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बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म दिवस पर खास

.....कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे

स नई पोस्ट में आज उर्दू अदब की अज़ीम-ओ -शान शख्सियात फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का ज़िक्र करने जा रहा हूँ.पिछले तीन सालों से में फ़ैज़ पर लिखने की कोसिस में था...कभी मोका नहीं....मसरूफियत में कभी वक्त निकल गया.....फ़ैज़ साहब का नाम मेरे कानों में तब पहली बार आया जब मैं जवाहर लाल यूनिवर्सटी केम्पस में पत्रकारिता की पढा कर रहा था.उस दिन तारीख 13 फ़रवरी थी.....फैज़ साहब का जन्म 13 फ़रवरी 1911 में पकिस्तान के सियालकोट में हुआ था. गंगा हॉस्टल में फ़ैज़ पर एक विचार गोष्ठी का आयोजान किया गया.फ़ैज़ साहब से इस तरह ये पहली मुलाकात थी....चंद पलों की मुलाकात में उनकी शायरी का कायल हो गया.फ़ैज़ हर दौर के शायर हैं...उनकी शायरी की बेहतरीन बात...उनकी शायरी इक मिशन को लेकर आगे बढती है.उर्दू अदब के फ़ैज़ सबसे हिम्मती शायर मालूम पड़ते हैं.उनके किस्से और शायरी दोनों ही इंसान को मुतासिर करने का दम रखती हैं.यूँ तो उनकी हर नज़्म और ग़ज़ल दिल में उतर जाती है......फिर भी फ़ैज़ साहब की कुछ नज़्म और ग़ज़ल ऐसी है जो मेरी सबसे अज़ीज़ हैं....इनमें से इक है....

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक् तेरी है
देख के आहंगर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहने है कह ले

फ़ैज़ साहब ता- जिंदगी दुश्वारियां से झुझते रहे बावजूद फ़ैज़ साहब ने कभी हालत से समझोता नहीं किया.उस दौर में जब फ़ैज़ साहब का लिखा शेर जैसे ही बाज़ार में आता तो पाकिस्तान की हुकूमत हिलने लगती थी.उनकी शायरी की दबाने के लिए पाकिस्तान सरकार ने नजर बंद भी किया....

निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन, कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले

है अहल-ए-दिल के लिये अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद
कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद

बहोत हैं ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिये
जो चंद अहल-ए-जुनूँ तेरे नाम लेवा हैं
बने हैं अहल-ए-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किस से मुंसिफ़ी चाहें

मगर गुज़रनेवालों के दिन गुज़रते हैं
तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबह-ओ-शाम करते हैं

बुझा जो रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है
कि तेरी मांग सितारों से भर गई होगी
चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है
कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी

ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्त-ए-साया-ए-दिवार-ओ-दर में जीते हैं

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई

इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते

ग़र आज तुझसे जुदा हैं तो कल बहम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
ग़र आज औज पे है ताल-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं

जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाज-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-निहार रखते हैं


फ़ैज़ साहब की इक नज़्म जिसने मुझे सबसे जियादा मुत्तासिर किया वो है...

ये गलिओं के आवारा कुत्ते

कि वक्शा गया जिनको जोंके गदाई

ज़माने की फटकार.सरमाया इनका.

जहां भर की दुत्कार इनकी कमाई

न आराम सब को न रहत सबेरे

गलाज़त में घर नालिओं में बसेरे

जो बिगाड़ें तो इक दुसरे से लड़ा दो

ज़रा इक रोटी का टुकड़ा दिखा दो

ये हर इक टोकर खाने वाले

ये फंखों से उकता के मर जाने वाले

ये मजलूम मखलूक दर सिर उठायें

तो इंसान सब सरकसी भूल जाये

ये चाहे तो दुनिया को अपना बना ले

ये आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें

कोई इनको अह्सासे ज़िल्लत दिला दे

कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे.

फ़ैज़ साहब के शायरी में मजलूम और मखलूक इन्सान की आरजू की शिकस्त साफ़ सुनाई देती है।लेकिन उनकी शायरी में इक उम्मीद है की ये लोग इक दिन जागेगें.......

हृदेश सिंह

4 टिप्‍पणियां:

  1. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म दिवस पर उम्दा आलेख..नमन.

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  2. बहुत सुंदर ढंग से आप ने फ़ेज साहब के बारे लिखा, वेसे फ़ेज साहब से मिला तो नही लेकिन इन की नज्मे खुब पढी है, आप का धन्यवाद

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