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शनिवार, 9 जनवरी 2010

इब्न-ए-बतूता

गुलज़ार और इब्न--बतूता
हाल ही में एक फिल्म का म्यूजिक रिलीज हुआ है.फिल्म का नाम है ''इश्किया''....फिल्म को डायरेक्ट अभिषेक चोबे ने किया है. फिल्म से विशाल भारद्वाज का नाम भी जुड़ा है.इस फिल्म के वे लेखक है.अब बात करते हैं फिल्म के उस गाने की जिसकी बजह से मुझे ये पोस्ट लिखने की जरुरत महसूस हुयी.दरअसल इस फिल्म का एक गाना बेहद खास है.गाने का शीर्षक है इब्न--बतूता.....ये गाना गुलज़ार साहब ने लिखा है.इब्न-ए बतूता इतिहास है और गुलज़ार हकीक़त.इस गाने से इब्न-ए-बतूता की एक बार फि याद आ गयी.मोरक्को के इस इन्सान ने 13 वीं शताब्दी में मुसाफिर बन कर दुनिया की सैर कर डाली.गुलज़ार की तारीफ करना चाहूँगा की इस उम्र में भी वे कितने क्रिएटिव है.इस गाने को सुनने वाली नयी पीढ़ी शायद ही इब्न-ए-बतूता के बारे में जानती हो.इब्न-ए- बतूता का जन्म 24 फ़रवरी 1304 को हुआ था.इसक पूरा नाम था मुहम्मद बिन अब्दुल्ला इब्न बत्तूता.
उसने
लगभग 74,000 मील की यात्रा की थी.इब्न-ए-बतूता ने भारत की भी सैर की.मोहम्मद बिन तुगलक का वो चहेता था.तुगलक के दरवार में उसे काजी का ओहदा दिया गया.उस दौर के बारे में जानकारी लेने के लिए इब्न-ए-बतूता का लिखा इतिहास बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है. इस गाने को सुनाने पर बतूता के जीवन से जुडी कई घटनाओं की झलक मिलती है. गुलज़ार ने गाने में बढ़ी ही खूबसूरती से इब्न-ए-बतूता के नाम इस्तेमाल किया है.लेकिन इस गाने की असली खूबसूरती भी यही नाम है.दिल्ली सल्तनत में हजरत अमीर खुसरो के बाद इब्न-ए-बतूता का लिखा इतिहास ही उस दौर की सही जानकारी देता है.तुगलक और इब्न-ए-बतूता को लेकर इतिहासकारों ने कई बातें लिखीं है.लेकिन उनमें कुछ हकीक़त है तो कुछ फ़साना,इस गाने के दुसरे अंतरे में लाइन है.अगले मोड़ पर मौत खडी है मरने की भी क्या जल्दी है....1342 में मुहम्मद तुगलक ने बतूता को चीन के बादशाह के पास अपना राजदूत बनाकर भेजा, लेकिन दिल्ली से रवाना होने के कुछ दिन बाद ही वह बड़ी विपत्ति में पड़ गया और बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचाकर अनेक आपत्तियाँ सहता वह कालीकट पहुँचा.ऐसी दशा में उसने समन्दर से चीन जाना उचित नहीं समझा और नीलगिरी की पहाड़ियों और हिमालय के रस्ते होता हुआ लंका, बंगाल आदि प्रदेशों में घूमता चीन जा पहुँचा.इसमें कोई शक नहीं है है बतूता एक बहादुर यात्री था.यात्री होने के साथ ही वो विद्धान् और लेखक भी था.इब्न-ए-बतूता के इतिहास से ही 13 वीं सदी के राजनेतिक. व्यापारिक.सामाजिक और धार्मिक स्थिति का पता चलता है.इब्न-ए-बतूता के लिखे इतिहास से पता चलता है की उस दौर में अफ्रीका और भारतीय समुद्रमार्गो का समूचा व्यापार अरब सौदागरों के हाथों में था.बतूता ने अपने जीवन में कुल तीन बार मक्का की यात्रा की थी.बतूता बेहद धर्मिक था.इस्लाम में उसकी गहरी आस्था थी.बतूता भारत में सबसे पहले दिल्ली आया था.भारत आने वाले मुसलमानों में बतूता सबसे महान माना जाता है.इब्न-ए- बत्तूता के भ्रमणवृत्तांत को "तुहफ़तअल नज्ज़ार फ़ी गरायब अल अमसार व अजायब अल अफ़सार" का नाम दिया गया. इस गीत के जरिये इब्न-ए-बतूता की याद और उनके एतिहासिक योगदान की याद दिलाने के लिए गुलज़ार साहब शुक्रिया......
  • हृदेश सिंह

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

सत्यम ने पुरे किए सफलता के तीन साल

इस तोफिक की कीमत क्या है
ज से तीन साल पहले मैनपुरी की जनता को सत्यम न्यूज़ चैनल का दीदार हुआ था.१४ दिसम्बर २००६ की सुबह थी.धुप अभी पकी भी नहीं थी.स्टेशन रोड पर सत्यम के ऑफिस में चहल पहल थी.पूरी मैनपुरी टीवी से चिपकी थी.जबरदस्त दबाव था.११ बजे हवन और पूजन के बाद सत्यम ने काम शुरू कर दिया था.शाम ७ बजे हमारी पहली न्यूज़ फ्लैस हुयी.अपनों को टीवी पर देख कर मैनपुरी की जनता झूम उठी.सड़कों और चोराहा पर भीड़ जमी हुयी थी सत्यम के इजाद से मैनपुरी की जनता बेहद खुश थी.ये सब देख कर मुझे भी ख़ुशी हो रही थी लेकिन डर भी लग रहा था.क्यों की मुझे उम्मीद नहीं थी कि सत्यम को मैनपुरी की जनता इतना सम्मान और मोहब्बत देगी.मुझे इसकी इतनी उम्मीद नहीं थी.लेकिन उस दिन मेने ये ठान लिया की मैनपुरी की जनता को कभी निराश नहीं होने दूंगा.तीन साल के इस सफर में सबसे ज्यादा शुक्रिया डॉ शेखर भदौरिया करना चाहूँगा.सच तो ये है की मेने तो सिर्फ एक सपना देखा था लेकिन डॉ शेखर ने इसे ज़मीन दी थी.इस सपने को हकीकत में तब्दील किया.उनके बारे में फिर कभी विस्तार से लिखूंगा.वे एक प्रोग्रेसिव सोच के इन्सान हैं जो कुछ हट के करना चाहते हैं.मैनपुरी की जनता को उनके इस प्रयास की तारीफ करनी ही चाहिए.मुझे याद है अक्टूबर का महीना था.उस समय में बी ए जी फ़िल्म्स से जुड़ा था.एक प्रोग्राम की शूटिंग के लिए उनके गावं बिछिया गया था.शूटिंग खत्म होने के बाद चलते वक़्त मेरे बड़े भाई के दोस्त नंदू भैया ने मेरे चैनल खोलने के विचार उनके सामने रखा.डॉ शेखर ने उस पर तुरंत हाँ कर दी.उनके साथ काम करने के लिए मेरे दिल ने फोरन हाँ करने को कहा.मैंने ऐसा किया भी.मेरे ज़ेहन में उनकी छवि एक इमानदार और नेक इन्सान की है जो आज भी ज़ेहन में कायम है.
चैनल शुरू हुआ.लोगों ने कहा सत्यम १ महीने बाद बंद हो जायेगा.सत्यम ने एक महीना पूरा किया.फिर लोगों ने कहा ये तीन महीना तक और चलेगा.सत्यम ने तीन माह भी पुरे कर लिया.आज उन चंद लोगों के मुह सत्यम कि तारीफ करते नहीं थकते.जो कल तक इसके बंद होने की भविष्यवाणी करते थे.चैनल सुबोध.अजय.आशीष.आकांक्षा.नेहा.विशाल.चेतन.बोबी.प्रगति.रामपाल और गौरव की महनत से कीर्तमान रचने लगा था.तीन साल में सत्यम जनता के दिल पर छा गया.सत्यम इन तीन सालों में मैनपुरी की जनता के सुख दुःख का साथी बन गया.सत्यम ने सरकार की कल्याणकारी योजनायों की जानकारी दे कर जनता को जागरूक बनाया.युवाओं को एक नयी सोच दी.विकास पत्रकारिता मे सत्यम तीन सालों में रोल मॉडल बन गया.इसकी लोकप्रियता देश से बहार फैलने लगी.सत्यम को मैनपुरी की जनता अपना चैनल मानती है.तकनीकी और संसाधनों की कमी हमेशा सत्यम में बनी रही लेकिन जनता ने हमेसा इसको नज़रंदाज़ ही किया.ये जनता का मेरे उपर अहसान से कम नहीं है.इसी लिए में अक्सर इसे जनता का चैनल कहता हूँ.आपने स्टाफ को भी में यही कहता हूँ कि आप जनता को माँ-बाप मन कर काम करें.मेरे स्टाफ ने ऐसा किया भी.इसके लिए में अपने स्टाफ का भी शुक्रगुज़ार हूँ. सत्यम के प्रसारण को कई बार कुछ लोगों ने रोकने की कोशिश की ये वो लोग थे जो में मैनपुरी को तरक्की करते नहीं देखना चाहते थे.वे नहीं चाहते थे की मैनपुरी की जनता जागरूक बने.लेकिन ऐसे लोग बहुत कम थे.उनके इरादों में खोट थी सो वे सफल नहीं हो सके.सत्यम जनता की आवाज़ को लेकर बढता जा रहा है.मेरे दोस्त शिवम् ने मुझे काफी होसला दिया.प्रोत्साहित किया.जब सत्यम लोकप्रिय होने लगा तो लोगों ने कहा ''आप मैनपुरी में अपना करियर खत्म कर रहे हो''में सुनता रहता...तरह के सवाल अब मेरी दैनिक दिनचर्या का हिस्सा बन चुके हैं. क्या अच्छी पढ़ाई करने वालों को आपने घर में काम नही करना चाहिए? क्या सबसे ज्यादा मेरी जरुरत दिल्ली या बढे शहरों में है ?आई आई एम् सी से पत्रकरिता की डिग्री लेने के बाद क्या बड़े मीडिया हाउस में ही काम करना चाहिए? मैंने कभी इस बात की फरवाह नही की.मैनपुरी से कई नामी और काबिल हस्तियों के नाम जुड़े हैं अगर वे मैनपुरी की लिए थोड़ा भी करते तो आज मैनपुरी पिछड़ी न होती.में बस इतना जनता हूँ की मैनपुरी का पिछले जन्म का कोई ऋण है जो इस जन्म में पत्रकारिता के जरिये चुका रहा हूँ और मुझे इसमें बेहद खुशी है.क्यों कि मुझे ये मोका नसीब हुआ है.
!! आफलाक़ से लायी जाती है
सीने में छुपाई जाती है
तोहीद की मय सागर से नहीं
आखों से पिलाई जाती है !!
हृदेश सिंह

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