केशवराव बलिराम हेडगेवार ( जन्म : १ अप्रैल १८८९ - मृत्यु : २१ जून 
१९४०) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं प्रकाण्ड क्रान्तिकारी थे। 
उनका जन्म हिन्दू वर्ष प्रतिपदा के दिन हुआ था। घर से कलकत्ता गये तो थे 
डाक्टरी पढने परन्तु वापस आये उग्र क्रान्तिकारी बनकर। कलकत्ते में श्याम 
सुन्दर चक्रवर्ती के यहाँ रहते हुए बंगाल की गुप्त क्रान्तिकारी संस्था 
अनुशीलन समिति के सक्रिय सदस्य बन गये। सन् १९१६ के कांग्रेस अधिवेशन में 
लखनऊ गये। वहाँ संयुक्त प्रान्त (वर्तमान यू०पी०) की युवा टोली के सम्पर्क 
में आये। बाद में कांग्रेस से मोह भंग हुआ और नागपुर में संघ की स्थापना कर
 डाली। मृत्युपर्यन्त सन् १९४० तक वे इस संगठन के सर्वेसर्वा रहे। 
संक्षिप्त जीवन परिचय
डॉ. हेडगेवार का जन्म १ अप्रैल, १८८९ को महाराष्ट्र के नागपुर जिले
 में पण्डित बलिराम पन्त हेडगेवार के घर हुआ था। इनकी माता का नाम रेवतीबाई
 था। माता-पिता ने पुत्र का नाम केशव रखा। केशव का बड़े लाड़-प्यार से 
लालन-पालन होता रहा। उनके दो बड़े भाई भी थे, जिनका नाम महादेव और सीताराम 
था। पिता
 बलिराम वेद-शास्त्र के विद्वान थे एवं वैदिक कर्मकाण्ड (पण्डिताई) से 
परिवार का भरण-पोषण चलाते थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुयायी व आर्य 
समाज में निष्ठा होने के कारण उन्होंने अग्निहोत्र का व्रत लिया हुआ था। 
परिवार में नित्य वैदिक रीति से सन्ध्या-हवन होता था।
बडे भाई से प्रेरणा
केशव के सबसे बड़े भाई महादेव भी शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता तो थे ही 
मल्ल-युद्ध की कला में भी बहुत माहिर थे। वे रोज अखाड़े में जाकर स्वयं तो 
व्यायाम करते ही थे गली-मुहल्ले के बच्चों को एकत्र करके उन्हें भी कुश्ती 
के दाँव-पेंच थे। महादेव भारतीय संस्कृति और विचारों का बड़ी सख्ती से पालन
 करते थे। केशव के मानस-पटल पर बडे भाई महादेव के विचारों का गहरा प्रभाव 
था। किन्तु वे बडे भाई की अपेक्षा बाल्यकाल से ही क्रान्तिकारी विचारों के 
थे। जिसका परिणाम यह हुआ कि वे डॉक्टरी पढ़ने के लिये कलकत्ता गये और वहाँ 
से उन्होंने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से प्रथम श्रेणी में डॉक्टरी की परीक्षा 
भी उत्तीर्ण की; परन्तु घर वालों 
की इच्छा के विरुद्ध देश-सेवा के लिए नौकरी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। 
डॉक्टरी करते करते ही उनकी तीव्र नेतृत्व प्रतिभा को भांप कर उन्हें हिन्दू
 महासभा बंगाल प्रदेश का उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया |
क्रान्ति का बीजारोपण
कलकत्ते में पढाई करते हुए उनका मेल-मिलाप बंगाल के क्रान्तिकारियों से 
हुआ। केशव चूँकि कलकत्ता में अपने बडे भाई महादेव के मित्र श्याम सुन्दर 
चक्रवर्ती
 के घर रहते थे अत: वहाँ के स्थानीय लोग उन्हें केशव चक्रवर्ती के नाम से 
ही जानते व सम्बोधित करते थे। उनकी असाधारण योग्यता को मद्देनजर रखते हुए 
उन्हें पहले अनुशीलन समिति
 का साधारण सदस्य बनाया गया। उसके बाद जब वे कार्यकुशलता की कसौटी पर खरे 
उतरे तो उन्हें समिति का अन्तरंग सदस्य भी बना लिया गया। उनकी तीव्र 
नेतृत्व प्रतिभा को देख कर उन्हें हिन्दू महासभा बंगाल प्रदेश का उपाध्यक्ष
 भी बनाया गया l इस प्रकार क्रान्तिकारियों की समस्त गतिविधियों का ज्ञान 
और संगठन-तन्त्र कलकत्ते से सीखकर वे नागपुर लौटे।
कांग्रेस और हिन्दू महासभा में भागीदारी
सन् १९१६ के कांग्रेस अधिवेशन में लखनऊ गये। वहाँ संयुक्त प्रान्त (वर्तमान
 यू०पी०) की युवा टोली के सम्पर्क में आये। बाद में आपका कांग्रेस से मोह 
भंग हुआ और नागपुर में संघ की स्थापना कर डाली।
लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद केशव कॉग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों में 
काम करते रहे। गांधीजी के अहिंसक असहयोग आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलनों
 में भाग लिया, परन्तु ख़िलाफ़त आंदोलन की जमकर आलोचना की। ये गिरफ्तार भी 
हुए और सन् १९२२ में जेल से छूटे। नागपुर में १९२३ के दंगों के दौरान 
इन्होंने डॉक्टर मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया। अगले साल सावरकर के पत्र हिन्दुत्व का संस्करण निकला जिसमें इनका योगदान भी था। इसकी मूल पांडुलिपि इन्हीं के पास थी।
व्यक्तित्व व कृतित्व
१९२१ ई. में अंग्रेजो ने तुर्की को परास्त कर, वहां के सुल्तान को गद्दी
 से उतार दिया था, वही सुल्तान मुसलमानों के खलीफा/मुखिया भी कहलाते थे, ये
 बात भारत व अन्य मुस्लिम देशों के मुसलमानों को नागवार गुजरी जिससे 
जगह-जगह आन्दोलन हुए l हिन्दुस्थान में खासकर केरल के मालाबार जिले में 
आन्दोलन ने उग्र रूप ले लिया l
१९२२ ई. में भारत के राजनीतिक पटल पर गांधी के आने के पश्चात ही मुस्लिम
 सांप्रदायिकता ने अपना सिर उठाना प्रारंभ कर दिया। खिलाफत आंदोलन को गांधी
 जी का सहयोग प्राप्त था - तत्पश्चात नागपुर व अन्य कई स्थानों पर हिन्दू, 
मुस्लिम दंगे प्रारंभ हो गये तथा नागपुर के कुछ हिन्दू नेताओं ने समझ लिया 
कि हिन्दू एकता ही उनकी सुरक्षा कर सकती है। ऐसी स्थिति में कई हिंदू नेता 
केरल की स्थिती जानने एवं वहां के लूटे पिटे हिंदुओं की सहायता के लिए 
मालाबार-केरल गये, इनमें नागपुर के प्रमुख हिंदू महासभाई नेता डॉ. बालकृष्ण
 शिवराम मुंजे, डॉ. हेडगेवार, आर्य समाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद जी आदि 
थे, उसके थोड़े समय बाद नागपुर तथा अन्य कई शहरों में भी हिंदू-मुस्लिम 
दंगे हुए l ऐसी घटनाओं से विचलित होकर नागपुर में डॉ. मुंजे ने कुछ 
प्रसिद्ध हिंदू नेताओं की बैठक बुलाई, जिनमें डॉ. हेडगेवार एवं डॉ. परांजपे
 भी थे, इस बैठक में उन्होंने एक हिंदू-मिलीशिया बनाने का निर्णय लिया, 
उद्देश्य था “हिंदुओं की रक्षा करनाएवं हिन्दुस्थान को एक सशक्त हिंदू 
राष्ट्र बनाना”l इस मिलीशिया को खड़े करने की जिम्मेवारी धर्मवीर डॉ. मुंजे
 ने डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार को दी l
डॉ.साहब ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने व्यक्ति की क्षमताओं को उभारने के लिये 
नये-नये तौर-तरीके विकसित किये। हालांकि प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
 की असफल क्रान्ति और तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए 
उन्होंने एक अर्ध-सैनिक संगठन की नींव रखी। इस प्रकार 28/9/1925 (विजयदशमी 
दिवस) को अपने पिता-तुल्य गुरु डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे , उनके शिष्य डॉ.
 हेडगेवार, श्री परांजपे और बापू साहिब सोनी ने एक हिन्दू युवक क्लब की 
नींव डाली, जिसका नाम कालांतर में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ दिया गया l
यहाँ पर उल्लेखनीय है कि इस मिलीशिया का आधार बना - वीर सावरकर का 
राष्ट्र दर्शन ग्रन्थ(हिंदुत्व) जिसमे हिंदू की परिभाषा यह की गई थी- आ 
सिंधु-सिंधु पर्यन्ता, यस्य भारत भूमिका l पितृभू-पुण्यभू भुश्चेव सा वै 
हिंदू रीती स्मृता ll
इस श्लोक के अनुसार “भारत के वह सभी लोग हिंदू हैं जो इस देश को 
पितृभूमि-पुण्यभूमि मानते हैं”l इनमे सनातनी, आर्यसमाजी, जैन , बौद्ध, सिख 
आदि पंथों एवं धर्म विचार को मानने वाले व उनका आचरण करने वाले समस्त जन को
 हिंदू के व्यापक दायरे में रखा गया था l मुसलमान व ईसाई इस परिभाषा में 
नहीं आते थे अतः उनको इस मिलीशिया में ना लेने का निर्णय लिया गया और केवल 
हिंदुओं को ही लिया जाना तय हुआ, मुख्य मन्त्र था “अस्पष्टता निवारण एवं 
हिंदुओं का सैनिकी कारण”l
ऐसी मिलीशिया को खड़ा करने के लिए स्वंयसेवको की भर्ती की जाने लगी, 
सुबह व शाम एक-एक घंटे की शाखायें लगाई जाने लगी| इसे सुचारू रूप से चलाने 
के लिए शिक्षक, मुख्य शिक्षक, घटनायक आदि पदों का सृजन किया गया l इन 
शाखायों में व्यायाम, शरारिक श्रम, हिंदू राष्ट्रवाद की शिक्षा के साथ- साथ
 वरिष्ठ स्वंयसेवकों को सैनिक शिक्षा भी दी जानी तय हुई l बाद में यदा कदा 
रात के समय स्वंयसेवकों की गोष्ठीयां भी होती थी, जिनमें महराणा प्रताप, 
वीर शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, बंदा बैरागी, वीर सावरकर, मंगल पांडे, 
तांत्या टोपे आदि की जीवनियाँ भी पढ़ी जाती थीं l वीर सावरकर द्वारा रचित 
पुस्तक(हिंदुत्व) के अंश भी पढ़ कर सुनाये जाते थे l

 
थोड़े समय बाद इस मिलीशिया को नाम दिया गया राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ- जो
 आर.एस.एस. के नाम से प्रसिद्ध हुआ l प्रार्थना भी मराठी की बजाय संस्कृत 
भाषा में होने लगी l वरिष्ठ स्वंय सेवकों के लिए ओ.टी.सी. कैम्प लगाये जाने
 लगे, जहाँ उन्हें अर्धसैनिक शिक्षा भी दी जाने लगी l इन सब कार्यों के लिए
 एक अवकाश प्राप्त सैनिक अधिकारी श्री मारतंडे राव जोग की सेवाएं ली गईं l 
सन् १९३५-३६ तक ऐसी शाखाएं केवल महाराष्ट्र तक ही सीमित थी और इसके 
स्वंयसेवकों की संख्या कुछ हज़ार तक ही थी, पर सरसंघचालक और स्वंयसेवकों का
 उत्साह देखने लायक था l स्वयं डॉ. हेडगेवार इतने उत्साहित थे कि अपने एक 
उदबोधन में उन्होंने कहा की:-
“संघ के जन्मकाल के समय की परिस्थिति बड़ी विचित्र सी थी, हिंदुओं का 
हिन्दुस्थान कहना उस समय निरा पागलपन समझा जाता था और किसी संगठन को हिंदू 
संगठन कहना देश द्रोह तक घोषित कर दिया जाता था” l (राष्ट्रीय स्वंयसेवक 
संघ तत्व और व्यवहार पृष्ठ ६४ )
डॉ. हेडगेवार ने जिस दुखद स्थिति को व्यक्त किया, उसमें नवसर्जित 
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और हिंदू महासभा के नेतृत्व के प्रयास से- हिंदू 
युवाओं में साहस के साथ यह नारा गूंजने लगा “हिन्दुस्थान हिंदुओं का- नहीं 
किसी के बाप का” इस कथन की विवेचना डॉ. हेडगेवार ने इन शब्दों में की:-
“कई सज्जन यह कहते हुए भी नहीं हिचकिचाते की हिन्दुस्थान केवल हिन्दुओ 
का ही कैसे? यह तो उन सभी लोगों का है जो यहाँ बसते हैं l खेद है की इस 
प्रकार का कथन/आक्षेप करने वाले सज्जनों को राष्ट्र शब्द का अर्थ ही ज्ञात 
नहीं l केवल भूमि के किसी टुकड़े को राष्ट्र नहीं कहते l एक विचार-एक 
आचार-एक सभ्यता एवं परम्परा में जो लोग पुरातन काल से रहते चले आए हैं 
उन्हीं लोगों की संस्कृति से राष्ट्र बनता है l इस देश को हमारे ही कारण 
हिन्दुस्थान नाम दिया गया है l दूसरे लोग यदि समोपचार से इस देश में बसना 
चाहते हैं तो अवश्य बस सकते हैं l हमने उन्हें न कभी मना किया है न करेंगे l
 किंतु जो हमारे घर अतिथि बन कर आते हैं और हमारे ही गले पर छुरी फेरने पर 
उतारू हो जाते हैं उनके लिए यहाँ रत्ती भर भी स्थान नहीं मिलेगा l संघ की 
इस विचारधारा को पहले आप ठीक ठाक समझ लीजिए l” (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ 
पृष्ठ १४)
एक अन्य अवसर पर डॉ. हेडगेवार ने कहा था “संघ तो केवल, हिन्दुस्थान 
हिंदुओं का- इस ध्येय वाक्य को सच्चा कर दिखाना चाहता है l” दूसरे देशों के
 सामान, “यह हिंदुओं का होने के कारण”- इस देश में हिंदू जो कहेंगे वही 
पूर्व दिशा होगी ( अर्थात वही सही माना जाएगा) l यही एक बात है जो संघ 
जानता है, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के लिए किसी भी अन्य 
पचड़े में पड़ने की आवश्कता नहीं है l”(तदैव पृष्ठ ३८)
जब वीर सावरकर रत्नागिरी में दृष्टि बंद (नजरबंद) थे, तब डा. हेडगेवार 
वहां उनसे मिलने गये। तब तक वह वीर सावरकर रचित पुस्तक हिन्दुत्व भी पढ़ 
चुके थे। डा. हेडगेवार उस पुस्तक के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उसकी 
सराहना करते हुए बोले कि “वीर सावरकर एक आदर्श व्यक्ति है”।
दोनों (सावरकर एवं हेडगेवार) का विश्वास था कि जब तक हिन्दू अंध 
विश्वास, पुरानी रूढ़िवादी सोच, धार्मिक आडम्बरों को नहीं छोडेंगे तब तक 
हिन्दू-जातीवाद , छूत-अछूत, शहरी-बनवासी और छेत्रवाद इत्यादि में बंटा 
रहेगा, और जब तक वह संगठित एवं एक जुट नही होगा, तब तक वह संसार में अपना 
उचित स्थान नही ले सकेगा।
सन् 1937 में वीर सावरकर की दृष्टिबंदी (नजरबंदी) समाप्त हो गयी, और 
उसके बाद वे राजनीति में भाग ले सकते थे। उसी वर्ष वे हिन्दू महासभा के 
अध्यक्ष चुने गये जिसके उपाध्यक्ष डा. हेडगेवार थे। 1937 में हिन्दू महासभा
 का अधिवेशन कर्णावती (अहमदाबाद) में हुआ। इस अधिवेशन में वीर सावरकर के 
अध्यक्षीय भाषण को “हिन्दू राष्ट्र दर्शन” के नाम से जाना जाता है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापकों में से दो मुख्य व्यक्ति डा. 
मुंजे एवं डा. हेडगेवार हिन्दू महासभाई थे, और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने
 वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू एवं हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या 
को ही अपना आधार बनाया था, साथ ही वीर सावरकर के मूलमंत्र- अस्पर्श्यता 
निवारण और हिन्दुओं के सैनिकीकरण आदि सिद्धांत को मान्य किया था l
इसी परिपेक्ष्य में हिन्दू महासभा ने भी उस समय एक प्रस्ताव पास कर अपने
 कार्यकर्ताओ एवं सदस्यों को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की 
शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। आर.एस.एस. की विस्तार 
योजना के अनुसार उसके नागपुर कार्यालय से बड़ी संख्या में युवक, दो जोड़ी 
धोती एवं कुर्ता ले कर संघ शाखाओ की स्थापना हेतु दिल्ली, लाहौर, पेशावर, 
क्वेटा, मद्रास, गुवाहाटी आदि विभिन्न शहरों में भेजे गये।
दिल्ली में पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग नयी दिल्ली के 
प्रांगण में हिन्दू सभाई नेता प्राध्यापक राम सिंह की देख रेख में श्री 
बसंत राव ओक द्वारा संचालित की गयी। लाहौर में शाखा हिन्दू महासभा के 
प्रसिद्द नेता डा. गोकुल चंद नारंग की कोठी में लगायी जाती थी, जिसका 
संचालन श्री मुले जी एवं धर्मवीर जी (जो महान हिन्दू सभाई नेता देवता 
स्वरुप भाई परमानन्द जी के दामाद थे ) द्वारा किया जाता था। पेशावर में 
आर.एस.एस. की शाखा सदर बाजार से सटी गली के अंदर हिन्दू महासभा कार्यालय 
में लगायी जाती थी जिसकी देख रेख श्री मेहर चंद जी खन्ना- तत्कालिक सचिव 
हिन्दू महासभा करते थे।
वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस 
समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर.एस.एस. में विलय कर दिया। वीर 
सावरकर के मित्र एवं हजारों ईसाईयों को शुद्धि द्वारा दोबारा हिन्दू धर्म 
में लाने वाले संत पान्च्लेगॉंवकर ने उस समय अपने 5,000 सदस्यों वाले संगठन
 “मुक्तेश्वर दल” को भी आर.एस.एस. में विलय करा दिया। उद्देश्य था कि 
हिन्दुओ का एक ही युवा शक्तिशाली संगठन हो। इस प्रकार संघ की नीतियों, पर 
हिंदू महासभा व वीर सावरकर के हिन्दुवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था l
इस तरह डा. हेडगेवार के कुशल निर्देशन, हिन्दू महासभा के सहयोग एवं 
नागपुर से भेजे गये प्रचारकों के अथक परिश्रम एवं तपस्या के कारण संघ का 
विस्तार होता गया और 1946 के आते-आते संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या 
करीब सात लाख हो गयी। उन प्रचारको की लगन सराहनीय थी। इनके पास महाराणा 
प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी की जीवनी की छोटी 
छोटी पुस्तके एवं वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक हिंदुत्व रहती थी।
1938 में वीर सावरकर दूसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह
 अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से 
आर.एस.एस. के स्वयं सेवको द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डा. 
हेडगेवार ने किया था। उन्होंने उस अवसर पर वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा 
जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे-आगे श्री 
भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के उच्चतम श्रेणी के स्वयं सेवक थे, वे हाथी पर 
अपने हाथ में भगवा ध्वज ले कर चल रहे थे।
हैदराबाद( दक्षिण) के मुस्लिम शासक निजाम ने वहाँ के हिन्दुओ का जीना 
दूभर कर रखा था। यहाँ तक कि कोई हिन्दू मंदिर नहीं बना सकता था और यज्ञ आदि
 करने पर भी प्रतिबन्ध था। 1938 में आर्य समाज ने निजाम हैदराबाद के जिहादी
 आदेशो के विरुद्ध आन्दोलन करने की ठानी। गाँधीजी ने आर्य समाज को आन्दोलन 
ना करने की सलाह दी। वीर सावरकर ने कहा कि अगर आर्य समाज आन्दोलन छेड़ता है
 तो हिन्दू महासभा उसे पूरा-पूरा समर्थन देगी।
आंदोलन चला, लगभग 25,000 सत्याग्रही देश के विभिन्न भागों से आये| निजाम
 की पुलिस और वहाँ के रजाकारो द्वारा उन सत्याग्रहियों की जेल में बेदर्दी 
से पिटाई की जाती थी। बीसियों सत्याग्रहियों की रजाकारों की निर्मम पिटाई 
से मृत्यु तक हो गयी। इन सत्याग्रहियों में लगभग 12,000 हिन्दू महासभाई थे।
 वीर सावरकर ने स्वयं पूना जा कर कई जत्थे हैदराबाद भिजवाये। पूना से सबसे 
बड़ा जत्था हुतात्मा नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद भिजवाया, इनमे 
हिन्दू महासभा कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त संघ के भी कई स्वयं सेवक थे। इस 
तरह 1940 तक- जब तक डा. हेडगेवार जीवित थे, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को 
हिन्दू महासभा का युवा संगठन ही माना जाता था।
धर्मवीर डाक्टर मुंजे और वीर सावरकर के सान्निध्य में डाक्टर हेडगेवार 
ने भारत की गुलामी के कारणों को बडी बारीकी से पहचाना और इसके स्थाई समाधान
 हेतु हिन्दू महासभा-संघ कार्य प्रारम्भ किया। इन्होंने सदैव यही बताने का 
प्रयास किया कि नई चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें नये तरीकों से काम 
करना पड़ेगा और स्वयं को बदलना होगा, अब ये पुराने तरीके काम नहीं आएंगे। 
डॉ.साहब १९२५ से १९४० तक, यानि मृत्यु पर्यन्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 
सरसंघचालक रहे। २१ जून,१९४० को इनका नागपुर में निधन हुआ। इनकी समाधि रेशम 
बाग नागपुर में स्थित है, जहाँ इनका अंत्येष्टि संस्कार हुआ था।
 (जानकारी विकिपीडिया से साभार) 
 
राष्ट्रीय
 स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं प्रकाण्ड क्रान्तिकारी स्व॰ डॉ. हेडगेवार 
जी की  ७९    वीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम उन्हें शत शत नमन करते है |