आज का दिन भारतवासियों के लिए बहुत ही खास है क्योंकि 77 वर्ष पूर्व इसी दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अखंड भारत की स्वतंत्र भूमि पर पोर्ट ब्लेयर में आजादी का झंडा फहराया था। 30 दिसंबर, 1943 को नेताजी ने पहली बार भारतीय जमीन पर सबसे पहले तिरंगा फहराया था। यह झंडा आजाद हिंद फौज का था।
पूरे दिन में हमारे साथ जो जो होता है उसका ही एक लेखा जोखा " बुरा भला " के नाम से आप सब के सामने लाने का प्रयास किया है | यह जरूरी नहीं जो हमारे साथ होता है वह सब " बुरा " हो, साथ साथ यह भी एक परम सत्य है कि सब " भला " भी नहीं होता | इस ब्लॉग में हमारी कोशिश यह होगी कि दिन भर के घटनाक्रम में से हम " बुरा " और " भला " छांट कर यहाँ पेश करे |
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बुधवार, 30 दिसंबर 2020
77 वर्ष पूर्व नेताजी बोस ने अखंड भारत की स्वतंत्र भूमि पर लहराया था तिरंगा
आज का दिन भारतवासियों के लिए बहुत ही खास है क्योंकि 77 वर्ष पूर्व इसी दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अखंड भारत की स्वतंत्र भूमि पर पोर्ट ब्लेयर में आजादी का झंडा फहराया था। 30 दिसंबर, 1943 को नेताजी ने पहली बार भारतीय जमीन पर सबसे पहले तिरंगा फहराया था। यह झंडा आजाद हिंद फौज का था।
डॉ॰ विक्रम साराभाई की ४९ वीं पुण्यतिथि
परिचय
डॉ॰ साराभाई के व्यक्तित्व का सर्वाधिक उल्लेखनीय पहलू उनकी रूचि की सीमा और विस्तार तथा ऐसे तौर-तरीके थे जिनमें उन्होंने अपने विचारों को संस्थाओं में परिवर्तित किया। सृजनशील वैज्ञानिक, सफल और दूरदर्शी उद्योगपति, उच्च कोटि के प्रवर्तक, महान संस्था निर्माता, अलग किस्म के शिक्षाविद, कला पारखी, सामाजिक परिवर्तन के ठेकेदार, अग्रणी प्रबंध प्रशिक्षक आदि जैसी अनेक विशेषताएं उनके व्यक्तित्व में समाहित थीं। उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि वे एक ऐसे उच्च कोटि के इन्सान थे जिसके मन में दूसरों के प्रति असाधारण सहानुभूति थी। वह एक ऐसे व्यक्ति थे कि जो भी उनके संपर्क में आता, उनसे प्रभावित हुए बिना न रहता। वे जिनके साथ भी बातचीत करते, उनके साथ फौरी तौर पर व्यक्तिगत सौहार्द स्थापित कर लेते थे। ऐसा इसलिए संभव हो पाता था क्योंकि वे लोगों के हृदय में अपने लिए आदर और विश्वास की जगह बना लेते थे और उन पर अपनी ईमानदारी की छाप छोड़ जाते थे।
आरम्भिक जीवन
डॉ॰ विक्रम साराभाई का अहमदाबाद में 12 अगस्त 1919 को एक समृध्द जैन परिवार में जन्म हुआ। अहमदाबाद में उनका पैत्रिक घर न्न द रिट्रीट#न्न में उनके बचपन के समय सभी क्षेत्रों से जुड़े महत्वपूर्ण लोग आया करते थे। इसका साराभाई के व्यक्तित्व के विकास पर महत्वपूर्ण असर पड़ा। उनके पिता का नाम श्री अम्बालाल साराभाई और माता का नाम श्रीमती सरला साराभाई था। विक्रम साराभाई की प्रारम्भिक शिक्षा उनकी माता सरला साराभाई द्वारा मैडम मारिया मोन्टेसरी की तरह शुरू किए गए पारिवारिक स्कूल में हुई। गुजरात कॉलेज से इंटरमीडिएट तक विज्ञान की शिक्षा पूरी करने के बाद वे 1937 में कैम्ब्रिज (इंग्लैंड) चले गए जहां 1940 में प्राकृतिक विज्ञान में ट्राइपोज डिग्री प्राप्त की। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने पर वे भारत लौट आए और बंगलौर स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान में नौकरी करने लगे जहां वह सी. वी. रमण के निरीक्षण में कॉसमिक रेज़ पर अनुसंधान करने लगे।
उन्होंने अपना पहला अनुसंधान लेख न्न टाइम डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ कास्मिक रेज़ न्न भारतीय विज्ञान अकादमी की कार्यविवरणिका में प्रकाशित किया। वर्ष 1940-45 की अवधि के दौरान कॉस्मिक रेज़ पर साराभाई के अनुसंधान कार्य में बंगलौर और कश्मीर-हिमालय में उच्च स्तरीय केन्द्र के गेइजर-मूलर गणकों पर कॉस्मिक रेज़ के समय-रूपांतरणों का अध्ययन शामिल था। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर वे कॉस्मिक रे भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अपनी डाक्ट्रेट पूरी करने के लिए कैम्ब्रिज लौट गए। 1947 में उष्णकटीबंधीय अक्षांक्ष (ट्रॉपीकल लैटीच्यूड्स) में कॉस्मिक रे पर अपने शोधग्रंथ के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उन्हें डाक्ट्ररेट की उपाधि से सम्मानित किया गया। इसके बाद वे भारत लौट आए और यहां आ कर उन्होंने कॉस्मिक रे भौतिक विज्ञान पर अपना अनुसंधान कार्य जारी रखा। भारत में उन्होंने अंतर-भूमंडलीय अंतरिक्ष, सौर-भूमध्यरेखीय संबंध और भू-चुम्बकत्व पर अध्ययन किया।
स्वप्न-द्रष्टा
डॉ॰ साराभाई एक स्वप्नद्रष्टा थे और उनमें कठोर परिश्रम की असाधारण क्षमता थी। फ्रांसीसी भौतिक वैज्ञानिक पीएरे क्यूरी (1859-1906) जिन्होंने अपनी पत्नी मैरी क्यूरी (1867-1934) के साथ मिलकर पोलोनियम और रेडियम का आविष्कार किया था, के अनुसार डॉ॰ साराभाई का उद्देश्य जीवन को स्वप्न बनाना और उस स्वप्न को वास्तविक रूप देना था। इसके अलावा डॉ॰ साराभाई ने अन्य अनेक लोगों को स्वप्न देखना और उस स्वप्न को वास्तविक बनाने के लिए काम करना सिखाया। भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की सफलता इसका प्रमाण है।
महान संस्थान निर्माता
डॉ॰ साराभाई एक महान संस्थान निर्माता थे। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी संख्या में संस्थान स्थापित करने में अपना सहयोग दिया। साराभाई ने सबसे पहले अहमदाबाद वस्त्र उद्योग की अनुसंधान एसोसिएशन (एटीआईआरए) के गठन में अपना सहयोग प्रदान किया। यह कार्य उन्होंने कैम्ब्रिज से कॉस्मिक रे भौतिकी में डाक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त कर लौटने के तत्काल बाद हाथ में लिया। उन्होंने वस्त्र प्रौद्योगिकी में कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था। एटीआईआरए का गठन भारत में वस्त्र उद्योग के आधुनिकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। उस समय कपड़े की अधिकांश मिलों में गुणवत्ता नियंत्रण की कोई तकनीक नहीं थी। डॉ॰ साराभाई ने विभिन्न समूहों और विभिन्न प्रक्रियाओं के बीच परस्पर विचार-विमर्श के अवसर उपलब्ध कराए। डॉ॰ साराभाई द्वारा स्थापित कुछ सर्वाधिक जानी-मानी संस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं- भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल), अहमदाबाद; भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद; सामुदायिक विज्ञान केन्द्र; अहमदाबाद, दर्पण अकादमी फॉर परफार्मिंग आट्र्स, अहमदाबाद; विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र, तिरूवनंतपुरम; स्पेस एप्लीकेशन्स सेंटर, अहमदाबाद; फास्टर ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर (एफबीटीआर) कलपक्कम; वैरीएबल एनर्जी साईक्लोट्रोन प्रोजक्ट, कोलकाता; भारतीय इलेक्ट्रानिक निगम लिमिटेड (ईसीआईएल) हैदराबाद और भारतीय यूरेनियम निगम लिमिटेड (यूसीआईएल) जादुगुडा, बिहार।
विज्ञान और संस्कृति
डॉ॰ होमी जे. भाभा की जनवरी, 1966 में मृत्यु के बाद डॉ॰ साराभाई को परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष का कार्यभार संभालने को कहा गया। साराभाई ने सामाजिक और आर्थिक विकास की विभिन्न गतिविधियों के लिए अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी में छिपी हुई व्यापक क्षमताओं को पहचान लिया था। इन गतिविधियों में संचार, मौसम विज्ञानमौसम संबंधी भविष्यवाणी और प्राकृतिक संसाधनों के लिए अन्वेषण आदि शामिल हैं। डॉ॰ साराभाई द्वारा स्थापित भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अहमदाबाद ने अंतरिक्ष विज्ञान में और बाद में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में अनुसंधान का पथ प्रदर्शन किया। साराभाई ने देश की रॉकेट प्रौद्योगिकी को भी आगे बढाया। उन्होंने भारत में उपग्रह टेलीविजन प्रसारण के विकास में भी अग्रणी भूमिका निभाई।
४९ वीं पुण्यतिथि के अवसर पर डॉ॰ विक्रम साराभाई को शत शत नमन |
शनिवार, 26 दिसंबर 2020
अमर शहीद ऊधम सिंह जी की १२१ वीं जयंती
लोगों में आम धारणा है कि ऊधम सिंह ने जनरल डायर को मारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया था, लेकिन भारत के इस सपूत ने डायर को नहीं, बल्कि माइकल ओडवायर को मारा था जो अमृतसर में बैसाखी के दिन हुए नरसंहार के समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था।
माइकल ओडवायर |
ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर |
गिरफ्तारी के तुरंत बाद का चित्र |
शनिवार, 19 दिसंबर 2020
काकोरी काण्ड के स्वतंत्रता सेनानियों का ९३ वां बलिदान दिवस
राम प्रसाद बिस्मिल |
अशफाक उल्ला खा |
राजेंद्र लाहिड़ी |
ठाकुर रोशन सिंह |
अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल औरअशफाक उल्ला खान के बलिदान दिवस पर उनको शत शत नमन !
गुरुवार, 17 दिसंबर 2020
अमर शहीद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी जी का ९३ वां बलिदान दिवस
राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी |
संक्षिप्त जीवनी
अध्ययन प्रेमी
गोण्डा जिला कारागार के फाँसीघर में राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी की प्रतिमा |
काकोरी काण्ड
काकोरी काण्ड के बाद बिस्मिल ने लाहिड़ी को बम बनाने का प्रशिक्षण लेने बंगाल भेज दिया। राजेन्द्र बाबू कलकत्ता गये और वहाँ से कुछ दूर स्थित दक्षिणेश्वर में उन्होंने बम बनाने का सामान इकट्ठा किया। अभी वे पूरी तरह से प्रशिक्षित भी न हो पाये थे कि किसी साथी की असावधानी से एक बम फट गया और बम का धमाका सुनकर पुलिस आ गयी। कुल ९ साथियों के साथ राजेन्द्र भी गिरफ्तार हो गये। उन पर मुकदमा दायर किया और१० वर्ष की सजा हुई जो अपील करने पर ५ वर्ष कर दी गयी। बाद में ब्रिटिश राज ने दल के सभी प्रमुख क्रान्तिकारियों पर काकोरी काण्ड के नाम से मुकदमा दायर करते हुए सभी पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने तथा खजाना लूटने का न केवल आरोप लगाया बल्कि झूठी गवाहियाँ व मनगढ़न्त प्रमाण पेश कर उसे सही साबित भी कर दिखाया। राजेन्द्र लाहिड़ी को काकोरी काण्ड में शामिल करने के लिये बंगाल से लखनऊ लाया गया।
तमाम अपीलों व दलीलों के बावजूद सरकार टस से मस न हुई और अन्तत: राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल,अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह- एक साथ चार व्यक्तियों को फाँसी की सजा सुना दी गयी। लाहिड़ी को अन्य क्रान्तिकारियों से दो दिन पूर्व १७ दिसम्बर को ही फाँसी दे दी गयी।
लाहिड़ी दिवस
१७ दिसंबर १९२८ को लिया गया था लाला लाजपत राय जी की मृत्यु का प्रतिशोध
१९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिये भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों में भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। इसी लाठी चार्ज में आहत होकर लाला लाजपत राय जी की मृत्यु हो गई थी, क्रांतिकारियों के सब्र का बांध टूट गया और लालजी की मौत का बदला लेने का प्रण किया गया।
एक गुप्त योजना के तहत क्रांतिकारियों ने पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट स्काट को मारने की योजना बनाई। सोची गयी योजना के अनुसार १७ दिसंबर १९२८ के दिन भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर जयगोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वो ख़राब हो गयी हो। जयगोपाल के इशारे पर दोनों सचेत हो गये। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी० ए० वी० स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे।
करीब सवा चार बजे, ए० एस० पी० सॉण्डर्स को आता देख कर जयगोपाल ने इशारा कर दिया और सॉण्डर्स के नज़दीक आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। तब तक इन लोगों को ये अहसास हो चुका था कि पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट स्काट की जगह उन्होंने ए० एस० पी० सॉण्डर्स को मार दिया था।
दोनों क्रांतिकारी जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। पहले से सतर्क चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया - "आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा..." नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी।
बुधवार, 16 दिसंबर 2020
अमर शहीद परमवीर चक्र विजेता सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल का ५० वां बलिदान दिवस
सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल (अंग्रेज़ी: Second Lieutenant Arun Khetarpal, जन्म: 14 अक्तूबर, 1950 – शहादत: 16 दिसम्बर, 1971) परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय सैन्य अधिकारी थे। उन्हें यह सम्मान सन 1971 में मरणोपरांत मिला। 1971 में हुआ भारत-पाकिस्तान युद्ध, जिसमें बांग्लादेश पाकिस्तान से छूटकर एक स्वतंत्र देश की तरह जन्मा, भारत के इतिहास में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यह युद्ध 16 दिसम्बर, 1971 तक चला। इसमें पाकिस्तान ने मुहँ की खाई। वह न केवल हार गया, बल्कि उससे टूट कर उसका राज्य पूर्वी पाकिस्तान एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जन्मा, जो बांग्लादेश कहलाया। इस युद्ध में अनेक वीरों ने अपने प्राणों की कुर्बानी दी। सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल उन्हीं में से एक हैं।
अरुण खेत्रपाल का जन्म जन्म 14 अक्तूबर, 1950 में पूना में हुआ। उनकी प्रारंभिक स्कूली शिक्षा उन अलग-अलग जगहों के स्कूलों में हुई, जहाँ उनके पिता भेजे गए, लेकिन स्कूली शिक्षा के अंतिम पाँच महत्त्वपूर्ण वर्ष अरुण ने लारेंस स्कूल सनावर में गुजारे। वह जितना पढ़ाई-लिखाई में निपुण थे उतना ही उनका रंग खेल के मैदान में भी जमता था। वह स्कूल के एक बेहतर क्रिकेट खिलाड़ी थे। एन.डी.ए. (NDA) के दौरान वह 'स्क्वेड्रन कैडेट' के रूप में चुने गए। इण्डियन मिलिट्री अकेडमी देहरादून में वह सीनियर अण्डर ऑफिसर बनाए। 13 जून, 1971 को वह बाकायदा पूना हॉर्स में बतौर सेकेंड लेफ्टिनेंट शामिल हुए। उन्होंने कभी किसी भी काम को बेमन से नहीं किया। मना तो किसी काम को कभी किया ही नहीं। यह उनकी तारीफ मानी जाती थी कि वह हर काम करने को खुशी-खुशी तैयार रहते थे और अपने काम के माहौल को बनाए रखते थे।
परिवार
बहादुर और अनुशासन प्रिय
अरुण खेत्रपाल के लिए बहादुरी और अनुशासन दोनों एक ही शब्द के पर्यायवाची जैसे रहे। जब वह इण्डियन मिलिट्री अकादमी में सीनियर अण्डर ऑफिसर थे, तब एक बहुत ख़ास मौका ऐसा आया, जहाँ इनका यह गुण स्पष्ट रूप से मुखर हुआ। उन्हें दो आदेश एक साथ मिले। एक आदेश ने उन्हें 11 बजे दिन में लाइब्रेरी की एक मीटिंग में भाग लेने को कहा। उसी दिन दूसरा आदेश उन्हें ठीक उसी समय, यानी 11 बजे फायरिंग रेंज में भेज रहा था। जाहिर है कि एक साथ एक ही समय दो स्थानों पर नहीं रह सकते। लेकिन इस विरोधाभासी आदेशों पर सवाल उठाना उनकी प्रकृति में नहीं था। उन्होंने फायरिंग रेंज में जाना स्वीकार किया और वहाँ ठीक समय पर पहुँचकर अपना फर्ज पूरा किया। लाइब्रेरी की मीटिंग में न पहुँचने के कारण दण्ड स्वरूप उन्हें सेनियर अण्डर ऑफिसर से एक पद नीचे उतार दिया गया। उन्होंने यह दण्ड बिना बहस स्वीकार कर लिया। इस पर कोई शोर नहीं मचाया। उन्हें बाद में फिर सीनियर अण्डर ऑफिसर बनाया गया, लेकिन दण्ड भुगतने पर उन्होंने चूँ तक नहीं की, शिकायत तो दूर की बात है।
अरुण खेत्रपाल के इस कूच में उनके टैंक पर खुद अरुण थे, जो दुश्मन की गोलाबारी से बेपरवाह उनके टैंकों को बर्बाद करते जा रहे थे। जब इसी दौर में उनका टैंक निशाने पर आ गया और उसमें आग लग गई। तब उनके कमाण्डर ने उन्हें टैंक छोड़कर अलग हो जाने का आदेश दिया। लेकिन अरुण को इस बात का एहसास था कि उनका डटे रहना दुश्मन को रोके रखने के लिए कितना ज़रूरी है। इस नाते उन्होंने अपनी जान बचाने के लिए हट जाना मंजूर नहीं किया और उन्होंने खुद से सौ मीटर दूर दुश्मन का एक टैंक बर्बाद कर दिया। रेडियो पर उनका अंतिम संदेश था ...
“सर, मेरी गन अभी फायर कर रही है. जब तक ये काम करती रहेगी, मैं फायर करता रहूंगा...”
तभी उनके टैंक को भी एक और आघात लगा और वह बेकार हो गया। इसका, परिणाम तो अरुण की शहादत के रूप में सामने आया, लेकिन वह उनकी टुकड़ी को इतने जोश से भर गया कि वह और भी बहादुरी से दुश्मन पर टूट पड़े।
पिता को पत्र
10 दिसम्बर 1971 को अरुण के पिता को अरुण का एक पत्र मिला था, जो उन्होंने पाकिस्तान की सीमा के दस मील भीतर से लिखा था। वह पत्र भी अपनी एक कहानी कहता है।
'डियर डैडी, हमें बहुत आनन्द आ रहा है। हमारी रेजिमेंट की बहादुरी का सिक्का दुनिया भर से ऊपर है। हम जल्दी ही यह लड़ाई खत्म कर देंगे।'
सचमुच, यह युद्ध जो 16 दिसम्बर 1971 को खत्म हुआ, उसे तो अरुण खेत्रपाल
पहले ही, यानी 16 दिसम्बर 1971 को जीतकर हँसी-हँसी महायात्रा पर निकल चुके
थे। अरुण खेत्रपाल की बहादुरी और जोश के चर्चे तो देश भर में कहे गए और आज
भी कहे जाते हैं, लेकिन उनकी असली बहादुरी तो दुश्मन द्वारा उनकी चर्चा में
सामने आती है। वह परमवीर चक्र पाने वाले सबसे कम उम्र के
जवान थे और उन्हें यह सम्मान केवल छह महीने के कार्यकाल में ही मिल गया था।
बेटे की शहादत के कुछ समय बाद ही अरुण के पिता ब्रिगेडियर मदन लाल खेत्रपाल को पाकिस्तान से सन्देश मिला कि कोई उनसे मिलना चाहता है। ऐसे सन्देश का आना भारत और पाकिस्तान के बीच शांति प्रक्रिया स्थापित करने वाली 'ट्विन ट्रैक डिप्लोमेटिक एफर्ट' इकाई द्वारा सम्भव हुआ था। चूँकि उसमें न तो सन्देश भेजने वाले की पहचान सामने आती थी, न ही मिलने की इच्छा का कारण स्पष्ट था, तो खेत्रपाल ने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। बात आई गई हो गई। अरुण खेत्रपाल का पैतृक परिवार सरगोधा से जुड़ा हुआ था, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया। पद मुक्त हो जाने के बाद क़रीब अस्सी वर्ष की आयु में अरुण के पिता ने यह इच्छा जाहिर की कि वह अपनी पैतृक भूमि सरगोधा जाकर कुछ समय बिताएँ। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए इसकी व्यवस्था हुई और उनका वीसा आदि जारी किया गया। पाकिस्तान में उनकी सरगोधा में रहने की व्यवस्था देखने के लिए एक जिम्मेदार फौजी अधिकारी तैनात किया गया। उस अधिकारी ने उन्हें जितना भाव भीना सत्कार तथा गहरी आत्मीयता दी वह उनको गहरे तक प्रभावित कर गई। उन्हें उस व्यक्ति ने अपने परिवार में अंतरंगता पूर्णक स्थान दिया। यह वर्ष 2001 की बात है। जब अरुण की वीरगति को तीस वर्ष बीत चुके थे और वह परमवीर चक्र से सम्मानित किए जा चुके थे। वह परमवीर चक्र पाने वाले सबसे कम उम्र के जवान थे और उन्हें यह सम्मान केवल छह महीने के कार्यकाल में ही मिल गया था।
शत्रु पक्ष भी हुआ वीरता का क़ायल
पाकिस्तान में जिस अधिकारी को ब्रिगेडियर मदनलाल खेत्रपाल का आतिथ्य कार्य सौंपा गया था, वह पाक सेना की 13 लैंसर्स के ब्रिगेडियर के. एम. नासर थे। इनके अंतरंग आतिथ्य ने खेत्रपाल को काफ़ी हद तक विस्मित भी कर दिया था। जब खेत्रपाल की वापसी का दिन आया तो नासर परिवार के लोगों ने खेत्रपाल के परिवार वालों के लिए उपहार भी दिए और ठीक उसी रात ब्रिगेडियर नासर ने ब्रिगेडियर खेत्रपाल से कहा कि वह उनसे कुछ अंतरंग बात करना चाहते हैं। फिर जो बात उन्होंने खेत्रपाल से कि, वह लगभग हिला देने वाली थी। ब्रिगेडियर नासर ने खेत्रपाल को बताया कि 16 दिसम्बर, 1971 को शकरगढ़ सेक्टर के जारपाल के रण में वह ही अरुण खेत्रपाल के साथ युद्ध करते हुए आमने-सामने थे और उन्हीं का वार उनके बेटे के लिए प्राण घातक बना था। खेत्रपाल स्तब्ध रह गए थे। नासर का कहना जारी रहा था। नासर के शब्दों में एक साथ कई तरह की भावनाएँ थी। वह उस समय युद्ध में पाकिस्तान के सेनानी थे इस नाते अरुण उनकी शत्रु सेना का जवान था, और उसे मार देना उनके लिए गौरव की बात थी, लेकिन उन्हें इस बात का रंज भी था कि इतना वीर, इतना साहसी, इतना प्रतिबद्ध युवा सेनानी उनके हाथों मारा गया। वह इस बात को भूल नहीं पा रहे थे।
ब्रिगेडियर नासर ने कहा कि 'बड़े पिण्ड' की लड़ाई के बाद ही लगातार अरुण के पिता से सम्पर्क करना चाह रहे थे। बड़े पिण्ड से उसका संकेत उसी रण से था, जिसमें अरुण मारा गया था। नासर को इस बात का दु:ख था कि वह ऐसा नहीं कर पाए, लेकिन यह उनकी इच्छा शक्ति का परिणाम था, जो उनकी इस बहाने ब्रिगेडियर खेत्रपाल से भेंट हो ही गई। नासर और खेत्रपाल की इस बातचीत के बाद, दोनों के बीच सिर्फ सन्नाटा रह गया था। लेकिन खेत्रपाल के मन में इस बात का संतोष और गौरव ज़रूर था कि उनका बेटा इतनी बहादुरी से लड़ता हुआ शहीद हुआ कि शत्रु पक्ष भी उसे भूल नहीं पाया और शत्रु के मन में भी उनके बेटे को मारने का दु:ख बना रहा, भले ही यही उसका कर्तव्य था।
आज अमर शहीद परमवीर चक्र विजेता सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल के बलिदान दिवस पर हम सब उन्हें शत शत नमन करते हैं |
जय हिन्द !!
जय हिन्द की सेना !!
१६ दिसम्बर - ऐतिहासिक विजय का दिन
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