
अपनी ओजस्वी वाणी से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के खजाने को समृद्धि  के नए शिखर पर ले जाने वाले पंडित भीमसेन जोशी का पुणे में लंबी बीमारी के बाद  निधन हो गया। पंडित जोशी 89 वर्ष के थे।  
उनके परिवार ने बताया कि 'भारत रत्न' से सम्मानित जोशी को 31 दिसंबर को  अस्पताल में भर्ती कराया गया था। वृद्धावस्था की परेशानियों के कारण उनके  गुर्दे और श्वसन तंत्र ने काम करना बंद कर दिया था, जिसके बाद उन्हें जीवन  रक्षक तंत्र पर रखा गया था। 
खानसाहिब अब्दुल करीम खान के 'कैराना घराने' से संबद्ध पंडित जोशी के परिवार में तीन पुत्र और एक पुत्री हैं। 
उनके निधन की खबर फैलते ही शहर में मायूसी का माहौल है और लोगों ने  'ख्याल गायकी' के दिग्गज पंडित जोशी के घर के बाहर उनके अंतिम दर्शन के लिए  जुटना शुरू कर दिया है। 
चार फरवरी, 1922 को कर्नाटक के धारवाड़ जिले के गडग में जन्मे पंडित  जोशी को सबसे पहले जनवरी, 1946 में पुणे में एक कंसर्ट से सबसे ज्यादा  पहचान मिली। यह उनके गुरू स्वामी गंधर्व के 60वें जन्मदिन के मौके पर  आयोजित एक समारोह था। उनकी ओजस्वी वाणी, सांस पर अद्भुत नियंत्रण और संगीत  की गहरी समझ उन्हें दूसरे गायकों से पूरी तरह अलग करती थी। 
पंडित जोशी ने तानसेन के जीवन पर आधारित एक बांग्ला फिल्म में एक  'ध्रुपद' गायक के तौर पर अपनी आवाज दी और उसके बाद मराठी फिल्म 'गुलाचा  गणपति' के लिए भी अपनी गायन प्रतिभा प्रदर्शित की। उन्होंने हिंदी फिल्मों  'बसंत बहार' और 'भैरवी' में भी अपनी आवाज का जादू बिखेरा। पंडित जोशी की  'संत वाणी' और मराठी 'भक्ति संगीत' के प्रभाव के चलते उनकी आवाज महाराष्ट्र  और कर्नाटक के घर-घर में पहुंची। 
पंडित जोशी को 972 में पद्मश्री, 1975 में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1985 में पद्म भूषण और 1992 में मध्य  प्रदेश सरकार के 'तानसेन सम्मान' से सम्मानित किया गया। उन्हें 2008 में  'भारत रत्न' से विभूषित किया गया। 
पंडित जोशी का 1999 में ब्रेन ट्यूमर का ऑपरेशन और 2005 में सर्वाइकल स्पाइन का ऑपरेशन हुआ। 
पंडित जोशी ने 2007 में 'सवाई गंधर्व' वार्षिक संगीत समारोह में अपनी  सार्वजनिक प्रस्तुति से लोगों को अभिभूत कर दिया। यह समारोह अपने गुरू की  याद में उन्होंने ही शुरू किया था। 
युगों तक फिजाओं में गूंजेंगे वो सुर जो तुमने छेड़े 
-हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक युग का आज अवसान हो गया। पर इस  युग के पुरोधा और 'भारत रत्न' पंडित भीमसेन जोशी ने सुरों को उस ऊंचाई पर  पहुंचा दिया कि आने वाले कई युगों तक ए स्वर हवाओं में तैरते रहेंगे। पंडित  भीमसेन जोशी उन महान कलाकारों में से थे जो अपनी सुरमई आवाज से हर्ष और  विषाद दोनों ही भावों में जान डाल कर श्रोताओं के दिल में गहरे तक बस चुके  थे। 
वर्तमान समय में जोशी को सर्वाधिक लोकप्रिय हिन्दुस्तानी शास्त्रीय  गायक बनाने में निर्विवाद रूप से उनकी दमदार आवाज की अहम भूमिका थी। जोशी  किराना घराने का प्रतिनिधित्व करते थे लेकिन उन्होंने हल्के शास्त्रीय  संगीत, भक्ति संगीत और अन्य विविधतापूर्ण संगीत में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी।  
चातुर्य और जुनून के संगम ने ही जोशी को उन अन्य शास्त्रीय गायकों से  अलग स्थान दिया था जो अपनी घराना संस्कृति से ही जुड़े रहते थे जिससे उनकी  रचनात्मकता बाधित हो सकती थी। 
चार फरवरी 1922 को कर्नाटक के धारवाड़ जिले के गडग में जन्मे जोशी को  बचपन से ही संगीत से लगाव था। वह संगीत सीखने के उद्देश्य से 11 साल की  उम्र में गुरू की तलाश के लिए घर से चले गए। जब वह घर पर थे तो खेलने की  उम्र में वह अपने दादा का तानपुरा बजाने लगे थे। संगीत के प्रति उनकी  दीवानगी का आलम यह था कि गली से गुजरती भजन मंडली या समीप की मस्जिद से आती  'अजान' की आवाज सुनकर ही वह घर से बाहर दौड़ पड़ते थे। 
स्कूल से घर लौटते समय जोशी, ग्रामोफोन रिकॉर्ड बेचने वाली एक दुकान के  सामने खड़े हो जाते थे और वहां बज रहा संगीत सुनते थे। वहीं उन्होंने  अब्दुल करीम खान का एक रिकॉर्ड सुना। यहीं से उनके मन में गुरू की चाह भी  उठ खड़ी हुई। यह बात जोशी ने अपनी आत्मकथा लिखने वाले को एक साक्षात्कार में  बताई थी। 
गुरू की तलाश के लिए जोशी ने घर छोड़ा और गडग रेलवे स्टेशन चल पड़े। मुड़ी  तुड़ी कमीज, हाफ पैंट पहने जोशी टिकट लिए बिना ट्रेन में बैठे और बीजापुर  पहुंच गए। वहां आजीविका के लिए वह भजन गाने लगे। एक संगीतप्रेमी ने उन्हें  ग्वालियर जाने की सलाह दी। वह जाना भी चाहते थे लेकिन ट्रेन को लेकर कुछ  गफलत हुई और जोशी महाराष्ट्र की संस्कृति के धनी पुणे शहर पहुंच गए। 
पुणे में उन्होंने प्रख्यात शास्त्रीय गायक कृष्णराव फूलाम्बरीकर से  संगीत सिखाने का अनुरोध किया। लेकिन फुलाम्बरीकर ने उनसे मासिक फीस की मांग  की जिसे देना उस लड़के के लिए संभव नहीं था जिसके लापता होने पर अभिभावक  गडग पुलिस थाने में शिकायत दर्ज करा चुके थे। जोशी निराश हुए लेकिन उनका  मनोबल नहीं टूटा। वह पुणे से मुंबई चले गए। गुरू की तलाश उन्हें  हिन्दुस्तानी संगीत के केंद्र ग्वालियर ले गई जो उनका वास्तविक गंतव्य था।  ग्वालियर के महाराज के संरक्षण में रह रहे सरोद उस्ताद हाफि़ज अली खान की  मदद से युवा जोशी ने माधव संगीत विद्यालय में प्रवेश लिया। यह विद्यालय उन  दिनों अग्रणी संगीत संस्थान था। 
गायकी के तकनीकी पहलुओं को सीखते हुए जोशी ने 'ख्याल' की बारीकियों को  आत्मसात किया। ख्याल गायन को ग्वालियर घराने की देन माना जाता है। 
विद्यालय में मिली शिक्षा जोशी की संगीत सीखने की चाहत को संतृप्त नहीं  कर पाई। एक बार फिर वह हाफि़ज अली खान से मिले और उस्ताद से अनुरोध किया  कि वह उन्हें 'मारवा' राग तथा 'पूरिया' राग में अंतर समझाएं। बाद में जोशी  ने इन दोनों शास्त्रीय रागों में महारत हासिल कर ली। 
विद्यालय के एक शिक्षक की सलाह पर जोशी ने ग्वालियर छोड़ा और बंगाल चले  गए। वहां उन्होंने भीष्मदेव चटर्जी के अनुयायी बन कर उनसे राग 'गांधार'  सीखा। चटर्जी अपनी व्यस्तता के चलते अपने शिष्य को सिखाने के लिए पर्याप्त  समय नहीं दे पाते थे। कुछ समय यहां रहने के बाद जोशी जालंधर चले गए। 
जालंधर में होने वाले संगीत समारोह में देश भर के कलाकार हिस्सा लेते  थे। यहां की श्रमसाध्य दिनचर्या ने जोशी को इतना मजबूत बना दिया कि वह बिना  किसी समस्या के आजीवन कठोर रियाज करते रहे। 
संयोगवश एक जलसे में जोशी की मुलाकात विनायकराव पटवर्द्धन से हुई।  उन्होंने जोशी को उनके गृह नगर लौट जाने की सलाह दी और कहा कि वह कोंदगल  में मौजूद कैराना घराने के प्रख्यात कलाकार सवाई गंधर्व के शिष्य बन जाएं।  सवाई गंधर्व अब्दुल करीम खान के प्रमुख शिष्य थे। उन्होंने जोशी से कहा कि  वह पहले उनकी परीक्षा लेंगे और फिर उन्हें संगीत सिखाने के बारे में विचार  करेंगे। 
जोशी परीक्षा में पास हो गए और सवाई गंधर्व ने उन्हें राग 'तोड़ी',  'मुल्तानी' तथा 'पूरिया' सिखाया क्योंकि वह मानते थे कि इन रागों का ज्ञान न  केवल सुरीली आवाज के लिए जरूरी होता है बल्कि इससे इसके आरोह-अवरोह,  तीव्रता से लेकर रेंज तक में सुधार होता है। 
जोशी की शागिर्दी पांच साल तक चली। इस दौरान वह अपने गुरू के साथ संगीत  समारोहों में भी गए। जल्द ही उन्होंने धारवाड़, सांगली, मिराज और कुरूंदवाड़  में छोटी प्रस्तुतियां देना शुरू कर दिया। उनके प्रशंसकों में  मल्लिकार्जुन मंसूर भी थे जो बाद में देश के प्रख्यात गायक के तौर पर उभरे।  

जोशी संगीत जगत की नामचीन हस्ती बनते गए। इसी दौरान उन्होंने मुंबई में  एक सार्वजनिक प्रस्तुति दी जो बेहद सफल रही। पुणे में जनवरी 1946 में  उन्होंने अपने गुरू के 60 वें जन्मदिन पर जो कार्यक्रम पेश किया उसने जोशी  को श्रोताओं के दिलों में स्थापित कर दिया। इसके बाद उन्होंने देश भर में  कार्यक्रम पेश किए। उन्होंने जल्द ही 'परंपरागत मूल्यों और सामूहिक  संस्कृति के शौक' के बीच तालमेल बना लिया। उनकी दमदार आवाज़ उन्हें दूसरों  से अलग कर देती थीा। श्वांस पर उनका अद्भुत नियंत्रण था। संगीत की  संवेदनशीलता की उन्हें परख थी। इन खूबियों के चलते वह ज्ञान और जुनून का  ऐसा मिलाजुला संगम पेश करने वाले सर्वोच्च हिन्दुस्तानी गायक बन गए जो जीवन  और संगीत के प्रति उनकी दीवानगी बताता था। 
बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि इस शास्त्रीय गायक ने तानसेन के जीवन  पर बनी एक बांग्ला फिल्म के लिए 'धु्रपद' गाया था। बाद में उन्होंने  प्रख्यात मराठी विदूषक 'पु ला' देशपांडे द्वारा निर्मित निर्देशित मराठी  फिल्म 'गुलाचा गणपति' के लिए पार्श्वगायन किया। हिन्दी फिल्मों 'बसंत  बहार' और 'भैरवी' के लिए भी जोशी ने पार्श्वगायन किया था। 
जोशी का शास्त्रीय संगीत सरहदों के पार चला गया। डच फिल्म निर्माता और  निर्देशक एम लुइस ने वेंकूवर में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव  में जोशी को राग 'तोड़ी' गाते सुना और भारत में उनके संगीत पर एक फिल्म  बनाई। फिल्म का प्रदर्शन पश्चिम में हुआ। 
भारतीय शास्त्रीय संगीत में गहरी दिलचस्पी रखने वाले, कनाडा के  उद्योगपति जेम्स बेवेरिज पुणे आए और जोशी पर 20 मिनट का वृत्तचित्र तैयार  किया। इसका शीर्षक 'राग मियां मल्हार' था। भारत में प्रख्यात निर्देशक  गुलज़ार ने भीमसेन जोशी के जीवन और करियर पर 1993 में 45 मिनट का एक  वृत्तचित्र बनाया था जिसे सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री फिल्म के लिए  राष्ट्रीय अवार्ड मिला था। 
शास्त्रीय संगीत के सुरों को अपनी धड़कन मानने वाले जोशी न केवल कार  चलाने के शौकीन थे बल्कि अच्छे तैराक भी थे। युवाकाल में उन्हें योग करना  और फुटबॉल खेलना बहुत अच्छा लगता था। मदिरा के प्रति अपनी कमजोरी से अवगत  जोशी को जब अहसास हुआ कि इससे उनका करियर प्रभावित हो रहा है तो 1979 में  उन्होंने इससे तौबा कर ली। 
सफलता की राह पर बढ़ते जोशी की लोकप्रियता और कला का जादू कभी कम नहीं  हुआ। 1972 में उन्हें पद्मश्री सम्मान, 1975 में संगीत नाटक अकादमी अवार्ड,  1985 में पद्म भूषण सम्मान से नवाज़ा गया। मध्यप्रदेश सरकार ने 1992 में  जोशी को 'तानसेन सम्मान' प्रदान किया। 
दूरदर्शन के राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए तैयार किए गए  कार्यक्रम 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' को अपनी वाणी देकर पंडित भीमसेन जोश ने  न केवल देशवासियों में राष्ट्रभक्ति का एक नया जज्बा पैदा किया बल्कि खुद  भी देश की एक आवाज बन गए। 
जोशी के एक आत्मकथा लेखक ने उनके बारे में कभी कहा था, 'एक ऐसा व्यक्ति  जो पूरे रोमांस तथा प्रबलता और अपने संगीत की पूरी पहचान के साथ अपना जीवन  जीता है और उसे प्यार करता है ़ ़।' 
वास्तविक जीवन में वह एक सीधे सादे, पारदर्शी व्यक्ति थे। उम्र बढ़ने  के कारण पंडित जी ने पिछले कुछ वर्ष से सार्वजनिक कार्यक्रम देना बंद कर  दिया था। लेकिन 2007 में आयोजित सवाई गंधर्व महोत्सव में जब वह व्हीलचेयर  पर आए और लोगों की फरमाइश पर एक प्रस्तुति दी तो यह पल संगीतप्रेमियों के  जीवन का यादगार पल बन गया। यह वह अंतिम अवसर था जब जोशी सार्वजनिक रूप से  नजर आए थे। अपने गुरू सवाई गंधर्व की याद में सालाना सवाई गंधर्व महोत्सव  का आयोजन जोशी ने ही शुरू किया था। 
वर्ष 2008 में जोशी देश के सर्वोच्च असैन्य सम्मान 'भारत रत्न' से  सम्मानित किए गए। यह एक कृतज्ञ देश की ओर से पंडित  को दिया गया  सम्मान था जिन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को समृद्ध किया और अपनी  नायाब आवाज़ से आम आदमी को इसके करीब पहुंचाया।
(जागरण से साभार) 
पंडित भीमसेन जोशी जी को सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि !