शुरुआत करने वाले देव आनंद ने प्रेम पुजारी, गाईड, हरे रामा हरे कृष्णा, बम्बई का बाबू, तेरे घर के सामने समेत अनेक सफल फिल्में दीं। आज उनके निधन से पूरा बालीवुड गमगीन है। उनके जाने से हिंदी सिनेमा में एक युग का अंत हो गया।
मैनपुरी के सभी सिने प्रेमियों की ओर से देव साहब को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !
गुरुवार, 1 दिसंबर 2011
ब्लॉगर पवन कुमार जी के पैतृक आवास में चोरी
आईएएस अधिकारी और जाने माने ब्लॉगर श्री पवन कुमार जी के पैतृक आवास में सो रहे परिजनों को एक कमरे में बंद कर चोरों ने नगदी, सोने चांदी के आभूषण चुरा लिए। चोरों की आहट पर मकान के नीचे के कमरे में सो रहे युवक के जागने पर चोर भाग गए। आईएएस अधिकारी के पैतृक आवास से चोरी की जानकारी होते ही पुलिस हरकत में आ गई। पवन जी के छोटे भाई हृदेश सिंह ने चोरी की तहरीर थाने में दे दी है।
थाना कोतवाली के राजा का बाग निवासी पवन कुमार सिंह नोएडा में सीडीओ के पद पर तैनात हैं। उनके परिवार के लोग राजा का बाग में निवास करते हैं। उनके आवास में पिछले दिनों निर्माण कार्य करने के लिए मजदूरों को लगाया गया था। मंगलवार की रात पवन जी के परिवार के लोग घर में सो रहे थे। रात दो बजे के बाद अज्ञात चोर घर में प्रवेश कर गए। चोरों ने मकान के ऊपरी हिस्से में बने उस कमरे की कुंडी बाहर से बंद कर दी। जिसमें परिवार की महिलायें तथा पुरुष लेटे थे। चोरों ने दूसरे कमरे का ताला तोड़कर प्रवेश कर लिया।
बताते हैं कि इस कमरे में रखी एक अलमारी का चोरों ने किसी तरह ताला खोल लिया। अलमारी में रखी 40 हजार रुपये की नगदी, सोने चांदी के आभूषण चुरा लिए। परिजनों के अनुसार चोर लगभग दो लाख कीमत के आभूषण चुरा ले गए हैं। इसी बीच चोरों की आहट पाकर मकान के नीचे के कमरे में सो रहा पवन जी का छोटा भाई श्यामकांत जाग गया। वह मकान के ऊपरी हिस्से में आया तो चोर छत से कूदकर भाग गए। श्यामकांत ने बंद कमरे की कुंडी खोलकर परिजनों को बाहर निकाला। परिजनों ने चोरी की पुलिस को सूचना दे दी। पवन जी को भी परिजनों ने चोरी हो जाने की सूचना रात में ही फोन से दे दी। पवन जी ने एस पी नितिन तिवारी को अपने आवास में चोरी हो जाने की सूचना दी। आईएएस के मकान में चोरी की जानकारी होते ही पुलिस में हड़कंप मच गया। सीओ सिटी आरके मिश्रा मौके पर आ गए। पुलिस ने परिजनों से भी चोरी के संबंध में जानकारी ली। परिजनों के बताए अनुसार पुलिस चोरी के शक में चार मजदूरों को हिरासत में लेकर पूछताछ की है। पवन जी के छोटे भाई हृदेश कुमार सिंह ने चोरी की रिपोर्ट दर्ज करा दी है।
थाना कोतवाली के राजा का बाग निवासी पवन कुमार सिंह नोएडा में सीडीओ के पद पर तैनात हैं। उनके परिवार के लोग राजा का बाग में निवास करते हैं। उनके आवास में पिछले दिनों निर्माण कार्य करने के लिए मजदूरों को लगाया गया था। मंगलवार की रात पवन जी के परिवार के लोग घर में सो रहे थे। रात दो बजे के बाद अज्ञात चोर घर में प्रवेश कर गए। चोरों ने मकान के ऊपरी हिस्से में बने उस कमरे की कुंडी बाहर से बंद कर दी। जिसमें परिवार की महिलायें तथा पुरुष लेटे थे। चोरों ने दूसरे कमरे का ताला तोड़कर प्रवेश कर लिया।
बताते हैं कि इस कमरे में रखी एक अलमारी का चोरों ने किसी तरह ताला खोल लिया। अलमारी में रखी 40 हजार रुपये की नगदी, सोने चांदी के आभूषण चुरा लिए। परिजनों के अनुसार चोर लगभग दो लाख कीमत के आभूषण चुरा ले गए हैं। इसी बीच चोरों की आहट पाकर मकान के नीचे के कमरे में सो रहा पवन जी का छोटा भाई श्यामकांत जाग गया। वह मकान के ऊपरी हिस्से में आया तो चोर छत से कूदकर भाग गए। श्यामकांत ने बंद कमरे की कुंडी खोलकर परिजनों को बाहर निकाला। परिजनों ने चोरी की पुलिस को सूचना दे दी। पवन जी को भी परिजनों ने चोरी हो जाने की सूचना रात में ही फोन से दे दी। पवन जी ने एस पी नितिन तिवारी को अपने आवास में चोरी हो जाने की सूचना दी। आईएएस के मकान में चोरी की जानकारी होते ही पुलिस में हड़कंप मच गया। सीओ सिटी आरके मिश्रा मौके पर आ गए। पुलिस ने परिजनों से भी चोरी के संबंध में जानकारी ली। परिजनों के बताए अनुसार पुलिस चोरी के शक में चार मजदूरों को हिरासत में लेकर पूछताछ की है। पवन जी के छोटे भाई हृदेश कुमार सिंह ने चोरी की रिपोर्ट दर्ज करा दी है।
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