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रविवार, 30 अप्रैल 2017

दादासाहब फालके की १४७ वीं जयंती

 
धुंडिराज गोविन्द फालके उपाख्य दादासाहब फालके  (३० अप्रैल, १८७० - १६ फरवरी, १९४४) वह महापुरुष हैं जिन्हें भारतीय फिल्म उद्योग का 'पितामह' कहा जाता है।
 
दादा साहब फालके, सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट से प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे। वह मंच के अनुभवी अभिनेता थे, शौकिया जादूगर थे। कला भवन बड़ौदा से फोटोग्राफी का एक पाठ्यक्रम भी किया था। उन्होंने फोटो केमिकल प्रिंटिंग की प्रक्रिया में भी प्रयोग किये थे। प्रिंटिंग के जिस कारोबार में वह लगे हुए थे, 1910 में उनके एक साझेदार ने उससे अपना आर्थिक सहयोग वापस ले लिया। उस समय इनकी उम्र 40 वर्ष की थी कारोबार में हुई हानि से उनका स्वभाव चिड़िचड़ा हो गया था। उन्होंने क्रिसमस के अवसर पर ‘ईसामसीह’ पर बनी एक फिल्म देखी। फिल्म देखने के दौरान ही फालके ने निर्णय कर लिया कि उनकी जिंदगी का मकसद फिल्मकार बनना है। उन्हें लगा कि रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक महाकाव्यों से फिल्मों के लिए अच्छी कहानियां मिलेंगी। उनके पास सभी तरह का हुनर था। वह नए-नए प्रयोग करते थे। अतः प्रशिक्षण का लाभ उठाकर और अपनी स्वभावगत प्रकृति के चलते प्रथम भारतीय चलचित्र बनाने का असंभव कार्य करनेवाले वह पहले व्यक्ति बने।
 
उन्होंने 5 पौंड में एक रास्ता कैमरा खरीदा और शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण किया। फिर दिन में 20 घंटे लगकर प्रयोग किये। ऐसे उन्माद से काम करने का प्रभाव उनकी सेहत पर पड़ा। उनकी एक आंख जाती रही। उस समय उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया। सामाजिक निष्कासन और सामाजिक गुस्से को चुनौती देते हुए उन्होंने अपने जेवर गिरवी रख दिये (40 साल बाद यही काम सत्यजित राय की पत्नी ने उनकी पहली फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ बनाने के लिए किया)। उनके अपने मित्र ही उनके पहले आलोचक थे। अतः अपनी कार्यकुशलता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक बर्तन में मटर बोई। फिर इसके बढ़ने की प्रक्रिया को एक समय में एक फ्रेम खींचकर साधारण कैमरे से उतारा। इसके लिए उन्होंने टाइमैप्स फोटोग्राफी की तकनीक इस्तेमाल की। इस तरह से बनी अपनी पत्नी की जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर, ऊंची ब्याज दर पर ऋण प्राप्त करने में वह सफल रहे।
 
फरवरी 1912 में, फिल्म प्रोडक्शन में एक क्रैश-कोर्स करने के लिए वह इंग्लैण्ड गए और एक सप्ताह तक सेसिल हेपवर्थ के अधीन काम सीखा। कैबाउर्न ने विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग मशीन जैसे यंत्रों तथा कच्चा माल का चुनाव करने में मदद की। इन्होंने ‘राजा हरिशचंद्र’ बनायी। चूंकि उस दौर में उनके सामने कोई और मानक नहीं थे, अतः सब कामचलाऊ व्यवस्था उन्हें स्वयं करनी पड़ी। अभिनय करना सिखाना पड़ा, दृश्य लिखने पड़े, फोटोग्राफी करनी पड़ी और फिल्म प्रोजेक्शन के काम भी करने पड़े। महिला कलाकार उपलब्ध न होने के कारण उनकी सभी नायिकाएं पुरुष कलाकार थे (वेश्या चरित्र को छोड़कर)। होटल का एक पुरुष रसोइया सालुंके ने भारतीय फिल्म की पहली नायिका की भूमिका की। शुरू में शूटिंग दादर के एक स्टूडियो में सेट बनाकर की गई। सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की गई क्योंकि वह एक्सपोज्ड फुटेज को रात में डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे (अपनी पत्नी की सहायता से)। छह माह में 3700 फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई। 21 अप्रैल, 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में यह रिलीज की गई। पश्चिमी फिल्म के नकचढ़े दर्शकों ने ही नहीं, बल्कि प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की। लेकिन फालके जानते थे कि वे आम जनता के लिए अपनी फिल्म बना रहे हैं, अतः यह फिल्म जबरदस्त हिट रही।
 
फालके के फिल्मनिर्मिती के प्रयास तथा पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण पर मराठी में एक फिचर फिल्म 'हरिश्चंद्राची फॅक्टरी' २००९ में बनी, जिसे देश विदेश में सराहा गया।
 
जीवन परिचय
 
दादासाहब फालके का पूरा नाम धुंडीराज गोविन्द फालके है और इनका जन्म महाराष्ट्र के नाशिक शहर (प्रसिद्ध तीर्थ) से लगभग २०-२५ किमी की दूरी पर स्थित बाबा भोलेनाथ की नगरी त्र्यंबकेश्वर (यहाँ प्रसिद्ध शिवलिंगों में से एक स्थित भी है) में ३० अप्रैल १८७० ई. को हुआ था । इनके पिता संस्कृत के प्रकांड पंडित थे और मुम्बई के एलफिंस्तन कालेज में प्राध्यापक थे । इस कारण दादासाहब की शिक्षा-दीक्षा मुम्बई में ही हुई। २५ दिसम्बर १८९१ की बात है, मुम्बई में 'अमेरिका-इंडिया थिएटर' में एक विदेशी मूक चलचित्र "लाइफ आफ क्राइस्ट" दिखाया जा रहा था और दादासाहब भी यह चलचित्र देख रहे थे । चलचित्र देखते समय दादासाहब को प्रभु ईसामसीह के स्थान पर कृष्ण, राम, समर्थ गुरु रामदास, शिवाजी, संत तुकाराम इत्यादि महान विभूतियाँ दिखाई दे रही थीं । उन्होंने सोचा क्यों नहीं चलचित्र के माध्यम से भारतीय महान विभूतियों के चरित्र को चित्रित किया जाए । उन्होंने इस चलचित्र को कई बार देखा और फिर क्या, उनके हृदय में चलचित्र-निर्माण का अंकुर फूट पड़ा ।
 
उनमें चलचित्र-निर्माण की ललक इतनी बड़ गई कि उन्होंने चलचित्र-निर्माण संबंधी कई पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन किया और कैमरा लेकर चित्र खींचना भी शुरु कर दिया । जब दादासाहब ने चलचित्र-निर्माण में अपना ठोस कदम रखा तो इन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । जैसे-तैसे कुछ पैसों की व्यवस्था कर चलचित्र-निर्माण संबंधी उपकरणों को खरीदने के लिए दादासाहब लंदन पहुँचे । वे वहाँ बाइस्कोप सिने साप्ताहिक के संपादक की मदद से कुछ चलचित्र-निर्माण संबंधी उपकरण खरीदे और १९१२ के अप्रैल माह में वापस मुम्बई आ गए । उन्होने दादर में अपना स्टूडियो बनाया और फालके फिल्म के नाम से अपनी संस्था स्थापित की। आठ महीने की कठोर साधना के बाद दादासाहब के द्वारा पहली मूक फिल्म "राजा हरिश्चंन्द्र" का निर्माण हुआ । इस चलचित्र (फिल्म) के निर्माता,लेखक, कैमरामैन इत्यादि सबकुछ दादासाहब ही थे । इस फिल्म में काम करने के लिए कोई स्त्री तैयार नहीं हुई अतः लाचार होकर तारामती की भूमिका के लिए एक पुरुष पात्र ही चुना गया । इस चलचित्र में दादासाहब स्वयं नायक (हरिश्चंन्द्र) बने और रोहिताश्व की भूमिका उनके सात वर्षीय पुत्र भालचन्द्र फालके ने निभाई । यह चलचित्र सर्वप्रथम दिसम्बर १९१२ में कोरोनेशन थिएटर में प्रदर्शित किया गया । इस चलचित्र के बाद दादासाहब ने दो और पौराणिक फिल्में "भस्मासुर मोहिनी" और "सावित्री" बनाई। १९१५ में अपनी इन तीन फिल्मों के साथ दादासाहब विदेश चले गए । लंदन में इन फिल्मों की बहुत प्रशंसा हुई। कोल्हापुर नरेश के आग्रह पर १९३७ में दादासाहब ने अपनी पहली और अंतिम सवाक फिल्म "गंगावतरण" बनाई । दादासाहब ने कुल १२५ फिल्मों का निर्माण किया। १६ फरवरी १९४४ को ७४ वर्ष की अवस्था में पवित्र तीर्थस्थली नासिक में भारतीय चलचित्र-जगत का यह अनुपम सूर्य सदा के लिए अस्त हो गया । भारत सरकार उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष चलचित्र-जगत के किसी विशिष्ट व्यक्ति को 'दादा साहब फालके पुरस्कार' प्रदान करती है।
 
आज दादासाहब की १४७ वीं जयंती है ... इस अवसर पर हम सब भारतीय फिल्म उद्योग के 'पितामह' को शत शत नमन करते है |

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

दिग्गज अभिनेता विनोद खन्ना नहीं रहे

पिछले कुछ समय से मुंबई के अस्‍पताल में भर्ती दिग्‍गज अभिनेता विनोद खन्‍ना का निधन हो गया है. वह पिछले कुछ समय से कैंसर से जूझ रहे थे. विनोद खन्‍ना का 70 साल की उम्र में निधन हुआ है. फिल्‍मों से लेकर राजनीति, विनोद खन्‍ना काफी सक्रिय रहे थे. विनोद खन्ना का मुंबई के एचएन रिलायंस अस्पताल में इलाज चल रहा था. हाल ही में उनकी एक फोटो भी सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी, जिसके बाद उनके बेटे ने कहा था कि उनक तबियत अभी ठीक है. विनोद खन्‍ना भारतीय फिल्‍मों के दिग्‍गज अभिनेता  रहे हैं.

विनोद खन्ना के अस्‍पताल में भर्ती होने के बाद से ही उनके स्वास्थ्य के लिए पूरा हिंदी सिनेमा जगत दुआएं कर रहा था. सलमान खान आधी रात को विनोद खन्ना से मिलने सर एचएन रिलायंस फाउंडेशन अस्पताल पहुंचे थे. सलमान खान पहले भी विनोद खन्ना के साथ कई फिल्में कर चुके हैं और उन्हें अपना लकी मैस्कट और मेंटर मानते रहे हैं. सलमान के अलावा महाराष्‍ट्र के सीएम देवेंद्र फड़णवीस भी उन्हें मिलने पहुंचे थे.

वहीं, अभिनेता इरफान खान ने भी विनोद खन्ना के स्वास्थ्य की कामना करते हुए उनके लिए अंगदान की भी पेशकश की थी. इरफान खान ने गुरुवार को कहा कि वह अभिनेता विनोद खन्ना की हाल की एक फोटो देखकर हैरान रह गए. इरफान खान ने गुजरे जमाने के दिग्गज अभिनेता के जल्द स्वस्थ होने की कामना की.

70 और 80 के दशक के सुपरस्‍टार  रहे विनोद खन्‍ना, वह सितारे थे जिन्‍होंने एक विलेन के तौर पर अपनी शुरुआत की. उन्‍होंने 1968 में सुनील दत्‍त के साथ फिल्‍म 'मन का मीत' से अपनी फिल्‍मी सफर की शुरुआत की थी. उन्‍होंने 'पूरब और पश्चिम', 'मेरा गांव मेरा देश' जैसी कई फिल्‍मों में नकारात्‍मक किरदार निभाए थे. 1971 में उन्‍होंने 'हम त‍ुम और वो' में प्रमुख भूमिका निभायी. विनोद खन्ना और अमिताभ बच्चन, दोनों ही अपने बॉलीवुड करियर के उफान पर लगभग एक ही समय में थे. विनोद खन्ना अमिताभ बच्चन के कड़े प्रतिद्वंदी माना जाते थे. दोनों सुपरस्टार्स ने 'मुकद्दर का सिकंदर', 'परवरिश', 'अमर अखबर एंथॉनी' जैसी फिल्मों में साथ में काम किया था.

1987 से 1994 में विनोद खन्ना बॉलीवुड के सबसे मंहगे सितारों में से एक थे. अपने करियर की पीक पर होने के बावजूद विनोद खन्ना ने फिल्म इंडस्ट्री से सन्यास ले लिया और ओशो के अनुयायी बन गए. वह अक्सर पुणे में ओशो के आश्रम जाते थे और इस हद ओशो से प्रभावित थे कि अपने कई शूटिंग शेड्यूल भी पुणे में ही रखवाए. कई मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक विनोद संन्यास लेकर अमेरिका चले गए और ओशो के साथ करीब 5 साल गुजारे.

विनोद खन्ना ने अपने चार दशक लंबे सिने करियर में लगभग 150 फिल्मों में अभिनय किया. उनके निभाए हर किरदार सिनेमा प्रेमियों के दिलों में ज़िंदा हैं.

खन्ना साहब को शत शत नमन और हार्दिक श्रद्धांजलि |

मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

१८ अप्रैल का दिन आज़ादी के परवानों के नाम

आज १८ अप्रैल है ... आज भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के एक प्रमुख सेनानायक तात्या टोपे का १५८ वां महाबलिदान दिवस है |
रामचंद्र पाण्डुरग राव यवलकर (तात्या टोपे) १८१८ – १८ अप्रैल १८५९
तात्या टोपे भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के एक प्रमुख सेनानायक थे। सन १८५७ के महान विद्रोह में उनकी भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण, प्रेरणादायक और बेजोड़ थी। तात्या का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के निकट पटौदा जिले के येवला नामक गाँव में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता पाण्डुरंग राव भट्ट़ (मावलेकर), पेशवा बाजीराव द्वितीय के घरू कर्मचारियों में से थे। बाजीराव के प्रति स्वामिभक्त होने के कारण वे बाजीराव के साथ सन् १८१८ में बिठूर चले गये थे। तात्या का वास्तविक नाम रामचंद्र पाण्डुरग राव था, परंतु लोग स्नेह से उन्हें तात्या के नाम से पुकारते थे। तात्या का जन्म सन् १८१४ माना जाता है। अपने आठ भाई-बहनों में तात्या सबसे बडे थे।

सन् सत्तावन के विद्रोह की शुरुआत १० मई को मेरठ से हुई। जल्दी ही क्रांति की चिन्गारी समूचे उत्तर भारत में फैल गयी। विदेशी सत्ता का खूनी पंजा मोडने के लिए भारतीय जनता ने जबरदस्त संघर्श किया। उसने अपने खून से त्याग और बलिदान की अमर गाथा लिखी। उस रक्तरंजित और गौरवशाली इतिहास के मंच से झाँसी की रानीलक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, राव साहब, बहादुरशाह जफर आदि के विदा हो जाने के बाद करीब एक साल बाद तक तात्या विद्रोहियों की कमान संभाले रहे।

नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया और उसकी गद्दारी के कारण तात्या ८ अप्रैल, १८५९ को सोते में पकड लिए गये। रणबाँकुरे तात्या को कोई जागते हुए नहीं पकड सका। विद्रोह और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लडने के आरोप में १५ अप्रैल, १८५९ को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। कोर्ट मार्शल के सब सदस्य अंग्रेज थे। परिणाम जाहिर था, उन्हें मौत की सजा दी गयी। शिवपुरी के किले में उन्हें तीन दिन बंद रखा गया। १८ अप्रैल को शाम पाँच बजे तात्या को अंग्रेज कंपनी की सुरक्षा में बाहर लाया गया और हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फाँसी पर लटका दिया गया। कहते हैं तात्या फाँसी के चबूतरे पर दृढ कदमों से ऊपर चढे और फाँसी के फंदे में स्वयं अपना गला डाल दिया। इस प्रकार तात्या मध्यप्रदेश की मिट्टी का अंग बन गये। कर्नल मालेसन ने सन् १८५७ के विद्रोह का इतिहास लिखा है। उन्होंने कहा कि तात्या टोपे चम्बल, नर्मदा और पार्वती की घाटियों के निवासियों के ’हीरो‘ बन गये हैं। सच तो ये है कि तात्या सारे भारत के ’हीरो‘ बन गये हैं। पर्सी क्रास नामक एक अंग्रेज ने लिखा है कि ’भारतीय विद्रोह में तात्या सबसे प्रखर मस्तिश्क के नेता थे। उनकी तरह कुछ और लोग होते तो अंग्रेजों के हाथ से भारत छीना जा सकता था।

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आज से ठीक ८ साल पहले ... आज़ादी के दीवानों ने अमर क्रांतिकारी सूर्य सेन 'मास्टर दा' के कुशल नेतृत्व मे क्रांति की ज्वाला को प्रज्वलित किया था जिस इतिहास मे आज "चंटगाव विद्रोह" के नाम से जाना जाता है |  
 
चटगांव विद्रोह

इंडियन रिपब्लिकन आर्मी की स्थापना और चटगाँव शाखा के अध्यक्ष चुने जाने के बाद मास्टर दा अर्थात सूर्यसेन ने काउंसिल की बैठक की जो कि लगभग पाँच घंटे तक चली तथा उसमे निम्नलिखित कार्यक्रम बना-
  • अचानक शस्त्रागार पर अधिकार करना।
  • हथियारों से लैस होना।
  • रेल्वे की संपर्क व्यवस्था को नष्ट करना।
  • अभ्यांतरित टेलीफोन बंद करना।
  • टेलीग्राफ के तार काटना।
  • बंदूकों की दूकान पर कब्जा।
  • यूरोपियनों की सामूहिक हत्या करना।
  • अस्थायी क्रांतिकारी सरकार की स्थापना करना।
  • इसके बाद शहर पर कब्जा कर वहीं से लड़ाई के मोर्चे बनाना तथा मौत को गले लगाना।
मास्टर दा ने संघर्ष के लिए १८ अप्रैल १९३० के दिन को निश्चित किया। आयरलैंड की आज़ादी की लड़ाई के इतिहास में ईस्टर विद्रोह का दिन भी था- १८ अप्रैल, शुक्रवार- गुडफ्राइडे। रात के आठ बजे। शुक्रवार। १८ अप्रैल १९३०। चटगाँव के सीने पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध सशस्त्र युवा-क्रांति की आग लहक उठी।
चटगाँव क्रांति में मास्टर दा का नेतृत्व अपरिहार्य था। मास्टर दा के क्रांतिकारी चरित्र वैशिष्ट्य के अनुसार उन्होंने जवान क्रांतिकारियों को प्रभावित करने के लिए झूठ का आश्रय न लेकर साफ़ तौर पर बताया था कि वे एक पिस्तौल भी उन्हें नहीं दे पाएँगे और उन्होंने एक भी स्वदेशी डकैती नहीं की थी। आडंबरहीन और निर्भीक नेतृत्व के प्रतीक थे मास्टर दा। क्रांति की ज्वाला के चलते हुकूमत के नुमाइंदे भाग गए और चटगांव में कुछ दिन के लिए अंग्रेजी शासन का अंत हो गया।
 
आज़ादी के इन मतवालों को हम सब आज शत शत नमन करते हैं | 
 
वन्दे मातरम !!

रविवार, 16 अप्रैल 2017

सर चार्ली चैप्लिन की १२८ वीं जयंती


सर चार्ल्स स्पेन्सर चैप्लिन, KBE (16 अप्रैल 1889 - 25 दिसम्बर 1977) एक अंग्रेजी हास्य अभिनेता और फिल्म निर्देशक थे.चैप्लिन, सबसे प्रसिद्ध कलाकारों में से एक होने के अलावा अमेरिकी सिनेमा के क्लासिकल हॉलीवुड युग के प्रारंभिक से मध्य तक एक महत्वपूर्ण फिल्म निर्माता, संगीतकार और संगीतज्ञ थे.
चैप्लिन, मूक फिल्म युग के सबसे रचनात्मक और प्रभावशाली व्यक्तित्वों में से एक थे जिन्होंने अपनी फिल्मों में अभिनय, निर्देशन, पटकथा, निर्माण और अंततः संगीत दिया.मनोरंजन के कार्य में उनके जीवन के 75 वर्ष बीते, विक्टोरियन मंच और यूनाइटेड किंगडम के संगीत कक्ष में एक शिशु कलाकार से लेकर 88 वर्ष की आयु में लगभग उनकी मृत्यु तक।उनकी उच्च-स्तरीय सार्वजनिक और निजी जिंदगी में अतिप्रशंसा और विवाद दोनों सम्मिलित हैं। 1919 में मेरी पिकफोर्ड, डगलस फेयरबैंक्स और डी.डब्ल्यू.ग्रिफ़िथ के साथ चैप्लिन ने यूनाइटेङ आर्टिस्टस की सह-स्थापना की।
चैप्लिन: अ लाइफ (2008) किताब की समीक्षा में, मार्टिन सिएफ्फ़ ने लिखा की: "चैप्लिन सिर्फ 'बड़े' ही नहीं थे, वे विराट् थे।1915 में, वे एक युद्ध प्रभावित विश्व में हास्य, हँसी और राहत का उपहार लाए जब यह प्रथम विश्व युद्ध के बाद बिखर रहा था। अगले 25 वर्षों में, महामंदी और हिटलर के उत्कर्ष के दौरान, वह अपना काम करते रहे। वह सबसे बड़े थे।यह संदिग्ध है की किसी व्यक्ति ने कभी भी इतने सारे मनुष्यों को इससे अधिक मनोरंजन, सुख और राहत दी हो जब उनको इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।"
 
आज सर चार्ली चैप्लिन की १२८ वीं जयंती है ... इस मौके पर हम सब इस महान कलाकार को शत शत नमन करते है |
 

गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

१२०० वीं पोस्ट - जलियाँवाला बाग़ नरसंहार की ९८ वीं बरसी

आज १३ अप्रैल है ... यु तो हम में से काफी लोगो की ज़िन्दगी में इस दिन का कोई न कोई ख़ास महत्व जरूर होगा ... किसी का जन्मदिन या फिर किसी की शादी की वर्षगाँठ ... कुछ भी हो सकता है ... खैर जो भी हो ... आप आज उस खास पल को याद जरूर कीजियेगा जिस पल ने आप की ज़िन्दगी को ऐसे हजारो खुशनुमा पल दिए !

बस एक छोटी सी गुज़ारिश है ... साथ साथ याद कीजियेगा उन हजारो बेगुनाह लोगो को जिन को आज के ही दिन गोलियों से भुन दिया गया सिर्फ इस लिए क्यों की वो अपने अधिकारों की बात कर रहे थे ... आज़ादी की बात कर रहे थे ... जी हाँ ... आप की रोज़मर्रा की इस आपाधापी भरी ज़िन्दगी  में से मैं कुछ पल मांग रहा हूँ ... जलियाँवाला बाग़ के अमर शहीदों के लिए ... जिन को आजतक हमारी सरकारों ने सही मायने मे शहीद का दर्जा भी नहीं दिया जब कि देश को आजाद हुए भी अब ७० साल हो जायेंगे !!!

अन्दर जाने का रास्ता ... तंग होने के कारण जनरल डायर अन्दर टैंक नहीं ले जा पाया था ... नहीं तो और भी ना जाने कितने लोग मारे जाते !!

बाग़ की दीवालों पर गोलियों के निशान

यहाँ से ही सिपाहियों ने भीड़ पर गोलियां चलाई थी

हत्याकांड का एक (काल्पनिक) चित्र

शहीद स्मारक

सूचना
इस से पहले भी आप से मैं ऐसी गुजारिश कर चुका हूँ ... आगे भी करता रहूँगा ... ताकि हम भी सरकार की तरह उन अमर शहीदों को भूल न जाएँ !

जलियाँवाला बाग़ के सभी अमर शहीदों को हमारा शत शत नमन !!

जय हिन्द !!!

ब्लॉग आर्काइव

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