पूरे दिन में हमारे साथ जो जो होता है उसका ही एक लेखा जोखा " बुरा भला " के नाम से आप सब के सामने लाने का प्रयास किया है | यह जरूरी नहीं जो हमारे साथ होता है वह सब " बुरा " हो, साथ साथ यह भी एक परम सत्य है कि सब " भला " भी नहीं होता | इस ब्लॉग में हमारी कोशिश यह होगी कि दिन भर के घटनाक्रम में से हम " बुरा " और " भला " छांट कर यहाँ पेश करे |
 
सदस्य
बुधवार, 31 जुलाई 2013
सोमवार, 29 जुलाई 2013
भारत की २ महान विभूतियों को नमन
आज २९ जुलाई है - भारत की २ विभूतियों का बहुत गहरा नाता है आज के दिन से !
एक की आज जयंती है तो एक की आज पुण्यतिथि है !
आइये इस २ इन १ पोस्ट के माध्यम से उन दोनों को ही अपने श्रद्धासुमन अर्पित करें !
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| जेआरडी टाटा (29/07/1904 - 29/11/1993) | 
बहुमुखी प्रतिभा के धनी उद्यमी थे जेआरडी टाटा (२९/०७/१९०४ - २९/११/१९९३)
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| राजमाता गायत्री देवी (23/05/1919 - 29/07/2009) | 
दुनिया की दस सबसे खुबसूरत महिलाओं में एक रही राजमाता गायत्री देवी का निधन
समस्त मैनपुरी वासीयों की ओर से इन दोनों महान विभूतियों को शत शत नमन !
रविवार, 28 जुलाई 2013
शुक्रवार, 26 जुलाई 2013
१४ वें कारगिल विजय दिवस पर अमर शहीदों को नमन
खामोश है जो यह वो सदा है, वो जो नहीं है वो कह रहा है , 
साथी यु तुम को मिले जीत ही जीत सदा |
बस इतना याद रहे ........ एक साथी और भी था ||
जाओ जो लौट के तुम, घर हो खुशी से भरा,
बस इतना याद रहे ........ एक साथी और भी था ||
कल पर्वतो पे कही बरसी थी जब गोलियां ,
हम लोग थे साथ में और हौसले थे जवां |
अब तक चट्टानों पे है अपने लहू के निशां ,
साथी मुबारक तुम्हे यह जश्न हो जीत का ,
बस इतना याद रहे ........ एक साथी और भी था ||
कल तुम से बिछडी हुयी ममता जो फ़िर से मिले ,
कल फूल चहेरा कोई जब मिल के तुम से खिले ,
पाओ तुम इतनी खुशी , मिट जाए सारे गिले,
है प्यार जिन से तुम्हे , साथ रहे वो सदा ,
बस इतना याद रहे ........ एक साथी और भी था ||
जब अमन की बासुरी गूजे गगन के तले,
जब दोस्ती का दिया इन सरहद पे जले ,
जब भूल के दुश्मनी लग जाए कोई गले ,
जब सारे इंसानों का एक ही हो काफिला ,
बस इतना याद रहे ........ एक साथी और भी था ||
बस इतना याद रहे ........ एक साथी और भी था ||
साथी यु तुम को मिले जीत ही जीत सदा |
बस इतना याद रहे ........ एक साथी और भी था ||
जाओ जो लौट के तुम, घर हो खुशी से भरा,
बस इतना याद रहे ........ एक साथी और भी था ||
कल पर्वतो पे कही बरसी थी जब गोलियां ,
हम लोग थे साथ में और हौसले थे जवां |
अब तक चट्टानों पे है अपने लहू के निशां ,
साथी मुबारक तुम्हे यह जश्न हो जीत का ,
बस इतना याद रहे ........ एक साथी और भी था ||
कल तुम से बिछडी हुयी ममता जो फ़िर से मिले ,
कल फूल चहेरा कोई जब मिल के तुम से खिले ,
पाओ तुम इतनी खुशी , मिट जाए सारे गिले,
है प्यार जिन से तुम्हे , साथ रहे वो सदा ,
बस इतना याद रहे ........ एक साथी और भी था ||
जब अमन की बासुरी गूजे गगन के तले,
जब दोस्ती का दिया इन सरहद पे जले ,
जब भूल के दुश्मनी लग जाए कोई गले ,
जब सारे इंसानों का एक ही हो काफिला ,
बस इतना याद रहे ........ एक साथी और भी था ||
बस इतना याद रहे ........ एक साथी और भी था ||
- जावेद अख्तर 
सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से कारगिल युद्ध के सभी अमर शहीदों को शत शत नमन !
मंगलवार, 23 जुलाई 2013
कर्नल डा॰ लक्ष्मी सहगल की पहली बरसी पर विशेष
लक्ष्मी सहगल
 (जन्म: 24 अक्टूबर, 1914 - निधन : 23 जुलाई , 2012 ) भारत की स्वतंत्रता 
संग्राम की सेनानी थी। वे आजाद हिन्द फौज की अधिकारी तथा 'आजाद हिन्द 
सरकार' में महिला मामलों की मंत्री थीं। वे व्यवसाय से डॉक्टर थी जो 
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय प्रकाश में आयीं। वे आजाद हिन्द फौज की 'रानी 
लक्ष्मी रेजिमेन्ट' की कमाण्डर थीं।
परिचय
डॉक्टर
 लक्ष्मी सहगल का जन्म 1914 में एक परंपरावादी तमिल परिवार में हुआ और 
उन्होंने मद्रास मेडिकल कॉलेज से मेडिकल की शिक्षा ली, फिर वे सिंगापुर  
चली गईं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब जापानी सेना ने सिंगापुर में  
ब्रिटिश सेना पर हमला किया तो लक्ष्मी सहगल सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद 
 फ़ौज में शामिल हो गईं थीं।
वे 
बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित हो गई थीं और जब महात्मा गाँधी 
 ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो लक्ष्मी सहगल ने उसमे  
हिस्सा लिया। वे 1943 में अस्थायी आज़ाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली  
महिला सदस्य बनीं। एक डॉक्टर की हैसियत से वे सिंगापुर गईं थीं लेकिन 87  
वर्ष की उम्र में वे अब भी कानपुर के अपने घर में बीमारों का इलाज करती 
हैं।
आज़ाद हिंद फ़ौज की रानी 
झाँसी रेजिमेंट में लक्ष्मी सहगल बहुत सक्रिय  रहीं। बाद में उन्हें कर्नल 
का ओहदा दिया गया लेकिन लोगों ने उन्हें कैप्टन  लक्ष्मी के रूप में ही याद
 रखा। 
संघर्ष
आज़ाद
 हिंद फ़ौज की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने स्वतंत्रता सैनिकों की  धरपकड़
 की और 4 मार्च 1946 को वे पकड़ी गईं पर बाद में उन्हें रिहा कर  दिया गया।
 लक्ष्मी सहगल ने 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह किया  और 
कानपुर आकर बस गईं। लेकिन उनका संघर्ष ख़त्म नहीं हुआ और वे वंचितों की  
सेवा में लग गईं। वे भारत विभाजन को कभी स्वीकार नहीं कर पाईं और अमीरों और
 ग़रीबों के बीच बढ़ती खाई का हमेशा विरोध करती रही ।
वामपंथी राजनीति
यह
 एक विडंबना ही है कि जिन वामपंथी पार्टियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध  में 
जापान का साथ देने के लिए सुभाष चंद्र बोस की आलोचना की, उन्होंने ही  
लक्ष्मी सहगल को भारत  के राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया। लेकिन वामपंथी 
राजनीति की ओर लक्ष्मी  सहगल का झुकाव 1971 के बाद से बढ़ने लगा था। वे 
अखिल भारतीय जनवादी महिला  समिति की संस्थापक सदस्यों में से थी । 
सम्मान
भारत
 सरकार ने उन्हें 1998 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया। डॉक्टर लक्ष्मी 
सहगल की बेटी सुभाषिनी अली 1989 में कानपुर से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट 
पार्टी की सांसद भी रहीं।
पहली बरसी पर स्व॰ कर्नल डा॰ लक्ष्मी सहगल जी को हम सभी की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि और शत शत नमन !
जय हिंद !!!
शुक्रवार, 12 जुलाई 2013
पहली बरसी पर विशेष - अपराजेय रहे दारा सिंह
आज रुस्तम ए हिन्द स्व ॰ दारा सिंह जी की पहली बरसी है ... पिछले साल आज ही के दिन उनका लंबी बीमारी के बाद निधन हुआ था !
  
 
 
  
 
  
 
  
 
  
 
  
 इंडिया के आयरन मैन 
 गौरतलब है कि कई दिनों तक अभिनेता महाबली दारा सिंह जी जिंदगी और मौत से 
लड़ने  के बाद गुरुवार १२ जुलाई २०१२ की सुबह 7.30 बजे दुनिया से चल बसे। वह काफी दिनों तक 
मुंबई के  कोकिलाबेन अस्पताल में भर्ती थे। उनकी गंभीर हालत को देखते हुए 
कई दिनों  तक उन्हें वेंटिलेटर पर रखना पड़ा था। डाक्टरों ने बताया था कि उनके 
खून में  ऑक्सीजन की भारी कमी थी। उनके गांव के गुरुद्वारे में उनकी सलामती
 की अरदास  की जा रही थी। पूरे देश ने उनकी सलामती की दुआएं मांगी। रामायण 
में हनुमान  बनकर भगवान लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी लाने वाले दारा सिंह 
जी अपने असल जिंदगी  में मौत से नहीं लड़ पाए। ताकत के इस प्रतीक को जो 
बीमारी हुई थी उसे  क्रॉनिक इन्फ्लेमेटरी डेमीलीटेटिंग पॉलीन्यूरोपैथी के 
नाम से जाना जाता है।  कुश्ती की दुनिया में देश विदेश में अपनी कामयाबी का
 लोहा मनवाने वाले  दारा सिंह जी ने 1962 में हिंदी फिल्मों से अभिनय की 
दुनिया में कदम रखा।  पहलवानी से पहचान तो मिली ही थी, लेकिन रामायण सीरियल
 में हनुमान के किरदार  ने दारा सिंह जी को हिंदुस्तान के दिलों में बसा 
दिया था। 
अखाड़े से फिल्मी दुनिया का सफर 
अखाड़े से फिल्मी दुनिया तक का सफर दारा सिंह जी के लिए काफी चुनौती भरा 
रहा।  दारा सिंह रंधावा का जन्म 19 नवंबर 1928 को पंजाब के अमृतसर के 
धरमूचक गांव  में बलवंत कौर और सूरत सिंह रंधावा के घर हुआ था।
 जार्ज गारडियांको को हराकर बने विश्व चैंपियन
दारा सिंह जी अपने जमाने के विश्व प्रसिद्ध फ्रीस्टाइल पहलवान थे। 
उन्होंने  1959 में विश्व चैंपियन जार्ज गारडियांको को कोलकाता में 
कामनवेल्थ खेल में  हराकर विश्व चैंपियनशिप का खिताब हासिल किया। साठ के 
दशक में पूरे भारत  में उनकी फ्री स्टाइल कुश्तियों का बोलबाला रहा। दारा 
सिंह जी ने अपने घर से  ही कुश्ती की शुरूआत की थी। 
भारतीय कुश्ती को दिलाई पहचान
दारा सिंह जी और उनके छोटे भाई सरदारा सिंह ने मिलकर पहलवानी शुरू कर दी 
और  धीरे-धीरे गांव के दंगलों से लेकर शहरों में कुश्तियां जीतकर अपने गांव
 का  नाम रोशन करना शुरू कर दिया और भारत में अपनी अलग पहचान बनाने की 
कोशिश में  जुट गए थे।
सिंगापुर से लौटकर बने चैंपियन
1947 में दारा सिंह जी सिंगापुर चले गए। वहां रहते हुए उन्होंने भारतीय 
स्टाइल  की कुश्ती में मलेशियाई चैंपियन तरलोक सिंह को पराजित कर 
कुआलालंपुर में  मलेशियाई कुश्ती चैंपियनशिप जीती थी। उसके बाद उनका विजयी 
रथ अन्य देशों की  ओर चल पड़ा और एक पेशेवर पहलवान के रूप में सभी देशों में
 अपनी धाक जमाकर  वे 1952 में भारत लौट आए। भारत आकर सन 1954 में वे भारतीय
 कुश्ती चैंपियन  बने थे।
अपराजेय रहे दारा सिंह जी 
उसके बाद उन्होंने कॉमनवेल्थ देशों का दौरा किया और विश्व चैंपियन किंगकाग
  को परास्त कर दिया था। दारा सिंह जी ने उन सभी देशों का एक-एक करके दौरा 
किया  जहां फ्रीस्टाइल कुश्तियां लड़ी जाती थीं। आखिरकार अमेरिका के विश्व 
चैंपियन  लाऊ थेज को 29 मई 1968 को पराजित कर फ्रीस्टाइल कुश्ती के विश्व 
चैंपियन  बन गए। 1983 में उन्होंने अपराजेय पहलवान के रूप में कुश्ती से 
संन्यास ले  लिया।
दारा सिंह जी का प्रेम 
जब दारा सिंह जी ने पहलवानी के क्षेत्र में अपार लोकप्रियता प्राप्त कर ली
 तभी  उन्हें अपनी पसंद की लड़की सुरजीत कौर मिल गई। आज दारा सिंह जी के 
भरे-पूरे  परिवार में तीन बेटियां और दो बेटे हैं। दारा सिंह ने अपने समय 
की मशहूर  अदाकारा मुमताज के साथ हिंदी की स्टंट फिल्मों में प्रवेश किया 
और कई  फिल्मों में अभिनेता बने। यही नहीं कई फिल्मों में वह निर्देशक व 
निर्माता  भी बने। 
हनुमान बन बटोरी लोकप्रियता
 उन्हें टीवी धारावाहिक रामायण में हनुमानजी के अभिनय से अपार लोकप्रियता  
मिली जिसके परिणाम स्वरूप भाजपा ने उन्हें राज्यसभा की सदस्यता भी प्रदान  
की। उन्होंने कई फिल्मों में अलग-अलग किरदार निभाए थे। वर्ष 2007 में आई जब
  वी मेट उनकी आखिरी फिल्म थी। वर्ष 2002 में शरारत, 2001 में फर्ज, 2000  
में दुल्हन हम ले जाएंगे, कल हो ना हो, 1999 में ज़ुल्मी, 1999 में दिल्लगी
  और इस तरह से अन्य कई फिल्में। लेकिन वर्ष 1976 में आई रामायण में जय  
बजरंग बली, हनुमानजी का किरदार निभाकर लाखों दिलों को जीत लिया था।
'रुस्तम ए हिन्द' स्व ॰ दारा सिंह जी को सभी की ओर से शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि | 
सोमवार, 8 जुलाई 2013
चौथी बरसी पर ओम दद्दा को शत शत नमन !
हास्य, व्यंग्य और कविता  प्रेमियों को ८ जुलाई'०९  को एक और सदमा लगा  |
८ जून'०९ से जिंदगी से संघर्ष कर रहे मशहूर हास्य कवि ओम व्यास 'ओम' जी का ०८ जुलाई'०९ की सुबह दिल्ली में निधन हो गया।
ज्ञात हो ओम व्यास जी ०८ जून'०९ को एक सड़क हादसे में गंभीर रूप से घायल हो गए थे। उनका दिल्ली के अपोलो अस्पताल में इलाज चल रहा था।
उल्लेखनीय है कि विदिशा में आयोजित बेतवा महोत्सव से भोपाल लौट रहे कवियों का वाहन दुर्घटनाग्रस्त हो गया था।
इस हादसे में हास्य कवि ओम प्रकाश आदित्य, लाड सिंह और नीरज पुरी की मौके पर ही मौत हो गई थी जबकि ओम व्यास गंभीर रूप से घायल हो गए थे। सभी उनके जल्द ठीक होने की आस लगाये बैठे थे पर ..................होनी को कुछ और ही मंजूर था |
आज ठीक चार साल बीत जाने के बाद भी हिंदी साहित्य प्रेमी इस सदमे से उबार नहीं पाए है |
८ जून'०९ से जिंदगी से संघर्ष कर रहे मशहूर हास्य कवि ओम व्यास 'ओम' जी का ०८ जुलाई'०९ की सुबह दिल्ली में निधन हो गया।
ज्ञात हो ओम व्यास जी ०८ जून'०९ को एक सड़क हादसे में गंभीर रूप से घायल हो गए थे। उनका दिल्ली के अपोलो अस्पताल में इलाज चल रहा था।
उल्लेखनीय है कि विदिशा में आयोजित बेतवा महोत्सव से भोपाल लौट रहे कवियों का वाहन दुर्घटनाग्रस्त हो गया था।
इस हादसे में हास्य कवि ओम प्रकाश आदित्य, लाड सिंह और नीरज पुरी की मौके पर ही मौत हो गई थी जबकि ओम व्यास गंभीर रूप से घायल हो गए थे। सभी उनके जल्द ठीक होने की आस लगाये बैठे थे पर ..................होनी को कुछ और ही मंजूर था |
आज ठीक चार साल बीत जाने के बाद भी हिंदी साहित्य प्रेमी इस सदमे से उबार नहीं पाए है |
सभी मैनपुरी वासीयों की स्व॰ श्री ओम व्यास 'ओम' जी को विनम्र श्रद्धांजलि |
रविवार, 7 जुलाई 2013
८०० वीं पोस्ट :- शिक्षा का व्यवसायीकरण = कक्षा एक किताबें दस
सोमवार से कार्तिक गर्मियों की छुट्टी के बाद दोबारा स्कूल जाना शुरू करने वाला है ! इस साल कार्तिक का स्कूल बदला गया है और इसी भाग दौड़ के दौरान कुछ बातें पर ध्यान गया ... सोचा था कभी लिखुंगा ... सो आज हाजिर हूँ ! अनुभव थोड़े कटु है सो उसका असर आपको पढ़ने को मिलेगा ! इस साल कार्तिक कक्षा १ मे आए है !
कक्षा एक अर्थात अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान वाला पाठयक्रम जिसके एक थ्री इन वन पुस्तक भी पर्याप्त है लेकिन उसमें एक साथ दस किताबें पाठयक्रम में शामिल हैं क्योंकि ज्यों ज्यों किताबों की संख्या बढ़ती जाती है त्यों त्यों कमीशन बढ़ता जाता है। 
ज्ञातव्य है कि सत्र हुए होने से पूर्व पुस्तक विक्रेता विद्यालय संचालकों से सीधा सम्पर्क कर उनके विद्यालय की छात्र संख्या जान लेते है और एकमुश्त कमीशन का आफर देते हैं जिसमें एक मात्र शर्त होती है कि जितनी अधिक किताबें बिकेगी उतना ही कमीशन बढ़ जाएगा। इस कमीशन को बढ़ाने के लिए कक्षा एक में भी 10 पुस्तकें शामिल कर दी जाती हैं। जिनमें गौर करने लायक बात यह होती है कि जिस विद्यार्थी को अक्षर और अंकों का भी ज्ञान नहीं है उसे अंग्रेजी में लिखी सामाजिक विषय, सामान्य ज्ञान और विज्ञान की भी पुस्तकें खरीदवा दी जाती हैं। चूंकि अक्षर और अंक ही सिखाने है इसलिए शेष किताबों से वर्षभर कोई वास्ता नहीं रहता। पूरी साल बच्चा उन्हें पीठ पर लादकर स्कूल ले जाता है और लाकर फिर खूंटी पर टांग देता है।
चूंकि अभिभावक की प्रबल इच्छा है अपने बच्चे को अंग्रेजी सिखाने की, इसलिए वह कुछ खर्च करने को तैयार रहता है लेकिन वर्ष के अन्त में फिर चकित हो जाता है क्योंकि जो कुछ किताब में वर्णित है उनमें से वह कुछ भी नहीं जानता। चूंकि सब स्कूलों का एक ही हाल है इसलिए जहां जाता हैं वहीं उसे कीमती व अनावश्यक पुस्तकें खरीदनी होती है।
नया शिक्षा का सत्र एक जुलाई से शुरू हो गया है । वहीं शिक्षा विभाग नए सत्र की तैयारियों में पिछले कई दिनों से मुस्तैदी से जुटा है। इधर अभिभावक भी अपने बच्चों के प्रवेश को लेकर चिंतित है कि वह अपने बच्चे को कहां दाखिल दिलाएं। जिससे उनके बच्चे को गुणवत्तापूर्ण पूरा शैक्षिक माहौल मिल सके।
वहीं गली-गली में बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह जून-जुलाई शुरू होते ही नए नए विद्यालय खुल चुके हैं, जिनमें प्रवेश के लिए कुछ विद्यालयों की टीम तो घर घर तक जाकर तथा पम्पलेट प्रसार के माध्यम से अपनी संस्था में प्रवेश दिलाने के लिए अभिभावकों को विश्वास दिला रही है। वहीं कशमकम की स्थिति में फंसे अभिभावक यह नहीं सोच पा रहे कि आखिर वह अपने बच्चों वह अपने बच्चों को कौन से विद्यालय में प्रवेश दिलाएं।
दूसरी ओर गांव से लेकर कस्बों तक तमाम ऐसे विद्यालय मिल जाएंगे जो मानकों की धज्जियां उड़ाते नजर आएंगे। जैसा कि विद्यालय की मान्यता लेने के लिए लैन्टर्ड, बिल्डिंग, पंखा, विद्युत व्यवस्था व अन्य सुविधाओं से युक्त होना जरूरी है। साथ ही विद्यालय कितने क्षेत्रफल में है, उसके लिए भी जमीन का निर्धारण किया गया है लेकिन ऐसे तमाम स्कूल है जो विद्यालय की मान्यता लेने के मानकों को मुंह चिढ़ाते रहे है। ना तो इन विद्यालयों की छत का पता है ना क्षेत्रफल का। लेकिन कहीं टिनशैड तो कहीं छप्परों के नीचे यह विद्यालय चलाए जा रहे है। वहीं कई विद्यालय जुलाई सत्र में और देखने को मिल जाएंगे जो मानकों को पूरा नहीं करते।
शिक्षा का व्यवसायीकरण होने के चलते विद्यालय खेलने को लेकर लोगों के बीच होड़ सी लगी है। भले ही इन विद्यालयों में छात्र-छात्राओं की सुविधाओं के लिए पूर्ण व्यवस्था हो या नही। बस बच्चों की संख्या बढ़ती जाए। यदि अभिभावक अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने से पूर्व विद्यालय की व्यवस्थाओं की पूरी जानकारी लें तभी बच्चे को विद्यालय में प्रवेश दिलाये तो ऐसे विद्यालय स्वत: खत्म हो जाएंगे। लेकिन नजदीक में होने तथा फीस में थोड़ी सी सुविधा मिलने पर वह भी अन्य बातों को दरकिनार कर देते है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि मान्यता देते समय विभाग किन बातों की जांच करता है और क्या देखकर टिनशेड में चलाए जा रहे विद्यालयों को मान्यता दे देता है। जो विद्यालय की मान्यता लेने की कसौटी पर कसे भी नहीं जाते और आराम से कहीं भी किसी गली कूचे में दो कमरो के मकान में विद्यालय चलते चलते रहते है और विभाग को कोई खबर भी नहीं होती।
एक ओर शिक्षा विभाग नए सत्र के लिए बदले हुए शैक्षिक कलेवर को सुचारु रूप से लागू करने के लिए तैयारियां कर चुका है। वहीं दूसरी ओर बेसिक शिक्षा में अध्यापकों के समायोजन व स्थानान्तरण की प्रक्रिया अभी पूर्ण नहीं हो सकी है। शिक्षकों का कई विद्यालयों में अभाव है। भला कैसे उन बच्चों का विद्यालय में पहले दिन से ही अध्यापन कार्य शुरू करा जा सकेगा। हालांकि सरकार युद्ध स्तर पर नयी नयी नीतियों के साथ बेसिक एंव माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए प्रयासरत है। देखना यह है कि यह प्रयास हकीकत में कितना सफल होता है। स्कूल चलो अभियान तथा 6-14 एवं 14-18 वर्ष की उम्र का एक भी बच्चा शिक्षा पाने से वंचित न रहने पाए। इसके लिए भी न्याय पंचायत स्तर पर विभागीय अधिकारियों एवं कर्मचारियों को जिम्मेदारियां बांटी गयी है। देखना यह है कि सरकार की यह मंशा केवल कागजी घोड़ों पर ही सरपट दौड़ेंगी या हकीकत में बेहतर परिणामों के साथ उबरकर सामने आएगी। यदि ऐसा हो पाया तो निश्चित ही विकसित भारत एवं शिक्षित भारतीय होने का स्वप्न पूरा हो सकेगा।
ज्ञातव्य है कि सत्र हुए होने से पूर्व पुस्तक विक्रेता विद्यालय संचालकों से सीधा सम्पर्क कर उनके विद्यालय की छात्र संख्या जान लेते है और एकमुश्त कमीशन का आफर देते हैं जिसमें एक मात्र शर्त होती है कि जितनी अधिक किताबें बिकेगी उतना ही कमीशन बढ़ जाएगा। इस कमीशन को बढ़ाने के लिए कक्षा एक में भी 10 पुस्तकें शामिल कर दी जाती हैं। जिनमें गौर करने लायक बात यह होती है कि जिस विद्यार्थी को अक्षर और अंकों का भी ज्ञान नहीं है उसे अंग्रेजी में लिखी सामाजिक विषय, सामान्य ज्ञान और विज्ञान की भी पुस्तकें खरीदवा दी जाती हैं। चूंकि अक्षर और अंक ही सिखाने है इसलिए शेष किताबों से वर्षभर कोई वास्ता नहीं रहता। पूरी साल बच्चा उन्हें पीठ पर लादकर स्कूल ले जाता है और लाकर फिर खूंटी पर टांग देता है।
चूंकि अभिभावक की प्रबल इच्छा है अपने बच्चे को अंग्रेजी सिखाने की, इसलिए वह कुछ खर्च करने को तैयार रहता है लेकिन वर्ष के अन्त में फिर चकित हो जाता है क्योंकि जो कुछ किताब में वर्णित है उनमें से वह कुछ भी नहीं जानता। चूंकि सब स्कूलों का एक ही हाल है इसलिए जहां जाता हैं वहीं उसे कीमती व अनावश्यक पुस्तकें खरीदनी होती है।
नया शिक्षा का सत्र एक जुलाई से शुरू हो गया है । वहीं शिक्षा विभाग नए सत्र की तैयारियों में पिछले कई दिनों से मुस्तैदी से जुटा है। इधर अभिभावक भी अपने बच्चों के प्रवेश को लेकर चिंतित है कि वह अपने बच्चे को कहां दाखिल दिलाएं। जिससे उनके बच्चे को गुणवत्तापूर्ण पूरा शैक्षिक माहौल मिल सके।
वहीं गली-गली में बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह जून-जुलाई शुरू होते ही नए नए विद्यालय खुल चुके हैं, जिनमें प्रवेश के लिए कुछ विद्यालयों की टीम तो घर घर तक जाकर तथा पम्पलेट प्रसार के माध्यम से अपनी संस्था में प्रवेश दिलाने के लिए अभिभावकों को विश्वास दिला रही है। वहीं कशमकम की स्थिति में फंसे अभिभावक यह नहीं सोच पा रहे कि आखिर वह अपने बच्चों वह अपने बच्चों को कौन से विद्यालय में प्रवेश दिलाएं।
दूसरी ओर गांव से लेकर कस्बों तक तमाम ऐसे विद्यालय मिल जाएंगे जो मानकों की धज्जियां उड़ाते नजर आएंगे। जैसा कि विद्यालय की मान्यता लेने के लिए लैन्टर्ड, बिल्डिंग, पंखा, विद्युत व्यवस्था व अन्य सुविधाओं से युक्त होना जरूरी है। साथ ही विद्यालय कितने क्षेत्रफल में है, उसके लिए भी जमीन का निर्धारण किया गया है लेकिन ऐसे तमाम स्कूल है जो विद्यालय की मान्यता लेने के मानकों को मुंह चिढ़ाते रहे है। ना तो इन विद्यालयों की छत का पता है ना क्षेत्रफल का। लेकिन कहीं टिनशैड तो कहीं छप्परों के नीचे यह विद्यालय चलाए जा रहे है। वहीं कई विद्यालय जुलाई सत्र में और देखने को मिल जाएंगे जो मानकों को पूरा नहीं करते।
शिक्षा का व्यवसायीकरण होने के चलते विद्यालय खेलने को लेकर लोगों के बीच होड़ सी लगी है। भले ही इन विद्यालयों में छात्र-छात्राओं की सुविधाओं के लिए पूर्ण व्यवस्था हो या नही। बस बच्चों की संख्या बढ़ती जाए। यदि अभिभावक अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने से पूर्व विद्यालय की व्यवस्थाओं की पूरी जानकारी लें तभी बच्चे को विद्यालय में प्रवेश दिलाये तो ऐसे विद्यालय स्वत: खत्म हो जाएंगे। लेकिन नजदीक में होने तथा फीस में थोड़ी सी सुविधा मिलने पर वह भी अन्य बातों को दरकिनार कर देते है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि मान्यता देते समय विभाग किन बातों की जांच करता है और क्या देखकर टिनशेड में चलाए जा रहे विद्यालयों को मान्यता दे देता है। जो विद्यालय की मान्यता लेने की कसौटी पर कसे भी नहीं जाते और आराम से कहीं भी किसी गली कूचे में दो कमरो के मकान में विद्यालय चलते चलते रहते है और विभाग को कोई खबर भी नहीं होती।
एक ओर शिक्षा विभाग नए सत्र के लिए बदले हुए शैक्षिक कलेवर को सुचारु रूप से लागू करने के लिए तैयारियां कर चुका है। वहीं दूसरी ओर बेसिक शिक्षा में अध्यापकों के समायोजन व स्थानान्तरण की प्रक्रिया अभी पूर्ण नहीं हो सकी है। शिक्षकों का कई विद्यालयों में अभाव है। भला कैसे उन बच्चों का विद्यालय में पहले दिन से ही अध्यापन कार्य शुरू करा जा सकेगा। हालांकि सरकार युद्ध स्तर पर नयी नयी नीतियों के साथ बेसिक एंव माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए प्रयासरत है। देखना यह है कि यह प्रयास हकीकत में कितना सफल होता है। स्कूल चलो अभियान तथा 6-14 एवं 14-18 वर्ष की उम्र का एक भी बच्चा शिक्षा पाने से वंचित न रहने पाए। इसके लिए भी न्याय पंचायत स्तर पर विभागीय अधिकारियों एवं कर्मचारियों को जिम्मेदारियां बांटी गयी है। देखना यह है कि सरकार की यह मंशा केवल कागजी घोड़ों पर ही सरपट दौड़ेंगी या हकीकत में बेहतर परिणामों के साथ उबरकर सामने आएगी। यदि ऐसा हो पाया तो निश्चित ही विकसित भारत एवं शिक्षित भारतीय होने का स्वप्न पूरा हो सकेगा।
गुरुवार, 4 जुलाई 2013
क्रांतिकारी विचारक और संगठनकर्ता थे भाई भगवती चरण वोहरा
भगवती चरण वोहरा का जन्म 4 जुलाई 1903 में आगरा
 में हुआ था। उनके पिता शिव चरण वोहरा रेलवे के एक उच्च अधिकारी थे। बाद 
में वे आगरा से लाहौर चले आये। उनका परिवार आर्थिक रूप से सम्पन्न था। 
भगवती चरण की शिक्षा-दीक्षा लाहौर
 में हुई। उनका विवाह भी कम उम्र में कर दिया गया। पत्नी का नाम दुर्गा था।
 बाद के दौर में उनकी पत्नी भी क्रांतिकारी कार्यो की सक्रिय सहयोगी बनी। 
उन को क्रान्तिकारियो द्वारा दिया गया " दुर्गा भाभी " सन्बोधन एक आम सन्बोधन बन गया।
लाहौर नेशनल कालेज में शिक्षा के दौरान भगवती चरण ने रुसी 
क्रान्तिकारियो से प्रेरणा लेकर छात्रो की एक अध्ययन मण्डली का गठन किया 
था। राष्ट्र की परतंत्रता और उससे मुक्ति के प्रश्न पर केन्द्रित इस अध्ययन
 मण्डली में नियमित रूप से शामिल होने वालो में भगत सिंह , सुखदेव आदि प्रमुख थे। बाद में चलकर इन्ही लोगो ने नौजवान भारत सभा की स्थापना की। पढाई के दौरान 1921 में ही भगवती चरण गांधी जी के आह्वान पर पढाई छोडकर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े थे।
बाद में आन्दोलन वापस होने पर इन्होने कालेज की पढाई पूरी की। बीए कि 
परीक्षा पास की साथ ही नौजवान भारत सभा के गठन और कार्य को आगे बढाया। इस 
सभा के जनरल सेक्रेटी भगत सिंह और प्रोपेगंडा ( प्रचार ) सेक्रेटी भगवती 
चरण थे। अप्रैल 1928 में नौजवान भारत सभा का घोषणा पत्र प्रकाशित हुआ। भगत 
सिंह व अन्य साथियो से सलाह - मशविरे से मसविदे को तैयार करने का काम भगवती
 चरण वोहरा का था। नौजवान भारत सभा के उत्कर्ष में भगवती चरण और भगत सिंह 
का ही प्रमुख हाथ था। भगत सिंह के अलावा वे ही संगठन के प्रमुख सिद्धांतकार
 थे। क्रांतिकारी विचारक , संगठनकर्ता , वक्ता ,प्रचारकर्ता , आदर्श के 
प्रति निष्ठा व प्रतिबधता तथा उसके लिए अपराजेय हिम्मत - हौसला आदि सारे 
गुण भगवती चरण में विद्यमान थे। किसी काम को पूरे मनोयोग के साथ पूरा करने 
में भगवती चरण बेजोड़ थे। 1924 में सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल
 द्वारा "हिन्दुस्तान- प्रजातांत्रिक संघ के घोषणा पत्र - दि रिवोल्यूशनरी"
 को १ जनवरी 1925 को व्यापक से वितरित करने की प्रमुख जिम्मेदारी भगवती चरण
 पर ही थी। जिसे उन्होंने बखूबी पूरा किया। बाद के दौर में संगठन के साथियो
 में भगवती चरण के बारे में यह संदेह फैलाया गया की वे सी0 आई ० डी0 के 
आदमी है और उससे तनख्वाह पाते है। इन आरोपों को लगाने के पीछे उस समय संगठन
 में आये वे लोग थे जिन्हें किसी काम का जोखिम नही उठाना था। इसलिए भी वे 
लोग बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी भगवती चरण पर आरोप लगाकर न केवल खुद 
नेतृत्त्व में आना चाहते थे। बल्कि क्रांतिकारी कार्यवाहियों पर रोक भी 
लगाना चाहते थे। ऐसे लोगो का यह उद्देश्य भी था कि संगठन के काम को आपसी 
बहस , मुबाहिसा , प्रचार और पैसा जमा करने के काम तक सीमित कर दिया जाए। 
भगवती चरण पर सी ० आई ० ड़ी0 का आरोप लगाने वालो में प्रमुख सज्जन जयचन्द्र
 विद्यालंकार थे। वे उन दिनों नेशनल कालेज के अध्यापक भी थे। नौजवान 
क्रांतिकारी टोली पर उनके पद , ज्ञान व विद्वता की धाक भी थी। भगवती चरण 
ऐसे आरोपों से बेपरवाह रहते हुए क्रांतिकारी कार्यो को आगे बढाने में लगे 
रहते थे। उनका कहना था कि " जो उचित है उसे करते जाना उनका काम है। सफाई 
देना और नाम कमाना उनका काम नही है। "
भगवती चरण लखनऊ के काकोरी केस , लाहौर षड्यंत्र केस , और फिर लाला लाजपत राय
 को मारने वाले अंग्रेज सार्जेंट - सांडर्स की हत्या में भी आरोपित थे। पर न
 तो कभी पकड़े गये और न ही क्रांतिकारी कार्यो को करने से अपना पैर पीछे 
खीचा। इस बात का सबूत यह है कि इतने आरोपों से घिरे होने के बाद भी भगवती 
चरण ने स्पेशल ट्रेन में बैठे वायसराय को चलती ट्रेन में ही उड़ा देने का 
भरपूर प्रयास किया। इस काम में यशपाल , इन्द्रपाल , भागाराम उनके सहयोगी 
थे। महीने भर की तैयारी के बाद नियत तिथि पर गुजरती स्पेशल ट्रेन के नीचे 
बम - बिस्फोट करने में लोग कामयाब भी हो गये। परन्तु वायसराय बच गया। ट्रेन
 में खाना बनाने और खाना खाने वाला डिब्बा क्षतिग्रस्त हो गया और उसमे एक 
आदमी कि मौत हो गयी।
28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय वोहरा जी शहीद हो गए। 
आज अमर शहीद भगवती चरण वोहरा जी की ११० वीं जयंती के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते है ! 
इंकलाब ज़िंदाबाद !!!
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