आज छत्रपति शिवाजी महाराज जी की जयंती है ... 
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| (यहाँ जो चित्र दिया जा रहा है वो ब्रिटीश म्यूजियम स्थित शिवाजी महाराज का असली चित्र है) | 
 
आरंभिक जीवन
शाहजी भोंसले की प्रथम पत्नी जीजाबाई 
(राजमाता जिजाऊ) की कोख से शिवाजी महाराज का जन्म १९ फरवरी, १६३० को 
शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। शिवनेरी का दुर्ग पूना
 (पुणे) से उत्तर की तरफ़ जुन्नार नगर के पास था। उनका बचपन राजा राम, 
गोपाल, संतों तथा रामायण, महाभारत की कहानियों और सत्संग मे बीता। वह सभी 
कलाओ मे माहिर थे, उन्होंने बचपन में राजनीति एवं युद्ध की शिक्षा ली थी । 
ये भोंसले उपजाति के थे जोकि मूलत: कुर्मी जाति से संबद्धित हे | कुर्मी 
जाति कृषि संबद्धित कार्य करती है | उनके पिता अप्रतिम शूरवीर थे और उनकी 
दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते थीं । उनकी माता जी जीजाबाई
 जाधव कुल में उत्पन्न असाधारण प्रतिभाशाली थी और उनके पिता एक शक्तिशाली 
सामन्त थे । शिवाजी महाराज के चरित्र पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। 
बचपन से ही वे उस युग के वातावरण और घटनाओँ को भली प्रकार समझने लगे थे। 
शासक वर्ग की करतूतों पर वे झल्लाते थे और बेचैन हो जाते थे। उनके बाल-हृदय
 में स्वाधीनता की लौ प्रज्ज्वलित हो गयी थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त 
साथियों का संगठन किया। अवस्था बढ़ने के साथ विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ 
फेंकने का उनका संकल्प प्रबलतर होता गया।
छत्रपति शिवाजी महाराज का विवाह सन् १४ मइ १६४० में सइबाई निम्बालकर के साथ लाल महल,पुना में हुआ था ।
 सैनिक वर्चस्व का आरंभ
शिवाजी महाराज ने अपने संरक्षक कोणदेव की सलाह पर बीजापुर
 के सुल्तान की सेवा करना अस्वीकार कर दिया । उस समय बीजापुर का राज्य आपसी
 संघर्ष तथा विदेशी आक्रमणकाल के दौर से गुजर रहा था । ऐसे साम्राज्य के 
सुल्तान की सेवा करने के बदले उन्होंने मावलों को बीजापुर के ख़िलाफ संगठित करने लगे । मावल प्रदेश पश्चिम घाट
 से जुड़ा है और कोई १५० किलोमीटर लम्बा और ३0 किमी चौड़ा है । वे 
संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने के कारण कुशल योद्धा माने जाते हैं । इस 
प्रदेश में मराठा और सभि जाति के लोग रहते हैं । शिवाजी महाराज इन सभि जाति
 के लोगो को लेकर मावलों (मावळा) नाम देकर सभि को सन्घटित किया और उनसे 
सम्पर्क कर उनके प्रदेश से परिचित हो गए थे । मावल युवकों को लाकर उन्होंने
 दुर्ग निर्माण का कार्य आरंभ कर दिया था । मावलों का सहयोग शिवाजी महाराज 
के लिए बाद में उतना ही महत्वपूर्ण साबित हुआ जितना शेरशाह सूरी के लिए अफ़गानों का साथ ।
उस समय बीजापुर आपसी संघर्ष तथा मुगलों के आक्रमण से परेशान था । बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह
 ने बहुत से दुर्गों से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों या सामन्तों
 के हाथ सौंप दिया था । जब आदिलशाह बीमार पड़ा तो बीजापुर में अराजकता फैल 
गई और शिवाजी महाराज ने अवसर का लाभ उठाकर बीजापुर में प्रवेश का निर्णय 
लिया । शिवाजी महाराज ने इसके बाद के दिनों में बीजापुर के दुर्गों पर 
अधिकार करने की नीति अपनाई । सबसे पहला दुर्ग था तोरण का दुर्ग ।
 दुर्गों पर नियंत्रण
तोरण का दुर्ग पूना के दक्षिण पश्चिम में ३0 किलोमीटर की दूरी पर था । 
उन्होंने सुल्तान आदिलशाह के पास अपना दूत भेजकर खबर भिजवाई कि वे पहले 
किलेदार की तुलना में बेहतर रकम देने को तैयार हैं और यह क्षेत्र उन्हें 
सौप दिया जाय । उन्होने आदिलशाह
 के दरबारियों को पहले ही रिश्वत देकर अपने पक्ष में कर लिया था और अपने 
दरबारियों की सलाह के मुताबिक आदिलशाह ने शिवाजी महाराज को उस दुर्ग का 
अधिपति बना दिया । उस दुर्ग में मिली सम्पत्ति से शिवाजी महाराज ने दुर्ग 
की सुरक्षात्मक कमियों की मरम्मत का काम करवाया । इससे कोई १0 किलोमीटर दूर
 राजगढ़ का दुर्ग था और शिवाजी महाराज ने इस दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया ।
शिवाजी महाराज की इस साम्राज्य विस्तार की नीति की भनक जब आदिलशाह
 को मिली तो वह क्षुब्ध हुआ । उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियंत्रण 
में रखने को कहा । शिवाजी महाराज ने अपने पिता की परवाह किये बिना अपने 
पिता के क्षेत्र का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया और नियमित लगान बन्द कर
 दिया । राजगढ़ के बाद उन्होने चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर लिया और उसके 
बाद कोंडना के दुर्ग पर । कोंडना (कोन्ढाणा) पर अधिकार करते समय उन्हें घूस
 देनी पड़ी । कोंडना पर अधिकार करने के बाद उसका नाम सिंहगढ़ रखा गया । 
शाहजी राजे को पूना और सूपा की जागीरदारी दी गई थी और सूपा का दुर्ग उनके 
सम्बंधी बाजी मोहिते के हाथ में थी । शिवाजी महाराज ने रात के समय सूपा के 
दुर्ग पर आक्रमण करके दुर्ग पर अधिकार कर लिया और बाजी मोहिते को शाहजी 
राजे के पास कर्नाटक भेज दिया । उसकी सेना का कुछ भाग भी शिवाजी महाराज की 
सेवा में आ गया । इसी समय पुरन्दर के किलेदार की मृत्यु हो गई और किले के 
उत्तराधिकार के लिए उसके तीनों बेटों में लड़ाई छिड़ गई । दो भाइयों के 
निमंत्रण पर शिवाजी महाराज पुरन्दर पहुँचे और कूटनीति का सहारा लेते हुए 
उन्होंने सभी भाइय़ों को बन्दी बना लिया । इस तरह पुरन्दर के किले पर भी 
उनका अधिकार स्थापित हो गया । अब तक की घटना में शिवाजी महाराज को कोई 
युद्ध या खूनखराबा नहीं करना पड़ा था । १६४७ ईस्वी तक वे चाकन से लेकर नीरा
 तक के भूभाग के भी अधिपति बन चुके थे । अपनी बढ़ी सैनिक शक्ति के साथ 
शिवाजी महाराज ने मैदानी इलाकों में प्रवेश करने की योजना बनाई ।
एक अश्वारोही सेना का गठन कर शिवाजी महाराज ने आबाजी सोन्देर के नेतृत्व में कोंकण
 के विरूद्ध एक सेना भेजी । आबाजी ने कोंकण सहित नौ अन्य दुर्गों पर अधिकार
 कर लिया । इसके अलावा ताला, मोस्माला और रायटी के दुर्ग भी शिवाजी महाराज 
के अधीन आ गए थे । लूट की सारी सम्पत्ति रायगढ़ में सुरक्षित रखी गई । 
कल्याण के गवर्नर को मुक्त कर शिवाजी महाराज ने कोलाबा की ओर रुख किया और 
यहाँ के प्रमुखों को विदेशियों के खिलाफ़ युद्ध के लिए उकसाया ।
 शाहजी की बन्दी और युद्धविराम
बीजापुर का सुल्तान शिवाजी महाराज की हरकतों से पहले ही आक्रोश में था। 
उसने शिवाजी महाराज के पिता को बन्दी बनाने का आदेश दे दिया। शाहजी राजे उस
 समय कर्नाटक में थे और एक विश्वासघाती सहायक बाजी घोरपड़े द्वारा बन्दी 
बनाकर बीजापुर लाए गए। उन पर यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने कुतुबशाह की सेवा प्राप्त करने की कोशिश की थी जो गोलकोंडा
 का शासक था और इस कारण आदिलशाह का शत्रु। बीजापुर के दो सरदारों की 
मध्यस्थता के बाद शाहाजी महाराज को इस शर्त पर मुक्त किया गया कि वे शिवाजी
 महाराज पर लगाम कसेंगे। अगले चार वर्षों तक शिवाजी महाराज ने बीजीपुर के 
ख़िलाफ कोई आक्रमण नहीं किया। इस दौरान उन्होंने अपनी सेना संगठित की।
 प्रभुता का विस्तार
शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक 
शिवाजी ने बीजापुर के क्षेत्रों 
पर आक्रमण तो नहीं किया पर उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने 
की चेष्टा की। पर इस क्रम में जावली का राज्य बाधा का काम कर रहा था। यह 
राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में 
स्थित था। यहाँ का राजा चन्द्रराव मोरे
 था जिसने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी। शिवाजी ने मोरे शासक 
चन्द्रराव को स्वराज मे शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान 
के साथ मिल गया। सन् १६५६ में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर
 दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्रों ने शिवाजी के साथ लड़ाई की पर
 अन्त में वे बन्दी बना लिए गए पर चन्द्रराव भाग गया। स्थानीय लोगों ने 
शिवाजी के इस कृत्य का विरोध किया पर वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे। 
इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्र्हीत आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके 
अलावा कई मावल सैनिक[मुरारबाजी देशपाडे] भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो
 गए।
 मुगलों से पहली मुठभेड़
शिवाजी के बीजापुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे। उस समय शहज़ादा औरंगजेब दक्कन
 का सूबेदार था। इसी समय १ नवम्बर, १६५६ को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की 
मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता का माहौल पैदा हो गया। इस 
स्थिति का लाभ उठाकर औरंगजेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने 
औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर
 पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ २00 घोड़े लूट लिये। अहमदनगर
 से ७00 घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर 
भी लूटपाट मचाई। इसके परिणामस्वरूप औरंगजेव शिवाजी से खफ़ा हो गया और 
मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहाँ के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ
 संधि कर ली और इसी समय शाहजहाँ बीमार पड़ गया। उसके व्याधिग्रस्त होते ही 
औरंगजेब उत्तर भारत चला गया और वहाँ शाहजहाँ को कैद करने के बाद मुगल 
साम्राज्य का शाह बन गया ।
 कोंकण पर अधिकार
दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनैतिक 
स्थित को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। पर 
जंजीरा के सिद्दियों
 के साथ उनकी लडाई कई दिनो तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर 
आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से 
वार्षिक कर एकत्र किया। कल्य़ाण तथा भिवण्डी पर अधिकार करने के बाद वहाँ 
नौसैनिक अड्डा बना लिया। इस समय तक शिवाजी 40 दुर्गों के मालिक बन चुके थे।
 बीजापुर से संघर्ष
इधर औरंगजेब के आगरा
 (उत्तर की ओर) लौट जाने के बाद बीजापुर के सुल्तान ने भी राहत की सांस ली।
 अब शिवाजी ही बीजापुर के सबसे प्रबल शत्रु रह गए थे। शाहजी को पहले ही 
अपने पुत्र को नियंत्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमे अपनी 
असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने 
अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खाँ)
 को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच 
किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर 
उत्तर वाई, शिरवल के नजदीक नामक स्थान तक आ गया । पर शिवाजी प्रतापगढ़ के 
दुर्ग पर हि रहे । अफजल खाँ ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के
 लिए भेजा । उसने उसके मार्फत ये संदेश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की 
अधीनता स्वीकार कर ले तों सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे
 जो शिवाजी के नियंत्रण में हैं । साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में 
एक सम्मानित पद प्राप्त होगा । हँलांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार अस 
संधि के पक्ष मे थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई । उन्होंने कृष्णजी
 भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनीथ 
को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खाँ के पास भेजा । गोपीनाथ और कृष्णजी 
भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयंत्र रचकर अफजल खाँ शिवाजी को 
बन्दी बनाना चाहता है । अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खाँ को एक 
बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खाँ को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया ।
 सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्थान पर जब
 दोनो मिले तब अफजल खाँ ने अपने कट्यार से शिवाजी पे वार किया बचाव मे 
शिवाजी ने अफजल खाँ को अपने वस्त्रो वाघनखो से मार दिया [१० नवमबर १६५९]|
अफजल खाँ की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर 
लिया । इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही 
साथ उन्होंने रूस्तम खाँ के आक्रमण को विफल भी किया । इससे राजापुर तथा 
दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया । अब बीजापुर
 में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहाँ के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर 
शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया । 2 अक्टूबर, 1665 को बीजापुरी सेना 
ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया । शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर 
रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे । बीजापुर के सुल्तान 
ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, 
राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला । इसी समय कर्नाटक
 में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ 
समझौता कर लिया । इस संधि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम 
किया । सन् 1662 में हुई इस सन्धि के अनुसार शिवाजी को बीजापुर के सुल्तान 
द्वारा स्वतंत्र शासक की मान्यता मिली । इसी संधि के अनुसार उत्तर में 
कल्याण से लेकर दक्षिण में पोण्डा तक (250 किलोमीटर) का और पूर्व में 
इन्दापुर से लेकर पश्चिम में दावुल तक (150 किलोमीटर) का भूभाग शिवाजी के 
नियंत्रण में आ गया । शिवाजी की सेना में इस समय तक 30000 पैदल और 1000 
घुड़सवार हो गए थे ।
 मुगलों के साथ संघर्ष
उत्तर भारत में बादशाह बनने की होड़ खतम होने के बाद औरंगजेब का ध्यान 
दक्षिण की तरफ गया । वो शिवाजी की बढ़ती प्रभुता से परिचित था और उसने 
शिवाजी पर नियंत्रण रखने के उद्येश्य से अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण 
का सूबेदार नियुक्त किया । शाइस्का खाँ अपने १,५०,००० फोज लेकर सूपन और 
चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर पूना पहुँच गया । उसने ३ साल तक मावल मे लुटमार
 कि । एक रात शिवाजी ने अपने ३५० मवलो के साथ उनपर हमला कर दिया । शाइस्ता 
तो खिड़की के रास्ते बचनिकलने में कामयाब रहा पर उसे इसी क्रम में अपनी चार
 अंगुलियों से हाथ धोना पड़ा । शाइस्ता खाँ के पुत्र, तथा चालीस रक्षकों और
 अन्गिनत फोज का कत्ल कर दिया गया । इस घटना के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता को 
दक्कन के बदले बंगाल का सूबेदार बना दिया और शाहजादा मुअज्जम शाइस्ता की 
जगह लेने भेजा गया ।
 सूरत में लूट
इस जीत से शिवाजी की प्रतिष्ठा में इजाफ़ा
 हुआ । 6 साल शास्ताखान ने 
अपनी १५०००० फोउज लेकर राजा शिवाजी का पुरा मुलुख जलाकर तबाह कर दिया था। 
ईस् लिए उस् का हर्जाना वसूल करने के लिये शिवाजी ने मुगल क्षेत्रों में 
लूटपाट मचाना आरंभ किया । सूरत उस समय पश्चिमी व्यापारियों का गढ़ था और 
हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लिए हज
 पर जाने का द्वार । यह एक समृद्ध नगर था और इसका बंदरगाह बहुत महत्वपूर्ण 
था । शिवाजी ने चार हजार की सेना के साथ छः दिनों तक सूरत को के धनड्य 
व्यापारि को लूटा आम आदमि को नहि लुटा और फिर लौट गए । इस घटना का जिक्र डच
 तथा अंग्रेजों ने अपने लेखों में किया है । उस समय तक यूरोपीय व्यापारियों
 ने भारत तथा अऩ्य एशियाई देशों में बस गये थे । नादिर शाह के भारत पर 
आक्रमण करने तक (1739) किसी भी य़ूरोपीय शक्ति ने भारतीय मुगल साम्राज्य पर
 आक्रमण करने की नहीं सोची थी ।
सूरत में शिवाजी की लूट से खिन्न होकर औरंगजेब ने इनायत खाँ के स्थान पर
 गयासुद्दीन खां को सूरत का फौजदार नियुक्त किया । और शहजादा मुअज्जम तथा 
उपसेनापति राजा जसवंत सिंह की जगह दिलेर खाँ और राजा जयसिंह की नियुक्ति की
 गई । राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियाँ तथा छोटे 
सामन्तों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध में शिवाजी को
 हानि होने लगी और हार कीसम्भावना को देखते हुए शिवाजी ने सन्धि का 
प्रस्ताव भेजा । जून 1665 में हुई इस सन्धि के मुताबिक शिवाजी 23 दुर्ग 
मुगलों को दे देंगे और इस तरह उनके पास केवल 12 दुर्ग बच जाएंगे । इन 23 
दुर्गों से होने वाली आमदनी 4 लाख हूण सालाना थी । बालाघाट और कोंकण के 
क्षेत्र शिवाजी को मिलेंगे पर उन्हें इसके बदले में 13 किस्तों में 40 लाख 
हूण अदा करने होंगे । इसके अलावा प्रतिवर्ष 5 लाख हूण का राजस्व भी वे 
देंगे । शिवाजी स्वयं औरंगजेब के दरबार में होने से मुक्त रहेंगे पर उनके 
पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में खिदमत करनी होगी । बीजापुर के खिलाफ 
शिवाजी मुगलों का साथ देंगे ।
 आगरा में आमंत्रण और पलायन
शिवाजी को आगरा बुलाया गया जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं 
मिल रहा है । इसके खिलाफ उन्होने अपना रोश भरे दरबार में दिखाया और औरंगजेब
 पर विश्वासघात का आरोप लगाया । औरंगजेब इससे क्षुब्ध हुआ और उसने शिवाजी 
को नज़रकैद कर दिया और उनपर ५००० सेनिको के पहरे लगा दीय॥ कुछ ही दिनो 
बाद[१८ अगस्त १६६६ को] राजा शिवाजी को मार डालने का इरादा ओंरन्ग्जेब का था
 । लेकिन अपने अजोड साहस ओर युक्ति के साथ शिवाजी और सम्भाजी दोनों इससे 
भागने में सफल रहे[१७ अगस्त १६६६] । सम्भाजी को मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़ शिवाजी बनारस, गया, पुरी
 होते हुए सकुशल राजगढ़ पहुँच गए [२ सप्टेम्बर १६६६] । इससे मराठों को 
नवजीवन सा मिल गया । औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उसकी हत्या विष देकर 
करवा डाली । जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद सन् 1668 में शिवाजी ने 
मुगलों के साथ दूसरी बार संधि की । औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की मान्यता 
दी । शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5000 की मनसबदारी मिली और शिवाजी को पूना,
 चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया । पर, सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुगलों 
का अधिपत्य बना रहा ।
सन् 1670 में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लूटा । नगर से 132 लाख की
 सम्पत्ति शिवाजी के हाथ लगी और लौटते वक्त उन्होंने मुगल सेना को सूरत के 
पास फिर से हराया ।
 राज्याभिषेक
सन् १६७४ तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की संधि के अन्तर्गत उन्हें मुगलों को देने पड़े थे ।
पश्चिमी महारष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद 
शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु ब्राहमणों ने उनका घोर विरोध
 किया क्योकि वर्ण व्यवस्था के हिसाब से कुर्मी जाति उस समय शुद्र समझी 
जाती थी । शिवाजी के निजी सचीव बालाजी आव जी ने इसे एक चुनौती के रूप में 
लिया और उन्होंने ने काशी में गंगाभ नमक ब्राहमण के पास तीन दूतो को भेजा, 
किन्तु गंगा ने प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योकि शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे उसने 
कहा की क्षत्रियता का प्रमाण लाओ तभी वह राज्याभिषेक करेगा | बालाजी आव जी 
ने शिवाजी का सम्बन्ध मेवार के सिसोदिया वंश से समबंद्ध के प्रमाण भेजे 
जिससे संतुष्ट होकर वह रायगढ़ आया | किन्तु यहाँ आने के बाद जब उसने पुन 
जाँच पड़ताल की तो उसने प्रमाणों को गलत पाया और राज्याभिषेक से मना कर 
दिया । अंतत: मजबूर होकर उसे एक लाख रुपये के प्रलोभन दिया गया तब उसने 
राज्याभिषेक किया । राज्याभिषेक के बाद भी पूना के ब्राहमणों ने शिवाजी को 
राजा मानने से मना कर दिया विवश होकर शिवाजी को अष्टप्रधान मंडल की स्थापना
 करनी पड़ी । विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को
 भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया । शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण 
की । काशी के पण्डित विशेश्वर जी भट्ट को इसमें विशेष रूप से आमंत्रित किया
 गया था । पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो 
गया । इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार उनका राज्याभिषेक हुआ । दो 
बार हुए इस समारोह में लघभग 50 लाख रुपये खर्च हुए । इस समारोह में हिन्दू 
स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था । विजयनगर
 के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था । एक स्वतंत्र शासक
 की तरह उन्होंने अपने नामका सिक्का चलवाया ।इसके बाद बीजापुर के सुल्तान 
ने कोंकण विजय के लिए अपने दो सेनाधीशों को शिवाजी के विरूद्ध भेजा पर वे 
असफल रहे ।
 दक्षिण में दिग्विजय
सन् 1677-78 में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक 
की ओर गया । बम्बई के दक्षिण मे कोंकण, तुङभद्रा नदी के पश्चिम में बेलगाँव
 तथा धारवाड़ का क्षेत्र, मैसूर, वैलारी, त्रिचूर तथा जिंजी पर अधिकार करने
 के बाद 4 अप्रैल, 1680 को शिवाजी का देहांत हो गया ।
 मृत्यु और उत्तराधिकार
तीन सप्ताह की बीमारी के बाद शिवाजी की 
मृत्यु अप्रैल 1680 में हुई । उस
 समय शिवाजी के उत्तराधिकार शम्भाजी को मिले। शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र 
शम्भाजी थे और दूसी पत्नी से राजाराम नाम एक दूसरा पुत्र था । उस समय 
राजाराम
 की उम्र मात्र 10 वर्ष थी अतः मराठों ने शम्भाजी को राजा मान लिया ।उस समय
 औरंगजेब राजा शिवाजी का देहान्त हुआ देखकर पुरे भारत पर राज्य करने कि अभिलाषा से अपनी ५,००,००० सेना सागर लेकर दक्षिण भारत जीतने निकला । 
औरंगजेब ने दक्षिण मे आते ही आदिलशाही २ दिनो मे ओर कुतुबशाही १ ही दिनो मे खत्म कर दी । पर राजा सम्भाजी के नेतृत्व मे मराठाओ ने ९ साल युद्ध करते हुये
 अपनी स्वतन्त्रता बरकरार रखी । औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर ने औरंगजेब 
के खिलाफ विद्रोह कर दिया । शम्भाजी ने उसको अपने यहाँ शरण दी । औरंगजेब ने
 अब फिर जोरदार तरीके से शम्भाजी के खिलाफ आक्रमण करना शुरु किया । उसने 
अंततः 1689 में ब्राह्मणो की मुखबरी से शम्बाजी को मुकरव खाँ द्वारा बन्दी 
बना लिया । औरंगजेब ने राजा सम्भाजी को बदसलूखी की और यातना दे कर मार 
दिया । अपनी राजा के प्रति औरंगजेब की बदसलूखी और हत्या देखकर सभी मराठा स्वराज्य क्रोधीत हुआ । उन्होने अपनी पुरी ताकत से तीसरा राजा राम के
 नेत्रुत्व मे मुगलों से संघर्ष जारी रखा ।1700 इस्वी में राजाराम की 
मृत्यु हो गई । उसके बाद राजाराम की पत्नी ताराबाई ने 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय
 की संरक्षिका बनकर राज करती रही । आखिरकार २५ साल मराठा स्वराज्य के युद्धक लडके थके हुये औरंगजेब की उसी छ्त्रपती शिवाजी के स्वराज्य मे दफन हुये ।
( सभी जानकारी और चित्र मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से साभार )
बोलो छत्रपति शिवाजी महाराज की ...
जय !!!