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शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

होरी को हीरो बनाने वाले रचनाकार :- प्रेमचंद



वाराणसी शहर से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर लमही गांव में अंग्रेजों के राज में 1880 में पैदा हुए मुंशी प्रेमचंद न सिर्फ हिंदी साहित्य के सबसे महान कहानीकार माने जाते हैं, बल्कि देश की आजादी की लड़ाई में भी उन्होंने अपने लेखन से नई जान फूंक दी थी। प्रेमचंद का मूल नाम धनपत राय था।

वाराणसी शहर से दूर 129 वर्ष पहले कायस्थ, दलित, मुस्लिम और ब्राह्माणों की मिली जुली आबादी वाले इस गांव में पैदा हुए मुंशी प्रेमचंद ने सबसे पहले जब अपने ही एक बुजुर्ग रिश्तेदार के बारे में कुछ लिखा और उस लेखन का उन्होंने गहरा प्रभाव देखा तो तभी उन्होंने निश्चय कर लिया कि वह लेखक बनेंगे।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र के प्रोफेसर वीरभारत तलवार ने बताया कि मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य को निश्चय ही एक नया मोड़ दिया और हिंदी में कथा साहित्य को उत्कर्ष पर पहुंचा दिया। प्रेमचंद ने यह सिद्ध कर दिया कि वर्तमान युग में कथा के माध्यम की सबसे अधिक उपयोगिता है। उन्होंने हिंदी की ओजस्विनी वाणी को आगे बढ़ाना अपना प्रथम कर्तव्य समझा, इसलिए उन्होंने नई बौद्धिक जन परंपरा को जन्म दिया।

प्रेमचंद ने जब उर्दू साहित्य छोड़कर हिंदी साहित्य में पदार्पण किया तो उस समय हिंदी भाषा और साहित्य पर बांग्ला साहित्य का प्रभाव छा रहा था। हिंदी को विस्तृत चिंतन भूमि तो मिल गई थी, पर उसका स्वत्व खो रहा था। देश विदेश में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ रही है तथा आलोचकों के अनुसार उनके साहित्य का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि वह अपने साहित्य में ग्रामीण जीवन की तमाम दारुण परिस्थितियों को चित्रित करने के बावजूद मानवीयता की अलख को जगाए रखते हैं। साहित्य समीक्षकों के अनुसार प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में कृषि प्रधान समाज, जाति प्रथा, महाजनी व्यवस्था, रूढि़वाद की जो गहरी समझ देखने को मिलती है, उसका कारण ऐसी बहुत सी परिस्थितियों से प्रेमचंद का स्वयं गुजरना था।

प्रेमचंद के जीवन का एक बड़ा हिस्सा घोर निर्धनता में गुजरा था। कहानीकार एवं अलीगढ़ के धर्म समाज कालेज के हिंदी विभागाध्यक्ष डा. वेद प्रकाश अमिताभ के अनुसार प्रेमचंद की कलम में कितनी ताकत है, इसका पता इसी बात से चलता है कि उन्होंने होरी को हीरो बना दिया। होरी ग्रामीण परिवेश का एक हारा हुआ चरित्र है, लेकिन प्रेमचंद की नजरों ने उसके भीतर विलक्षण मानवीय गुणों को खोज लिया। अमिताभ के अनुसार प्रेमचंद का मानवीय दृष्टिकोण अद्भुत था। वह समाज से विभिन्न चरित्र उठाते थे। मनुष्य ही नहीं पशु तक उनके पात्र होते थे। उन्होंने हीरा मोती में दो बैलों की जोड़ी, आत्माराम में तोते को पात्र बनाया। गोदान की कथाभूमि में गाय तो है ही। अमिताभ ने कहा कि प्रेमचंद ने अपने साहित्य में खोखले यथार्थवाद को प्रश्रय नहीं दिया। प्रेमचंद के खुद के शब्दों में वह आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद के प्रबल समर्थक हैं। उनके साहित्य में मानवीय समाज की तमाम समस्याएं हैं तो उनके समाधान भी हैं।

वरिष्ठ लेखक एवं कवि धनंजय सिंह के अनुसार प्रेमचंद का लेखन ग्रामीण जीवन के प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में इसलिए सामने आता है क्योंकि इन परिस्थितियों से वह स्वयं गुजरे थे। अन्याय, अत्याचार, दमन, शोषण आदि का प्रबल विरोध करते हुए भी वह समन्वय के पक्षपाती थे। सिंह ने कहा कि प्रेमचंद अपने साहित्य में संघर्ष की बजाय विचारों के जरिए परिवर्तन की पैरवी करते हैं। उनके दृष्टिकोण में आदमी को विचारों के जरिए संतुष्ट करके उसका हृदय परिवर्तित किया जा सकता है। इस मामले में वह गांधी दर्शन के ज्यादा करीब दिखाई देते हैं। लेखन के अलावा उन्होंने मर्यादा, माधुरी, जागरण और हंस पत्रिकाओं का संपादन भी किया।

प्रेमचंद के शुरूआती उपन्यासों में रूठी रानी, कृष्णा, वरदान, प्रतिज्ञा और सेवासदन शामिल है। कहा जाता है कि सरस्वती के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी से मिली प्रेरणा के कारण उन्होने हिन्दी उपन्यास सेवासदन लिखा था। बाद में उनके उपन्यास प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कर्मभूमि और गोदान छपा। गोदान प्रेमचंद का सबसे परिपक्व उपन्यास माना जाता है। उनका अंतिम उपन्यास मंगलसूत्र अपूर्ण रहा। समीक्षकों के अनुसार प्रेमचंद की सर्जनात्मक प्रतिभा उनकी कहानियों में कहीं बेहतर ढंग से उभरकर सामने आई है।

उन्होंने 300 से अधिक कहानियां लिखी। प्रेमचंद की नमक का दरोगा, ईदगाह, पंच परमेश्वर, बड़े भाई साहब, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी और कफन जैसी कहानियां आज विश्व साहित्य का हिस्सा बन चुकी हैं। प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य में आते ही हिंदी की सहज गंभीरता और विशालता को भाव-बाहुल्य और व्यक्ति विलक्षणता से उबारने का दृढ़ संकल्प लिया। जहां तक रीति-काल की मांसल श्रृंगारिता के प्रति विद्रोह करने की बात थी प्रेमचंद अपने युग के साथ थे पर इसके साथ ही साहित्य में शिष्ट और ग्राम्य के नाम पर जो नई दीवार बन रही थी, उस दीवार को ढहाने में ही उन्होंने हिंदी का कल्याण समझा। हिंदी भाषा रंगीन होने के साथ-साथ दुरूह, कृत्रिम और पराई होने लगी थी। चिंतन भी कोमल होने के नाम पर जन अकांक्षाओं से विलग हो चुका था। हिंदी वाणी को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने एक नई बौद्धिक जन परम्परा को जन्म दिया।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के हिंदी के विद्वान मैनेजर पांडेय कहते हैं कि यदि देवकीनंदन खत्री और किशोरी लाल गोस्वामी ने अपने तिलिस्मी और रोमांचकारी उपन्यासों द्वारा हिंदी के पाठक बढ़ाए तो प्रेमचंद ने हिंदी के कथा सहित्य को उत्कर्ष सीमा पर पहुंचा दिया और सिद्ध कर दिया कि इस युग में कथा के माध्यम की सबसे अधिक उपयोगिता है। लमही में प्रेमचंद के गांव में उनके जन्मस्थल पर लोक पुस्तकालय चला रहे सुरेशचंद्र दूबे ने बताया कि हिंदी साहित्य में और विशेषकर दलितों के लिए प्रेमचंद ने जो कुछ किया है वह अनोखा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक आने वाली सरकार ने उनके साहित्य और उनकी सोच को समाज में आगे बढ़ाने के लिए कुछ खास नहीं किया। उन्होंने कहा कि विशेष कर दलितों की मसीहा बनने वाली वर्तमान सरकार ने तो उनके जन्मस्थल और साहित्य दोनों की घोर उपेक्षा की है जो उसे शोभा नहीं देता।

गांव के ही मुन्नू पटेल कहते हैं कि उनके गांव में प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से अधिक पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने कार्य किए और प्रेमचंद जैसे साहित्यकार की याद में उनके स्मारक को कम से कम वर्तमान स्वरूप प्रदान किया। मैनेजर पांडेय कहते हैं कि हिंदी साहित्य में कहानी के क्षेत्र में भले ही प्रेमचंद के साथ दूसरों के भी नाम गिनाए जा सकते हैं, लेकिन उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद का स्थान अभी तक मूर्धन्य बना हुआ है। उनकी कला का उत्कर्ष जब सचमुच पूर्णता को प्राप्त हुआ और वे सूक्ष्म अन्तर्मन में बैठकर मानव मन को छूने लगे तभी अचानक वह दुनिया से चल बसे, इसलिए जितना वह कहानी साहित्य को दे सकते थे, उतना नहीं दे पाए। प्रेमचंद ने कुल लगभग दो सौ कहानियां लिखी हैं। उनकी कहानियों का वातावरण बुन्देलखंडी वीरतापूर्ण कहानियों तथा ऐतिहासिक कहानियों को छोड़कर वर्तमान देहात और नगर के निम्न मध्यवर्ग का है। उनकी कहानियों में वातावरण का बहुत ही सजीव और यथार्थ अंकन मिलता है। जितना आत्मविभोर होकर प्रेमचंद ने देहात के पा‌र्श्वचित्र लिए हैं उतना शायद ही दूसरा कोई भी कहानीकार ले सका हो। इस चित्रण में उनके गांव लमही और पूर्वाचल की मिट्टी की महक साफ परिलक्षित होती है। तलवार कहते हैं कि प्रेमचंद की कहानियां सद्गति, दूध का दाम, ठाकुर का कुआं, पूस की रात, गुल्ली डंडा, बड़े भाई साहब आदि सहज ही लोगों के मन मस्तिष्क पर छा जाती हैं और इनका हिंदी साहित्य में जोड़ नहीं है।

उन्होंने कहा कि प्रेमचंद्र से बड़ा कहानीकार हिंदी साहित्य में दूसरा कोई नहीं हुआ। इसके अलावा देश की स्वाधीनता के लिए भी उन्होंने अनेक झकझोरने वाली कहानियां लिखीं और स्वयं एक पत्र में लिखा कि मेरे जीवन का उद्देश्य यह है कि देश की आजादी की लड़ाई के लिए साहित्य लेखन करूं। कहानीकार के अलावा प्रेमचंद आलोचक, नाटककार, निबंधकार, संपादक और अनुवादक भी थे। आलोचना के माध्यम से उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के अपनी मान्यताओं को सामने रखा है। उनके नाटक 'संग्राम' और 'कर्बला' हैं।

प्रेमचंद की अनुवाद कृतियों में सृष्टि का आरंभ [बर्नार्ड शा], टालस्टाय की कहानियां, सुखदास [जार्ज इलियट का साइलस मानर], अहंकार [अनातोले फ्रांस कृत थाया], चांदी की डिबिया, न्याय, हड़ताल [तीनों गाल्सवादी के नाटकों के अनुवाद] और आजाद कथा [रतननाथ सरशार] आदि शामिल हैं। मैनेजर पांडेय और सुरेशचंद्र दूबे मानते हैं कि निम्न-मध्यवर्ग के कुलीन कायस्थ अजायबलाल के पुत्र प्रेमचंद के जीवन की लगभग अंतिम मानी जाने वाली कहानी 'कफन' ने तो हिंदी कहानी की दिशा ही बदल दी।

हिंदी साहित्य के सबसे महान कहानीकार को सभी मैनपुरी वासीयों का शत शत नमन |

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