सत्यजित राय (बंगाली: সত্যজিৎ রায়) (२ मई १९२१–२३ अप्रैल १९९२) एक भारतीय
फ़िल्म निर्देशक थे, जिन्हें २०वीं शताब्दी के सर्वोत्तम फ़िल्म निर्देशकों
में गिना जाता है। इनका जन्म कला और साहित्य के जगत में जाने-माने कोलकाता
(तब कलकत्ता) के एक बंगाली परिवार में हुआ था। इनकी शिक्षा प्रेसिडेंसी
कॉलेज और विश्व-भारती विश्वविद्यालय में हुई। इन्होने अपने कैरियर की
शुरुआत पेशेवर चित्रकार की तरह की। फ़्रांसिसी फ़िल्म निर्देशक ज़ाँ रन्वार
से मिलने पर और लंदन में इतालवी फ़िल्म लाद्री दी बिसिक्लेत (Ladri di
biciclette, बाइसिकल चोर) देखने के बाद फ़िल्म निर्देशन की ओर इनका रुझान
हुआ।
राय ने अपने जीवन में ३७ फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें फ़ीचर
फ़िल्में, वृत्त चित्र और लघु फ़िल्में शामिल हैं। इनकी पहली फ़िल्म पथेर
पांचाली (পথের পাঁচালী, पथ का गीत) को कान फ़िल्मोत्सव में मिले “सर्वोत्तम
मानवीय प्रलेख” पुरस्कार को मिलाकर कुल ग्यारह अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार
मिले। यह फ़िल्म अपराजितो (অপরাজিত) और अपुर संसार (অপুর সংসার, अपु का
संसार) के साथ इनकी प्रसिद्ध अपु त्रयी में शामिल है। राय फ़िल्म निर्माण
से सम्बन्धित कई काम ख़ुद ही करते थे — पटकथा लिखना, अभिनेता ढूंढना,
पार्श्व संगीत लिखना, चलचित्रण, कला निर्देशन, संपादन और प्रचार सामग्री की
रचना करना। फ़िल्में बनाने के अतिरिक्त वे कहानीकार, प्रकाशक, चित्रकार और
फ़िल्म आलोचक भी थे। राय को जीवन में कई पुरस्कार मिले जिनमें अकादमी मानद
पुरस्कार और भारत रत्न शामिल हैं।
बीमारी एवं निधन १९८३ में फ़िल्म घरे बाइरे (ঘরে বাইরে)
पर काम करते हुए राय को दिल का दौरा पड़ा जिससे उनके जीवन के बाकी ९ सालों
में उनकी कार्य-क्षमता बहुत कम हो गई। घरे बाइरे का छायांकन राय के बेटे
की मदद से १९८४ में पूरा हुआ। १९९२ में हृदय की दुर्बलता के कारण राय का
स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया, जिससे वह कभी उबर नहीं पाए। मृत्यु से कुछ ही
हफ्ते पहले उन्हें सम्मानदायक अकादमी पुरस्कार दिया गया। २३ अप्रैल १९९२ को
उनका देहान्त हो गया। इनकी मृत्यु होने पर कोलकाता शहर लगभग ठहर गया और
हज़ारों लोग इनके घर पर इन्हें श्रद्धांजलि देने आए।
फ़िल्में
अपु के वर्ष (१९५०–५८)राय ने निश्चय कर रखा था कि उनकी पहली
फ़िल्म बांग्ला साहित्य की प्रसिद्ध बिल्डुंग्सरोमान पथेर पांचाली पर
आधारित होगी, जिसे बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय ने १९२८ में लिखा था। इस
अर्ध-आत्मकथात्मक उपन्यास में एक बंगाली गांव के लड़के अपु के बड़े होने की
कहानी है। राय ने लंदन से भारत लौटते हुए समुद्रयात्रा के दौरान इस फ़िल्म
की रूपरेखा तैयार की। भारत पहुँचने पर राय ने एक कर्मीदल एकत्रित किया
जिसमें कैमरामैन सुब्रत मित्र और कला निर्देशक बंसी चन्द्रगुप्ता के अलावा
किसी को फ़िल्मों का अनुभव नहीं था। अभिनेता भी लगभग सभी गैरपेशेवर थे।
फ़िल्म का छायांकन १९५२ में शुरु हुआ। राय ने अपनी जमापूंजी इस फ़िल्म में
लगा दी, इस आशा में कि पहले कुछ शॉट लेने पर कहीं से पैसा मिल जाएगा, लेकिन
ऐसा नहीं हुआ। पथेर पांचाली का छायांकन तीन वर्ष के लम्बे समय में हुआ —
जब भी राय या निर्माण प्रबंधक अनिल चौधरी कहीं से पैसों का जुगाड़ कर पाते
थे, तभी छायांकन हो पाता था। राय ने ऐसे स्रोतों से धन लेने से मना कर दिया
जो कथानक में परिवर्तन कराना चाहते थे या फ़िल्म निर्माता का निरीक्षण
करना चाहते थे। १९५५ में पश्चिम बंगाल सरकार ने फ़िल्म के लिए कुछ ऋण दिया
जिससे आखिरकार फ़िल्म पूरी हुई। सरकार ने भी फ़िल्म में कुछ बदलाव कराने
चाहे (वे चाहते थे कि अपु और उसका परिवार एक “विकास परियोजना” में शामिल
हों और फ़िल्म सुखान्त हो) लेकिन सत्यजित राय ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया।
पथेर
पांचाली १९५५ में प्रदर्शित हुई और बहुत लोकप्रिय रही। भारत और अन्य देशों
में भी यह लम्बे समय तक सिनेमा में लगी रही। भारत के आलोचकों ने इसे बहुत
सराहा। द टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने लिखा — “इसकी किसी और भारतीय सिनेमा से
तुलना करना निरर्थक है। [...] पथेर पांचाली तो शुद्ध सिनेमा है।" अमरीका
में लिंडसी एंडरसन ने फ़िल्म के बारे में बहुत अच्छी समीक्षा लिखी। लेकिन
सभी आलोचक फ़िल्म के बारे में इतने उत्साहित नहीं थे। फ़्राँस्वा त्रुफ़ो
ने कहा — “गंवारों को हाथ से खाना खाते हुए दिखाने वाली फ़िल्म मुझे नहीं
देखनी।” न्यू यॉर्क टाइम्स के प्रभावशाली आलोचक बॉज़्ली क्राउथर ने भी पथेर
पांचाली के बारे में बहुत बुरी समीक्षा लिखी। इसके बावजूद यह फ़िल्म
अमरीका में बहुत समय तक चली।
राय की अगली फ़िल्म अपराजितो की सफलता
के बाद इनका अन्तरराष्ट्रीय कैरियर पूरे जोर-शोर से शुरु हो गया। इस फ़िल्म
में एक नवयुवक (अपु) और उसकी माँ की आकांक्षाओं के बीच अक्सर होने वाले
खिंचाव को दिखाया गया है। मृणाल सेन और ऋत्विक घटक सहित कई आलोचक इसे पहली
फ़िल्म से बेहतर मानते हैं। अपराजितो को वेनिस फ़िल्मोत्सव में स्वर्ण सिंह
(Golden Lion) से पुरस्कृत किया गया। अपु त्रयी पूरी करने से पहले राय ने
दो और फ़िल्में बनाईं — हास्यप्रद पारश पत्थर और ज़मींदारों के पतन पर
आधारित जलसाघर। जलसाघर को इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण कृतियों में गिना जाता
है।
अपराजितो बनाते हुए राय ने त्रयी बनाने का विचार नहीं किया था,
लेकिन वेनिस में उठे एक प्रश्न के बाद उन्हें यह विचार अच्छा लगा। इस
शृंखला की अन्तिम कड़ी अपुर संसार १९५९ में बनी। राय ने इस फ़िल्म में दो
नए अभिनेताओं, सौमित्र चटर्जी और शर्मिला टैगोर, को मौका दिया। इस फ़िल्म
में अपु कोलकाता के एक साधारण मकान में गरीबी में रहता है और अपर्णा के साथ
विवाह कर लेता है, जिसके बाद इन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
पिछली दो फ़िल्मों की तरह ही कुछ आलोचक इसे त्रयी की सबसे बढ़िया फ़िल्म
मानते हैं (राबिन वुड और अपर्णा सेन)। जब एक बंगाली आलोचक ने अपुर संसार की
कठोर आलोचना की तो राय ने इसके प्रत्युत्तर में एक लम्बा लेख लिखा।
देवी से चारुलता तक (1959–64)
इस अवधि में राय ने कई विषयों पर फ़िल्में बनाईं, जिनमें शामिल हैं,
ब्रिटिश काल पर आधारित देवी (দেবী), रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर एक वृत्तचित्र,
हास्यप्रद फ़िल्म महापुरुष (মহাপুরুষ) और मौलिक कथानक पर आधारित इनकी पहली
फ़िल्म कंचनजंघा (কাঞ্চনজঙ্ঘা)। इसी दौरान इन्होने कई ऐसी फ़िल्में बनाईं,
जिन्हें साथ मिलाकर भारतीय सिनेमा में स्त्रियों का सबसे गहरा चित्रांकन
माना जाता है।
अपुर संसार के बाद राय की पहली फ़िल्म थी देवी,
जिसमें इन्होंने हिन्दू समाज में अंधविश्वास के विषय को टटोला है। शर्मिला
टैगोर ने इस फ़िल्म के मुख्य पात्र दयामयी की भूमिका निभाई, जिसे उसके ससुर
काली का अवतार मानते हैं। राय को चिन्ता थी कि इस फ़िल्म को सेंसर बोर्ड
से शायद स्वीकृति नहीं मिले, या उन्हे कुछ दृश्य काटने पड़ें, लेकिन ऐसा
नहीं हुआ। 1961 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के आग्रह पर राय ने
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की जन्म शताब्दी के अवसर पर उनके जीवन पर एक
वृत्तचित्र बनाया। ठाकुर के जीवन का फ़िल्मांकन बहुत कम ही हुआ था, इसलिए
राय को मुख्यतः स्थिर चित्रों का प्रयोग करना पड़ा, जिसमें उनके अनुसार तीन
फ़ीचर फ़िल्मों जितना परिश्रम हुआ। इसी साल में राय ने सुभाष मुखोपाध्याय
और अन्य लेखकों के साथ मिलकर बच्चों की पत्रिका सन्देश को पुनर्जीवित किया।
इस पत्रिका की शुरुआत इनके दादा ने शुरु की थी और बहुत समय से राय इसके
लिए धन जमा करते आ रहे थे। सन्देश का बांग्ला में दोतरफा मतलब है — एक ख़बर
और दूसरा मिठाई। पत्रिका को इसी मूल विचार पर बनाया गया — शिक्षा के
साथ-साथ मनोरंजन। राय शीघ्र ही ख़ुद पत्रिका में चित्र बनाने लगे और बच्चों
के लिये कहानियाँ और निबन्ध लिखने लगे। आने वाले वर्षों में लेखन इनकी
जीविका का प्रमुख साधन बन गया।
1962 में राय ने काँचनजंघा का
निर्देशन किया, जिसमें पहली बार इन्होंने मौलिक कथानक पर रंगीन छायांकन
किया। इस फ़िल्म में एक उच्च वर्ग के परिवार की कहानी है जो दार्जीलिंग में
एक दोपहर बिताते हैं, और प्रयास करते हैं कि सबसे छोटी बेटी का विवाह लंदन
में पढ़े एक कमाऊ इंजीनियर के साथ हो जाए। शुरू में इस फ़िल्म को एक विशाल
हवेली में चित्रांकन करने का विचार था, लेकिन बाद में राय ने निर्णय किया
कि दार्जीलिंग के वातावरण और प्रकाश व धुंध के खेल का प्रयोग करके कथानक के
खिंचाव को प्रदर्शित किया जाए। राय ने हंसी में एक बार कहा कि उनकी फ़िल्म
का छायांकन किसी भी रोशनी में हो सकता था, लेकिन उसी समय दार्जीलिंग में
मौजूद एक व्यावसायिक फ़िल्म दल एक भी दृश्य नहीं शूट कर पाया क्योंकि
उन्होने केवल धूप में ही शूटिंग करनी थी।
1964 में राय ने चारुलता (চারুলতা) फ़िल्म बनाई जिसे बहुत से आलोचक
इनकी सबसे निष्णात फ़िल्म मानते है। यह ठाकुर की लघुकथा नष्टनीड़ पर आधारित
है। इसमें 19वीं शताब्दी की एक अकेली स्त्री की कहानी है जिसे अपने देवर
अमल से प्रेम होने लगता है। इसे राय की सर्वोत्कृष्ट कृति माना जाता है।
राय ने ख़ुद कहा कि इसमें सबसे कम खामियाँ हैं, और यही एक फ़िल्म है जिसे
वे मौका मिलने पर बिलकुल इसी तरह दोबारा बनाएंगे। चारु के रूप में माधवी
मुखर्जी के अभिनय और सुब्रत मित्र और बंसी चन्द्रगुप्ता के काम को बहुत
सराहा गया है। इस काल की अन्य फ़िल्में हैं: महानगर, तीन कन्या, अभियान,
कापुरुष (कायर) और महापुरुष।
नई दिशाएँ (1965-1982)
चारुलता के बाद के काल में राय ने विविध विषयों पर आधारित फ़िल्में बनाईं,
जिनमें शामिल हैं, कल्पनाकथाएँ, विज्ञानकथाएँ, गुप्तचर कथाएँ और ऐतिहासिक
नाटक। राय ने फ़िल्मों में नयी तकनीकों पर प्रयोग करना और भारत के समकालीन
विषयों पर ध्यान देना शुरु किया। इस काल की पहली मुख्य फ़िल्म थी नायक
(নায়ক), जिसमें एक फ़िल्म अभिनेता (उत्तम कुमार) रेल में सफर करते हुए एक
महिला पत्रकार (शर्मिला टैगोर) से मिलता है। 24 घंटे की घटनाओं पर आधारित
इस फ़िल्म में इस प्रसिद्ध अभिनेता के मनोविज्ञान का अन्वेषण किया गया है।
बर्लिन में इस फ़िल्म को आलोचक पुरस्कार मिला, लेकिन अन्य प्रतिक्रियाएँ
अधिक उत्साहपूर्ण नहीं रहीं।
1967 में राय ने एक फ़िल्म का कथानक
लिखा, जिसका नाम होना था द एलियन (The Alien, दूरग्रहवासी)। यह इनकी लघुकथा
बाँकुबाबुर बंधु (বাঁকুবাবুর বন্ধু, बाँकु बाबु का दोस्त) पर आधारित थी
जिसे इन्होंने संदेश (সন্দেশ) पत्रिका के लिए 1962 में लिखा था। इस
अमरीका-भारत सह-निर्माण परियोजना की निर्माता कोलम्बिया पिक्चर्स नामक
कम्पनी थी। पीटर सेलर्स और मार्लन ब्रैंडो को इसकी मुख्य भूमिकाओं के लिए
चुना गया। राय को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उनके कथानक के प्रकाशनाधिकार को
किसी और ने हड़प लिया था। ब्रैंडो बाद में इस परियोजना से निकल गए और राय
का भी इस फ़िल्म से मोह-भंग हो गया।कोलम्बिया ने 1970 और 80 के दशकों में
कई बार इस परियोजना को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया लेकिन बात कभी आगे
नहीं बढ़ी। राय ने इस परियोजना की असफलता के कारण 1980 के एक साइट एण्ड
साउंड (Sight & Sound) प्रारूप में गिनाए हैं, और अन्य विवरण इनके
आधिकारिक जीवनी लेखक एंड्रू रॉबिनसन ने द इनर आइ (The Inner Eye,
अन्तर्दृष्टि) में दिये हैं। जब 1982 में ई.टी. फ़िल्म प्रदर्शित हुई तो
राय ने अपने कथानक और इस फ़िल्म में कई समानताएँ देखीं। राय का विश्वास था
कि स्टीवन स्पीलबर्ग की यह फ़िल्म उनके कथानक के बिना सम्भव नहीं थी
(हालांकि स्पीलबर्ग इसका खण्डन करते हैं)।
1969 में राय ने व्यावसायिक रूप से अपनी सबसे सफल फ़िल्म बनाई — गुपी गाइन
बाघा बाइन (গুপি গাইন বাঘা বাইন, गुपी गाए बाघा बजाए)। यह संगीतमय फ़िल्म
इनके दादा द्वारा लिखी एक कहानी पर आधारित है। गायक गूपी और ढोली बाघा को
भूतों का राजा तीन वरदान देता है, जिनकी मदद से वे दो पड़ोसी देशों में
होने वाले युद्ध को रोकते हैं। यह राय के सबसे खर्चीले उद्यमों में से थी
और इसके लिए पूंजी बहुत मुश्किल से मिली। राय को आखिरकार इसे रंगीन बनाने
का विचार त्यागना पड़ा। राय की अगली फ़िल्म थी अरण्येर दिनरात्रि (অরণ্যের
দিনরাত্রি, जंगल में दिन-रात), जिसकी संगीत-संरचना चारुलता से भी जटिल मानी
जाती है। इसमें चार ऐसे नवयुवकों की कहानी है जो छुट्टी मनाने जंगल में
जाते हैं। इसमें सिमी गरेवाल ने एक जंगली जाति की औरत की भूमिका निभाई है।
आलोचक इसे भारतीय मध्यम वर्ग की मानसिकता की छवि मानते हैं।
इसके बाद राय ने समसामयिक बंगाली वास्तविकता पर ध्यान देना शुरु किया।
बंगाल में उस समय नक्सलवादी क्रांति जोर पकड़ रही थी। ऐसे समय में नवयुवकों
की मानसिकता को लेकर इन्होंने कलकत्ता त्रयी के नाम से जाने वाली तीन
फ़िल्में बनाईं — प्रतिद्वंद्वी (প্রতিদ্বন্দ্বী) (1970), सीमाबद्ध
(সীমাবদ্ধ) (1971) और जनअरण्य (জনঅরণ্য) (1975)। इन तीनों फ़िल्मों की
कल्पना अलग-अलग हुई लेकिन इनके विषय साथ मिलाकर एक त्रयी का रूप लेते हैं।
प्रतिद्वंद्वी एक आदर्शवादी नवयुवक की कहानी है जो समाज से मोह-भंग होने पर
भी अपने आदर्श नहीं त्यागता है। इसमें राय ने कथा-वर्णन की एक नयी शैली
अपनाई, जिसमें इन्होंने नेगेटिव में दृश्य, स्वप्न दृश्य और आकस्मिक
फ़्लैश-बैक का उपयोग किया। जनअरण्य फ़िल्म में एक नवयुवक की कहानी है जो
जीविका कमाने के लिए भ्रष्ट राहों पर चलने लगता है। सीमाबद्ध में एक सफल
युवक अधिक धन कमाने के लिए अपनी नैतिकता छोड़ देता है। राय ने 1970 के दशक
में अपनी दो लोकप्रिय कहानियों — सोनार केल्ला (সোনার কেল্লা, स्वर्ण किला)
और जॉय बाबा फेलुनाथ (জয় বাবা ফেলুনাথ) — का फ़िल्मांकन किया। दोनों
फ़िल्में बच्चों और बड़ों दोनों में बहुत लोकप्रिय रहीं।
राय ने बांग्लादेश मुक्ति युद्ध पर भी एक फ़िल्म बनाने की सोची, लेकिन
बाद में यह विचार त्याग दिया क्योंकि उन्हें राजनीति से अधिक शरणार्थियों
के पलायन और हालत को समझने में अधिक रुचि थी। 1977 में राय ने मुंशी
प्रेमचन्द की कहानी पर आधारित शतरंज के खिलाड़ी फ़िल्म बनाई। यह उर्दू भाषा
की फ़िल्म 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक वर्ष पहले अवध राज्य
में लखनऊ शहर में केन्द्रित है। इसमें भारत के गुलाम बनने के कारणों पर
प्रकाश डाला गया है। इसमें बॉलीवुड के बहुत से सितारों ने काम किया, जिनमें
प्रमुख हैं — संजीव कुमार, सईद जाफ़री, अमजद ख़ान, शबाना आज़मी, विक्टर
बैनर्जी और रिचर्ड एटनबरो। 1980 में राय ने गुपी गाइन बाघा बाइन की कहानी
को आगे बढ़ाते हुए हीरक राज नामक फ़िल्म बनाई जिसमें हीरे के राजा का राज्य
इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान के भारत की ओर इंगित करता है। इस काल की
दो अन्य फ़िल्में थी — लघु फ़िल्म पिकूर डायरी (पिकू की दैनन्दिनी) या
पिकु और घंटे-भर लम्बी हिन्दी फ़िल्म सदगति।
अन्तिम काल (1983–1992)
राय बहुत समय से ठाकुर के उपन्यास घरे बाइरे पर आधारित फ़िल्म बनाने की
सोच रहे थे। बीमारी की वजह से इसमें कुछ भाग उत्कृष्ट नहीं हैं, लेकिन
फ़िल्म को सराहना बहुत मिली। 1987 में उन्होंने अपने पिता सुकुमार राय के
जीवन पर एक वृत्तचित्र बनाया।
राय की आखिरी तीन फ़िल्में उनकी
बीमारी के कारण मुख्यतः आन्तरिक स्थानों में शूट हुईं और इस कारण से एक
विशिष्ट शैली का अनुसरण करती हैं। इनमें संवाद अधिक है और इन्हें राय की
बाकी फ़िल्मों से निम्न श्रेणी में रखा जाता है। इनमें से पहली, गणशत्रु
(গণশত্রু), हेनरिक इबसन के प्रख्यात नाटक एन एनिमी ऑफ़ द पीपल पर आधारित
है, और इन तीनों में से सबसे कमजोर मानी जाती है। 1990 की फ़िल्म शाखा
प्रशाखा (শাখা প্রশাখা) में राय ने अपनी पुरानी गुणवत्ता कुछ वापिस प्राप्त
की। इसमें एक बूढ़े आदमी की कहानी है, जिसने अपना पूरा जीवन ईमानदारी से
बिताया होता है, लेकिन अपने तीन बेटों के भ्रष्ट आचरण का पता लगने पर उसे
केवल अपने चौथे, मानसिक रूप से बीमार, बेटे की संगत रास आती है। राय की
अंतिम फ़िल्म आगन्तुक (আগন্তুক) का माहौल हल्का है लेकिन विषय बहुत गूढ़
है। इसमें एक भूला-बिसरा मामा अपनी भांजी से अचानक मिलने आ पहुँचता है, तो
उसके आने के वास्तविक कारण पर शंका की जाने लगती है।
फ़िल्म कौशल सत्यजित राय मानते थे कि कथानक लिखना
निर्देशन का अभिन्न अंग है। यह एक कारण है जिसकी वजह से उन्होंने प्रारंभ
में बांग्ला के अतिरिक्त किसी भी भाषा में फ़िल्म नहीं बनाई। अन्य भाषाओं
में बनी इनकी दोनों फ़िल्मों के लिए इन्होंने पहले अंग्रेजी में कथानक
लिखा, जिसे इनके पर्यवेक्षण में अनुवादकों ने हिन्दी या उर्दू में
भाषांतरित किया। राय के कला निर्देशक बंसी चन्द्रगुप्ता की दृष्टि भी राय
की तरह ही पैनी थी। शुरुआती फ़िल्मों पर इनका प्रभाव इतना महत्त्वपूर्ण था
कि राय कथानक पहले अंग्रेजी में लिखते थे ताकि बांग्ला न जानने वाले
चन्द्रगुप्ता उसे समझ सकें। शुरुआती फ़िल्मों के छायांकन में सुब्रत मित्र
का कार्य बहुत सराहा जाता है, और आलोचक मानते हैं कि अनबन होने के बाद जब
मित्र चले गए तो राय की फ़िल्मों के चित्रांकन का स्तर घट गया। राय ने
मित्र की बहुत प्रशंसा की, लेकिन राय इतनी एकाग्रता से फिल्में बनाते थे कि
चारुलता के बाद से राय कैमरा ख़ुद ही चलाने लगे, जिसके कारण मित्र ने 1966
से राय के लिए काम करना बंद कर दिया। मित्र ने बाउंस-प्रकाश का सर्वप्रथम
प्रयोग किया जिसमें वे प्रकाश को कपड़े पर से उछाल कर वास्तविक प्रतीत होने
वाला प्रकाश रच लेते थे। राय ने अपने को फ़्रांसीसी नव तरंग के ज़ाँ-लुक
गॉदार और फ़्रांस्वा त्रूफ़ो का भी ऋणी मानते थे, जिनके नए तकनीकी और
सिनेमा प्रयोगों का उपयोग राय ने अपनी फ़िल्मों में किया।
हालांकि दुलाल दत्ता राय के नियमित फ़िल्म संपादक थे, राय अक्सर संपादन
के निर्णय ख़ुद ही लेते थे, और दत्ता बाकी काम करते थे। वास्तव में आर्थिक
कारणों से और राय के कुशल नियोजन से संपादन अक्सर कैमरे पर ही हो जाता था।
शुरु में राय ने अपनी फ़िल्मों के संगीत के लिए लिए रवि शंकर, विलायत ख़ाँ
और अली अक़बर ख़ाँ जैसे भारतीय शास्त्रीय संगीतज्ञों के साथ काम किया,
लेकिन राय को लगने लगा कि इन संगीतज्ञों को फ़िल्म की अपेक्षा संगीत की
साधना में अधिक रुचि है। साथ ही राय को पाश्चात्य संगीत का भी ज्ञान था
जिसका प्रयोग वह फ़िल्मों में करना चाहते थे। इन कारणों से तीन कन्या (তিন
কন্যা) के बाद से फ़िल्मों का संगीत भी राय ख़ुद ही रचने लगे। राय ने
विभिन्न पृष्ठभूमि वाले अभिनेताओं के साथ काम किया, जिनमें से कुछ विख्यात
सितारे थे, तो कुछ ने कभी फ़िल्म देखी तक नहीं थी। राय को बच्चों के अभिनय
के निर्देशन के लिए बहुत सराहा गया है, विशेषत: अपु एवं दुर्गा (पाथेर
पांचाली), रतन (पोस्टमास्टर) और मुकुल (सोनार केल्ला)। अभिनेता के कौशल और
अनुभव के अनुसार राय का निर्देशन कभी न के बराबर होता था (आगन्तुक में
उत्पल दत्त) तो कभी वे अभिनेताओं को कठपुतलियों की तरह प्रयोग करते थे
(अपर्णा की भूमिका में शर्मिला टैगोर)।
समीक्षा एवं प्रतिक्रिया
राय की कृतियों को मानवता और
समष्टि से ओत-प्रोत कहा गया है। इनमें बाहरी सरलता के पीछे अक्सर गहरी
जटिलता छिपी होती है। इनकी कृतियों को अन्यान्य शब्दों में सराहा गया है।
अकिरा कुरोसावा ने कहा, “राय का सिनेमा न देखना इस जगत में सूर्य या
चन्द्रमा को देखे बिना रहने के समान है।” आलोचकों ने इनकी कृतियों को अन्य
कई कलाकारों से तुलना की है — आंतोन चेखव, ज़ाँ रन्वार, वित्तोरियो दे
सिका, हावर्ड हॉक्स, मोत्सार्ट, यहाँ तक कि शेक्सपियर के समतुल्य पाया गया
है। नाइपॉल ने शतरंज के खिलाड़ी के एक दृश्य की तुलना शेक्सपियर के नाटकों
से की है – “केवल तीन सौ शब्द बोले गए, लेकिन इतने में ही अद्भुत घटनाएँ हो
गईं!” जिन आलोचकों को राय की फ़िल्में सुरुचिपूर्ण नहीं लगतीं, वे भी
मानते हैं कि राय एक सम्पूर्ण संस्कृति की छवि फ़िल्म पर उतारने में
अद्वितीय थे।
राय की आलोचना मुख्यतः इनकी फ़िल्मों की गति को लेकर
की जाती है। आलोचक कहते हैं कि ये एक “राजसी घोंघे” की गति से चलती हैं।
राय ने ख़ुद माना कि वे इस गति के बारे में कुछ नहीं कर सकते, लेकिन
कुरोसावा ने इनका पक्ष लेते हुए कहा, “इन्हें धीमा नहीं कहा जा सकता। ये तो
विशाल नदी की तरह शान्ति से बहती हैं।” इसके अतिरिक्त कुछ आलोचक इनकी
मानवता को सादा और इनके कार्यों को आधुनिकता-विरोधी मानते हैं और कहते हैं
कि इनकी फ़िल्मों में अभिव्यक्ति की नई शैलियाँ नहीं नज़र आती हैं। वे कहते
हैं कि राय “मान लेते हैं कि दर्शक ऐसी फ़िल्म में रुचि रखेंगे जो केवल
चरित्रों पर केन्द्रित रहती है, बजाए ऐसी फ़िल्म के जो उनके जीवन में नए
मोड़ लाती है।”
राय की आलोचना समाजवादी विचारधाराओं के राजनेताओं ने
भी की है। इनके अनुसार राय पिछड़े समुदायों के लोगों के उत्थान के लिए
प्रतिबद्ध नहीं थे, बल्कि अपनी फ़िल्मों में गरीबी का सौन्दर्यीकरण करते
थे। ये अपनी कहानियों में द्वन्द्व और संघर्ष को सुलझाने के तरीके भी नहीं
सुझाते थे। 1960 के दशक में राय और मृणाल सेन के बीच एक सार्वजनिक बहस हुई।
मृणाल सेन स्पष्ट रूप से मार्क्सवादी थे और उनके अनुसार राय ने उत्तम
कुमार जैसे प्रसिद्ध अभिनेता के साथ फ़िल्म बनाकर अपने आदर्शों के साथ
समझौता किया। राय ने पलटकर जवाब दिया कि सेन अपनी फ़िल्मों में केवल बंगाली
मध्यम वर्ग को ही निशाना बनाते हैं क्योंकि इस वर्ग की आलोचना करना आसान
है। 1980 में सांसद एवं अभिनेत्री नरगिस ने राय की खुलकर आलोचना की कि ये
“गरीबी की निर्यात” कर रहे हैं, और इनसे माँग की कि ये आधुनिक भारत को
दर्शाती हुई फ़िल्में बनाएँ।
सम्मान एवं पुरस्कार
राय को जीवन में अनेकों पुरस्कार और सम्मान मिले। ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय
ने इन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्रदान की। चार्ली चैपलिन के बाद ये
इस सम्मान को पाने वाले पहले फ़िल्म निर्देशक थे। इन्हें 1985 में दादासाहब
फाल्के पुरस्कार और 1987 में फ़्राँस के लेज़्यों द’ऑनु पुरस्कार से
सम्मानित किया गया। मृत्यु से कुछ समय पहले इन्हें सम्मानदायक अकादमी
पुरस्कार और भारत का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न प्रदान किये गए। मरणोपरांत
सैन फ़्रैंसिस्को अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव में इन्हें निर्देशन में
जीवन-पर्यन्त उपलब्धि-स्वरूप अकिरा कुरोसावा पुरस्कार मिला जिसे इनकी ओर से
शर्मिला टैगोर ने ग्रहण किया। सामान्य रूप से यह समझा जाता है कि दिल का
दौरा पड़ने के बाद उन्होंने जो फ़िल्में बनाईं उनमें पहले जैसी ओजस्विता
नहीं थी।