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शनिवार, 28 दिसंबर 2013

फारुख शेख नहीं रहे ...

फ़ारुख़ शेख़ (२५ मार्च १९४८ - २८ दिसम्बर २०१३)
65 साल के सहज एवं विनम्र बॉलीवुड अभिनेता फारुख शेख का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। अपनी बीवी और दो बेटियों के साथ वह दुबई छुट्टियां मनाने गए थे और यहीं उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ा। फारुख शेख के निधन का समाचार सुनकर पूरा बॉलीवुड सदमे में हैं।

अभिनेता फारुख शेख 1970-80 के दशक की अपनी फिल्मों के लिए ज्यादा जाने जाते हैं। अपने समय के चोटी के निर्देशकों के साथ उन्होंने काम किया है। गर्म हवा, शतरंज के खिलाड़ी, उमराव जान, चश्मे-बद्दूर, लोरी, बाजार, अब इंसाफ होगा उनकी अहम फिल्में हैं। इस साल उन्होंने ये जवानी है दीवानी और क्लब 60 फिल्मों में काम किया।

फारुख शेख ने कई टीवी सीरियल्स में भी काम किया है। वह थियेटर जगत में भी बड़ा नाम हैं। लोकप्रिय टेलीविजन धारावाहिक 'जीना इसी का नाम है' से इन्होंने ढेरों सुर्खियां बटोरी। 

फ़ारुख़ का जन्म मुम्बई के एक वकील मुस्तफ़ा शेख और फ़रिदा शेख के एक मुसलमान परिवार में जो बोडेली कस्बे के निकट नसवाडी ग्राम के निकट बड़ोदी गुजरात के अमरोली में हुआ। उनके परिवार वाले ज़मिंदार थे और उनका पालन पोषण शानदार परिवेश में हुआ। वो अपने घर के पाँच बच्चो में सबसे बड़े थे।
वो सेंट मैरी स्कूल, मुंबई में पढ़ने गये और बाद में सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई गये। उन्होंने कानून की पढ़ाई सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ़ लॉ में पूर्ण की।

 फारुख शेख साहब को हम सब की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि |

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

अमर शहीद ऊधम सिंह जी की ११४ वीं जयंती

आज २६ दिसम्बर है ... आज अमर शहीद ऊधम सिंह जी की ११४ वीं जयंती है |


लोगों में आम धारणा है कि ऊधम सिंह ने जनरल डायर को मारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया था, लेकिन भारत के इस सपूत ने डायर को नहीं, बल्कि माइकल ओडवायर को मारा था जो अमृतसर में बैसाखी के दिन हुए नरसंहार के समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था।
ओडवायर के आदेश पर ही जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में सभा कर रहे निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई थीं। ऊधम सिंह इस घटना के लिए ओडवायर को जिम्मेदार मानते थे।
26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में जन्मे ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी, जिसे उन्होंने अपने सैकड़ों देशवासियों की सामूहिक हत्या के 21 साल बाद खुद अंग्रेजों के घर में जाकर पूरा किया।
इतिहासकार डा. सर्वदानंदन के अनुसार ऊधम सिंह सर्वधर्म समभाव के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आजाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है।
ऊधम सिंह अनाथ थे। सन 1901 में ऊधम सिंह की माता और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया। इस घटना के चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी।
ऊधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था, जिन्हें अनाथालय में क्रमश: ऊधम सिंह और साधु सिंह के रूप में नए नाम मिले।
अनाथालय में ऊधम सिंह की जिंदगी चल ही रही थी कि 1917 में उनके बड़े भाई का भी देहांत हो गया और वह दुनिया में एकदम अकेले रह गए। 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।
डा. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी तथा रोलट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियांवाला बाग में लोगों ने 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा रखी जिसमें ऊधम सिंह लोगों को पानी पिलाने का काम कर रहे थे।
माइकल ओडवायर

ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर
इस सभा से तिलमिलाए पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडवायर ने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर को आदेश दिया कि वह भारतीयों को सबक सिखा दे। इस पर जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग को घेर लिया और मशीनगनों से अंधाधुंध गोलीबारी कर दी, जिसमें सैकड़ों भारतीय मारे गए।
जान बचाने के लिए बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएं में छलांग लगा दी। बाग में लगी पट्टिका पर लिखा है कि 120 शव तो सिर्फ कुएं से ही मिले।
आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या 379 बताई गई, जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए थे। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या 1500 से अधिक थी, जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डाक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से अधिक थी। राजनीतिक कारणों से जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों की सही संख्या कभी सामने नहीं आ पाई।
इस घटना से वीर ऊधम सिंह तिलमिला गए और उन्होंने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओडवायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली। ऊधम सिंह अपने काम को अंजाम देने के उद्देश्य से 1934 में लंदन पहुंचे। वहां उन्होंने एक कार और एक रिवाल्वर खरीदी तथा उचित समय का इंतजार करने लगे।
गिरफ्तारी के तुरंत बाद का चित्र 
भारत के इस योद्धा को जिस मौके का इंतजार था, वह उन्हें 13 मार्च 1940 को उस समय मिला, जब माइकल ओडवायर लंदन के काक्सटन हाल में एक सभा में शामिल होने के लिए गया।
ऊधम सिंह ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवाल्वर के आकार में काटा और उनमें रिवाल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए। सभा के अंत में मोर्चा संभालकर उन्होंने ओडवायर को निशाना बनाकर गोलियां दागनी शुरू कर दीं।
ओडवायर को दो गोलियां लगीं और वह वहीं ढेर हो गया। अदालत में ऊधम सिंह से पूछा गया कि जब उनके पास और भी गोलियां बचीं थीं, तो उन्होंने उस महिला को गोली क्यों नहीं मारी जिसने उन्हें पकड़ा था। इस पर ऊधम सिंह ने जवाब दिया कि हां ऐसा कर मैं भाग सकता था, लेकिन भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है।
31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में ऊधम सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया जिसे उन्होंने हंसते हंसते स्वीकार कर लिया। ऊधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते। 31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने ऊधम सिंह के अवशेष भारत को सौंप दिए। ओडवायर को जहां ऊधम सिंह ने गोली से उड़ा दिया, वहीं जनरल डायर कई तरह की बीमारियों से घिर कर तड़प तड़प कर बुरी मौत मारा गया।
भारत माँ के इस सच्चे सपूत को हमारा शत शत नमन |
इंकलाब ज़िंदाबाद !!!

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

अमर क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी जी की १२५ वीं जयंती


क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी (बांग्ला: প্রফুল্ল চাকী) (१० दिसंबर १८८८ - १ मई १९०८) का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। प्रफुल्ल का जन्म उत्तरी बंगाल के बोगरा गाँव (अब बांग्लादेश में स्थित) में हुआ था। जब प्रफुल्ल दो वर्ष के थे तभी उनके पिता जी का निधन हो गया। उनकी माता ने अत्यंत कठिनाई से प्रफुल्ल का पालन पोषण किया। विद्यार्थी जीवन में ही प्रफुल्ल का परिचय स्वामी महेश्वरानंद द्वारा स्थापित गुप्त क्रांतिकारी संगठन से हुआ। प्रफुल्ल ने स्वामी विवेकानंद के साहित्य का अध्ययन किया और वे उससे बहुत प्रभावित हुए। अनेक क्रांतिकारियों के विचारों का भी प्रफुल्ल ने अध्ययन किया इससे उनके अन्दर देश को स्वतंत्र कराने की भावना बलवती हो गई। बंगाल विभाजन के समय अनेक लोग इसके विरोध में उठ खड़े हुए। अनेक विद्यार्थियों ने भी इस आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। प्रफुल्ल ने भी इस आन्दोलन में भाग लिया। वे उस समय रंगपुर जिला स्कूल में कक्षा ९ के छात्र थे। प्रफुल्ल को आन्दोलन में भाग लेने के कारण उनके विद्यालय से निकाल दिया गया। इसके बाद प्रफुल्ल का सम्पर्क क्रांतिकारियों की युगांतर पार्टी से हुआ।

मुजफ्फरपुर काण्ड

कोलकाता का चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड क्रांतिकारियों को अपमानित करने और उन्हें दण्ड देने के लिए बहुत बदनाम था। क्रांतिकारियों ने किंग्सफोर्ड को जान से मार डालने का निर्णय लिया। यह कार्य प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को सौंपा गया। ब्रिटिश सरकार ने किंग्सफोर्ड के प्रति जनता के आक्रोश को भाँप कर उसकी सरक्षा की दृष्टि से उसे सेशन जज बनाकर मुजफ्फरपुर भेज दिया। दोनों क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस उसके पीछे-पीछे मुजफ्फरपुर पहुँच गए। दोनों ने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का बारीकी से अध्ययन किया। इसके बाद ३० अप्रैल १९०८ ई० को किंग्सफोर्ड पर उस समय बम फेंक दिया जब वह बग्घी पर सवार होकर यूरोपियन क्लब से बाहर निकल रहा था। लेकिन जिस बग्घी पर बम फेंका गया था उस पर किंग्सफोर्ड नहीं था बल्कि बग्घी पर दो यूरोपियन महिलाएँ सवार थीं। वे दोनों इस हमले में मारी गईं। 

 

बलिदान

दोनों क्रांतिकारियों ने समझ लिया कि वे किंग्सफोर्ड को मारने में सफल हो गए हैं। वे दोनों घटनास्थल से भाग निकले। प्रफुल्ल चाकी ने समस्तीपुर पहुँच कर कपड़े बदले और टिकिट खरीद कर रेलगाड़ी में बैठ गए। दुर्भाग्य से उसी में पुलिस का सब इंस्पेक्टर नंदलाल बनर्जी बैठा था। उसने प्रफुल्ल चाकी को गिरफ्तार करने के उद्देश्य से अगली स्टेशन को सूचना दे दी। स्टेशन पर रेलगाड़ी के रुकते ही प्रफुल्ल को पुलिस ने पकड़ना चाहा लेकिन वे बचने के लिए दौड़े। परन्तु जब प्रफुल्ल ने देखा कि वे चारों ओर से घिर गए हैं तो उन्होंने अपनी रिवाल्वर से अपने ऊपर गोली चलाकर अपनी जान दे दी। यह घटना १ मई, १९०८ की है। बिहार के मोकामा स्टेशन के पास प्रफुल्ल चाकी की मौत के बाद पुलिस उपनिरीक्षक एनएन बनर्जी ने चाकी का सिर काट कर उसे सबूत के तौर पर मुजफ्फरपुर की अदालत में पेश किया। यह अंग्रेज शासन की जघन्यतम घटनाओं में शामिल है। खुदीराम को बाद में गिरफ्तार किया गया था व उन्हें फांसी दे दी गई थी।
 

अमर क्रांतिकारी स्व ॰ प्रफुल्ल चाकी जी को शत शत नमन !

इंकलाब ज़िंदाबाद !!

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

बाघा जतीन की १३४ वीं जयंती

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जतींद्रनाथ मुखर्जी

जतीन्द्रनाथ मुखर्जी 
 उपनाम : बाघा जतीन
जन्मस्थल : कायाग्राम, कुष्टिया जिला बांग्लादेश
मृत्युस्थल: बालेश्वर,ओड़ीशा
आन्दोलन: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
प्रमुख संगठन: युगांतर


बाघा जतीन ( बांग्ला में বাঘা যতীন (उच्चारणः बाघा जोतिन) ( ०७ दिसम्बर, १८७९ - १० सितम्बर , १९१५) के बचपन का नाम जतीन्द्रनाथ मुखर्जी (जतीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय) था। वे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कार्यकारी दार्शनिक क्रान्तिकारी थे। वे युगान्तर पार्टी के मुख्य नेता थे। युगान्तर पार्टी बंगाल में क्रान्तिकारियों का प्रमुख संगठन थी।


प्रारंभिक जीवन
जतींद्र नाथ मुखर्जी का जन्म जैसोर जिले में सन् १९७९ ईसवी में हुआ था। पाँच वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया। माँ ने बड़ी कठिनाई से उनका लालन-पालन किया। १८ वर्ष की आयु में उन्होंने मैट्रिक पास कर ली और परिवार के जीविकोपार्जन हेतु स्टेनोग्राफी सीखकर कलकत्ता विश्वविद्यालय से जुड़ गए। वह बचपन से हई बड़े बलिष्ठ थे। सत्यकथा है कि २७ वर्ष की आयु में एक बार जंगल से गुजरते हुए उनकी मुठभेड़ एक बाघ (रॉयल बेन्गाल टाइगर) से हो गयी। उन्होंने बाघ को अपने हंसिये से मार गिराया था। इस घटना के बाद जतींद्र नाथ "बाघा जतीन" नाम से विख्यात हो गए थे।
 
क्रांतिकारी जीवन
उन्हीं दिनों अंग्रेजों ने बंग-भंग की योजना बनायी। बंगालियों ने इसका विरोध खुल कर किया। जतींद्र नाथ मुखर्जी का नया खून उबलने लगा। उन्होंने साम्राज्यशाही की नौकरी को लात मार कर आन्दोलन की राह पकड़ी। सन् १९१० में एक क्रांतिकारी संगठन में काम करते वक्त जतींद्र नाथ 'हावड़ा षडयंत्र केस' में गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें साल भर की जेल काटनी पड़ी।
जेल से मुक्त होने पर वह 'अनुशीलन समिति' के सक्रिय सदस्य बन गए और 'युगान्तर' का कार्य संभालने लगे। उन्होंने अपने एक लेख में उन्हीं दिनों लिखा था-' पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देसी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीवनयापन का अवसर देना हमारी मांग है।' क्रांतिकारियों के पास आन्दोलन के लिए धन जुटाने का प्रमुख साधन डकैती था। दुलरिया नामक स्थान पर भीषण डकैती के दौरान अपने ही दल के एक सहयोगी की गोली से क्रांतिकारी अमृत सरकार घायल हो गए। विकट समस्या यह खड़ी हो गयी कि धन लेकर भागें या साथी के प्राणों की रक्षा करें! अमृत सरकार ने जतींद्र नाथ से कहा कि धन लेकर भागो। जतींद्र नाथ इसके लिए तैयार न हुए तो अमृत सरकार ने आदेश दिया- 'मेरा सिर काट कर ले जाओ ताकि अंग्रेज पहचान न सकें।' इन डकैतियों में 'गार्डन रीच' की डकैती बड़ी मशहूर मानी जाती है। इसके नेता जतींद्र नाथ मुखर्जी थे। विश्व युद्ध प्रारंभ हो चुका था। कलकत्ता में उन दिनों राडा कम्पनी बंदूक-कारतूस का व्यापार करती थी। इस कम्पनी की एक गाडी रास्ते से गायब कर दी गयी थी जिसमें क्रांतिकारियों को ५२ मौजर पिस्तौलें और ५० हजार गोलियाँ प्राप्त हुई थीं। ब्रिटिश सरकार हो ज्ञात हो चुका था कि 'बलिया घाट' तथा 'गार्डन रीच' की डकैतियों में जतींद्र नाथ का हाथ था।
 
अंतिम समय
सन् १९१० में बाघा जतिन

९ सितंबर १९१५ को पुलिस ने जतींद्र नाथ का गुप्त अड्डा 'काली पोक्ष' (कप्तिपोद) ढूंढ़ निकाला। जतींद्र नाथ साथियों के साथ वह जगह छोड़ने ही वाले थे कि राज महन्ती नमक अफसर ने गाँव के लोगों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशश की। बढ़ती भीड़ को तितरबितर करने के लिए जतींद्र नाथ ने गोली चला दी। राज महन्ती वहीं ढेर हो गया। यह समाचार बालासोर के जिला मजिस्ट्रेट किल्वी तक पहुंचा दिया गया। किल्वी दल बल सहित वहाँ आ पहुंचा। यतीश नामक एक क्रांतिकारी बीमार था। जतींद्र उसे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। चित्तप्रिय नामक क्रांतिकारी उनके साथ था। दोनों तरफ़ से गोलियाँ चली। चित्तप्रिय वहीं शहीद हो गया। वीरेन्द्र तथा मनोरंजन नामक अन्य क्रांतिकारी मोर्चा संभाले हुए थे। इसी बीच जतींद्र नाथ का शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था। वह जमीन पर गिर कर 'पानी-पानी' चिल्ला रहे थे। मनोरंजन उन्हें उठा कर नदी की और ले जाने लगा। तभी अंग्रेज अफसर किल्वी ने गोलीबारी बंद करने का आदेश दे दिया। गिरफ्तारी देते वक्त जतींद्र नाथ ने किल्वी से कहा- 'गोली मैं और चित्तप्रिय ही चला रहे थे। बाकी के तीनों साथी बिल्कुल निर्दोष हैं। 'इसके अगले दिन भारत की आज़ादी के इस महान सिपाही ने अस्पताल में सदा के लिए आँखें मूँद लीं।।

 भारत माता के इस 'बाघ' अमर क्रांतिकारी स्व ॰ बाघा जतीन जी को शत शत नमन !
इंकलाब ज़िंदाबाद !!

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

गाँधी + बोस = मंडेला


दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की घृणित प्रथा के खात्मे के लिए चले निर्णायक आंदोलन के अगुवा नेल्सन मंडेला के जीवन में महात्मा गांधी और सुभाष चन्द्र बोस के रूप में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े अलग-अलग विचारधाराओं वाले दो पुरोधाओं की सोच का अनोखा संगम देखा जा सकता है।

मंडेला ने महात्मा गांधी के नक्शेकदम पर चलते हुए जहां सरकार के विरुद्ध अवज्ञा आंदोलन शुरू किया वहीं भेदभाव की नीति से मुक्ति के लिए बोस की तरह सरकार के खिलाफ युद्ध का सहारा भी लिया था। वह अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस [एएनसी] की सशस्त्र इकाई 'उमखोंतो वे सिजवे' के प्रमुख रहे और उन्हें देशद्रोह तथा अन्य आरोपों में करीब 17 साल जेल में गुजारने पड़े।

यह सम्भवत: गांधी जी की नीतियों का ही असर था कि मंडेला देश में रंगभेद की नीति के विरोध में खड़े हुए नई पीढ़ी के कार्यकताओं को एकजुट कर सके। महात्मा गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह आंदोलन के रूप में की गई शुरुआत के वर्ष 1947 में भारत की आजादी के रूप में मंजिल तक पहुंचने से दक्षिण अफ्रीका में वांछित परिवर्तन की उम्मीद पैदा हुई। मंडेला को महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए उपनिवेश विरोधी आंदोलन को सम्पन्न करने वाला नेता भी कहा जाता है।

रंगभेद की नीति के खिलाफ नरम और गरम रवैया अपनाने वाले मंडेला पर हालांकि अहिंसा का ज्यादा गहरा असर था और उन्होंने बाद में माना था कि रंगभेद के खिलाफ उनकी पार्टी द्वारा हिंसा का रास्ता अपनाया जाना कई मायनों में गलत था।

मंडेला से जुडे तथ्यों से पता चलता है कि रंगभेद नीति के प्रतीक स्थलों को बम से उड़ाकर विरोध दर्ज कराने का मकसद किसी की जान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं था। मंडेला की नजर में युद्ध किसी बात का विरोध करने का आखिरी रास्ता है।

18 जुलाई 1918 को दक्षिण अफ्रीका के ट्रांस्की में जन्मे नेल्सन मंडेला ने अपने साहस, दृढ़ संकल्प और प्रेरणादाई व्यक्तित्व के बलबूते रंगभेद की नीति को खत्म करने के बाद देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित होकर अपना नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज कराया।

मंडेला के जीवन से जुड़े दस्तावेजों पर नजर डालने से पता चलता है कि वह अपने परिवार में स्कूल जाने वाले पहले शख्स थे और उनकी शिक्षिका दिनगाना गावे ने उन्हें 'नेल्सन' नाम दिया था। मंडेला मेधावी छात्र थे लेकिन राजनीति में सक्रियता से उनकी शिक्षा पर असर पड़ा था। फोर्ट हेयर यूनीवर्सिटी में अध्ययन के दौरान विश्वविद्यालय की नीतियों के खिलाफ छात्रसंघ की मुहिम में शामिल होने की वजह से उन्हें यूनीवर्सिटी से निकाल दिया गया था।

देश में रंगभेद नीति की समर्थक नेशनल पार्टी की वर्ष 1948 में जीत के बाद मंडेला राजनीति के मैदान में आ गए। मंडेला ने वर्ष 1952 में एएनसी के अवज्ञा आंदोलन की अगुवाई की।

मंडेला ने महात्मा गांधी के पदचिन्हों पर चलकर देश के अश्वेत लोगों में नई चेतना पैदा की, वहीं दासता के प्रतीक स्थलों तथा सरकारी भवनों पर हमले के अभियान की भी अगुवाई की। उन्हें देश में हिंसा फैलाने तथा कई अन्य गम्भीर आरोपों में पांच अगस्त 1962 को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर मुकदमा चला और 12 जून 1964 को उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई। मंडेला को रॉबेन द्वीप पर बनी जेल में रखा गया। आजीवन कारावास की सजा मिलने के बावजूद मंडेला का रंगभेद नीति के खिलाफ आंदोलन का जुनून कम नहीं हुआ। उन्होंने जेल में बंद अश्वेत लोगों को लामबंद करना शुरू किया। उनकी इस कोशिश की वजह से इस जेल को 'मंडेला यूनीवर्सिटी' कहा जाने लगा।

फरवरी 1985 में तत्कालीन राष्ट्रपति पी डब्ल्यू बोथा ने मंडेला को आंदोलन का रास्ता छोड़ने की कीमत पर रिहाई की पेशकश की जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। दक्षिण अफ्रीकी सरकार पर मंडेला को मुक्त करने का अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ने पर मंडेला को 11 फरवरी 1990 को रिहा कर दिया गया। उन्हें वर्ष 1993 में नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया। 27 अप्रैल 1994 को देश में पहली बार श्वेत और अश्वेत लोगों की भागीदारी वाले चुनाव में एएनसी की जोरदार जीत के बाद मंडेला ने 10 मई 1994 को दक्षिण अफ्रीका का पहला अश्वेत राष्ट्रपति बनने की उपलब्धि हासिल कर ली। 

सभी मैनपुरी वासियों की ओर से नेल्सन मंडेला को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

अमर शहीद खुदीराम बोस जी की १२४ वीं जयंती


खुदीराम बोस (जन्म: १८८९ - मृत्यु : १९०८) भारतीय स्वाधीनता के लिये मात्र १९ साल की उम्र में हिन्दुस्तान की आजादी के लिये फाँसी पर चढ़ गये। कुछ इतिहासकारों की यह धारणा है कि वे अपने देश के लिये फाँसी पर चढ़ने वाले सबसे कम उम्र के ज्वलन्त तथा युवा क्रान्तिकारी देशभक्त थे।

जन्म व प्रारम्भिक जीवन

खुदीराम का जन्म ३ दिसंबर १८८९ को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के बहुवैनी नामक गाँव में बाबू त्रैलोक्यनाथ बोस के यहाँ हुआ था। उसकी माता का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था। बालक खुदीराम के मन में देश को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और स्वदेशी आन्दोलन में कूद पड़ा। छात्र जीवन से ही ऐसी लगन मन में लिये इस नौजवान ने हिन्दुस्तान पर अत्याचारी सत्ता चलाने वाले ब्रिटिश साम्राज्य को ध्वस्त करने के संकल्प में अलौकिक धैर्य का परिचय देते हुए पहला बम फेंका और मात्र १९ वें वर्ष में हाथ में भगवद गीता लेकर हँसते - हँसते फाँसी के फन्दे पर चढकर इतिहास रच दिया।


क्रान्ति के क्षेत्र में

स्कूल छोडने के बाद खुदीराम रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वन्दे मातरम् पैफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। १९०५ में बंगाल के विभाजन (बंग - भंग) के विरोध में चलाये गये आन्दोलन में उन्होंने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया।


राजद्रोह के आरोप से मुक्ति

फरवरी १९०६ में मिदनापुर में एक औद्योगिक तथा कृषि प्रदर्शनी लगी हुई थी । प्रदर्शनी देखने के लिये आसपास के प्रान्तों से सैंकडों लोग आने लगे । बंगाल के एक क्रांतिकारी सत्येंद्रनाथ द्वारा लिखे ‘सोनार बांगला’ नामक ज्वलंत पत्रक की प्रतियाँ खुदीरामने इस प्रदर्शनी में बाँटी। एक पुलिस वाला उन्हें पकडने के लिये भागा । खुदीराम ने इस सिपाही के मुँह पर घूँसा मारा और शेष पत्रक बगल में दबाकर भाग गये। इस प्रकरण में राजद्रोह के आरोप में सरकार ने उन पर अभियोग चलाया परन्तु गवाही न मिलने से खुदीराम निर्दोष छूट गये।

इतिहासवेत्ता मालती मलिक के अनुसार २८ फरवरी १९०६ को खुदीराम बोस गिरफ्तार कर लिये गये लेकिन वह कैद से भाग निकले। लगभग दो महीने बाद अप्रैल में वह फिर से पकड़े गये। १६ मई १९०६ को उन्हें रिहा कर दिया गया।

६ दिसंबर १९०७ को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया परन्तु गवर्नर बच गया। सन १९०८ में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले।


न्यायाधीश किंग्जफोर्ड को मारने की योजना

मिदनापुर में ‘युगांतर’ नाम की क्रांतिकारियों की गुप्त संस्था के माध्यम से खुदीराम क्रांतिकार्य पहले ही में जुट चुके थे। १९०५ में लॉर्ड कर्जन ने जब बंगाल का विभाजन किया तो उसके विरोध में सडकों पर उतरे अनेकों भारतीयों को उस समय के कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड ने क्रूर दण्ड दिया। अन्य मामलों में भी उसने क्रान्तिकारियों को बहुत कष्ट दिया था । इसके परिणामस्वरूप किंग्जफोर्ड को पदोन्नति देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश के पद पर भेजा । ‘युगान्तर’ समिति कि एक गुप्त बैठक में किंग्जफोर्ड को ही मारने का निश्चय हुआ। इस कार्य हेतु खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार चाकी का चयन किया गया । खुदीरामको एक बम और पिस्तौल दी गयी। प्रफुल्लकुमार को भी एक पिस्तौल दी गयी । मुजफ्फरपुर में आने पर इन दोनों ने सबसे पहले किंग्जफोर्ड के बँगले की निगरानी की । उन्होंने उसकी बग्घी तथा उसके घोडे का रंग देख लिया । खुदीराम तो किंग्जफोर्ड को उसके कार्यालय में जाकर ठीक से देख भी आया ।


अंग्रेज अत्याचारियों पर पहला बम

३० अप्रैल १९०८ को ये दोनों नियोजित काम के लिये बाहर निकले और किंग्जफोर्ड के बँगले के बाहर घोडागाडी से उसके आने की राह देखने लगे । बँगले की निगरानी हेतु वहाँ मौजूद पुलिस के गुप्तचरों ने उन्हें हटाना भी चाहा परन्तु वे दोनॉं उन्हें योग्य उत्तर देकर वहीं रुके रहे। रात में साढे आठ बजे के आसपास क्लब से किंग्जफोर्ड की बग्घी के समान दिखने वाली गाडी आते हुए देखकर खुदीराम गाडी के पीछे भागने लगे । रास्ते में बहुत ही अँधेरा था। गाडी किंग्जफोर्ड के बँगले के सामने आते ही खुदीराम ने अँधेरे में ही आगे वाली बग्घी पर निशाना लगाकर जोर से बम फेंका। हिन्दुस्तान में इस पहले बम विस्फोट की आवाज उस रात तीन मील तक सुनाई दी और कुछ दिनों बाद तो उसकी आवाज इंग्लैंड तथा योरोप में भी सुनी गयी जब वहाँ इस घटना की खबर ने तहलका मचा दिया। यूँ तो खुदीराम ने किंग्जफोर्ड की गाडी समझकर बम फेंका था परन्तु उस दिन किंग्जफोर्ड थोडी देर से क्लब से बाहर आने के कारण बच गया । दैवयोग से गाडियाँ एक जैसी होने के कारण दो यूरोपियन स्त्रियों को अपने प्राण गँवाने पडे। खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार दोनों ही रातों - रात नंगे पैर भागते हुए गये और २४ मील दूर स्थित वैनी रेलवे स्टेशन पर जाकर ही विश्राम किया।


गिरफ्तारी
अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गयी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल्लकुमार चाकी ने खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी जबकि खुदीराम पकड़े गये। ११ अगस्त १९०८ को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फाँसी दे दी गयी। उस समय उनकी उम्र मात्र १९ साल की थी।


फाँसी का आलिंगन

दूसरे दिन सन्देह होने पर प्रफुल्लकुमार चाकी को पुलिस पकडने गयी, तब उन्होंने स्वयं पर गोली चलाकर अपने प्राणार्पण कर दिये । खुदीराम को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया । इस गिरफ्तारी का अन्त निश्चित ही था । ११ अगस्त १९०८ को भगवद्गीता हाथ में लेकर खुदीराम धैर्य के साथ खुशी - खुशी फाँसी चढ गये । किंग्जफोर्ड ने घबराकर नौकरी छोड दी और जिन क्रांतिकारियों को उसने कष्ट दिया था उनके भय से उसकी शीघ्र ही मौत भी हो गयी । परन्तु खुदीराम मरकर भी अमर हो गये।

फाँसी के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गये कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। इतिहासवेत्ता शिरोल के अनुसार बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिये वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। कई दिन तक स्कूल कालेज सभी बन्द रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे, जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।
 
अमर शहीद खुदीराम बोस जी की १२४ वीं जयंती पर हम सब उनको शत शत नमन करते है !
 
वन्दे मातरम्

रविवार, 1 दिसंबर 2013

विश्व एड्स दिवस [1 दिसंबर]

आज १ दिसम्बर है यानि ... विश्व एड्स दिवस [1 दिसंबर] ...

एड्स के सदर्भ में एक अच्छी खबर यह है कि दुनिया भर में एचआईवी से सक्रमित लोगों की सख्या कम हो रही है। यहीं नहीं, एचआईवी सक्रमण के नये मामलों में भी गिरावट दर्ज हुई है। इसके बावजूद इस जानलेवा रोग की समाप्ति के लिए जारी जंग खत्म नहीं हुई है.. ?
एचआईवी [ह्यूमन इम्यूनोडेफिशिएंसी वाइरस], एक्वायर्ड इम्यूनोडेफिशिएंसी सिड्रोम [एड्स] का प्रमुख कारण है। एड्स जानलेवा बीमारी है। एचआईवी सक्रमण की अंतिम अवस्था एड्स है। वर्तमान में विश्व में साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा लोग एचआईवी से ग्रस्त हैं। इन दिनों भारत में लगभग 23.9 लाख व्यक्ति एचआईवी/ एड्स पीड़ित है। वर्तमान आकड़ों के अनुसार एचआईवी पीड़ितों की सख्या कम हो रही है और सक्रमण दर में भी गिरावट आ रही है।

इस साल की 'थीम'

इस वर्ष 'विश्व एड्स दिवस' की थीम है- 'गेटिंग टू जीरो'। यानी नए एचआईवी सक्रमण की दर को शून्य स्तर पर लाना और बेहतर इलाज के जरिये एड्स से ग्रस्त लोगों की मृत्यु दर को शून्य स्तर पर लाना। इस थीम को सन् 2015 तक जारी रखा जाएगा।

एचआईवी क्या है

मानव शरीर में कुदरती तौर पर एक प्रतिरक्षा तत्र [इम्यून सिस्टम] होता है, जो शरीर के अंदर सक्रमण और बीमारियों का मुकाबला करता है। इसका सबसे महत्वपूर्ण अंग होती है एक कोशिका [सेल] जिसे सीडी-4 सेल कहते है। आम तौर पर एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में 500 से 1800 सीडी-4/ सीयूएमएल पायी जाती है।

शरीर पर हमला

एचआईवी वाइरस शरीर में प्रवेश कर सीडी-4 सेल्स पर हमला करता है, और उनमें अपनी सख्या बढ़ाकर सीडी-4 सेल्स का विनाश शुरू कर देता है। कई सालों के दौरान धीरे-धीरे सीडी-4 सेल्स कम होने लगती है, जिससे इम्यून सिस्टम कमजोर पड़ जाता है। परिणामस्वरूप शरीर सामान्यत: सक्रमण और बीमारियों का सही तरह से मुकाबला नहीं कर पाता। इस अवस्था को एड्स कहते हैं, जो अंतत: मृत्यु का कारण बनता है। इस मर्ज में संक्रमण निरोधक शक्ति का धीरे-धीरे क्षय हो जाता है। इस कारण साधारण सक्रमण भी जानलेवा बीमारी का रूप लेते है। टीबी [क्षयरोग], डायरिया, निमोनिया, फंगल और हरपीज आदि ऐसे रोग हैं, जिनमें एचआईवी सक्रमण इन रोगों को और जटिल बना देता है।

एचआईवी का प्रसार

* एचआईवी का एक मुख्य कारण सक्रमित व्यक्ति के साथ असुरक्षित यौन सबध स्थापित करना है।
* ब्लड ट्रासफ्यूजन के दौरान शरीर में एचआईवी सक्रमित रक्त के चढ़ जाने से।
* एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति पर इस्तेमाल की गई इंजेक्शन की सुई का इस्तेमाल करने से।
* एचआईवी पॉजिटिव गर्भवती महिला गर्भावस्था के समय, प्रसव के दौरान या इसके बाद अपना दूध पिलाने से नवजात शिशु को सक्रमणग्रस्त कर सकती है।

एड्स से सबधित जाचें

* एलीसा टेस्ट: केवल स्क्रीनिग व प्रारभिक जाच।
वेस्टर्न ब्लॉट टेस्ट: यह एचआईवी सक्रमण की खास जाच है, जो पॉजिटिव टेस्ट बताती है कि कोई शख्स एचआईवी से ग्रस्त है।
* एच.आई.वी. पी-24 एंटीजेन [पीसीआर]: एचआईवी की स्पष्ट जाच व रोग की तीव्रता की जानकारी पता चलती है।
* सीडी-4 काउट: इस परीक्षण से रोगी की प्रतिरोधक क्षमता का आकलन किया जाता है।

दूरदर्शन पर अक्सर ही हम एक लाइन सुनते है एड्स के बारे में ... पर शायद ही हम से कोई भी इस पर कोई ध्यान देता हो ... सब के अपने अपने कारण है ... और हर एक की समझ से वह अपनी जगह बिलकुल सही है पर सत्य को इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उसके बारे में क्या सोचता है ...सत्य हमेशा ही सत्य होता है ... अपनी जगह अटल ... और एड्स के मामले में सत्य यही है कि ...

||जानकारी ही बचाव है ||

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