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रविवार, 30 दिसंबर 2018

डॉ॰ विक्रम साराभाई की ४७ वीं पुण्यतिथि

विक्रम अंबालाल साराभाई (१२ अगस्त, १९१९- ३० दिसंबर, १९७१) भारत के प्रमुख वैज्ञानिक थे। इन्होंने ८६ वैज्ञानिक शोध पत्र लिखे एवं ४० संस्थान खोले। इनको विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में सन १९६६ में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
डॉ॰ विक्रम साराभाई के नाम को भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम से अलग नहीं किया जा सकता। यह जगप्रसिद्ध है कि वह विक्रम साराभाई ही थे जिन्होंने अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में भारत को अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर स्थान दिलाया। लेकिन इसके साथ-साथ उन्होंने अन्य क्षेत्रों जैसे वस्त्र, भेषज, आणविक ऊर्जा, इलेक्ट्रानिक्स और अन्य अनेक क्षेत्रों में भी बराबर का योगदान किया।

परिचय

डॉ॰ साराभाई के व्यक्तित्व का सर्वाधिक उल्लेखनीय पहलू उनकी रूचि की सीमा और विस्तार तथा ऐसे तौर-तरीके थे जिनमें उन्होंने अपने विचारों को संस्थाओं में परिवर्तित किया। सृजनशील वैज्ञानिक, सफल और दूरदर्शी उद्योगपति, उच्च कोटि के प्रवर्तक, महान संस्था निर्माता, अलग किस्म के शिक्षाविद, कला पारखी, सामाजिक परिवर्तन के ठेकेदार, अग्रणी प्रबंध प्रशिक्षक आदि जैसी अनेक विशेषताएं उनके व्यक्तित्व में समाहित थीं। उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि वे एक ऐसे उच्च कोटि के इन्सान थे जिसके मन में दूसरों के प्रति असाधारण सहानुभूति थी। वह एक ऐसे व्यक्ति थे कि जो भी उनके संपर्क में आता, उनसे प्रभावित हुए बिना न रहता। वे जिनके साथ भी बातचीत करते, उनके साथ फौरी तौर पर व्यक्तिगत सौहार्द स्थापित कर लेते थे। ऐसा इसलिए संभव हो पाता था क्योंकि वे लोगों के हृदय में अपने लिए आदर और विश्वास की जगह बना लेते थे और उन पर अपनी ईमानदारी की छाप छोड़ जाते थे।

आरम्भिक जीवन

डॉ॰ विक्रम साराभाई का अहमदाबाद में 12 अगस्त 1919 को एक समृध्द जैन परिवार में जन्म हुआ। अहमदाबाद में उनका पैत्रिक घर न्न द रिट्रीट#न्न में उनके बचपन के समय सभी क्षेत्रों से जुड़े महत्वपूर्ण लोग आया करते थे। इसका साराभाई के व्यक्तित्व के विकास पर महत्वपूर्ण असर पड़ा। उनके पिता का नाम श्री अम्बालाल साराभाई और माता का नाम श्रीमती सरला साराभाई था। विक्रम साराभाई की प्रारम्भिक शिक्षा उनकी माता सरला साराभाई द्वारा मैडम मारिया मोन्टेसरी की तरह शुरू किए गए पारिवारिक स्कूल में हुई। गुजरात कॉलेज से इंटरमीडिएट तक विज्ञान की शिक्षा पूरी करने के बाद वे 1937 में कैम्ब्रिज (इंग्लैंड) चले गए जहां 1940 में प्राकृतिक विज्ञान में ट्राइपोज डिग्री प्राप्त की। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने पर वे भारत लौट आए और बंगलौर स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान में नौकरी करने लगे जहां वह सी. वी. रमण के निरीक्षण में कॉसमिक रेज़ पर अनुसंधान करने लगे।

उन्होंने अपना पहला अनुसंधान लेख न्न टाइम डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ कास्मिक रेज़ न्न भारतीय विज्ञान अकादमी की कार्यविवरणिका में प्रकाशित किया। वर्ष 1940-45 की अवधि के दौरान कॉस्मिक रेज़ पर साराभाई के अनुसंधान कार्य में बंगलौर और कश्मीर-हिमालय में उच्च स्तरीय केन्द्र के गेइजर-मूलर गणकों पर कॉस्मिक रेज़ के समय-रूपांतरणों का अध्ययन शामिल था। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर वे कॉस्मिक रे भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अपनी डाक्ट्रेट पूरी करने के लिए कैम्ब्रिज लौट गए। 1947 में उष्णकटीबंधीय अक्षांक्ष (ट्रॉपीकल लैटीच्यूड्स) में कॉस्मिक रे पर अपने शोधग्रंथ के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उन्हें डाक्ट्ररेट की उपाधि से सम्मानित किया गया। इसके बाद वे भारत लौट आए और यहां आ कर उन्होंने कॉस्मिक रे भौतिक विज्ञान पर अपना अनुसंधान कार्य जारी रखा। भारत में उन्होंने अंतर-भूमंडलीय अंतरिक्ष, सौर-भूमध्यरेखीय संबंध और भू-चुम्बकत्व पर अध्ययन किया।

स्वप्न-द्रष्टा

डॉ॰ साराभाई एक स्वप्नद्रष्टा थे और उनमें कठोर परिश्रम की असाधारण क्षमता थी। फ्रांसीसी भौतिक वैज्ञानिक पीएरे क्यूरी (1859-1906) जिन्होंने अपनी पत्नी मैरी क्यूरी (1867-1934) के साथ मिलकर पोलोनियम और रेडियम का आविष्कार किया था, के अनुसार डॉ॰ साराभाई का उद्देश्य जीवन को स्वप्न बनाना और उस स्वप्न को वास्तविक रूप देना था। इसके अलावा डॉ॰ साराभाई ने अन्य अनेक लोगों को स्वप्न देखना और उस स्वप्न को वास्तविक बनाने के लिए काम करना सिखाया। भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की सफलता इसका प्रमाण है।
डॉ॰ साराभाई में एक प्रवर्तक वैज्ञानिक, भविष्य द्रष्टा, औद्योगिक प्रबंधक और देश के आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक उत्थान के लिए संस्थाओं के परिकाल्पनिक निर्माता का अद्भुत संयोजन था। उनमें अर्थशास्त्र और प्रबंध कौशल की अद्वितीय सूझ थी। उन्होंने किसी समस्या को कभी कम कर के नहीं आंका। उनका अधिक समय उनकी अनुसंधान गतिविधियों में गुजरा और उन्होंने अपनी असामयिक मृत्युपर्यन्त अनुसंधान का निरीक्षण करना जारी रखा। उनके निरीक्षण में 19 लोगों ने अपनी डाक्ट्रेट का कार्य सम्पन्न किया। डॉ॰ साराभाई ने स्वतंत्र रूप से और अपने सहयोगियों के साथ मिलकर राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 86 अनुसंधान लेख लिखे।
कोई भी व्यक्ति बिना किसी डर या हीन भावना के डॉ॰ साराभाई से मिल सकता था, फिर चाहे संगठन में उसका कोई भी पद क्यों न रहा हो। साराभाई उसे सदा बैठने के लिए कहते। वह बराबरी के स्तर पर उनसे बातचीत कर सकता था। वे व्यक्तिविशेष को सम्मान देने में विश्वास करते थे और इस मर्यादा को उन्होंने सदा बनाये रखने का प्रयास किया। वे सदा चीजों को बेहतर और कुशल तरीके से करने के बारे में सोचते रहते थे। उन्होंने जो भी किया उसे सृजनात्मक रूप में किया। युवाओं के प्रति उनकी उद्विग्नता देखते ही बनती थी। डॉ॰ साराभाई को युवा वर्ग की क्षमताओं में अत्यधिक विश्वास था। यही कारण था कि वे उन्हें अवसर और स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए सदा तैयार रहते थे।

महान संस्थान निर्माता

डॉ॰ साराभाई एक महान संस्थान निर्माता थे। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी संख्या में संस्थान स्थापित करने में अपना सहयोग दिया। साराभाई ने सबसे पहले अहमदाबाद वस्त्र उद्योग की अनुसंधान एसोसिएशन (एटीआईआरए) के गठन में अपना सहयोग प्रदान किया। यह कार्य उन्होंने कैम्ब्रिज से कॉस्मिक रे भौतिकी में डाक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त कर लौटने के तत्काल बाद हाथ में लिया। उन्होंने वस्त्र प्रौद्योगिकी में कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था। एटीआईआरए का गठन भारत में वस्त्र उद्योग के आधुनिकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। उस समय कपड़े की अधिकांश मिलों में गुणवत्ता नियंत्रण की कोई तकनीक नहीं थी। डॉ॰ साराभाई ने विभिन्न समूहों और विभिन्न प्रक्रियाओं के बीच परस्पर विचार-विमर्श के अवसर उपलब्ध कराए। डॉ॰ साराभाई द्वारा स्थापित कुछ सर्वाधिक जानी-मानी संस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं- भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल), अहमदाबाद; भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद; सामुदायिक विज्ञान केन्द्र; अहमदाबाद, दर्पण अकादमी फॉर परफार्मिंग आट्र्स, अहमदाबाद; विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र, तिरूवनंतपुरम; स्पेस एप्लीकेशन्स सेंटर, अहमदाबाद; फास्टर ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर (एफबीटीआर) कलपक्कम; वैरीएबल एनर्जी साईक्लोट्रोन प्रोजक्ट, कोलकाता; भारतीय इलेक्ट्रानिक निगम लिमिटेड (ईसीआईएल) हैदराबाद और भारतीय यूरेनियम निगम लिमिटेड (यूसीआईएल) जादुगुडा, बिहार।

विज्ञान और संस्कृति

डॉ॰ होमी जे. भाभा की जनवरी, 1966 में मृत्यु के बाद डॉ॰ साराभाई को परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष का कार्यभार संभालने को कहा गया। साराभाई ने सामाजिक और आर्थिक विकास की विभिन्न गतिविधियों के लिए अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी में छिपी हुई व्यापक क्षमताओं को पहचान लिया था। इन गतिविधियों में संचार, मौसम विज्ञानमौसम संबंधी भविष्यवाणी और प्राकृतिक संसाधनों के लिए अन्वेषण आदि शामिल हैं। डॉ॰ साराभाई द्वारा स्थापित भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अहमदाबाद ने अंतरिक्ष विज्ञान में और बाद में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में अनुसंधान का पथ प्रदर्शन किया। साराभाई ने देश की रॉकेट प्रौद्योगिकी को भी आगे बढाया। उन्होंने भारत में उपग्रह टेलीविजन प्रसारण के विकास में भी अग्रणी भूमिका निभाई।
डॉ॰ साराभाई भारत में भेषज उद्योग के भी अग्रदूत थे। वे भेषज उद्योग से जुड़े उन चंद लोगों में से थे जिन्होंने इस बात को पहचाना कि गुणवत्ता के उच्च्तम मानक स्थापित किए जाने चाहिए और उन्हें हर हालत में बनाए रखा जाना चाहिए। यह साराभाई ही थे जिन्होंने भेषज उद्योग में इलेक्ट्रानिक आंकड़ा प्रसंस्करण और संचालन अनुसंधान तकनीकों को लागू किया। उन्होंने भारत के भेषज उद्योग को आत्मनिर्भर बनाने और अनेक दवाइयों और उपकरणों को देश में ही बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साराभाई देश में विज्ञान की शिक्षा की स्थिति के बारे में बहुत चिन्तित थे। इस स्थिति में सुधार लाने के लिए उन्होंने सामुदायिक विज्ञान केन्द्र की स्थापना की थी।
डॉ॰ साराभाई सांस्कृतिक गतिविधियों में भी गहरी रूचि रखते थे। वे संगीत, फोटोग्राफी, पुरातत्व, ललित कलाओं और अन्य अनेक क्षेत्रों से जुड़े रहे। अपनी पत्नी मृणालिनी के साथ मिलकर उन्होंने मंचन कलाओं की संस्था दर्पण का गठन किया। उनकी बेटी मल्लिका साराभाई बड़ी होकर भारतनाट्यम और कुचीपुड्डी की सुप्रसिध्द नृत्यांग्ना बनीं।
डॉ॰ साराभाई का कोवलम, तिरूवनंतपुरम (केरल) में 30 दिसम्बर 1971 को देहांत हो गया। इस महान वैज्ञानिक के सम्मान में तिरूवनंतपुरम में स्थापित थुम्बा इक्वेटोरियल रॉकेट लाँचिंग स्टेशन (टीईआरएलएस) और सम्बध्द अंतरिक्ष संस्थाओं का नाम बदल कर विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र रख दिया गया। यह भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के एक प्रमुख अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र के रूप में उभरा है। 1974 में सिडनी स्थित अंतर्राष्ट्रीय खगोल विज्ञान संघ ने निर्णय लिया कि 'सी ऑफ सेरेनिटी' पर स्थित बेसल नामक मून क्रेटर अब साराभाई क्रेटर के नाम से जाना जाएगा।

४७ वीं पुण्यतिथि  के अवसर पर डॉ॰ विक्रम साराभाई को शत शत नमन |

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

अमर शहीद ऊधम सिंह जी की ११९ वीं जयंती



आज २६ दिसम्बर है ... आज अमर शहीद ऊधम सिंह जी की ११९ वीं जयंती है |


लोगों में आम धारणा है कि ऊधम सिंह ने जनरल डायर को मारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया था, लेकिन भारत के इस सपूत ने डायर को नहीं, बल्कि माइकल ओडवायर को मारा था जो अमृतसर में बैसाखी के दिन हुए नरसंहार के समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था।
ओडवायर के आदेश पर ही जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में सभा कर रहे निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई थीं। ऊधम सिंह इस घटना के लिए ओडवायर को जिम्मेदार मानते थे।
26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में जन्मे ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी, जिसे उन्होंने अपने सैकड़ों देशवासियों की सामूहिक हत्या के 21 साल बाद खुद अंग्रेजों के घर में जाकर पूरा किया।
इतिहासकार डा. सर्वदानंदन के अनुसार ऊधम सिंह सर्वधर्म समभाव के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आजाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है।
ऊधम सिंह अनाथ थे। सन 1901 में ऊधम सिंह की माता और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया। इस घटना के चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी।
ऊधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था, जिन्हें अनाथालय में क्रमश: ऊधम सिंह और साधु सिंह के रूप में नए नाम मिले।
अनाथालय में ऊधम सिंह की जिंदगी चल ही रही थी कि 1917 में उनके बड़े भाई का भी देहांत हो गया और वह दुनिया में एकदम अकेले रह गए। 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।
डा. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी तथा रोलट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियांवाला बाग में लोगों ने 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा रखी जिसमें ऊधम सिंह लोगों को पानी पिलाने का काम कर रहे थे।
माइकल ओडवायर

ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर
इस सभा से तिलमिलाए पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडवायर ने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर को आदेश दिया कि वह भारतीयों को सबक सिखा दे। इस पर जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग को घेर लिया और मशीनगनों से अंधाधुंध गोलीबारी कर दी, जिसमें सैकड़ों भारतीय मारे गए।
जान बचाने के लिए बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएं में छलांग लगा दी। बाग में लगी पट्टिका पर लिखा है कि 120 शव तो सिर्फ कुएं से ही मिले।
आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या 379 बताई गई, जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए थे। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या 1500 से अधिक थी, जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डाक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से अधिक थी। राजनीतिक कारणों से जलियांवाला बाग में मारे गए लोगों की सही संख्या कभी सामने नहीं आ पाई।
इस घटना से वीर ऊधम सिंह तिलमिला गए और उन्होंने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओडवायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली। ऊधम सिंह अपने काम को अंजाम देने के उद्देश्य से 1934 में लंदन पहुंचे। वहां उन्होंने एक कार और एक रिवाल्वर खरीदी तथा उचित समय का इंतजार करने लगे।
गिरफ्तारी के तुरंत बाद का चित्र 
भारत के इस योद्धा को जिस मौके का इंतजार था, वह उन्हें 13 मार्च 1940 को उस समय मिला, जब माइकल ओडवायर लंदन के काक्सटन हाल में एक सभा में शामिल होने के लिए गया।
ऊधम सिंह ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवाल्वर के आकार में काटा और उनमें रिवाल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए। सभा के अंत में मोर्चा संभालकर उन्होंने ओडवायर को निशाना बनाकर गोलियां दागनी शुरू कर दीं।
ओडवायर को दो गोलियां लगीं और वह वहीं ढेर हो गया। अदालत में ऊधम सिंह से पूछा गया कि जब उनके पास और भी गोलियां बचीं थीं, तो उन्होंने उस महिला को गोली क्यों नहीं मारी जिसने उन्हें पकड़ा था। इस पर ऊधम सिंह ने जवाब दिया कि हां ऐसा कर मैं भाग सकता था, लेकिन भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है।
31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में ऊधम सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया जिसे उन्होंने हंसते हंसते स्वीकार कर लिया। ऊधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते। 31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने ऊधम सिंह के अवशेष भारत को सौंप दिए। ओडवायर को जहां ऊधम सिंह ने गोली से उड़ा दिया, वहीं जनरल डायर कई तरह की बीमारियों से घिर कर तड़प तड़प कर बुरी मौत मारा गया।
 
भारत माँ के इस सच्चे सपूत को हमारा शत शत नमन |
 
इंकलाब ज़िंदाबाद !!!

मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

सर चार्ली चैप्लिन की ४१ वीं पुण्यतिथि




सर चार्ल्स स्पेन्सर चैप्लिन, KBE (16 अप्रैल 1889 - 25 दिसम्बर 1977) एक अंग्रेजी हास्य अभिनेता और फिल्म निर्देशक थे.चैप्लिन, सबसे प्रसिद्ध कलाकारों में से एक होने के अलावा अमेरिकी सिनेमा के क्लासिकल हॉलीवुड युग के प्रारंभिक से मध्य तक एक महत्वपूर्ण फिल्म निर्माता, संगीतकार और संगीतज्ञ थे.
चैप्लिन, मूक फिल्म युग के सबसे रचनात्मक और प्रभावशाली व्यक्तित्वों में से एक थे जिन्होंने अपनी फिल्मों में अभिनय, निर्देशन, पटकथा, निर्माण और अंततः संगीत दिया.मनोरंजन के कार्य में उनके जीवन के 75 वर्ष बीते, विक्टोरियन मंच और यूनाइटेड किंगडम के संगीत कक्ष में एक शिशु कलाकार से लेकर 88 वर्ष की आयु में लगभग उनकी मृत्यु तक।उनकी उच्च-स्तरीय सार्वजनिक और निजी जिंदगी में अतिप्रशंसा और विवाद दोनों सम्मिलित हैं। 1919 में मेरी पिकफोर्ड, डगलस फेयरबैंक्स और डी.डब्ल्यू.ग्रिफ़िथ के साथ चैप्लिन ने यूनाइटेङ आर्टिस्टस की सह-स्थापना की।
चैप्लिन: अ लाइफ (2008) किताब की समीक्षा में, मार्टिन सिएफ्फ़ ने लिखा की: "चैप्लिन सिर्फ 'बड़े' ही नहीं थे, वे विराट् थे।1915 में, वे एक युद्ध प्रभावित विश्व में हास्य, हँसी और राहत का उपहार लाए जब यह प्रथम विश्व युद्ध के बाद बिखर रहा था। अगले 25 वर्षों में, महामंदी और हिटलर के उत्कर्ष के दौरान, वह अपना काम करते रहे। वह सबसे बड़े थे।यह संदिग्ध है की किसी व्यक्ति ने कभी भी इतने सारे मनुष्यों को इससे अधिक मनोरंजन, सुख और राहत दी हो जब उनको इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।"
 
 
आज सर चार्ली चैप्लिन की ४१ वीं पुण्यतिथि  है ... इस मौके पर हम सब इस महान कलाकार को शत शत नमन करते है |

शनिवार, 22 दिसंबर 2018

राष्ट्रीय गणित दिवस - महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन की १३१ वीं जयंती

गणित के जादूगर - श्रीनिवास रामानुजन (22/12/1887 - 26/04/1920)

महज 32 साल की उम्र में दुनिया से विदा हो गए रामानुजन, लेकिन इस कम समय में भी वह गणित में ऐसा अध्याय छोड़ गए, जिसे भुला पाना मुश्किल है। अंकों के मित्र कहे जाने वाले इस जुनूनी गणितज्ञ की क्या है कहानी? 
 
जुनून जब हद से गुजरता है, तो जन्म होता है रामानुजन जैसी शख्सियत का। स्कूली शिक्षा भी पूरी न कर पाने के बावजूद वे दुनिया के महानतम गणितज्ञों में शामिल हो गए, तो इसकी एक वजह थी गणित के प्रति उनका पैशन। सुपर-30 के संस्थापक और गणितज्ञ आनंद कुमार की मानें, तो रामानुजन ने गणित के ऐसे फार्मूले दिए, जिसे आज गणित के साथ-साथ टेक्नोलॉजी में भी प्रयोग किया जाता है। उनके फार्मूलों को समझना आसान नहीं है। यदि कोई पूरे स्पष्टीकरण के साथ उनके फार्मूलों को समझ ले, तो कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से उसे पीएचडी की उपाधि आसानी से मिल सकती है। 
 
अंकों से दोस्ती
22 दिसंबर, 1887 को मद्रास [अब चेन्नई] के छोटे से गांव इरोड में जन्म हुआ था श्रीनिवास रामानुजन का। पिता श्रीनिवास आयंगर कपड़े की फैक्ट्री में क्लर्क थे। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, लेकिन बच्चे की अच्छी परवरिश के लिए वे सपरिवार कुंभकोणम शहर आ गए। हाईस्कूल तक रामानुजन सभी विषयों में अच्छे थे। पर गणित उनके लिए एक स्पेशल प्रोजेक्ट की तरह था, जो धीरे-धीरे जुनून की शक्ल ले रहा था। सामान्य से दिखने वाले इस स्टूडेंट को दूसरे विषयों की क्लास बोरिंग लगती। वे जीव विज्ञान और सामाजिक विज्ञान की क्लास में भी गणित के सवाल हल करते रहते। 
 
छिन गई स्कॉलरशिप
चमकती आंखों वाले छात्र रामानुजन को अटपटे सवाल पूछने की आदत थी। जैसे विश्व का पहला पुरुष कौन था? पृथ्वी और बादलों के बीच की दूरी कितनी होती है? बेसिर-पैर के लगने वाले सवाल पूछने वाले रामानुजन शरारती बिल्कुल भी नहीं थे। वह सबसे अच्छा व्यवहार करते थे, इसलिए स्कूल में काफी लोकप्रिय भी थे। दसवीं तक स्कूल में अच्छा परफॉर्म करने की वजह से उन्हें स्कॉलरशिप तो मिली, लेकिन अगले ही साल उसे वापस ले लिया गया। कारण यह था कि गणित के अलावा वे बाकी सभी विषयों की अनदेखी करने लगे थे। फेल होने के बाद स्कूल की पढ़ाई रुक गई। 
 
कम नहीं हुआ हौसला
अब पढ़ाई जारी रखने का एक ही रास्ता था। वे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगे। इससे उन्हें पांच रुपये महीने में मिल जाते थे। पर गणित का जुनून मुश्किलें बढ़ा रहा था। कुछ समय बाद दोबारा बारहवीं कक्षा की प्राइवेट परीक्षा दी, लेकिन वे एक बार फिर फेल हो गए। देश भी गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा था और उनके जीवन में भी निराशा थी। ऐसे में दो चीजें हमेशा रहीं-पहला ईश्वर पर अटूट विश्वास और दूसरा गणित का जुनून। 
 
नौकरी की जद्दोजहद
शादी के बाद परिवार का खर्च चलाने के लिए वे नौकरी की तलाश में जुट गए। पर बारहवीं फेल होने की वजह से उन्हें नौकरी नहीं मिली। उनका स्वास्थ्य भी गिरता जा रहा था। बीमार हालात में जब भी किसी से मिलते थे, तो उसे अपना एक रजिस्टर दिखाते। इस रजिस्टर में उनके द्वारा गणित में किए गए सारे कार्य होते थे। किसी के कहने पर रामानुजन श्री वी. रामास्वामी अय्यर से मिले। अय्यर गणित के बहुत बड़े विद्वान थे। यहां पर श्री अय्यर ने रामानुजन की प्रतिभा को पहचाना और उनके लिए 25 रुपये मासिक छात्रवृत्ति का प्रबंध भी कर दिया। मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में भी क्लर्क की नौकरी भी मिल गई। यहां काम का बोझ ज्यादा न होने के कारण उन्हें गणित के लिए भी समय मिल जाता था। 
 
बोलता था जुनून
रात भर जागकर वे गणित के नए-नए सूत्र तैयार करते थे। शोधों को स्लेट पर लिखते थे। रात को स्लेट पर चॉक घिसने की आवाज के कारण परिवार के अन्य सदस्यों की नींद चौपट हो जाती, पर आधी रात को सोते से जागकर स्लेट पर गणित के सूत्र लिखने का सिलसिला रुकने के बजाय और तेज होता गया। इसी दौरान वे इंडियन मैथमेटिकल सोसायटी के गणितज्ञों संपर्क में आए और एक गणितज्ञ के रूप में उन्हें पहचान मिलने लगी। 
 
सौ में से सौ अंक
ज्यादातर गणितज्ञ उनके सूत्रों से चकित तो थे, लेकिन वे उन्हें समझ नहीं पाते थे। पर तत्कालीन विश्वप्रसिद्ध गणितज्ञ जी. एच. हार्डी ने जैसे ही रामानुजन के कार्य को देखा, वे तुरंत उनकी प्रतिभा पहचान गए। यहां से रामानुजन के जीवन में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। हार्डी ने उस समय के विभिन्न प्रतिभाशाली व्यक्तियों को 100 के पैमाने पर आंका था। अधिकांश गणितज्ञों को उन्होने 100 में 35 अंक दिए और कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को 60 अंक दिए। लेकिन उन्होंने रामानुजन को 100 में पूरे 100 अंक दिए थे। 
 
उन्होंने रामानुजन को कैंब्रिज आने के लिए आमंत्रित किया। प्रोफेसर हार्डी के प्रयासों से रामानुजन को कैंब्रिज जाने के लिए आर्थिक सहायता भी मिल गई। अपने एक विशेष शोध के कारण उन्हें कैंब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा बी.ए. की उपाधि भी मिली, लेकिन वहां की जलवायु और रहन-सहन में वे ढल नहीं पाए। उनका स्वास्थ्य और खराब हो गया। 
 
अंतिम सांस तक गणित
उनकी प्रसिद्घि बढ़ने लगी थी। उन्हें रॉयल सोसायटी का फेलो नामित किया गया। ऐसे समय में जब भारत गुलामी में जी रहा था, तब एक अश्वेत व्यक्ति को रॉयल सोसायटी की सदस्यता मिलना बहुत बड़ी बात थी। और तो और, रॉयल सोसायटी के पूरे इतिहास में इनसे कम आयु का कोई सदस्य आज तक नहीं हुआ है। रॉयल सोसायटी की सदस्यता के बाद वह ट्रिनिटी कॉलेज की फेलोशिप पाने वाले पहले भारतीय भी बने। 
 
करना बहुत कुछ था, लेकिन स्वास्थ्य ने साथ देने से इनकार कर दिया। डॉक्टरों की सलाह पर भारत लौटे। बीमार हालात में ही उच्चस्तरीय शोध-पत्र लिखा। मौत की घड़ी की टिकटिकी तेज होती गई। और वह घड़ी भी आ गई, जब 26 अप्रैल, 1920 की सुबह हमेशा के लिए सो गए और शामिल हो गए गौस, यूलर, जैकोबी जैसे सर्वकालीन महानतम गणितज्ञों की पंक्ति में।
 
महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन की 125वीं जयंती के अवसर पर भारत सरकार द्वारा वर्ष 2012 को राष्ट्रीय गणित वर्ष और हर साल 22 दिसंबर को राष्ट्रीय गणित दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई थी।

आज उनकी १३१ वीं जयंती के अवसर पर गणित के जादूगर - श्रीनिवास रामानुजन को हमारा शत शत नमन !

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

काकोरी काण्ड के स्वतंत्रता सेनानियों का ९१ वां बलिदान दिवस


राम प्रसाद बिस्मिल
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में काकोरी कांड एक ऐसी घटना है जिसने अंग्रेजों की नींव झकझोर कर रख दी थी। अंग्रेजों ने आजादी के दीवानों द्वारा अंजाम दी गई इस घटना को काकोरी डकैती का नाम दिया और इसके लिए कई स्वतंत्रता सेनानियों को 19 दिसंबर 1927 को फांसी के फंदे पर लटका दिया।
अशफाक उल्ला खा

फांसी की सजा से आजादी के दीवाने जरा भी विचलित नहीं हुए और वे हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। बात नौ अगस्त 1925 की है जब चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह सहित 10 क्रांतिकारियों ने मिलकर लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया।
दरअसल क्रांतिकारियों ने जो खजाना लूटा उसे जालिम अंग्रेजों ने हिंदुस्तान के लोगों से ही छीना था। लूटे गए धन का इस्तेमाल क्रांतिकारी हथियार खरीदने और आजादी के आंदोलन को जारी रखने में करना चाहते थे।
इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से जानी गई, जिससे गोरी हुकूमत बुरी तरह तिलमिला उठी। उसने अपना दमन चक्र और भी तेज कर दिया।
अपनों की ही गद्दारी के चलते काकोरी की घटना में शामिल सभी क्रांतिकारी पकडे़ गए, सिर्फ चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों के हाथ नहीं आए। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के 45 सदस्यों पर मुकदमा चलाया गया जिनमें से राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई।
राजेंद्र लाहिड़ी
ब्रिटिश हुकूमत ने पक्षपातपूर्ण ढंग से मुकदमा चलाया जिसकी बड़े पैमाने पर निंदा हुई क्योंकि डकैती जैसे मामले में फांसी की सजा सुनाना अपने आप में एक अनोखी घटना थी। फांसी की सजा के लिए 19 दिसंबर 1927 की तारीख मुकर्रर की गई लेकिन राजेंद्र लाहिड़ी को इससे दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही गोंडा जेल में फांसी पर लटका दिया गया। ठाकुर रोशन सिंह को इलाहाबाद, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल और अशफाक उल्ला खान को इसी दिन फैजाबाद जेल में फांसी की सजा दी गई।
फांसी पर चढ़ते समय इन क्रांतिकारियों के चेहरे पर डर की कोई लकीर तक मौजूद नहीं थी और वे हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर चढ़ गए।
ठाकुर रोशन सिंह
काकोरी की घटना को अंजाम देने वाले आजादी के सभी दीवाने उच्च शिक्षित थे। राम प्रसाद बिस्मिल प्रसिद्ध कवि होने के साथ ही भाषायी ज्ञान में भी निपुण थे। उन्हें अंग्रेजी, हिंदुस्तानी, उर्दू और बांग्ला भाषा का अच्छा ज्ञान था।
अशफाक उल्ला खान इंजीनियर थे। काकोरी की घटना को क्रांतिकारियों ने काफी चतुराई से अंजाम दिया था। इसके लिए उन्होंने अपने नाम तक बदल लिए। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने चार अलग-अलग नाम रखे और अशफाक उल्ला ने अपना नाम कुमार जी रख लिया।
खजाने को लूटते समय क्रांतिकारियों को ट्रेन में एक जान पहचान वाला रेलवे का भारतीय कर्मचारी मिल गया। क्रांतिकारी यदि चाहते तो सबूत मिटाने के लिए उसे मार सकते थे लेकिन उन्होंने किसी की हत्या करना उचित नहीं समझा।
उस रेलवे कर्मचारी ने भी वायदा किया था कि वह किसी को कुछ नहीं बताएगा लेकिन बाद में इनाम के लालच में उसने ही पुलिस को सब कुछ बता दिया। इस तरह अपने ही देश के एक गद्दार की वजह से काकोरी की घटना में शामिल सभी जांबाज स्वतंत्रता सेनानी पकड़े गए लेकिन चंद्रशेखर आजाद जीते जी कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए। 

आज जब रोज़ रोज़ देश के हालात बद से बदतर होते जा रहे है ... दिल से यही दुआ निकलती है कि ... काश यह सब अमर क्रांतिकारी दोबारा लौट आयें और देश को सही रास्ते पर ले जाने के लिए इस समाज का मार्ग दर्शन करें !

सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल औरअशफाक उल्ला खान के बलिदान दिवस पर उनको शत शत नमन !
 
इंकलाब ज़िंदाबाद !!!

सोमवार, 17 दिसंबर 2018

अमर शहीद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी जी की ९१ वीं पुण्यतिथि

राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी
राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी (अंग्रेजी:Rajendra Nath Lahiri, बाँग्ला:রাজেন্দ্র নাথ লাহিড়ী, जन्म:२३ जून १९०१ - मृत्यु:१७ दिसम्बर १९२७) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण स्वतंत्रता सेनानी थे। युवा क्रान्तिकारी लाहिड़ी की प्रसिद्धि काकोरी काण्ड के एक प्रमुख अभियुक्त के रूप में हैं।

संक्षिप्त जीवनी
बंगाल (आज का बांग्लादेश) में पबना जिले के अन्तर्गत मड़याँ (मोहनपुर) गाँव में २३ जून १९०१ के दिन क्षिति मोहन लाहिड़ी के घर राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी का जन्म हुआ। उनकी माता का नाम बसन्त कुमारी था। उनके जन्म के समय पिता क्रान्तिकारी क्षिति मोहन लाहिड़ी व बड़े भाई बंगाल में चल रही अनुशीलन दल की गुप्त गतिविधियों में योगदान देने के आरोप में कारावास की सलाखों के पीछे कैद थे। दिल में राष्ट्र-प्रेम की चिन्गारी लेकर मात्र नौ वर्ष की आयु में ही वे बंगाल से अपने मामा के घर वाराणसी पहुँचे। वाराणसी में ही उनकी शिक्षा दीक्षा सम्पन्न हुई। काकोरी काण्ड के दौरान लाहिड़ी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इतिहास विषय में एम० ए० (प्रथम वर्ष) के छात्र थे। १७ दिसम्बर १९२७ को गोण्डा के जिला कारागार में अपने साथियों से दो दिन पहले उन्हें फाँसी दे दी गयी। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को देश-प्रेम और निर्भीकता की भावना विरासत में मिली थी। राजेन्द्रनाथ काशी की धार्मिक नगरी में पढाई करने गये थे किन्तु संयोगवश वहाँ पहले से ही निवास कर रहे सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचींद्रनाथ सान्याल के सम्पर्क में आ गये। राजेन्द्र की फौलादी दृढ़ता, देश-प्रेम और आजादी के प्रति दीवानगी के गुणों को पहचान कर शचीन दा ने उन्हें अपने साथ रखकर बनारस से निकलने वाली पत्रिका बंग वाणी के सम्पादन का दायित्व तो दिया ही, अनुशीलन समिति की वाराणसी शाखा के सशस्त्र विभाग का प्रभार भी सौंप दिया। उनकी कार्य कुशलता को देखते हुए उन्हें हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन की गुप्त बैठकों में आमन्त्रित भी किया जाने लगा।

अध्ययन प्रेमी
गोण्डा जिला कारागार के फाँसीघर में राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी की प्रतिमा
पठन पाठन की अत्यधिक रूचि तथा बाँग्ला साहित्य के प्रति स्वाभाविक प्रेम के कारण लाहिड़ी अपने भाइयों के साथ मिलकर अपनी माता की स्मृति में बसंतकुमारी नाम का एक पारिवारिक पुस्तकालय स्थापित कर लिया था। काकोरी काण्ड में गिरफ्तारी के समय ये काशी हिंदू विश्वविद्यालय की बाँग्ला साहित्य परिषद के मंत्री थे। इनके लेख बाँग्ला के बंगवाणी और शंख आदि पत्रों में छपा करते थे। लाहिड़ी ही बनारस के क्रांतिकारियों के हस्तलिखित पत्र अग्रदूत के प्रवर्तक थे। इनका लगातार यह प्रयास रहता था कि क्रांतिकारी दल का प्रत्येक सदस्य अपने विचारों को लेख के रूप में दर्ज़ करे।

काकोरी काण्ड
फाँसी की फन्दा और लाहिड़ी का अन्तिम सन्देश
क्रान्तिकारियों द्वारा चलाये जा रहे स्वतन्त्रता-आन्दोलन को गति देने के लिये धन की तत्काल व्यवस्था को देखते हुए शाहजहाँपुर में दल के सामरिक विभाग के प्रमुख पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' के निवास पर हुई बैठक में राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी भी सम्मिलित हुए जिसमें सभी क्रान्तिकारियों ने एकमत से अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना को अन्तिम रूप दिया था। इस योजना में लाहिड़ी का अहम किरदार था क्योंकि उन्होंने ही अशफाक उल्ला खाँ के ट्रेन न लूटने के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था, जिसके परिणामस्वरूप अशफाक ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया था।
इस योजना को अंजाम देने के लिये लाहिड़ी ने काकोरी से ट्रेन छूटते ही जंज़ीर खींच कर उसे रोक लिया और ९ अगस्त १९२५ की शाम सहारनपुर से चलकर लखनऊ पहुँचने वाली आठ डाउन ट्रेन पर क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अशफाक उल्ला खाँ और चन्द्रशेखर आजाद व ६ अन्य सहयोगियों की मदद से धावा बोल दिया। कुल १० नवयुवकों ने मिलकर ट्रेन में जा रहा सरकारी खजाना लूट लिया। मजे की बात यह कि उसी ट्रेन में सफर कर रहे अंग्रेज सैनिकों तक की हिम्मत न हुई कि वे मुकाबला करने को आगे आते।

काकोरी काण्ड के बाद बिस्मिल ने लाहिड़ी को बम बनाने का प्रशिक्षण लेने बंगाल भेज दिया। राजेन्द्र बाबू कलकत्ता गये और वहाँ से कुछ दूर स्थित दक्षिणेश्वर में उन्होंने बम बनाने का सामान इकट्ठा किया। अभी वे पूरी तरह से प्रशिक्षित भी न हो पाये थे कि किसी साथी की असावधानी से एक बम फट गया और बम का धमाका सुनकर पुलिस आ गयी। कुल ९ साथियों के साथ राजेन्द्र भी गिरफ्तार हो गये। उन पर मुकदमा दायर किया और१० वर्ष की सजा हुई जो अपील करने पर ५ वर्ष कर दी गयी। बाद में ब्रिटिश राज ने दल के सभी प्रमुख क्रान्तिकारियों पर काकोरी काण्ड के नाम से मुकदमा दायर करते हुए सभी पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने तथा खजाना लूटने का न केवल आरोप लगाया बल्कि झूठी गवाहियाँ व मनगढ़न्त प्रमाण पेश कर उसे सही साबित भी कर दिखाया। राजेन्द्र लाहिड़ी को काकोरी काण्ड में शामिल करने के लिये बंगाल से लखनऊ लाया गया।

तमाम अपीलों व दलीलों के बावजूद सरकार टस से मस न हुई और अन्तत: राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल,अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह- एक साथ चार व्यक्तियों को फाँसी की सजा सुना दी गयी। लाहिड़ी को अन्य क्रान्तिकारियों से दो दिन पूर्व १७ दिसम्बर को ही फाँसी दे दी गयी।
आजादी के इस दीवाने ने हँसते-हँसते फाँसी का फन्दा चूमने से पहले वंदे मातरम् की हुंकार भरते हुए कहा था- "मैं मर नहीं रहा हूँ, बल्कि स्वतन्त्र भारत में पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ।"

लाहिड़ी दिवस
राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले में एक क्रान्तिकारी महानायक का स्थान प्राप्त है। प्रति वर्ष १७ दिसम्बर स्थानीय जिला प्रशासन के लिये राजकीय महत्व का दिवस होता है। इस दिन जिले के समस्त विद्यालयों एवं प्रशासनिक प्रतिष्ठानों में राजकीय उत्सव का माहौल रहता है। सभी सम्बद्ध प्रतिष्ठानों में शहीद लाहिड़ी के सम्मान में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। इन समस्त सांस्कृतिक आयोजनों का केन्द्र बिन्दु गोण्डा का जिला कारागार होता है। कारागार के फाँसीघर में स्थापित लाहिड़ी की प्रतिमा के समक्ष यज्ञ का आयोजन किया जाता है। फाँसी के दिन भी सुबह सुबह लाहिड़ी व्यायाम कर रहे थे। जेलर ने पूछा कि मरने के पहले व्यायाम का क्या प्रयोजन है? लाहिड़ी ने निर्वेद भाव से उत्तर दिया - "जेलर साब! चूँकि मैं हिन्दू हूँ और पुनर्जन्म में मेरी अटूट आस्था है, अतः अगले जन्म में मैं स्वस्थ शरीर के साथ ही पैदा होना चाहता हूँ ताकि अपने अधूरे कार्यों को पूरा कर देश को स्वतन्त्र करा सकूँ। इसीलिए मैं रोज सुबह व्यायाम करता हूँ। आज मेरे जीवन का सर्वाधिक गौरवशाली दिवस है तो यह क्रम मैं कैसे तोड़ सकता हूँ?" यज्ञ के आयोजन के पार्श्व में लाहिड़ी द्वारा जेलर को दिया गया अन्तिम सन्देश एक शिलापट्ट पर अंकित है - "मैं मरने नहीं जा रहा, अपितु भारत को स्वतन्त्र कराने के लिये पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ।" इसके अतिरिक्त इन समस्त घटनाओं का उल्लेख भी गोण्डा जिला कारागार के फाँसीगृह में स्थापित लाहिड़ी जीवनवृत्त शिलापट्ट पर अंकित है। धर्म सम्प्रदाय से ऊपर उठकर लाहिड़ी की अन्तिम इच्छा का सम्मान करने की यह परम्परा आज तक कायम है। लाहिड़ी की क्रान्तिकारी महानायक छवि को पुष्ट करती कविता शहीद लाहिड़ी के प्रति भी जिला कारागार के फाँसीगृह में स्थापित एक अन्य शिलापट्ट पर अंकित है।

आज अमर शहीद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी जी की ९१ वीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम सब उन्हें शत शत नमन करते है |

इंकलाब ज़िंदाबाद !!!

रविवार, 16 दिसंबर 2018

४७ वें विजय दिवस की हार्दिक बधाइयाँ

ऊपर दी गई इस तस्वीर को देख कर कुछ याद आया आपको ?

आज १६ दिसम्बर है ... आज ही के दिन सन १९७१ में हमारी सेना ने पाकिस्तानी सेना को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था ... और बंगलादेश की आज़ादी का रास्ता साफ़ और पुख्ता किया था ! तब से हर साल १६ दिसम्बर विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है !
आइये कुछ और तस्वीरो से उस महान दिन की यादें ताज़ा करें !










आप सब को विजय दिवस की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
 
आज जब हम विजय दिवस का जश्न मना रहे है ... आइये साथ साथ याद करे उन सब वीरों और परमवीरों को जिन्होने अपना सब कुछ नौछावर कर दिया अपनी पलटन और अपने देश के मान सम्मान बनाए रखने के लिए ...
 

जय हिंद ... जय हिंद की सेना !!!

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

परमवीर चक्र विजेता अमर शहीद फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों की ४७ वीं पुण्यतिथि

14 दिसम्बर 1971 को श्रीनगर एयरफील्ड पर पाकिस्तान के छह सैबर जेट विमानों ने हमला किया था। सुरक्षा टुकड़ी की कमान संभालते हुए फ़्लाइंग ऑफ़िसर निर्मलजीत सिंह वहाँ पर 18 नेट स्क्वाड्रन के साथ तैनात थे। दुश्मन F-86 सेबर जेट वेमानों के साथ आया था। उस समय निर्मलजीत के साथ फ्लाइंग लैफ्टिनेंट घुम्मन भी कमर कस कर मौजूद थे। एयरफील्ड में एकदम सवेरे काफ़ी धुँध थी। सुबह 8 बजकर 2 मिनट पर चेतावनी मिली थी कि दुश्मन आक्रमण पर है। निर्मलजीत सिंह तथा घुम्मन ने तुरंत अपने उड़ जाने का संकेत दिया और उत्तर की प्रतीक्षा में दस सेकेण्ड के बाद बिना उत्तर उड़ जाने का निर्णय लिया। ठीक 8 बजकर 4 मिनट पर दोनों वायु सेना-अधिकारी दुश्मन का सामना करने के लिए आसमान में थे। उस समय दुश्मन का पहला F-86 सेबर जेट एयर फील्ड पर गोता लगाने की तैयारी कर रहा था। एयर फील्ड से पहले घुम्मन के जहाज ने रन वे छोड़ा था। उसके बाद जैसे ही निर्मलजीत सिंह का नेट उड़ा, रन वे पर उनके ठीक पीछे एक बम आकर गिरा। घुम्मन उस समय खुद एक सेबर जेट का पीछा कर रहे थे। सेखों ने हवा में आकार दो सेबर जेट विमानों का सामना किया, इनमें से एक जहाज वही था, जिसने एयरफिल्ट पर बम गिराया था। बम गिरने के बाद एयर फील्ड से कॉम्बैट एयर पेट्रोल का सम्पर्क सेखों तथा घुम्मन से टूट गया था। सारी एयरफिल्ड धुएँ और धूल से भर गई थी, जो उस बम विस्फोट का परिणाम थी। इस सबके कारण दूर तक देख पाना कठिन था। तभी फ्लाइट कमाण्डर स्क्वाड्रन लीडर पठानिया को नजर आया कि कोई दो हवाई जहाज मुठभेड़ की तौयारी में हैं। घुम्मन ने भी इस बात की कोशिश की, कि वह निर्मलजीत सिंह की मदद के लिए वहाँ पहुँच सकें लेकिन यह सम्भव नहीं हो सका। तभी रेडियो संचार व्यवस्था से निर्मलजीत सिंह की आवाज़ सुनाई पड़ी...

"मैं दो सेबर जेट जहाजों के पीछे हूँ...मैं उन्हें जाने नहीं दूँगा..."
उसके कुछ ही क्षण बाद नेट से आक्रमण की आवाज़ आसपान में गूँजी और एक सेबर जेट आग में जलता हुआ गिरता नजर आया। तभी निर्मलजीत सिंह सेखों ने अपना सन्देश प्रसारित किया:

"मैं मुकाबले पर हूँ और मुझे मजा आ रहा है। मेरे इर्द-गिर्द दुश्मन के दो सेबर जेट हैं। मैं एक का ही पीछा कर रहा हूँ, दूसरा मेरे साथ-साथ चल रहा है।"
 
इस सन्देश के जवाब में स्क्वेड्रन लीडर पठानिया ने निर्मलजित सिंह को कुछ सुरक्षा सम्बन्धी हिदायत दी, जिसे उन्होंने पहले ही पूरा कर लिया था। इसके बाद नेट से एक और धमाका हुआ जिसके साथ दुश्मन के सेबर जेट के ध्वस्त होने की आवाज़ भी आई। अभी निर्मलजीत सिंह को कुछ और भी करना बाकी था, उनका निशाना फिर लगा और एक बड़े धमाके के साथ दूसरा सेबर जेट भी ढेर हो गया। कुछ देर की शांति के बाद फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों का सन्देश फिर सुना गया। उन्होंने कहा-

"शायद मेरा नेट भी निशाने पर आ गया है... घुम्मन, अब तुम मोर्चा संभालो।"
 
यह फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह का अंतिम सन्देश था। श्रीनगर एयरफील्ड की रक्षा का अपना काम पूरा कर के वे वीरगति को प्राप्त हो गए।
 
परमवीर चक्र विजेता अमर शहीद फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों को उनकी ४७ वीं पुण्यतिथि पर शत शत नमन।


जय हिन्द !!!


जय हिन्द की सेना !!!

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

संसद हमले की १७ वीं बरसी

आज १३ दिसम्बर है ... आज संसद हमले की १७ वीं बरसी है...
 
 
आज ही के दिन सन २००१ में आतंकियों ने संसद पर हमला किया था ... इस हमले में सुरक्षा बलों ने पांच आतंकियों को मार गिराया था। 
 
 
जबकि दिल्ली पुलिस के ६ जवानों सहित ९ लोग शहीद हुए थे। जब आतंकियों ने हमला किया तब संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था।
 
सभी शहीदों को हमारा शत शत नमन।

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

अमर क्रांतिकारी स्व ॰ प्रफुल्ल चाकी जी की १३० वीं जयंती


क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी (बांग्ला: প্রফুল্ল চাকী) (१० दिसंबर १८८८ - १ मई १९०८) का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। प्रफुल्ल का जन्म उत्तरी बंगाल के बोगरा गाँव (अब बांग्लादेश में स्थित) में हुआ था। जब प्रफुल्ल दो वर्ष के थे तभी उनके पिता जी का निधन हो गया। उनकी माता ने अत्यंत कठिनाई से प्रफुल्ल का पालन पोषण किया। विद्यार्थी जीवन में ही प्रफुल्ल का परिचय स्वामी महेश्वरानंद द्वारा स्थापित गुप्त क्रांतिकारी संगठन से हुआ। प्रफुल्ल ने स्वामी विवेकानंद के साहित्य का अध्ययन किया और वे उससे बहुत प्रभावित हुए। अनेक क्रांतिकारियों के विचारों का भी प्रफुल्ल ने अध्ययन किया इससे उनके अन्दर देश को स्वतंत्र कराने की भावना बलवती हो गई। बंगाल विभाजन के समय अनेक लोग इसके विरोध में उठ खड़े हुए। अनेक विद्यार्थियों ने भी इस आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। प्रफुल्ल ने भी इस आन्दोलन में भाग लिया। वे उस समय रंगपुर जिला स्कूल में कक्षा ९ के छात्र थे। प्रफुल्ल को आन्दोलन में भाग लेने के कारण उनके विद्यालय से निकाल दिया गया। इसके बाद प्रफुल्ल का सम्पर्क क्रांतिकारियों की युगांतर पार्टी से हुआ।

मुजफ्फरपुर काण्ड
 
कोलकाता का चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड क्रांतिकारियों को अपमानित करने और उन्हें दण्ड देने के लिए बहुत बदनाम था। क्रांतिकारियों ने किंग्सफोर्ड को जान से मार डालने का निर्णय लिया। यह कार्य प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को सौंपा गया। ब्रिटिश सरकार ने किंग्सफोर्ड के प्रति जनता के आक्रोश को भाँप कर उसकी सरक्षा की दृष्टि से उसे सेशन जज बनाकर मुजफ्फरपुर भेज दिया। दोनों क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस उसके पीछे-पीछे मुजफ्फरपुर पहुँच गए। दोनों ने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का बारीकी से अध्ययन किया। इसके बाद ३० अप्रैल १९०८ ई० को किंग्सफोर्ड पर उस समय बम फेंक दिया जब वह बग्घी पर सवार होकर यूरोपियन क्लब से बाहर निकल रहा था। लेकिन जिस बग्घी पर बम फेंका गया था उस पर किंग्सफोर्ड नहीं था बल्कि बग्घी पर दो यूरोपियन महिलाएँ सवार थीं। वे दोनों इस हमले में मारी गईं। 
 
बलिदान
 
दोनों क्रांतिकारियों ने समझ लिया कि वे किंग्सफोर्ड को मारने में सफल हो गए हैं। वे दोनों घटनास्थल से भाग निकले। प्रफुल्ल चाकी ने समस्तीपुर पहुँच कर कपड़े बदले और टिकिट खरीद कर रेलगाड़ी में बैठ गए। दुर्भाग्य से उसी में पुलिस का सब इंस्पेक्टर नंदलाल बनर्जी बैठा था। उसने प्रफुल्ल चाकी को गिरफ्तार करने के उद्देश्य से अगली स्टेशन को सूचना दे दी। स्टेशन पर रेलगाड़ी के रुकते ही प्रफुल्ल को पुलिस ने पकड़ना चाहा लेकिन वे बचने के लिए दौड़े। परन्तु जब प्रफुल्ल ने देखा कि वे चारों ओर से घिर गए हैं तो उन्होंने अपनी रिवाल्वर से अपने ऊपर गोली चलाकर अपनी जान दे दी। यह घटना १ मई, १९०८ की है। बिहार के मोकामा स्टेशन के पास प्रफुल्ल चाकी की मौत के बाद पुलिस उपनिरीक्षक एनएन बनर्जी ने चाकी का सिर काट कर उसे सबूत के तौर पर मुजफ्फरपुर की अदालत में पेश किया। यह अंग्रेज शासन की जघन्यतम घटनाओं में शामिल है। खुदीराम को बाद में गिरफ्तार किया गया था व उन्हें फांसी दे दी गई थी।
 
 

अमर क्रांतिकारी स्व ॰ प्रफुल्ल चाकी जी को शत शत नमन !

इंकलाब ज़िंदाबाद !!

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