रामचंद्र पाण्डुरग राव यवलकर (तात्या टोपे) १८१८ – १८ अप्रैल १८५९ |
तात्या टोपे भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के एक प्रमुख सेनानायक थे। सन १८५७ के महान विद्रोह में उनकी भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण, प्रेरणादायक और बेजोड़ थी। तात्या का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के निकट पटौदा जिले के येवला नामक गाँव में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता पाण्डुरंग राव भट्ट़ (मावलेकर), पेशवा बाजीराव द्वितीय के घरू कर्मचारियों में से थे। बाजीराव के प्रति स्वामिभक्त होने के कारण वे बाजीराव के साथ सन् १८१८ में बिठूर चले गये थे। तात्या का वास्तविक नाम रामचंद्र पाण्डुरग राव था, परंतु लोग स्नेह से उन्हें तात्या के नाम से पुकारते थे। तात्या का जन्म सन् १८१४ माना जाता है। अपने आठ भाई-बहनों में तात्या सबसे बडे थे।
सन् सत्तावन के विद्रोह की शुरुआत १० मई को मेरठ से हुई। जल्दी ही क्रांति की चिन्गारी समूचे उत्तर भारत में फैल गयी। विदेशी सत्ता का खूनी पंजा मोडने के लिए भारतीय जनता ने जबरदस्त संघर्श किया। उसने अपने खून से त्याग और बलिदान की अमर गाथा लिखी। उस रक्तरंजित और गौरवशाली इतिहास के मंच से झाँसी की रानीलक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, राव साहब, बहादुरशाह जफर आदि के विदा हो जाने के बाद करीब एक साल बाद तक तात्या विद्रोहियों की कमान संभाले रहे।
कुछ समय तक तात्या ने ईस्ट इंडिया कम्पनी में बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया था, परन्तु स्वतंत्र चेता और स्वाभिमानी तात्या के लिए अंग्रेजों की नौकरी असह्य थी। इसलिए बहुत जल्दी उन्होंने उस नौकरी से छुटकारा पा लिया और बाजीराव की नौकरी में वापस आ गये। कहते हैं तोपखाने में नौकरी के कारण ही उनके नाम के साथ टोपे जुड गया, परंतु कुछ लोग इस संबंध में एक अलग किस्सा बतलाते हैं। कहा जाता है कि बाजीराव ने तात्या को एक बेशकीमती और नायाब टोपी दी थी। तात्या इस टोपे को बडे चाव से पहनते थे। अतः बडे ठाट-बाट से वह टोपी पहनने के कारण लोग उन्हें तात्या टोपी या तात्या टोपे के नाम से पुकारने लगे।
सन् १८५७ के विद्रोह की लपटें जब कानपुर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज सेना ने इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु १६ जुलाई, १८५७ को उसकी पराजय हो गयी और उसे कानपुर छोड देना पडा। शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से बारह मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लडाई में पराजित हो गये परंतु उनकी कमान में भारतीय सैनिकों ने इतनी बहादुरी प्रदर्शित की कि अंग्रेज सेनापति को भी प्रशंसा करनी पडी।
तात्या एक बेजोड सेनापति थे। पराजय से विचलित न होते हुए वे बिठूर से राव साहेब सिंधिया के इलाके में पहुँचे। वहाँ वे ग्वालियर कन्टिजेन्ट नाम की प्रसिद्ध सैनिक टुकडी को अपनी ओर मिलाने में सफल हो गये। वहाँ से वे एक बडी सेना के साथ काल्पी पहुँचे। नवंबर१८८७ में उन्होंने कानपुर पर आक्रमण किया। मेजर जनरल विन्ढल के कमान में कानपुर की सुरक्षा के लिए स्थित अंग्रेज सेना तितर-बितर होकर भागी, परंतु यह जीत थोडे समय के लिए थी। ब्रिटिश सेना के प्रधान सेनापति सर कॉलिन कैम्पबेल ने तात्या को छह दिसंबर को पराजित कर दिया। इसलिए तात्या टोपे खारी चले गये और वहाँ नगर पर कब्जा कर लिया। खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त किए जो सेना के लिए जरूरी थे। इसी बीच २२ मार्च को सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला। ऐसे नाजुक समय में तात्या टोपे करीब २०,००० सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद के लिए पहुँचे। ब्रिटिश सेना तात्या टोपे और रानी की सेना से घिर गयी। अंततः रानी की विजय हुई। रानी और तात्या टोपे इसके बाद काल्पी पहुँचे। इस युद्ध में तात्या टोपे को एक बार फिर ह्यूरोज के खिलाफ हार का मुंह देखना पडा।
कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। चरखारी को छोडकर दुर्भाग्य से अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी। तात्या टोपे अत्यंत योग्य सेनापति थे। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड दिया और वे स्वयं वेश बदलकर ग्वालियर चले गये। जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब तात्या ने एक ऐसी विलक्षण सफलता प्राप्त की जिससे ह्यूरोज अचंभे में पड गया। तात्या का जवाबी हमला अविश्वसनीय था। उसने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया था और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्जा कर लिया था। झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोशित किया। इस रोमांचकारी सफलता ने स्वाधीनता सेनानियों के दिलों को खुशी से भर दिया, परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने आक्रमण कर दिया। फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई १८ जून, १८५८ को शहीद हो गयीं।
इसके बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा जीवन है। लगभग सब स्थानों पर विद्रोह कुचला जा चुका था, लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना को झकझोरे रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के खिलाफ एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खडा कर दिया। इस छापेमार युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाडयों और घाटियों में बरसात से उफनती नदियों और भयानक जंगलों के पार मध्यप्रदेश और राजस्थान में ऐसी लम्बी दौड-दौडी जिसने अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचाये रखा। बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और बार-बार तात्या को लडाइयाँ लडनी पडी, परंतु यह छापामार योद्धा एक विलक्षण सूझ-बूझ से अंग्रेजों के घेरों और जालों के परे निकल गया। तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि ’’हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोडों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडने में कभी सफलता नहीं मिली।‘‘
ग्वालियर से निकलने के बाद तात्या ने चम्बल पार की और राजस्थान में टोंक, बूँदी और भीलवाडा गये। उनका इरादा पहले जयपुर और उदयपुर पर कब्जा करने का था, लेकिन मेजर जनरल राबर्ट्स वहाँ पहले से ही पहुँच गया। परिणाम यह हुआ कि तात्या को, जब वे जयपुर से ६० मील दूर थे, वापस लौटना पडा। फिर उनका इरादा उदयपुर पर अधिकार करने का हुआ, परंतु राबट्र्स ने घेराबंदी की। उसने लेफ्टीनेंट कर्नल होम्स को तात्या का पीछा करने के लिए भेजा, जिसने तात्या का रास्ता रोकने की पूरी तैयारी कर रखी थी, परंतु ऐसा नहीं हो सका। भीलवाडा से आगे कंकरोली में तात्या की अंग्रेज सेना से जबर्दस्त मुठभेड हुई जिसमें वे परास्त हो गये।
कंकरोली की पराजय के बाद तात्या पूर्व की ओर भागे, ताकि चम्बल पार कर सकें। अगस्त का महीना था। चम्बल तेजी से बढ रही थी, लेकिन तात्या को जोखिम उठाने में आनंद आता था। अंग्रेज उनका पीछा कर रहे थे, इसलिए उन्होंने बाढ में ही चम्बल पार कर ली और झालावाड की राजधानी झलार पाटन पहुँचे। झालावाड का शासक अंग्रेज-परस्थ था, इसलिए तात्या ने अंग्रेज सेना के देखते-देखते उससे लाखों रुपये वसूल किए और ३० तोपों पर कब्जा कर लिया। यहाँ से उनका इरादा इंदौर पहुँचकर वहाँ के स्वाधीनता सेनानियों को अपने पक्ष में करके फिर दक्षिण पहुँचना था। तात्या को भरोसा था कि यदि नर्मदा पार करके महाराश्ट्र पहुँचना संभव हो जाय तो स्वाधीनता संग्राम को न केवल जारी रखा जा सकेगा, बल्कि अंग्रेजों को भारत से खदेडा भी जा सकेगा।
सितंबर, १८५८ के शुरु में तात्या ने राजगढ की ओर रुख किया। वहाँ से उनकी योजना इंदौर पहुंचने की थी, परंतु इसके पहले कि तात्या इंदौर के लिए रवाना होते अंग्रेजी फौज ने मेजर जन. माइकिल की कमान में राजगढ के निकट तात्या की सेना को घेर लिया। माइकिल की फौजें थकी हुई थीं इसलिए उसने सुबह हमला करने का विचार किया, परंतु दूसरे दिन सुबह उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि तात्या की सेना उसके जाल से निकल भागी है। तात्या ने ब्यावरा पहुँचकर मोर्चाबंदी कर रखी थी। यहाँ अंग्रेजों ने पैदल, घुडसवार और तोपखाना दस्तों को लेकर एक साथ आक्रमण किया। यह युद्ध भी तात्या हार गये। उनकी २७ तोपें अंग्रेजों के हाथ लगीं। तात्या पूर्व में बेतवा की घाटी की ओर चले गये। सिरोंज में तात्या ने चार तोपों पर कब्जा कर लिया और एक सप्ताह विश्राम किया। सिरोंज से वे उत्तर में ईशागढ पहुँचे और कस्बे को लूटकर पाँच और तोपों पर कब्जा किया। ईशागढ से तात्या की सेना दो भागों में बँट गयी। एक टुकडी राव साहब की कमान में ललितपुर चली गयी और दूसरी तात्या की कमान में चंदेरी। तात्या का विश्वास था कि चंदेरी में सिंधिया की सेना उसके साथ हो जाएगी, परंतु ऐसा नहीं हुआ। इसलिए वे २० मील दक्षिण में, मगावली चले गये। वहाँ माइकिल ने उनका पीछा किया और १० अक्टूबर को उनको पराजित किया। अब तात्या ने बेतवा पार की और ललितपुर चले गये जहाँ राव साहब भी मौजूद थे। उन दोनों का इरादा बेतवा के पार जाने का था परंतु नदी के दूसरे तट पर अंग्रेज सेना रास्ता रोके खडी थी। चारों ओर घिरा देखकर तात्या ने नर्मदा पार करने का विचार किया। इस मंसूबे को पूरा करने के लिए वे सागर जिले में खुरई पहचे, जहाँ माइकिल ने उसकी सेना के पिछले दस्ते को परास्त कर दिया। इसलिए तात्या ने होशंगाबाद और नरसिंहपुर के बीच, फतेहपुर के निकट सरैया घाट पर नर्मदा पार की। तात्या ने अक्टूबर, १८५८ के अंत में करीब २५०० सैनिकों के साथ नरमदा पार की थी।
नरमदा पार करने के बहुत पहले ही तात्या के पहुँचने का संकेत मिल चुका था। २८ अक्टूबर को इटावा गाँव के कोटवार ने छिंदवाडा से १० मील दूर स्थित असरे थाने में एक महत्त्व की सूचना दी थी, उसने सूचित किया था कि एक भगवा झंडा, सुपारी और पान का पत्ता गाँव-गाँव घुमाया जा रहा है। इनका उद्देश्य जनता को जाग्रत करना था। उनसे संकेत भी मिलता था कि नाना साहब या तात्या टोपे उस दिशा में पहुँच रहे हैं। अंग्रेजों ने तत्काल कदम उठाए। नागपुर के डिप्टी कमिश्नर ने पडोसी जिलों के डिप्टी कमिश्नरों को स्थिति का सामना करने के लिए सचेत किया। इस सूचना को इतना महत्त्वपूर्ण माना गया कि उसकी जानकारी गवर्नर जनरल को दी गयी। नर्मदा पार करके और उसकी दक्षिणी क्षेत्र में प्रवेश करके तात्या ने अंग्रेजों के दिलों में दहशत पैदा कर दी। तात्या इसी मौके की तलाश में थे और अंग्रेज भी उनकी इस येाजना को विफल करने के लिए समूचे केन्द्रीय भारत में मोर्चाबंदी किये थे। इस परिप्रेक्ष्य में तात्या टोपे की सफलता को निश्चय ही आश्चर्यजनक माना जायेगा। नागपुर क्षेत्र में तात्या के पहुँचने से बम्बई प्रांत का गर्वनर एलफिन्सटन घबरा गया। मद्रास प्रांत में भी घबराहट फैली। तात्या अपनी सेना के साथ पचमढी की दुर्गम पहाडयों को पार करते हुए छिंदवाडा के २६ मील उत्तर-पश्चिम में जमई गाँव पहुँच गये। वहाँ के थाने के १७ सिपाही मारे गये। फिर तात्या बोरदेह होते हुए सात नवंबर को मुलताई पहुँच गये। दोनों बैतूल जिले में हैं। मुलताई में तात्या ने एक दिन विश्राम किया। उन्होंने ताप्ती नदी में स्नान किया और ब्राह्मणों को एक-एक अशर्फी दान की। बाद में अंग्रेजों ने ये अशर्फियाँ जब्त कर लीं।
मुलताई के देशमुख और देशपाण्डे परिवारों के प्रमुख और अनेक ग्रामीण उसकी सेना में शामिल हो गये। परंतु तात्या को यहाँ जन समर्थन प्राप्त करने में वह सफलता नहीं मिली जिसकी उसने अपेक्षा की थी। अंग्रेजों ने बैतूल में उनकी मजबूत घेराबंदी कर ली। पश्चिम या दक्षिण की ओर बढने के रास्ते बंद थे। अंततः तात्या ने मुलताई को लूट लिया और सरकारी इमारतों में आग लगा दी। वे उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर मुड गये और आठनेर और भैंसदेही होते हुए पूर्व निमाड यानि खण्डवा जिले पहुँच गये। ताप्ती घाटी में सतपुडा की चोटियाँ पार करते हुए तात्या खण्डवा पहुँचे। उन्होंने देखा कि अंग्रेजों ने हर एक दिशा में उनके विरूद्ध मोर्चा बाँध दिया है। खानदेश में सर ह्यूरोज और गुजरात में जनरल राबर्ट्स उनका रास्ता रोके थे। बरार की ओर भी फौज उनकी तरफ बढ रही थी। तात्या के एक सहयोगी ने लिखा है कि तात्या उस समय अत्यंत कठिन स्थिति का सामना कर रहे थे। उनके पास न गोला-बारूद था, न रसद, न पैसा। उन्होंने अपने सहयोगियों को आज्ञा दे दी कि वे जहाँ चाहें जा सकते हैं, परंतु निश्ठावान सहयोगी और अनुयायी ऐसे कठिन समय में अपने नेता का साथ छोडने को तैयार नहीं थे।
तात्या असीरगढ पहुँचना चाहते थे, परंतु असीर पर कडा पहरा था। अतः निमाड से बिदा होने के पहले तात्या ने खण्डवा, पिपलोद आदि के पुलिस थानों और सरकारी इमारतों में आग लगा दी। खण्डवा से वे खरगोन होते हुए सेन्ट्रल इण्डिया वापस चले गये। खरगोन में खजिया नायक अपने ४००० अनुयायियों के साथ तात्या टोपे के साथ जा मिला। इनमें भील सरदार और मालसिन भी शामिल थे। यहाँ राजपुर में सदरलैण्ड के साथ एक घमासान लडाई हुई, परंतु सदरलैण्ड को चकमा देकर तात्या नर्मदा पार करने में सफल हो गये। भारत की स्वाधीनता के लिए तात्या का संघर्ष जारी था। एक बार फिर दुश्मन के विरुद्ध तात्या की महायात्रा शुरु हुई खरगोन से छोटा उदयपुर, बाँसवाडा, जीरापुर, प्रतापगढ, नाहरगढ होते हुए वे इन्दरगढ पहुँचे। इन्दरगढ में उन्हें नेपियर, शाबर्स, समरसेट, स्मिथ, माइकेल और हार्नर नामक ब्रिगेडियर और उससे भी ऊँचे सैनिक अधिकारियों ने हर एक दिशा से घेर लिया। बचकर निकलने का कोई रास्ता नहीं था, लेकिन तात्या में अपार धीरज और सूझ-बूझ थी। अंग्रेजों के इस कठिन और असंभव घेरे को तोडकर वे जयपुर की ओर भागे। देवास और शिकार में उन्हें अंग्रेजों से पराजित होना पडा। अब उन्हें निराश होकर परोन के जंगल में शरण लेने को विवश होना पडा।
परोन के जंगल में तात्या टोपे के साथ विश्वासघात हुआ। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया और उसकी गद्दारी के कारण तात्या ८ अप्रैल, १८५९ को सोते में पकड लिए गये। रणबाँकुरे तात्या को कोई जागते हुए नहीं पकड सका। विद्रोह और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लडने के आरोप में १५ अप्रैल, १८५९ को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। कोर्ट मार्शल के सब सदस्य अंग्रेज थे। परिणाम जाहिर था, उन्हें मौत की सजा दी गयी। शिवपुरी के किले में उन्हें तीन दिन बंद रखा गया। १८ अप्रैल को शाम पाँच बजे तात्या को अंग्रेज कंपनी की सुरक्षा में बाहर लाया गया और हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फाँसी पर लटका दिया गया। कहते हैं तात्या फाँसी के चबूतरे पर दृढ कदमों से ऊपर चढे और फाँसी के फंदे में स्वयं अपना गला डाल दिया। इस प्रकार तात्या मध्यप्रदेश की मिट्टी का अंग बन गये। कर्नल मालेसन ने सन् १८५७ के विद्रोह का इतिहास लिखा है। उन्होंने कहा कि तात्या टोपे चम्बल, नर्मदा और पार्वती की घाटियों के निवासियों के ’हीरो‘ बन गये हैं। सच तो ये है कि तात्या सारे भारत के ’हीरो‘ बन गये हैं। पर्सी क्रास नामक एक अंग्रेज ने लिखा है कि ’भारतीय विद्रोह में तात्या सबसे प्रखर मस्तिश्क के नेता थे। उनकी तरह कुछ और लोग होते तो अंग्रेजों के हाथ से भारत छीना जा सकता था।
सन् सत्तावन के विद्रोह की शुरुआत १० मई को मेरठ से हुई। जल्दी ही क्रांति की चिन्गारी समूचे उत्तर भारत में फैल गयी। विदेशी सत्ता का खूनी पंजा मोडने के लिए भारतीय जनता ने जबरदस्त संघर्श किया। उसने अपने खून से त्याग और बलिदान की अमर गाथा लिखी। उस रक्तरंजित और गौरवशाली इतिहास के मंच से झाँसी की रानीलक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, राव साहब, बहादुरशाह जफर आदि के विदा हो जाने के बाद करीब एक साल बाद तक तात्या विद्रोहियों की कमान संभाले रहे।
कुछ समय तक तात्या ने ईस्ट इंडिया कम्पनी में बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया था, परन्तु स्वतंत्र चेता और स्वाभिमानी तात्या के लिए अंग्रेजों की नौकरी असह्य थी। इसलिए बहुत जल्दी उन्होंने उस नौकरी से छुटकारा पा लिया और बाजीराव की नौकरी में वापस आ गये। कहते हैं तोपखाने में नौकरी के कारण ही उनके नाम के साथ टोपे जुड गया, परंतु कुछ लोग इस संबंध में एक अलग किस्सा बतलाते हैं। कहा जाता है कि बाजीराव ने तात्या को एक बेशकीमती और नायाब टोपी दी थी। तात्या इस टोपे को बडे चाव से पहनते थे। अतः बडे ठाट-बाट से वह टोपी पहनने के कारण लोग उन्हें तात्या टोपी या तात्या टोपे के नाम से पुकारने लगे।
सन् १८५७ के विद्रोह की लपटें जब कानपुर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज सेना ने इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु १६ जुलाई, १८५७ को उसकी पराजय हो गयी और उसे कानपुर छोड देना पडा। शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से बारह मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लडाई में पराजित हो गये परंतु उनकी कमान में भारतीय सैनिकों ने इतनी बहादुरी प्रदर्शित की कि अंग्रेज सेनापति को भी प्रशंसा करनी पडी।
तात्या एक बेजोड सेनापति थे। पराजय से विचलित न होते हुए वे बिठूर से राव साहेब सिंधिया के इलाके में पहुँचे। वहाँ वे ग्वालियर कन्टिजेन्ट नाम की प्रसिद्ध सैनिक टुकडी को अपनी ओर मिलाने में सफल हो गये। वहाँ से वे एक बडी सेना के साथ काल्पी पहुँचे। नवंबर१८८७ में उन्होंने कानपुर पर आक्रमण किया। मेजर जनरल विन्ढल के कमान में कानपुर की सुरक्षा के लिए स्थित अंग्रेज सेना तितर-बितर होकर भागी, परंतु यह जीत थोडे समय के लिए थी। ब्रिटिश सेना के प्रधान सेनापति सर कॉलिन कैम्पबेल ने तात्या को छह दिसंबर को पराजित कर दिया। इसलिए तात्या टोपे खारी चले गये और वहाँ नगर पर कब्जा कर लिया। खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त किए जो सेना के लिए जरूरी थे। इसी बीच २२ मार्च को सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला। ऐसे नाजुक समय में तात्या टोपे करीब २०,००० सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद के लिए पहुँचे। ब्रिटिश सेना तात्या टोपे और रानी की सेना से घिर गयी। अंततः रानी की विजय हुई। रानी और तात्या टोपे इसके बाद काल्पी पहुँचे। इस युद्ध में तात्या टोपे को एक बार फिर ह्यूरोज के खिलाफ हार का मुंह देखना पडा।
कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। चरखारी को छोडकर दुर्भाग्य से अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी। तात्या टोपे अत्यंत योग्य सेनापति थे। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड दिया और वे स्वयं वेश बदलकर ग्वालियर चले गये। जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब तात्या ने एक ऐसी विलक्षण सफलता प्राप्त की जिससे ह्यूरोज अचंभे में पड गया। तात्या का जवाबी हमला अविश्वसनीय था। उसने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया था और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्जा कर लिया था। झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोशित किया। इस रोमांचकारी सफलता ने स्वाधीनता सेनानियों के दिलों को खुशी से भर दिया, परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने आक्रमण कर दिया। फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई १८ जून, १८५८ को शहीद हो गयीं।
इसके बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा जीवन है। लगभग सब स्थानों पर विद्रोह कुचला जा चुका था, लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना को झकझोरे रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के खिलाफ एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खडा कर दिया। इस छापेमार युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाडयों और घाटियों में बरसात से उफनती नदियों और भयानक जंगलों के पार मध्यप्रदेश और राजस्थान में ऐसी लम्बी दौड-दौडी जिसने अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचाये रखा। बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और बार-बार तात्या को लडाइयाँ लडनी पडी, परंतु यह छापामार योद्धा एक विलक्षण सूझ-बूझ से अंग्रेजों के घेरों और जालों के परे निकल गया। तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि ’’हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोडों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडने में कभी सफलता नहीं मिली।‘‘
ग्वालियर से निकलने के बाद तात्या ने चम्बल पार की और राजस्थान में टोंक, बूँदी और भीलवाडा गये। उनका इरादा पहले जयपुर और उदयपुर पर कब्जा करने का था, लेकिन मेजर जनरल राबर्ट्स वहाँ पहले से ही पहुँच गया। परिणाम यह हुआ कि तात्या को, जब वे जयपुर से ६० मील दूर थे, वापस लौटना पडा। फिर उनका इरादा उदयपुर पर अधिकार करने का हुआ, परंतु राबट्र्स ने घेराबंदी की। उसने लेफ्टीनेंट कर्नल होम्स को तात्या का पीछा करने के लिए भेजा, जिसने तात्या का रास्ता रोकने की पूरी तैयारी कर रखी थी, परंतु ऐसा नहीं हो सका। भीलवाडा से आगे कंकरोली में तात्या की अंग्रेज सेना से जबर्दस्त मुठभेड हुई जिसमें वे परास्त हो गये।
कंकरोली की पराजय के बाद तात्या पूर्व की ओर भागे, ताकि चम्बल पार कर सकें। अगस्त का महीना था। चम्बल तेजी से बढ रही थी, लेकिन तात्या को जोखिम उठाने में आनंद आता था। अंग्रेज उनका पीछा कर रहे थे, इसलिए उन्होंने बाढ में ही चम्बल पार कर ली और झालावाड की राजधानी झलार पाटन पहुँचे। झालावाड का शासक अंग्रेज-परस्थ था, इसलिए तात्या ने अंग्रेज सेना के देखते-देखते उससे लाखों रुपये वसूल किए और ३० तोपों पर कब्जा कर लिया। यहाँ से उनका इरादा इंदौर पहुँचकर वहाँ के स्वाधीनता सेनानियों को अपने पक्ष में करके फिर दक्षिण पहुँचना था। तात्या को भरोसा था कि यदि नर्मदा पार करके महाराश्ट्र पहुँचना संभव हो जाय तो स्वाधीनता संग्राम को न केवल जारी रखा जा सकेगा, बल्कि अंग्रेजों को भारत से खदेडा भी जा सकेगा।
सितंबर, १८५८ के शुरु में तात्या ने राजगढ की ओर रुख किया। वहाँ से उनकी योजना इंदौर पहुंचने की थी, परंतु इसके पहले कि तात्या इंदौर के लिए रवाना होते अंग्रेजी फौज ने मेजर जन. माइकिल की कमान में राजगढ के निकट तात्या की सेना को घेर लिया। माइकिल की फौजें थकी हुई थीं इसलिए उसने सुबह हमला करने का विचार किया, परंतु दूसरे दिन सुबह उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि तात्या की सेना उसके जाल से निकल भागी है। तात्या ने ब्यावरा पहुँचकर मोर्चाबंदी कर रखी थी। यहाँ अंग्रेजों ने पैदल, घुडसवार और तोपखाना दस्तों को लेकर एक साथ आक्रमण किया। यह युद्ध भी तात्या हार गये। उनकी २७ तोपें अंग्रेजों के हाथ लगीं। तात्या पूर्व में बेतवा की घाटी की ओर चले गये। सिरोंज में तात्या ने चार तोपों पर कब्जा कर लिया और एक सप्ताह विश्राम किया। सिरोंज से वे उत्तर में ईशागढ पहुँचे और कस्बे को लूटकर पाँच और तोपों पर कब्जा किया। ईशागढ से तात्या की सेना दो भागों में बँट गयी। एक टुकडी राव साहब की कमान में ललितपुर चली गयी और दूसरी तात्या की कमान में चंदेरी। तात्या का विश्वास था कि चंदेरी में सिंधिया की सेना उसके साथ हो जाएगी, परंतु ऐसा नहीं हुआ। इसलिए वे २० मील दक्षिण में, मगावली चले गये। वहाँ माइकिल ने उनका पीछा किया और १० अक्टूबर को उनको पराजित किया। अब तात्या ने बेतवा पार की और ललितपुर चले गये जहाँ राव साहब भी मौजूद थे। उन दोनों का इरादा बेतवा के पार जाने का था परंतु नदी के दूसरे तट पर अंग्रेज सेना रास्ता रोके खडी थी। चारों ओर घिरा देखकर तात्या ने नर्मदा पार करने का विचार किया। इस मंसूबे को पूरा करने के लिए वे सागर जिले में खुरई पहचे, जहाँ माइकिल ने उसकी सेना के पिछले दस्ते को परास्त कर दिया। इसलिए तात्या ने होशंगाबाद और नरसिंहपुर के बीच, फतेहपुर के निकट सरैया घाट पर नर्मदा पार की। तात्या ने अक्टूबर, १८५८ के अंत में करीब २५०० सैनिकों के साथ नरमदा पार की थी।
नरमदा पार करने के बहुत पहले ही तात्या के पहुँचने का संकेत मिल चुका था। २८ अक्टूबर को इटावा गाँव के कोटवार ने छिंदवाडा से १० मील दूर स्थित असरे थाने में एक महत्त्व की सूचना दी थी, उसने सूचित किया था कि एक भगवा झंडा, सुपारी और पान का पत्ता गाँव-गाँव घुमाया जा रहा है। इनका उद्देश्य जनता को जाग्रत करना था। उनसे संकेत भी मिलता था कि नाना साहब या तात्या टोपे उस दिशा में पहुँच रहे हैं। अंग्रेजों ने तत्काल कदम उठाए। नागपुर के डिप्टी कमिश्नर ने पडोसी जिलों के डिप्टी कमिश्नरों को स्थिति का सामना करने के लिए सचेत किया। इस सूचना को इतना महत्त्वपूर्ण माना गया कि उसकी जानकारी गवर्नर जनरल को दी गयी। नर्मदा पार करके और उसकी दक्षिणी क्षेत्र में प्रवेश करके तात्या ने अंग्रेजों के दिलों में दहशत पैदा कर दी। तात्या इसी मौके की तलाश में थे और अंग्रेज भी उनकी इस येाजना को विफल करने के लिए समूचे केन्द्रीय भारत में मोर्चाबंदी किये थे। इस परिप्रेक्ष्य में तात्या टोपे की सफलता को निश्चय ही आश्चर्यजनक माना जायेगा। नागपुर क्षेत्र में तात्या के पहुँचने से बम्बई प्रांत का गर्वनर एलफिन्सटन घबरा गया। मद्रास प्रांत में भी घबराहट फैली। तात्या अपनी सेना के साथ पचमढी की दुर्गम पहाडयों को पार करते हुए छिंदवाडा के २६ मील उत्तर-पश्चिम में जमई गाँव पहुँच गये। वहाँ के थाने के १७ सिपाही मारे गये। फिर तात्या बोरदेह होते हुए सात नवंबर को मुलताई पहुँच गये। दोनों बैतूल जिले में हैं। मुलताई में तात्या ने एक दिन विश्राम किया। उन्होंने ताप्ती नदी में स्नान किया और ब्राह्मणों को एक-एक अशर्फी दान की। बाद में अंग्रेजों ने ये अशर्फियाँ जब्त कर लीं।
मुलताई के देशमुख और देशपाण्डे परिवारों के प्रमुख और अनेक ग्रामीण उसकी सेना में शामिल हो गये। परंतु तात्या को यहाँ जन समर्थन प्राप्त करने में वह सफलता नहीं मिली जिसकी उसने अपेक्षा की थी। अंग्रेजों ने बैतूल में उनकी मजबूत घेराबंदी कर ली। पश्चिम या दक्षिण की ओर बढने के रास्ते बंद थे। अंततः तात्या ने मुलताई को लूट लिया और सरकारी इमारतों में आग लगा दी। वे उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर मुड गये और आठनेर और भैंसदेही होते हुए पूर्व निमाड यानि खण्डवा जिले पहुँच गये। ताप्ती घाटी में सतपुडा की चोटियाँ पार करते हुए तात्या खण्डवा पहुँचे। उन्होंने देखा कि अंग्रेजों ने हर एक दिशा में उनके विरूद्ध मोर्चा बाँध दिया है। खानदेश में सर ह्यूरोज और गुजरात में जनरल राबर्ट्स उनका रास्ता रोके थे। बरार की ओर भी फौज उनकी तरफ बढ रही थी। तात्या के एक सहयोगी ने लिखा है कि तात्या उस समय अत्यंत कठिन स्थिति का सामना कर रहे थे। उनके पास न गोला-बारूद था, न रसद, न पैसा। उन्होंने अपने सहयोगियों को आज्ञा दे दी कि वे जहाँ चाहें जा सकते हैं, परंतु निश्ठावान सहयोगी और अनुयायी ऐसे कठिन समय में अपने नेता का साथ छोडने को तैयार नहीं थे।
तात्या असीरगढ पहुँचना चाहते थे, परंतु असीर पर कडा पहरा था। अतः निमाड से बिदा होने के पहले तात्या ने खण्डवा, पिपलोद आदि के पुलिस थानों और सरकारी इमारतों में आग लगा दी। खण्डवा से वे खरगोन होते हुए सेन्ट्रल इण्डिया वापस चले गये। खरगोन में खजिया नायक अपने ४००० अनुयायियों के साथ तात्या टोपे के साथ जा मिला। इनमें भील सरदार और मालसिन भी शामिल थे। यहाँ राजपुर में सदरलैण्ड के साथ एक घमासान लडाई हुई, परंतु सदरलैण्ड को चकमा देकर तात्या नर्मदा पार करने में सफल हो गये। भारत की स्वाधीनता के लिए तात्या का संघर्ष जारी था। एक बार फिर दुश्मन के विरुद्ध तात्या की महायात्रा शुरु हुई खरगोन से छोटा उदयपुर, बाँसवाडा, जीरापुर, प्रतापगढ, नाहरगढ होते हुए वे इन्दरगढ पहुँचे। इन्दरगढ में उन्हें नेपियर, शाबर्स, समरसेट, स्मिथ, माइकेल और हार्नर नामक ब्रिगेडियर और उससे भी ऊँचे सैनिक अधिकारियों ने हर एक दिशा से घेर लिया। बचकर निकलने का कोई रास्ता नहीं था, लेकिन तात्या में अपार धीरज और सूझ-बूझ थी। अंग्रेजों के इस कठिन और असंभव घेरे को तोडकर वे जयपुर की ओर भागे। देवास और शिकार में उन्हें अंग्रेजों से पराजित होना पडा। अब उन्हें निराश होकर परोन के जंगल में शरण लेने को विवश होना पडा।
परोन के जंगल में तात्या टोपे के साथ विश्वासघात हुआ। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया और उसकी गद्दारी के कारण तात्या ८ अप्रैल, १८५९ को सोते में पकड लिए गये। रणबाँकुरे तात्या को कोई जागते हुए नहीं पकड सका। विद्रोह और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लडने के आरोप में १५ अप्रैल, १८५९ को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। कोर्ट मार्शल के सब सदस्य अंग्रेज थे। परिणाम जाहिर था, उन्हें मौत की सजा दी गयी। शिवपुरी के किले में उन्हें तीन दिन बंद रखा गया। १८ अप्रैल को शाम पाँच बजे तात्या को अंग्रेज कंपनी की सुरक्षा में बाहर लाया गया और हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फाँसी पर लटका दिया गया। कहते हैं तात्या फाँसी के चबूतरे पर दृढ कदमों से ऊपर चढे और फाँसी के फंदे में स्वयं अपना गला डाल दिया। इस प्रकार तात्या मध्यप्रदेश की मिट्टी का अंग बन गये। कर्नल मालेसन ने सन् १८५७ के विद्रोह का इतिहास लिखा है। उन्होंने कहा कि तात्या टोपे चम्बल, नर्मदा और पार्वती की घाटियों के निवासियों के ’हीरो‘ बन गये हैं। सच तो ये है कि तात्या सारे भारत के ’हीरो‘ बन गये हैं। पर्सी क्रास नामक एक अंग्रेज ने लिखा है कि ’भारतीय विद्रोह में तात्या सबसे प्रखर मस्तिश्क के नेता थे। उनकी तरह कुछ और लोग होते तो अंग्रेजों के हाथ से भारत छीना जा सकता था।
(मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से साभार)
तात्या टोपे के सम्बन्ध में अच्छी जानकारी। महान क्रांतिकारी को हमारा शत - शत नमन।
जवाब देंहटाएंनये लेख : विश्व विरासत दिवस (World Heritage Day)
"चाय" - आज से हमारे देश का राष्ट्रीय पेय।
तात्या टोपे को सदर नमन और भावभीनी श्रद्धांजलि |
जवाब देंहटाएंअत्यंत सुन्दर और भावपूर रचना विकेश भाई | शुक्र है किसी ने तो सोचा ऐसों के बारे में | ईश्वर उन्हें शांति प्रदान करे | आभार
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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सुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय ||
काश ये राजा विश्वासघाती न होते तो न जाने कब जीत गये होते हम।
जवाब देंहटाएंएक वीर सपूत की जीवन गाथा..!!नमन!!
जवाब देंहटाएंतात्या टोपे को सादर नमन ।
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