आज से 123 साल पहले 11 सितंबर, 1893 को स्वामी विवेकानंद ने शिकागो
पार्लियामेंट आफ रिलीजन में भाषण दिया था, उसे आज भी दुनिया भुला नहीं
पाती। इसे रोमा रोलां ने 'ज्वाला की जबान' बताया था। इस भाषण से दुनिया के
तमाम पंथ आज भी सबक ले सकते हैं। इस अकेली घटना ने पश्चिम में भारत की एक
ऐसी छवि बना दी, जो आजादी से पहले और इसके बाद सैकड़ों राजदूत मिलकर भी नहीं
बना सके। स्वामी विवेकाननंद के इस भाषण के बाद भारत को एक अनोखी संस्कृति
के देश के रूप में देखा जाने लगा। अमेरिकी प्रेस ने विवेकानंद को उस धर्म
संसद की महानतम विभूति बताया था। उस समय अभिभूत अमेरिकी मीडिया ने स्वामी
विवेकानंद के बारे में लिखा था, 'उन्हें सुनने के बाद हमें महसूस हो रहा है
कि भारत जैसे एक प्रबुद्ध राष्ट्र में मिशनरियों को भेजकर हम कितनी बड़ी
मूर्खता कर रहे थे।'
यह
ऐसे समय हुआ, जब ब्रिटिश शासकों और ईसाई मिशनरियों का एक वर्ग भारत की
अवमानना और पाश्चात्य संस्कृति की श्रेष्ठता साबित करने में लगा हुआ था।
उदाहरण के लिए 19वीं सदी के अंत में अधिकारी से मिशनरी बने रिचर्ड टेंपल ने
'मिशनरी सोसायटी इन न्यूयार्क' को संबोधित करते हुए कहा था- भारत एक ऐसा
मजबूत दुर्ग है, जिसे ढहाने के लिए भारी गोलाबारी की जा रही है। हम झटकों
पर झटके दे रहे हैं, धमाके पर धमाके कर रहे हैं और इन सबका परिणाम
उल्लेखनीय नहीं है, लेकिन आखिरकार यह मजबूत इमारत भरभराकर गिरेगी ही। हमें
पूरी उम्मीद है कि किसी दिन भारत का असभ्य पंथ सही राह पर आ जाएगा।
जब
शिकागो धर्म संसद के पहले दिन अंत में विवेकानंद संबोधन के लिए खड़े हुए और
उन्होंने कहा- अमेरिका के भाइयो और बहनो, तो तालियों की जबरदस्त गड़गड़ाहट
के साथ उनका स्वागत हुआ, लेकिन इसके बाद उन्होंने हिंदू धर्म की जो
सारगर्भित विवेचना की, वह कल्पनातीत थी। उन्होंने यह कहकर सभी श्रोताओं के
अंतर्मन को छू लिया कि हिंदू तमाम पंथों को सर्वशक्तिमान की खोज के प्रयास
के रूप में देखते हैं। वे जन्म या साहचर्य की दशा से निर्धारित होते हैं,
प्रत्येक प्रगति के एक चरण को चिह्निंत करते हैं। अन्य तमाम पंथ कुछ मत या
सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं और समाज को इन्हें अपनाने को बाध्य करते हैं।
वे समाज के सामने केवल एक कोट पेश करते हैं, जो जैक, जान या हेनरी या इसी
तरह के अन्य लोगों को पहनाना चाहते हैं। अगर जान या हेनरी को यह कोट फिट
नहीं होता तो उन्होंने बिना कोट पहने ही जाना पड़ता है। धर्म संसद के आखिरी
सत्र में विवेकानंद ने अपने निरूपण की व्याख्या को इस तरह आगे बढ़ाया- ईसाई
एक हिंदू या बौद्ध नहीं बनता है न ही एक हिंदू या बौद्ध ईसाई बनता है,
लेकिन प्रत्येक पंथ के लोगों को एक दूसरे की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए।
उन्होंने
उम्मीद जताई कि हर पंथ के बैनर पर जल्द ही लिखा मिलेगा- समावेश, विध्वंश
नहीं। सौहार्द्र और शांति, फूट नहीं। मंत्रमुग्ध करने वाले उनके शब्द हाल
की दीवारों के भीतर ही गुम नहीं हो गए। वे अमेरिका के मानस को भेदते चले
गए, लेकिन उस समय भी आम धारणा यही थी कि हर कोई विवेकानंद से प्रभावित नहीं
हुआ। उन्हें न केवल कुछ पादरियों के क्रोध का कोपभाजन बनना पड़ा बल्कि
हिंदू धर्म के ही कुछ वर्गो ने उन्हें फक्कड़ साधु बताया जो किसी के प्रति
आस्थावान नहीं है। उन्होंने विवेकानंद पर काफी कीचड़ उछाला। उनके पास यह सब
चुपचाप झेलने के अलावा और कोई अन्य चारा नहीं था। स्वामी विवेकानंद ने तब
जबरदस्त प्रतिबद्धता का परिचय दिया, जब एक अन्य अवसर पर उन्होंने ईसाई
श्रोताओं के सामने कहा- तमाम डींगों और शेखी बखारने के बावजूद तलवार के
बिना ईसाईयत कहां कामयाब हुई? जो ईसा मसीह की बात करते हैं वे अमीरों के
अलावा किसकी परवाह करते हैं! ईसा को एक भी ऐसा पत्थर नहीं मिलेगा, जिस पर
सिर रखकर वह आप लोगों के बीच स्थान तलाश सके..आप ईसाई नहीं हैं। आप लोग फिर
से ईसा के पास जाएं। एक अन्य अवसर पर उन्होंने यह मुद्दा उठाया- आप ईसाई
लोग गैरईसाइयों की आत्मा की मुक्ति के लिए मिशनरियों को भेजते हैं। आप उनके
शरीर को भुखमरी से बचाने का प्रयास क्यों नहीं करते हैं? भूख से तड़पते
इंसान को किसी पंथ की पेशकश करना एक तरह से उसका अपमान है। साफगोई और
बेबाकी विवेकानंद का सहज गुण था। देश में वह हिंदुओं से अधिक घुलते-मिलते
नहीं थे। जब उनके आश्रम में एक अनुयायी ने उनसे पूछा कि व्यावहारिक सेवा के
लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना का उनका प्रस्ताव संन्यासी परंपरा का
निर्वहन कैसे कर पाएगा? तो उन्होंने जवाब दिया- आपकी भक्ति और मुक्ति की
कौन परवाह करता है? धार्मिक ग्रंथों में लिखे की किसे चिंता है? अगर मैं
अपने देशवासियों को उनके पैरों पर खड़ा कर सका और उन्हें कर्मयोग के लिए
प्रेरित कर सका तो मैं हजार नर्क भी भोगने के लिए तैयार हूं। मैं मात्र
रामकृष्ण परमहंस या किसी अन्य का अनुयायी नहीं हूं। मैं तो उनका अनुयायी
हूं, जो भक्ति और मुक्ति की परवाह किए बिना अनवरत दूसरों की सेवा और सहायता
में जुटे रहते हैं।
विवेकानंद
की साफगोई के बावजूद जिसने उन्हें अमेरिकियों के एक वर्ग का चहेता नहीं
बनने दिया, उन्हें हिंदुत्व के विभिन्न पहलुओं की विवेचना के लिए बाद में
भी अमेरिका से न्यौते मिलते रहे। जहां-जहां वह गए उन्होंने बड़ी बेबाकी और
गहराई से अपने विचार पेश किए। उन्होंने भारत के मूल दर्शन को विज्ञान और
अध्यात्म, तर्क और आस्था के तत्वों की कसौटी पर कसते हुए आधुनिकता के साथ
इनका सामंजस्य स्थापित किया। उनका वेदांत पर भी काफी जोर रहा। उन्होंने
बताया कि कैसे यह मानव आत्मा का शानदार उत्पाद है? यह मूलभाव में जीव की
जीव द्वारा उपासना क्यों है और इसने गहन अध्यात्म के बल पर हिंदू को एक
बेहतर हिंदू, मुस्लिम को बेहतर मुस्लिम और ईसाई को बेहतर ईसाई बनाने में
सहायता प्रदान की है।
विवेकानंद
ने यह स्पष्ट किया कि अगर वेदांत को जीवन दर्शन के रूप में न मानकर एक धर्म
के रूप में स्वीकार किया जाता है, तो यह सार्वभौमिक धर्म है- समग्र मानवता
का धर्म। इसे हिंदुत्व के साथ इसलिए जोड़ा जाता है, क्योंकि प्राचीन भारत
के हिंदुओं ने इस अवधारणा की संकल्पना की और इसे एक विचार के रूप में पेश
किया। एक अलग परिप्रेक्ष्य में श्री अरबिंदो ने भी यही भाव प्रस्तुत किया-
भारत को अपने भीतर से समूचे विश्व के लिए भविष्य के पंथ का निर्माण करना
है। एक शाश्वत पंथ जिसमें तमाम पंथों, विज्ञान, दर्शन आदि का समावेश होगा
और जो मानवता को एक आत्मा में बांधने का काम करेगा।
स्पष्ट
तौर पर मात्र एक भाषण ने ऐसी ज्योति प्रज्ज्वलित की, जिसने पाश्चात्य मानस
के अंतर्मन को प्रकाश से आलोकित कर दिया और ऊष्मा से भर दिया। इस भाषण ने
सभ्यता के महान इतिहासकार को जन्म दिया। अर्नाल्ड टोनीबी के अनुसार- मानव
इतिहास के इन अत्यंत खतरनाक क्षणों में मानवता की मुक्ति का एकमात्र तरीका
भारतीय पद्धति है। यहां वह व्यवहार और भाव है, जो मानव प्रजाति को एक साथ
एकल परिवार के रूप में विकसित होने का मौका प्रदान करता है और इस परमाणु
युग में हमारे खुद के विध्वंस से बचने का यही एकमात्र विकल्प है।
- जगमोहन [लेखक जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल हैं]
बहुत सुन्दर संकलन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंस्वामी जी को नमन!