जयदीप शेखर जी से एक वादा किया था कि जल्द से जल्द उनकी पुस्तक, "नाज़ - ए - हिन्द सुभाष", को कलकता के नेता जी भवन तक पहुंचा दूंगा ... सो 23 मार्च 2012 के दिन वो वादा पूरा हुआ !
वैसे तो अब तक मेरे लिए 23 मार्च का दिन केवल इस लिए विशेष था क्यों कि इसी दिन सन १९३१ में शहीद ए आज़म सरदार भगत सिंह जी , सुखदेव जी और राजगुरु जी ने देश के लिए अपना बलिदान दिया था और उनकी शहादत को याद करते हुए ही मैं कलकत्ता के गोल्फ ग्रीन में बने हुए अपने ताईजी के घर से निकला था नेता जी भवन के लिए !
लगभग ३० मिनट की टैक्सी यात्रा के बाद मैं खड़ा था कलकत्ता के एल्गिन रोड पर बने नेता जी भवन के सामने जो कि आजकल Netaji Research Bureau के कार्यालय और संग्रहालय के रूप में भी जाना जाता है ! पता नहीं क्यों पर १९९७ तक २० साल कलकत्ता में रहते हुए भी कभी भी यहाँ आना न हुआ था और आज जब मुझे मैनपुरी में रहते हुए १५ साल होने वाले है तब अपने ७ दिन के कलकत्ता प्रवास के दौरान खड़ा था वहां जहाँ जाने का सपना तो कई बार देखा पर कभी जा न पाया !
कुछ देर तक तो जैसे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि मैं सच में यहाँ खड़ा हूँ ... तरह तरह के विचारो से दिमाग भर गया था ... किसी तरह खुद को संभाला और वहां खड़े सुरक्षा कर्मी से श्री कार्तिक चक्रवर्ती से मिलने की अपनी इच्छा जताई तो पता चला कि एक मीटिंग चल रही है और सब उस में ही व्यस्त है ! यहाँ बता दूं कि श्री चक्रवर्ती प्रोफ़ेसर कृष्णा बोस के सचिव है ! प्रोफ़ेसर कृष्णा बोस नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के भतीजे श्री शिशिर बोस की पत्नी है और फिलहाल नेताजी रिसर्च ब्यूरो की चेअर पर्सन है और ब्यूरो की सभी गतिविधियों को संभालती हैं ! कलकत्ता जाने से पहले जब मैं इस कोशिश में था कि किस तरह किताब को नेताजी भवन तक पहुँचाया जाए उस दौरान प्रोफ़ेसर कृष्णा बोस से एक बार मेरी फोन पर बात हुयी थी और उन्होंने ही मुझे श्री चक्रवर्ती से मिलने को कहा था ।
जब आप कुछ अच्छा करने की सोचते है तो सभी समीकरण अपने आप ही आप की तरफ हो जाते है ... ऐसा मुझे तब लगा जब अचानक कमरे से प्रोफ़ेसर बोस खुद बाहर आती दिखी ... मैं झट बड़ा उन की ओर और उन्हें प्रणाम किया ... उन्होंने मेरा नाम पुछा और वहां होने का कारण भी ... मैं झट उनसे हुयी फोन पर बातचीत का जिक्र किया तो उन्होंने पहचाना और सब से पहले वहां खड़े सुरक्षा कर्मी को निर्देश दिए कि मुझे ऊपर की मंजिल पर बने संग्रहालय को जरुर दिखाया जाए मैंने उनसे थोड़े समय की मांग की तो मीटिंग का हवाला देते हुए उन्होंने खेद प्रगट किया और कहा कि उनके पास ५ मिनट है मैं चाहूँ तो अपनी बात उनको बता सकता हूँ ... मैंने सब से पहले उनको
"नाज़ - ए - हिन्द सुभाष" की एक प्रति दी तो उन्होंने किताब को ले कर थोडा पढ़ा फिर मुझे निर्देश दिया कि मैं इस की २ प्रतियाँ वहां बने पुस्तकालय के लिए श्री चक्रवर्ती को दे दूं ! मैंने उनसे अनुरोध किया कि अगर उनकी आज्ञा हो तो किताब से साथ उनका एक चित्र ले लूं तो उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया साथ साथ उन्होंने कुछ बातें बताई जो एकदम सटीक है ...
प्रोफ़ेसर बोस का कहना है कि ,
- "लोग बाग़ नेता जी की मृत्यु में ज्यादा रूचि लेते है न कि देश के लिए किये गए उनके कामो में ... जो बेहद दुखद है !"
- "ऐसा क्यों है कि देश में 'महात्मा' शब्द पर तो एकाधिकार है ... पर 'नेताजी' हर ऐरा गैरा बन जाता है !?"
- "क्यों युवा वर्ग आगे नहीं आता और पहल करता कि नेताजी के बारे में भी उनको पूरी जानकारी दी जाए !"
- "अपने इतिहास के प्रति उदासीनता घातक है!"
मैं चुपचाप उनको बोलता देख रहा था और महसूस कर रहा था उस दर्द को जो नेताजी के प्रति सरकारों की अनदेखी से उपजा है ! अचानक उनका फोन बजा और जैसे वो और मैं दोनों एक नींद से जागे ... उन्होंने किताब मुझे लौटाई और वापस जाने को मुड़ी कि मैंने एक बार फिर उनको प्रणाम किया इस बार उनके मुख से निकला ... "बेचे थाको बाबा" और उनका हाथ मेरे सर पर था ... और गदगद हो गया मैं उनका आशीष पा कर !
उनके जाते ही मेरा फोन बजा देखा घर में बड़े भाई साहब का फोन था ... बात कि तो पता चला जयदीप भाई द्वारा भेजी पुस्तकें आ गयी है ! एक बार फिर मन ही मन ऊपर वाले का शुक्र अदा किया ... मेरे पास सिर्फ एक ही प्रति थी "नाज़ - ए -हिंद सुभाष" की और प्रोफ़ेसर बोस ने पुस्तकालय के लिए कम से कम २ प्रतियाँ मांगी थी ... पर अब जब जयदीप भाई का भेजा पकेट आ गया था तो चिंता की कोई बात ही नहीं थी ! मैंने पता किया मीटिंग कितनी देर चलने वाली है पता चला लगभग घंटे भर में ख़त्म होगी ... मेरे लिए काफी था घंटा भर ... दोबारा टैक्सी ली और घर आया पकेट लेने ... रस्ते में जयदीप भाई को फोन किया और पूरी बात बताई !
जब तक मैं लौटा मीटिंग ख़त्म हो चुकी थी पर कुछ लोग अभी भी ऑफिस में थे इस लिए श्री चक्रवर्ती अभी भी व्यस्त थे ... मुझे कहा गया आप तब तक ऊपर की मंजिल पर बने संग्रहालय को देख आइये ... मुझे आईडिया बढ़िया लगा ... और मैं चल पड़ा ऊपर की मंजिल की ओर ...
लकड़ी के बने जीने को जैसे जैसे मैं चढ़ता जा रहा था एक अजीब से रोमांच भर रहा था सारे शरीर में ... हर तरफ नेताजी और उनसे जुडी यादो का जखीरा ... बिना खुद देखे महसूस करना या शब्दों में उसको यहाँ बता पाना संभव नहीं है ! कुछ चित्र लिए मैंने वहां ... कुछ ऐसी जगह पर भी जहाँ चित्र लेना मना था ... मुझे टोका भी गया मेरी गलती पर ... पर क्या करता मन को कैसे समझाता ... पर समझाना पड़ा ! जो चित्र मैं ले पाया वो फेसबुक पर अपलोड किये है लिंक नीचे दे रहा हूँ आप भी देखें !
संग्रहालय में नेता जी से जुडी हुयी विभिन्न वस्तुओ और दस्तावेजो को देख कर नेताजी के प्रति मेरी आस्था और श्रद्धा और बढ़ गई ... जो संभव हो तो आप भी एक बार जरुर कलकत्ता जाएँ और नेताजी से मिल कर आयें ... उनके अपने ही घर में !
संग्रहालय को देखने के बाद मैंने एक बार फिर श्री चक्रवर्ती से मिलने की इच्छा जताई तो मुझे वहां बने पुस्तकालय में ले जाया गया । श्री चक्रवर्ती पुस्तकालय के अन्य पदाधिकारियों के साथ वहां मौजूद थे ... मेरा परिचय उनसे करवाया गया और मैंने अपने वहां आने का कारण और प्रोफ़ेसर बोस से हुयी बातचीत और मुलाकात के बारे में उनको बताया और "नाज़ - ए - हिन्द सुभाष" २ प्रतियाँ उनको दी ! उन लोगो ने मेरे सामने ही किताब को थोडा पढ़ा और किताब को पुस्तकालय में शामिल करने की बात कही ।
मैंने उनका जयदीप भाई , अरुण जी और अपनी ओर से आभार प्रगट किया और उन से विदा ली ! लौटते हुए जयदीप भाई को दिए अपने वादे के पूरे होने की ख़ुशी के साथ साथ इस बात की भी बेहद ख़ुशी थी कि जिस जगह को देखने के बारे में बचपन से सोच रखा था आज वो सपना भी पूरा हुआ !