आज ८ अप्रैल है ... आज का दिन समर्पित है क्रांति को ... जहाँ एक ओर सन १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत मंगल पांडे जी की १६१ वीं पुण्यतिथि है वही दूसरी ओर सन १९२९ के सेंट्रल असेम्बली बम कांड की ८९ वीं वर्षगांठ है |
आइये इन के बारे में थोड़ा विस्तार से जानते हैं ...
मंगल पाण्डेय (बांग्ला: মঙ্গল পান্ডে;
१९ जुलाई १८२७ - ८ अप्रैल १८५७) सन् १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता
संग्राम के अग्रदूत थे। यह संग्राम पूरे हिन्दुस्तान के जवानों व किसानों
ने एक साथ मिलकर लडा था। इसे ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा दबा दिया गया। इसके
बाद ही हिन्दुस्तान में बरतानिया हुकूमत का आगाज हुआ।
संक्षिप्त जीवन वृत्त
वीरवर मंगल पाण्डेय का जन्म १९ जुलाई
१८२७ को वर्तमान उत्तर प्रदेश, जो उन दिनों संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के
नाम से जाना जाता था, के बलिया जिले में स्थित नागवा गाँव में हुआ था। वे
बैरकपुर छावनी में बंगाल नेटिव इन्फैण्ट्री की ३४वीं रेजीमेण्ट में सिपाही
थे |
भारत
की आजादी की पहली लड़ाई अर्थात् १८५७ के विद्रोह की शुरुआत मंगल पाण्डेय
से हुई जब गाय व सुअर कि चर्बी लगे कारतूस लेने से मना करने पर उन्होंने
विरोध जताया। इसके परिणाम स्वरूप उनके हथियार छीन लिये जाने व वर्दी उतार
लेने का फौजी हुक्म हुआ। मंगल पाण्डेय ने उस आदेश को मानने से इनकार कर
दिया और २९ मार्च सन् १८५७ को उनकी राइफल छीनने के लिये आगे बढे अंग्रेज
अफसर मेजर ह्यूसन पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण करने से पूर्व उन्होंने अपने
अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान भी किया था किन्तु कोर्ट मार्शल
के डर से जब किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया तो उन्होंने अपनी ही रायफल से
उस अंग्रेज अधिकारी मेजर ह्यूसन को मौत के घाट उतार दिया जो उनकी वर्दी
उतारने और रायफल छीनने को आगे आया था। इसके बाद विद्रोही मंगल पाण्डेय को
अंग्रेज सिपाहियों ने पकड लिया। उन पर कोर्ट मार्शल द्वारा मुकदमा
चलाकर ६ अप्रैल १८५७ को मौत की सजा सुना दी गयी। कोर्ट मार्शल के अनुसार
उन्हें १८ अप्रैल १८५७ को फाँसी दी जानी थी, परन्तु इस निर्णय की
प्रतिक्रिया कहीं विकराल रूप न ले ले, इसी कूट रणनीति के तहत क्रूर ब्रिटिश
सरकार ने मंगल पाण्डेय को निर्धारित तिथि से दस दिन पूर्व ही ८ अप्रैल सन्
१८५७ को फाँसी पर लटका कर मार डाला।
विद्रोह का परिणाम
मंगल पाण्डेय द्वारा लगायी गयी
विद्रोह की यह चिन्गारी बुझी नहीं। एक महीने बाद ही १० मई सन् १८५७ को मेरठ
की छावनी में बगावत हो गयी। यह विप्लव देखते ही देखते पूरे उत्तरी भारत
में फैल गया जिससे अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर राज्य
करना उतना आसान नहीं है जितना वे समझ रहे थे। इसके बाद ही हिन्दुस्तान में
चौंतीस हजार सात सौ पैंतीस अंग्रेजी कानून यहाँ की जनता पर लागू किये गये
ताकि मंगल पाण्डेय सरीखा कोई सैनिक दोबारा भारतीय शासकों के विरुद्ध बगावत न
कर सके।
सेंट्रल असेम्बली बमकांड की
घटना 8 अप्रैल, 1929 को घटी। इस घटना को क्रांतिकारी सरदार भगत
सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अंजाम दिया। इस बमकांड का उद्देश्य किसी को हानि
पहुँचाना नहीं था। इसीलिए बम भी असेम्बली में ख़ाली स्थान पर ही फेंका गया
था। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त बम फेंकने के बाद वहाँ से भागे नहीं,
अपितु स्वेच्छा से अपनी गिरफ्तारी दे दी। इस समय इन्होंने वहाँ पर्चे भी
बाटें, जिसका प्रथम वाक्य था कि-
"बहरों को सुनाने के लिये विस्फोट के बहुत ऊँचे शब्द की आवश्यकता होती है।"
कुछ सुराग मिलने के बाद 'लाहौर
षड़यन्त्र' केस के नाम से मुकदमा चला। 7 अक्टूबर, 1930 को फैसला सुनाया
गया, जिसके अनुसार राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को फाँसी की सज़ा दी गई।
अंग्रेज़ सरकार का बिल
अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में
'पब्लिक सेफ्टी बिल' और 'ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल' लाने की तैयारी में थी।
ये बहुत ही दमनकारी क़ानून थे और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी
थी। शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में
क्रांति का जो बीज पनप रहा है, उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया
जाए। गंभीर विचार-विमर्श के पश्चात् 8 अप्रैल, 1929 का दिन असेंबली में बम
फेंकने के लिए तय हुआ और इस कार्य के लिए भगत सिंह एवं बटुकेश्र्वर दत्त
निश्चित हुए।
बमकांड
यद्यपि असेंबली के बहुत से सदस्य इस
दमनकारी क़ानून के विरुद्ध थे, तथापि वायसराय इसे अपने विशेषाधिकार से पास
करना चाहता था। इसलिए यही तय हुआ कि जब वायसराय 'पब्लिक सेफ्टी बिल' को
क़ानून बनाने के लिए प्रस्तुत करे, ठीक उसी समय धमाका किया जाए और ऐसा ही
किया गया। जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंका। इसके
पश्चात् क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला। भगत सिंह
और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला। भगत सिंह और उनके साथियों पर
'लाहौर षडयंत्र' का मुक़दमा भी जेल में रहते ही चला। भागे हुए
क्रांतिकारियों में प्रमुख राजगुरु पूना से गिरफ़्तार करके लाए गए। अंत में
अदालत ने वही फैसला दिया, जिसकी पहले से ही उम्मीद थी। भगत
सिंह, सुखदेव और राजगुरु को मृत्युदंड की सज़ा मिली।
क्रांतिकारियों को फाँसी
23 मार्च, 1931 की रात को भगत सिंह,
सुखदेव और राजगुरु को फाँसी पर लटका दिया गया। यह भी माना जाता है कि
मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय थी, लेकिन जनरोष से डरी सरकार ने
23-24 मार्च की मध्य रात्रि में ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और
रात के अंधेरे में ही सतलुज नदी के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया।
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इन अमर क्रांतिकारियों को हमारा शत शत नमन |
इंकलाब ज़िंदाबाद !!!
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 08/04/2019 की बुलेटिन, " ८ अप्रैल - बहरों को सुनाने के लिये किए गए धमाके का दिन - ब्लॉग बुलेटिन “ , में इस पोस्ट को भी शामिल किया गया है|
जवाब देंहटाएंनमन।
जवाब देंहटाएंवीर शहीदों को सादर श्रद्धांजलि !
जवाब देंहटाएं