कर्तार सिंह सराभा (जन्म: २४ मई १८९६ - फांसी: १६ नवम्बर १९१५)
भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त करने के लिये अमेरिका में बनी गदर
पार्टी के अध्यक्ष थे। भारत में एक बड़ी क्रान्ति की योजना के सिलसिले में
उन्हें अंग्रेजी सरकार
ने कई अन्य लोगों के साथ फांसी दे दी। १६ नवंबर १९१५ को कर्तार को जब
फांसी पर चढ़ाया गया, तब वे मात्र साढ़े उन्नीस वर्ष के थे। प्रसिद्ध
क्रांतिकारी भगत सिंह उन्हें अपना आदर्श मानते थे।
पृष्ठभूमि व प्रारंभिक जीवन
सराभा, पंजाब के लुधियाना
ज़िले का एक चर्चित गांव है। लुधियाना शहर से यह करीब पंद्रह मील की दूरी
पर स्थित है। गांव बसाने वाले रामा व सद्दा दो भाई थे। गांव में तीन
पत्तियां हैं-सद्दा पत्ती, रामा पत्ती व अराइयां पत्ती। सराभा गांव करीब
तीन सौ वर्ष पुराना है और १९४७ से पहले इसकी आबादी दो हज़ार के करीब थी,
जिसमें सात-आठ सौ मुसलमान भी थे। इस समय गांव की आबादी चार हज़ार के करीब
है।
कर्तार सिंह का जन्म २४ मई, १८९६ को माता साहिब कौर की कोख से हुआ। उनके
पिता मंगल सिंह का कर्तार सिंह के बचपन में ही निधन हो गया था। कर्तार
सिंह की एक छोटी बहन धन्न कौर भी थी। दोनों बहन-भाइयों का पालन-पोषण दादा
बदन सिंह ने किया। कर्तार सिंह के तीन चाचा-बिशन सिंह, वीर सिंह व बख्शीश
सिंह ऊंची सरकारी पदवियों पर काम कर रहे थे। कर्तार सिंह ने अपनी प्रारंभिक
शिक्षा लुधियाना के स्कूलों में हासिल की। बाद में उसे उड़ीसा में अपने चाचा के पास जाना पड़ा। उड़ीसा उन दिनों बंगाल
प्रांत का हिस्सा था, जो राजनीतिक रूप से अधिक सचेत था। वहां के माहौल में
सराभा ने स्कूली शिक्षा के साथ अन्य ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढ़ना भी शुरू
किया। दसवीं कक्षा पास करने के उपरांत उसके परिवार ने उच्च शिक्षा प्रदान
करने के लिए उसे अमेरिका भेजने का निर्णय लिया और १ जनवरी, १९१२ को सराभा
ने अमेरिका की धरती पर पांव रखा। उस समय उसकी आयु पंद्रह वर्ष से कुछ महीने
ही अधिक थी। इस उम्र में सराभा ने उड़ीसा के रेवनशा कॉलेज से ग्यारहवीं की
परीक्षा पास कर ली थी। सराभा गांव का रुलिया सिंह 1908 में ही अमेरिका
पहुंच गया था और अमेरिका-प्रवास के प्रारंभिक दिनों में सराभा अपने गांव के
रुलिया सिंह के पास ही रहा। उनके बचपन की जीवन संबंधी क्षणों में
ऐतिहासिकता के अंश उसके अमेरिका-प्रवास के दौरान ही शुरू होते हैं, जब उसके
भीतर एक आज़ाद देश में रहते हुए अपनी राष्ट्रीय अस्मिता, आत्मसम्मान व
आज़ाद की तरह जीने की इच्छा पैदा हुई। इस चेतना को प्राप्त करने की शुरूआत
सानफ्रांसिस्को की बंदरगाह पर उतरते ही शुरू हो गई थी, जब आव्रजन अधिकारी
ने उससे अमेरिका आने का कारण पूछा था और सराभा ने बर्कले विश्वविद्यालय में
उच्च शिक्षा प्राप्त करना अपना उद्देश्य बताया था। अधिकारी द्वारा उतरने
की अनुमति न दिए जाने के प्रश्न के उत्तर में सराभा ने तर्कपूर्ण उत्तर
देकर अधिकारी की संतुष्टि करवा दी थी। लेकिन अमेरिका के दो तीन महीने के
प्रवास में ही जगह-जगह पर मिले अनादर ने सराभा के भीतर सुषुप्त चेतना जगानी
शुरू कर दी। एक बुजुर्ग महिला के घर में किराएदार के रूप में रहते हुए, जब
अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर महिला द्वारा घर को फूलों व वीर
नायकों के चित्रों से सजाया गया तो सराभा ने इसका कारण पूछा। महिला के यह
बताने पर कि अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस पर नागरिक ऐसे ही घर सजा कर खुशी
का इज़हार करते हैं तो सराभा के मन में भी यह भावना जागृत हुई कि हमारे देश
की आज़ादी का दिन भी होना चाहिए।
भारत से अमेरिका गए भारतीय, जिनमें से ज़्यादातर पंजाबी थे, प्रायः
पश्चिमी तट के नगरों में रहते और काम की तलाश करते थे। इन शहरों में
पोर्टलैंड, सेंट जॉन, एस्टोरिया, एवरेट आदि शामिल थे, जहां लकड़ी के
कारखानों व रेलवे वर्कशॉपों में काम करने वाले भारतीय बीस-बीस, तीस-तीस की
टोलियों में रहते थे। कनाडा व अमेरिका में गोरी नस्ल के लोगों के नस्लवादी
रवैये से भारतीय मज़दूर काफी दुखी थे। भारतीयों के साथ इस भेदभावपूर्ण
व्यवहार के विरुद्ध कनाडा में संत तेजा सिंह संघर्ष कर रहे थे तो अमेरिका
में ज्वाला सिंह ठट्ठीआं संघर्षरत थे। इन्होंने भारत से विद्यार्थियों को
पढ़ाई करने के लिए अमेरिका बुलाने के लिए अपनी जेब से छात्रवृत्तियां भी
दीं।
कर्तार सिंह सराभा अपने गांव के रुलिया सिंह के पास कुछ समय एस्टोरिया
में रहा। १९१२ के आरंभ में पोर्टलैंड में भारतीय मज़दूरों का एक बड़ा
सम्मेलन हुआ, जिसमें बाबा सोहन सिंह भकना, हरनाम सिंह टुंडीलाट, काशीराम
आदि ने हिस्सा लिया। ये सभी बाद में गदर पार्टी
के महत्त्वपूर्ण नेता बन कर उभरे। इस समय कर्तार सिंह की भेंट ज्वाला सिंह
ठट्ठीआं से भी हुई, जिन्होंने उसे बर्कले विश्वविद्यालय में दाखिला लेने
के लिए प्रेरित किया, जहां सराभा रसायन शास्त्र का विद्यार्थी बना। बर्कले
विश्वविद्यालय में कर्तार सिंह पंजाबी होस्टल में रहने लगा। बर्कले
विश्वविद्यालय में उस समय करीब तीस विद्यार्थी पढ़ रहे थे, जिनमें
ज़्यादातर पंजाबी व बंगाली थे। ये विद्यार्थी दिसंबर, १९१२ में लाला हरदयाल
के संपर्क में आए, जो उन्हें भाषण देने गए थे। लाला हरदयाल ने
विद्यार्थियों के सामने भारत की गुलामी के संबंध में काफी जोशीला भाषण
दिया। भाषण के पश्चात् हरदयाल ने विद्यार्थियों से व्यक्तिगत रूप से भी
बातचीत की। लाला हरदयाल और भाई परमानंद
ने भारतीय विद्यार्थियों के दिलों में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ
भावनाएं पैदा करने में बड़ी भूमिका निभाई। भाई परमानंद बाद में भी सराभा के
संपर्क में रहे। इससे धीरे-धीरे सराभा के मन में देशभक्ति की तीव्र
भावनाएं जागृत हुईं और वह देश के लिए मर-मिटने का संकल्प लेने की ओर अग्रसर
होने लगा।
अमेरिका में गदर पार्टी की स्थापना
१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद में ब्रिटिश सरकार
ने सत्ता पर सीधा नियंत्रण कर एक ओर उत्पीड़न तो दूसरी ओर भारत में
औपनिवेशिक व्यवस्था का निर्माण शुरू किया। क्योंकि खुद ब्रिटेन में
लोकतांत्रिक व्यवस्था थी, इसलिए म्युनिसपैलिटी आदि संस्थाओं का निर्माण भी
किया गया, लेकिन भारत का आर्थिक दोहन अधिक से अधिक हो, इसलिए यहां के देशी
उद्योगों को नष्ट करके यहां से कच्चा माल इंग्लैंड भेजा जाना शुरू किया
गया। साथ ही पूरे देश में रेलवे का जाल बिछाया जाना शुरू हुआ। ब्रिटिश
सरकार ने भारत के सामंतों को अपना सहयोगी बना कर किसानों का भयानक उत्पीड़न
शुरू किया। नतीजतन उन्नीसवीं सदी के अंत तक आते-आते देश के अनेक भागों में
छिटपुट विद्रोह होने लगे। महाराष्ट्र और बंगाल तो इसके केंद्र बने ही,
पंजाब में भी किसानों की दशा पूरी तरह खराब होने लगी। परिणामतः बीसवीं सदी
के आरंभ में ही पंजाब के किसान कनाडा, अमेरिका की ओर मज़दूरी की तलाश में
देश से बाहर जाने लगे। मध्यवर्गीय छात्र भी शिक्षा-प्राप्ति हेतु इंग्लैंड,
अमेरिका वे यूरोप के देशों में जाने लगे थे।
अमेरिका और कनाडा में भारत से काम की तलाश में सबसे पहले १८९५ और १९००
के बीच कुछ लोग पहुंचे। १८९७ में कुछ सिख सैनिक इंग्लैंड में डायमंड जुबली
में हिस्सा लेने आए और लौटते हुए कनाडा से गुज़रे। उनमें से कुछ वहीं रुक
गए, लेकिन ज़्यादातर पंजाबी मलाया, फिलीपींस, हांगकांग, शंघाई, फिज़ी,
ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड आदि देशों से सबसे पहले कनाडा और अमेरिका
पहुंचे। १९०५ में कनाडा पहुंचने वाले भारतीयों की संख्या सिर्फ ४५ थी, जो
१९०८ में बढ़ कर २०२३ तक पहुंच गई। एक विद्वान् के अनुसार १९०७ में वहाँ
६००० तक भारतीय पहुंच चुके थे। इनमें से ८० प्रतिशत पंजाबी-सिख किसान थे।
१९०९ में कनाडा में प्रवेश के कानून कड़े कर दिए जाने पर भारतीयों का रुख
अमेरिका की ओर हुआ, जहां पर १९१३ में भारतीयों की संख्या एक अनुमान के
अनुसार पांच हज़ार थी, हालांकि डॉ. राम मनोहर लोहिया
अपनी पुस्तक ‘Indian in Foreign Lands’ में इनकी संख्या १५००० बताते हैं।
इन भारतीयों में ९० प्रतिशत पंजाबी-सिख किसान थे, कुछ मध्यवर्गीय
विद्यार्थी थे।
कनाडा और अमेरिका पहुंचे पढ़े-लिखे भारतीयों ने शीघ्र ही वहां से भारतीय
स्वतंत्रता की मांग उठाने वाली पत्र-पत्रिकाएं निकालनी शुरू कीं। तारकनाथ
दास ने Free Hindustan पहले कनाडा से पत्र निकाला तो बाद में अमेरिका से।
गुरुदत्त कुमार ने कनाडा में ‘यूनाइटेड इंडिया लीग’ बनाई और ‘स्वदेश सेवक’
पत्रिका भी निकाली।
कनाडा और अमेरिका के अतिरिक्त इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, जापान व अन्य
अनेक देशों में पहुंचे भारतीयों ने स्वतंत्रता की अलख जगाई। भारत से बाहर
जाकर भारतीय स्वतंत्रता के लिए आंदोलन करने वाले भारतीयों में सबसे पहला
चर्चित नाम श्यामजी कृष्ण वर्मा का है, जिन्होंने पहले इंग्लैंड और उसके
बाद पेरिस से स्वतंत्रता का बिगुल बजाया। इंग्लैंड से शुरू हुआ ‘इंडियन
सोश्योलोजिस्ट’ अंग्रेज़ों की कोपदृष्टि का शिकार होकर पेरिस पहुंचा और
वहां से भारत और दूसरी जगहों पर पहुंचता रहा। पेरिस में श्यामजी कृष्ण
वर्मा के साथ-साथ सरदार सिंह राणा और मदाम भीकाजी कामा बहुत सक्रिय रहीं।
१९०७ के स्टुगार्ड में हुए समाजवादी सम्मेलन में भीकाजी कामा
ने ही पहली बार भारत का झंडा फहराया। जर्मनी में वीरेन्द्रनाथ
चट्टोपाध्याय, जो ‘चट्टो’ के नाम से चर्चित थे, और चंपक रमण पिल्लै सक्रिय
थे। इन्हीं के साथ स्वामी विवेकानंद के छोटे भाई डॉ. भूपेन्द्रनाथ दत्त भी
सक्रिय रहे। १९०६ में इंग्लैंड पहुंचे विनायक दामोदर सावरकर ने ‘अभिनव
भारत’ व ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ बनाई। उन्हीं से प्रेरित होकर पंजाब से
पहुंचे मदनलाल ढींगरा
ने १९०९ में कर्ज़न वायली की हत्या कर दी, जिसके कारण उन्हें डेढ़ महीने
के भीतर ही लंदन में फांसी दे दी गई। भारत से बाहर भारत की आज़ादी के लिए
फांसी पर चढ़ कर शहीद होने वाले वे शायद पहले भारतीय थे। इसके ३१ साल बाद
एक और पंजाबी देशभक्त उधम सिंह ने जलियांवाला बाग
के कुख्यात खलनायक ओडवायर की हत्या कर १९४० में लंदन में ही फिर शहादत
हासिल की थी। इस बीच ईरान में सूफी अंबा प्रसाद और कनाडा में भाई मेवा सिंह
शहीद हुए।
भूमिका
१६ नवम्बर, १९१५ को साढे़ उन्नीस साल के युवक कर्तार सिंह सराभा को उनके छह
अन्य साथियों - बख्शीश सिंह, (ज़िला अमृतसर); हरनाम सिंह, (ज़िला
स्यालकोट); जगत सिंह, (ज़िला लाहौर);
सुरैण सिंह व सुरैण, दोनों (ज़िला अमृतसर) व विष्णु गणेश पिंगले, (ज़िला
पूना महाराष्ट्र)- के साथ लाहौर जेल में फांसी पर चढ़ा कर शहीद कर दिया
गया। इनमें से ज़िला अमृतसर के तीनों शहीद एक ही गांव गिलवाली से संबंधित
थे। इन शहीदों व इनके अन्य साथियों ने भारत पर काबिज़ ब्रिटिश उपनिवेशवाद
के खिलाफ १९ फरवरी, १९१५ को ‘गदर’ की शुरुआत की थी। इस ‘गदर’ यानी
स्वतंत्रता संग्राम की योजना अमेरिका में १९१३ में अस्तित्व में आई ‘गदर
पार्टी’ ने बनाई थी और इसके लिए लगभग आठ हज़ार भारतीय अमेरिका और कनाडा
जैसे देशों में सुख-सुविधाओं भरी ज़िंदगी छोड़ कर भारत को अंग्रेज़ों से
आज़ाद करवाने के लिए समुद्री जहाज़ों पर भारत पहुंचे थे। ‘गदर’ आंदोलन
शांतिपूर्ण आंदोलन नहीं था, यह सशस्त्र विद्रोह था, लेकिन ‘गदर पार्टी’ ने
इसे गुप्त रूप न देकर खुलेआम इसकी घोषणा की थी और गदर पार्टी के पत्र
‘गदर’, जो पंजाबी, हिंदी, उर्दू व गुजराती चार भाषाओं में निकलता था-के
माध्यम से इसका समूची भरतीय जनता से आह्वान किया था। अमेरिका की स्वतंत्र
धरती से प्रेरित हो अपनी धरती को स्वतंत्र करवाने का यह शानदार आह्वान १८५७
के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित था और ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने जिसे
अवमानना से ‘गदर’ नाम दिया, उसी ‘गदर’ शब्द को सम्मानजनक रूप देने के लिए
अमेरिका में बसे भारतीय देशभक्तों ने अपनी पार्टी और उसके मुखपत्र को ही
‘गदर’ नाम से विभूषित किया। जैसे १८५७ के ‘गदर’ यानी प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम की कहानी बड़ी रोमांचक है, वैसे ही स्वतंत्रता के लिए दूसरा
सशस्त्र संग्राम यानी ‘गदर’ भी चाहे असफल रहा लेकिन इसकी कहानी भी कम रोचक
नहीं है।
विश्व स्तर पर चले इस आंदोलन में दो सौ से ज़्यादा लोग शहीद हुए, ‘गदर’ व
अन्य घटनाओं में ३१५ से ज़्यादा ने अंडमान जैसी जगहों पर काले पानी की
उम्रकैद भुगती और १२२ ने कुछ कम लंबी कैद भुगती। सैकड़ों पंजाबियों को
गांवों में वर्षों तक नज़रबंदी झेलनी पड़ी। उस आंदोलन में बंगाल से रास
बिहारी बोस वे शचीन्द्रनाथ सान्याल, महाराष्ट्र से विष्णु गणेश पिंगले व
डॉ. खानखोजे, दक्षिण भारत से डॉ. चेन्चय्या व चंपक रमण पिल्लै तथा भोपाल से
बरकतुल्ला आदि ने हिस्सा लेकर उसे एक ओर राष्ट्रीय रूप दिया तो शंघाई,
मनीला, सिंगापुर आदि अनेक विदेशी नगरों में हुए विद्रोह ने इसे
अंतर्राष्ट्रीय रूप भी दिया। १८५७ की भांति ही ‘गदर’ आंदोलन भी सही मायनों
में धर्म निरपेक्ष संग्राम था जिसमें सभी धर्मों व समुदायों के लोग शामिल
थे।
गदर पार्टी आंदोलन की यह विशेषता भी रेखांकित करने लायक है कि विद्रोह
की असफलता से गदर पार्टी समाप्त नहीं हुई, बल्कि इसने अपना अंतर्राष्ट्रीय
अस्तित्व बचाए रखा व भारत में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होकर व विदेशों
में अलग अस्तित्व बनाए रखकर गदर पार्टी ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में
महत्त्वपूर्ण योगदान किया। आगे चल कर १९२५-२६ से पंजाब का युवक विद्रोह,
जिसके लोकप्रिय नायक भगत सिंह बने, भी गदर पार्टी व कर्तार सिंह सराभा से
अत्यंत रूप में प्रभावित रहा। एक तरह से भगत सिंह का व्यक्तित्व व चिंतन
गदर पार्टी की परंपरा को अपनाते हुए उसके अग्रगामी विकास के रूप में निखरा।
कर्तार सिंह सराभा गदर पार्टी के उसी तरह नायक बने, जैसे बाद में १९२५ -
३१ के दौरान भगत सिंह क्रांतिकारी आंदोलन के महानायक बने। यह अस्वाभाविक
नहीं है कि कर्तार सिंह सराभा ही भगत सिंह के सबसे लोकप्रिय नायक थे, जिनका
चित्र वे हमेशा अपनी जेब में रखते थे और ‘नौजवान भारत सभा’ नामक युवा
संगठन के माध्यम से वे कर्तार सिंह सराभा के जीवन को स्लाइड शो द्वारा
पंजाब के नवयुवकों में आज़ादी की प्रेरणा जगाने के लिए दिखाते थे। ‘नौजवान
भारत सभा’ की हर जनसभा में कर्तार सिंह सराभा के चित्र को मंच पर रख कर उसे
पुष्पांजलि दी जाती थी।
कर्तार सिंह सराभा, गदर पार्टी आंदोलन के लोक नायक के रूप में अपने बहुत
छोटे-से राजनीतिक जीवन के कार्यकलापों के कारण उभरे। कुल दो-तीन साल में
ही सराभा ने अपने प्रखर व्यक्तित्व की ऐसी प्रकाशमान किरणें छोड़ीं कि देश
के युवकों की आत्मा को उसने देशभक्ति के रंग में रंग कर जगमग कर दिया। ऐसे
वीर नायक को फांसी देने से न्यायाधीश भी बचना चाहते थे और सराभा को
उन्होंने अदालत में दिया बयान हल्का करने का मशविरा और वक्त भी दिया, लेकिन
देश के नवयुवकों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनने वाले इस वीर नायक ने बयान
हल्का करने की बजाय और सख्त किया और फांसी की सज़ा पाकर खुशी में अपना वज़न
बढ़ाते हुए हंसते-हंसते फांसी पर झूल गया।
सराभा की लोकप्रिय गज़ल
करतार सिंह सराभा की यह गज़ल भगत सिंह को बेहद प्रिय थी वे इसे अपने पास हमेशा रखते थे और अकेले में अक्सर गुनगुनाया करते थे:
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- "यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयाँ मेरा,
- मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा;
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- मैं हिन्दी ठेठ हिन्दी जात हिन्दी नाम हिन्दी है,
- यही मजहब यही फिरका यही है खानदां मेरा;
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- मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूँ,
- यही बस इक पता मेरा यही नामो-निशाँ मेरा;
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- मैं उठते-बैठते तेरे कदम लूँ चूम ऐ भारत!
- कहाँ किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहाँ मेरा;
- तेरी खिदमत में अय भारत! ये सर जाये ये जाँ जाये,
- तो समझूँगा कि मरना है हयाते-जादवां मेरा."
- आज अमर शहीद कर्तार सिंह सराभा जी की ११८ वीं जयंती के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते है |
वाह...क्या ग़ज़ल है! क्या जज़्बा है!
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