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सोमवार, 30 जून 2014

पीएसएलवी सी-23 का सफल प्रक्षेपण

पीएसएलवी सी-23 के प्रक्षेपण के लिए शनिवार को शुरू हुई 49 घंटे की उलटी गिनती सोमवार सुबह 9:52 बजे पूरी होते ही पीएसएलवी सी-23 अपने साथ पांच उपग्रहों को लेकर अंतरिक्ष की ओर रवाना हो गया | इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां मौजूद थे।

गौरतलब है कि पहले इसका प्रक्षेपण समय 8: 49 बजे निर्घारित था, लेकिन तकनीकी कारणों से इसे तीन मिनट आगे किया गया है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन [इसरो] के बयान में कहा गया है कि प्रक्षेपण यान फ्रांसीसी उपग्रह स्पॉट-7 के साथ 4 अन्य उपग्रह अंतरिक्ष में ले जाएगा। फ्रांस के पृथ्वी निगरानी उपग्रह के साथ कनाडा, जर्मनी और सिंगापुर के उपग्रह इसमें शामिल हैं।

अब तक दूसरे देशों के 35 उपग्रह प्रक्षेपित कर चुका पीएसएलवी सी-23 अपने साथ 714 किलो वजन का फ्रांसीसी पृथ्वी निगरानी उपग्रह स्पॉट-7, 14 किलो का जर्मनी का आईसैट, 15-15 किलो का कनाडा का एनएलएस 7.1 (कैन एक्स 4) एवं एनएलएस 7.2 (कैन एक्स-5) और सिंगापुर का 7 किलो का वेलोक्स-1 अंतरिक्ष में स्थापित करेगा।

इस पोस्ट के लगने तक पांचों उपग्रह अपनी अपनी कक्षा मे सफलतापूर्वक स्थापित किए जा चुके थे |

एक समय था जब इसरो के अंदर एक जगह से दूसरी जगह अंतरिक्ष यान के कलपुर्ज़े साइकल से पहुंचाए जाते थे ... एक आज का दिन है जब हम दूसरे देशों के उपग्रह अंतरिक्ष मे स्थापित कर रहे है |


इस महान कामयाबी पर मैं अपनी ओर से इसरो के सभी वैज्ञानिकों और साथी देश वासियों को हार्दिक मुबारकबाद देता हूँ |

शुक्रवार, 27 जून 2014

सैम 'बहादुर' ज़िंदाबाद !!

फील्ड मार्शल सैम 'बहादुर' मानेकशॉ
सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ (३ अप्रैल १९१४ - २७ जून २००८) भारतीय सेना के अध्यक्ष थे जिनके नेतृत्व में भारत ने सन् 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में विजय प्राप्त किया था जिसके परिणामस्वरूप बंगलादेश का जन्म हुआ था।

जीवनी
मानेकशा का जन्म ३ अप्रैल 1914 को अमृतसर में एक पारसी परिवार में हुआ था। उनका परिवार गुजरात के शहर वलसाड से पंजाब आ गया था। मानेकशा ने प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर में पाई, बाद में वे नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में दाखिल हो गए। वे देहरादून के इंडियन मिलिट्री एकेडमी के पहले बैच के लिए चुने गए ४० छात्रों में से एक थे। वहां से वे कमीशन प्राप्ति के बाद भारतीय सेना में भर्ती हुए।
1937 में एक सार्वजनिक समारोह के लिए लाहौर गए सैम की मुलाकात सिल्लो बोडे से हुई। दो साल की यह दोस्ती 22 अप्रैल 1939 को विवाह में बदल गई। 1969 को उन्हे सेनाध्यक्ष बनाया गया। 1973 मे उन्हे फील्ड मार्शल का सम्मान प्रदान किया गया।
1973 में सेना प्रमुख के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद वे वेलिंगटन में बस गए थे। वृद्धावस्था में उन्हें फेफड़े संबंधी बिमारी हो गई थी और वे कोमा में चले गए थे। उनकी मृत्यु २७ जून २००८ को वेलिंगटन के सैन्य अस्पताल के आईसीयू में रात 12.30 बजे हुई।
 
सैनिक जीवन

17वी इंफेंट्री डिवीजन में तैनात सैम ने पहली बार द्वितीय विश्वयुद्घ में जंग का स्वाद चखा, ४-१२ फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट के कैप्टन के तौर पर बर्मा अभियान के दौरान सेतांग नदी के तट पर जापानियों से लोहा लेते हुए वे गम्भीर रुप से घायल हो गए थे।
स्वस्थ होने पर मानेकशा पहले स्टाफ कॉलेज क्वेटा, फिर जनरल स्लिम्स की 14वीं सेना के 12 फ्रंटियर राइफल फोर्स में लेफ्टिनेंट बनकर बर्मा के जंगलो में एक बार फिर जापानियों से दो-दो हाथ करने जा पहुँचे, यहाँ वे भीषण लड़ाई में फिर से बुरी तरह घायल हुए, द्वितीय विश्वयुद्घ खत्म होने के बाद सैम को स्टॉफ आफिसर बनाकर जापानियों के आत्मसमर्पण के लिए इंडो-चायना भेजा गया जहां उन्होंने लगभग 10000 युद्घबंदियों के पुनर्वास में अपना योगदान दिया।
1946 में वे फर्स्ट ग्रेड स्टॉफ ऑफिसर बनकर मिलिट्री आपरेशंस डायरेक्ट्रेट में सेवारत रहे, विभाजन के बाद 1947-48 की कश्मीर की लड़ाई में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत की आजादी के बाद गोरखों की कमान संभालने वाले वे पहले भारतीय अधिकारी थे। गोरखों ने ही उन्हें सैम बहादुर के नाम से सबसे पहले पुकारना शुरू किया था। तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सैम को नागालैंड समस्या को सुलझाने के अविस्मरणीय योगदान के लिए 1968 में पद्मभूषण से नवाजा गया ।
7 जून 1969 को सैम मानेकशॉ ने जनरल कुमारमंगलम के बाद भारत के 8वें चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ का पद ग्रहण किया, उनके इतने सालों के अनुभव के इम्तिहान की घड़ी तब आई जब हजारों शरणार्थियों के जत्थे पूर्वी पाकिस्तान से भारत आने लगे और युद्घ अवश्यंभावी हो गया, दिसम्बर 1971 में यह आशंका सत्य सिद्घ हुई, सैम के युद्घ कौशल के सामने पाकिस्तान की करारी हार हुई तथा बांग्लादेश का निर्माण हुआ, उनके देशप्रेम व देश के प्रति निस्वार्थ सेवा के चलते उन्हें 1972 में पद्मविभूषण तथा 1 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के मानद पद से अलंकृत किया गया। चार दशकों तक देश की सेवा करने के बाद सैम बहादुर 15 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से सेवानिवृत्त हुए।
 
व्यक्तित्व के कुछ रोचक पहलु
मानेकशा खुलकर अपनी बात कहने वालों में से थे। उन्होंने एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 'मैडम' कहने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि यह संबोधन 'एक खास वर्ग' के लिए होता है। मानेकशा ने कहा कि वह उन्हे प्रधानमंत्री ही कहेगे।
Famous Quotations of Sam Bahadur
  • On the military knowledge of politicians: "I wonder whether those of our political masters who have been put in charge of the defence of the country can distinguish a mortar from a motor; a gun from a howitzer; a guerrilla from a gorilla, although a great many resemble the latter."
  • On being asked by Indira Gandhi if he was ready to fight on the eve of the Indo-Pakistani War of 1971: “I am always ready, sweetie."
  • On being asked, had he opted for Pakistan at the time of the Partition in 1947, he quipped, “then I guess Pakistan would have won (the 1971 war)"
  • On being placed in command of the retreating 4 Corps during the Sino-Indian War of 1962: “There will be no withdrawal without written orders and these orders shall never be issued.”
  • About the Gurkha: "If a man says he is not afraid of dying, he is either lying or is a Gurkha."
  • To a surgeon who was going to give up on his bullet-riddled body who asked him what had happened and got the reply, “I was kicked by a donkey.” A joke at such a time, the surgeon reckoned, had a chance.
  • After helping an young Indian Army Officer, with his luggage, the grateful officer asked Sam "What do you do here?". Sam replied "I everyday help officers like you with their luggage, but I do in my past time command this Infantry Division"
 ऐसे शेरदिल जाँबाज सेनापति पर देश के हर नागरिक को गर्व होना चाहिए ... आज उनकी छटी बरसी  के अवसर पर हम सब फील्ड मार्शल सैम 'बहादुर' मानेकशॉ को शत शत नमन करते है !!
 

सैम बहादुर ज़िंदाबाद !!
जय हिन्द ... जय हिन्द की सेना !!

गुरुवार, 26 जून 2014

नायब सूबेदार बाना सिंह और २६ जून

नायब सूबेदार बाना सिंह (अंग्रेज़ी: Naib Subedar Bana Singh, जन्म: 3 जनवरी, 1949 काद्‌याल गाँव, जम्मू और कश्मीर) परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय सैन्य अधिकारी है। इन्हें यह सम्मान सन 1987 में मिला। पाकिस्तान के साथ भारत की चार मुलाकातें युद्धभूमि में तो हुई हीं, कुछ और भी मोर्चे हैं, जहाँ हिन्दुस्तान के बहादुरों ने पाकिस्तान के नापाक मंसूबों पर पानी फेर कर रख दिया। सियाचिन का मोर्चा भी इसी तरह का एक मोर्चा है, जिस ने 8 जम्मू एंड कश्मीर लाइट इंफेंटरी के नायब सूबेदार बाना सिंह को उन की चतुराई, पराक्रम और साहस के लिए परमवीर चक्र दिलवाया।

जीवन परिचय

बहादुर नायब सूबेदार बाना सिंह का जन्म 3 जनवरी 1949 को जम्मू और कश्मीर के काद्‌याल गाँव में हुआ था। 6 जनवरी 1969 को उनका फौजी जीवन शुरू हुआ थ और वह अपनी इस यूनिट में आए थे। सियाचिन में जो चौकी बाना सिंह ने फतह की, उनका नाम बाद में 'बाना पोस्ट' रख दिया गया। बाना सिंह ने इस कार्यवाही के लिए परमवीर चक्र पाया। उन्होंने कारगिल की लड़ाई का हाल भी जाना-सुना। उस समय तक वह फौज की सेवा में कार्यरत थे।

फौजी जीवन

सियाचिन के बारे में दूर बैठकर केवल कल्पना ही की जा सकती है, वह भी शायद बहुत सही ढंग से नहीं। समुद्र तट से 21 हजार एक सौ तिरपन फीट की ऊचाँई पर स्थित पर्वत श्रणी, जहाँ 40 से 60 किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से बर्फानी हवाएँ चलती ही रहती हैं और जहाँ का अधिकतम तापमान -35° C सेल्सियस होता है वहाँ की स्थितियों के बारे में क्या अंदाज लगाया जा सकता है। लेकिन यह सच है कि यह भारत के लिए एक महत्त्वपूर्ण जगह है। दरअसल, 1949 में कराची समझौते के बाद, जब युद्ध विराम रेखा खींची गई थी, तब उसका विस्तार, जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में उत्तर की तरफ खोर से लेकर दक्षिण की ओर मनावर तक था। इस तरह यह रेखा उत्तर की तरफ NJ9842 के हिमशैलों (ग्लेशियर्स) की तरह जाती है। इस क्षेत्र में घास का एक तिनका तक नहीं उगता है, साँस लेना तक सर्द मौसम के कारण बेहद कठिन है। लेकिन कुछ भी हो, यह ठिकाना ऐसा है जहाँ भारत, पाकिस्तान और चीन की सीमाएँ मिलती है, इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से इसका विशेष महत्त्व है।

हमेशा की तरह अतिक्रमण और उकसाने वाली कार्यवाही पाकिस्तान द्वारा ही यहाँ भी की गई। पहले तो उसने सीमा तय होते समय 5180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र जो भारत का होता उसे चीन की सीमा में खिसका दिया। इसके अलावा वह उस क्षेत्र में विदेशी पर्वतारोहियों को और वैज्ञानिक परीक्षणों के लिए बाहर के लोगों को भी बुलवाता रहता है, जब कि वह उसका क्षेत्र नहीं हैं। इसके अतिरिक्त भी उसकी ओर से अनेक ऐसी योजनाओं की खबर आती रहती है जो अतिक्रमण तथा आपत्तिजनक कही जा सकती है। यहाँ हम जिस प्रसंग का जिक्र विशेष रूप से कर रहे हैं, वह वर्ष 1987 का है। इसमें पाकिस्तान ने सियाचिन ग्लेशियर पर, भारतीय सीमा के अन्दर अपनी एक चौकी बनाने का आदेश अपनी सेनाओं को दे दिया। वह जगह मौसम को देखते हुए, भारत की ओर से भी आरक्षित थी। वहाँ पर पाकिस्तान सैनिकों ने अपनी चौकी खड़ी की और 'कायद चौकी' का नाम दिया। यह नाम पाकिस्तान के जनक कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना के नाम पर रखा गया था।

उस चौकी की संरचना समझना भी बड़ा रोचक है। वह चौकी, ग्लेशियर के ऊपर एक दुर्ग की तरह बनाई गई, जिसके दोनों तरह 1500 फीट ऊँची बर्फ की दीवारें थीं। इसे पाकिस्तान ने अपनी यह चौकी 'कायद' बड़ी चुनौती की तरह, भारत की सीमा के भीतर बनाई थी, जिसे अतिक्रमण के अलावा कोई और नाम नहीं दिया जा सकता। जाहिर है, भारत के लिए इस घटना की जानकारी पाकर चुप बैठना सम्भव नहीं था। भारतीय सेना ने यह प्रस्ताव बनाया कि हमें इस चौकी को वहाँ से हटाकर उस पर अपना कब्जा कर लेना है। इस प्रस्ताव के जवाब में नायब सूबेदार बाना सिंह ने खुद आगे बढ़कर यह कहा कि वह इस काम को जाकर पूरा करेंगे। वह 8 जम्मू कश्मीर लाइट इंफेस्टरी में नायब सूबेदार थे। उन्हें इस बात की इजाज़त दे दी गई। नायब सूबेदार बाना सिंह ने अपने साथ चार साथी और लिए और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ लिए। योजना के अनुसार बटालियन के दूसरे लोग पाकिस्तान दुश्मन के सैनिकों को उलझा कर रखे रहे और उधर बाना सिंह और उनके साथियों ने उस चौकी तक पहुँचने का काम शुरू कर दिया।

'कायद पोस्ट' की सपाट दीवार पर, जो कि बर्फ की बनीं थी, उस पर चढ़ना बेहद कठिन और जोखिम भरा काम था। इसके पहले भी कई बार इस दीवार पर चढ़ने ने की कोशिश हिन्दुस्तानी सैनिकों की थी और नाकाम रहे थे। रात का तापमान शून्य से भी तीस डिग्री नीचे गिरा हुआ था। तेज हवाएँ चल रही थी। पिछले तीन दिनों से लगातार जबरदस्त बर्फ गिर रही थी। भयंकर सर्दी के कारण बन्दूकें भी ठीक काम नहीं कर रहीं थीं। खैर, अँधेरे का फायदा उठाते हुए बाना सिंह और उनकी टीम आगे बढ़ी रही थी। रास्ते में उन्हें उन भारतीय बहादुरों के शव भी पड़े दिख रहे थे जिन्होंने यहां पहुँचने के रास्ते में प्राण गँवाए थे। क्यों कि इस से पहले २४ और २५ जून को भी पोस्ट पर कब्जे की ऐसी ही कोशिशें की गई थी | जैसे-तैसे बाना सिंह अपने साथियों को लेकर ठीक ऊपर तक पहुँचने में कामयाब हो गये। वहाँ पहुँच कर उसने अपने दल को दो हिस्सें में बाँटकर दो दिशाओं में तैनात किया और फिर उस 'कायद पोस्ट' पर ग्रेनेड फेंकने शुरू किया। वहाँ बने बंकरों में ग्रेनेड ने अपना काम दिखाया। साथ ही दूसरे दल के जवानों ने दुश्मन के सैनिकों को, जोकि उस चौकी पर थे, बैनेट से मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया। वहां पर पाकिस्तान के स्पेंशल सर्विस ग्रुप (SSG) के कमांडो तैनात थे, जो इस अचानक हमले में मारे गए और कुछ चौकी छोड़कर भाग निकले। कुछ ही देर में वह चौकी दुश्मनों के हाथ से भारतीय बहादुरों के हाथ में आ गई। मोर्चा फतह हुआ था। बाना सिंह समेत उनका दल सही सलामत उस पर काबिज हो गया और पोस्ट पर तिरंगा लहरा दिया गया |
(जानकारी भारतकोष से साभार)

इस कामयाबी की २७ वीं वर्षगांठ के अवसर पर हम सब की ओर से नायब सूबेदार बाना सिंह जी और उन के साथियों को एक चटक सल्युट |

जय हिन्द !!!
जय हिन्द की सेना !!!

बुधवार, 25 जून 2014

परमवीर अमर शहीद कैप्टन मनोज कुमार पाण्डे की ३९ वीं जयंती

अमर शहीद कैप्टन मनोज कुमार पाण्डे,परमवीर चक्र विजेता (मरणोपरांत) 
कैप्टन मनोज कुमार पाण्डे, (२५/०६/१९७५ - ०३/०७/१९९९) भारतीय सेना की १/११ गोरखा राइफल्स के अधिकारी थे ... १९९९ के कारगिल युद्ध के दौरान उनके अदम्य साहस और वीरतापूर्ण रण कौशल के लिए उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था | यह सम्मान उन्हें मरणोपरांत पदान किया गया था |

आज परमवीर अमर शहीद कैप्टन मनोज कुमार पाण्डे की ३९ वीं जयंती के अवसर पर हम सब उनको शत शत नमन करते है |

जय हिन्द !!

जय हिन्द की सेना !!

सोमवार, 23 जून 2014

डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी की ६१ वीं पुण्यतिथि

डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी (जन्म: 6 जुलाई, 1901 - मृत्यु: 23 जून, 1953) महान शिक्षाविद्, चिन्तक और भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में भारतवर्ष की जनता उन्हें स्मरण करती है। एक कट्टर राष्ट्र भक्त के रूप में उनकी मिसाल दी जाती है। भारतीय इतिहास उन्हें एक जुझारू कर्मठ विचारक और चिन्तक के रूप में स्वीकार करता है। भारतवर्ष के लाखों लोगों के मन में एक निरभिमानी देशभक्त की उनकी गहरी छबि अंकित है। वे आज भी बुद्धिजीवियों और मनीषियों के आदर्श हैं। वे लाखों भारतवासियों के मन में एक पथप्रदर्शक एवं प्रेरणापुंज के रूप में आज भी समाये हुए हैं।

जीवन वृत्त

6 जुलाई, 1901 को कलकत्ता के अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार में डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी का जन्म हुआ। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। "होनहार बिरवान के होत चिकने पात पात" कहावत को डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने चरितार्थ किया। बाल्यकाल से ही उनमें अप्रतिम प्रतिभा की छाप दिखने लग गयी थी। कुशाग्र बुद्धि और जन्मजात प्रतिभासम्पन्न डॉ० मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक किया तथा 1921 में बी०ए० की उपाधि प्राप्त की। 1923 में लॉ की उपाधि अर्जित करने के पश्चात् वे विदेश चले गये और 1926 में इंग्लैण्ड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। अपने पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अल्पायु में ही विद्याध्ययन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएँ अर्जित कर ली थीं। शीघ्र ही उनकी ख्याति एक शिक्षाविद् और लोकप्रिय प्रशासक के रूप में चारो ओर फैल गयी। उन्होंने अपने ज्ञानपूर्ण विचारों से तात्कालिक परिदृश्य की ज्वलन्त परिस्थितियों का इतना सटीक विश्लेषण किया कि समाज के हर वर्ग को उनकी कुशाग्र बुद्धि का लोहा मानना पड़ा। उनकी ख्याति और कीर्तिमानों को मान्यता मिली और मात्र 33 वर्ष की अल्पायु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे। एक विचारक तथा प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरन्तर आगे बढ़ती गयी।

राजनीतिक जीवन

तत्कालीन शासन व्यवस्था में सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों के विशद् जानकार के रूप में उन्होंने समाज में अपना विशिष्ट स्थान अर्जित कर लिया था। एक राजनीतिक दल की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के कारण जब बंगाल की सत्ता मुस्लिम लीग की गोद में डाल दी गई और 1938 में आठ प्रदेशों में अपनी सत्ता छोड़ने की आत्मघाती और देश विरोधी नीति अपनायी गयी तब डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने स्वेच्छा से देशप्रेम और राष्ट्रप्रेम का अलख जगाने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश किया और राष्ट्रप्रेम का सन्देश जन-जन में फैलाने की अपनी पावन यात्रा का श्रीगणेश किया। डॉ० मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धान्तवादी थे। इसलिए उन्होंने सक्रिय राजनीति कुछ आदर्शों और सिद्धान्तों के साथ प्रारम्भ की थी। राजनीति में प्रवेश से पूर्व देश सेवा के प्रति उनकी आसक्ति की झलक उनकी डायरी में 07 जनवरी, 1939 को उनके द्वारा लिखे गये निम्न उद्गारों से मिलती है :
हे प्रभु! मुझे निष्ठा, साहस, शक्ति और मन की शान्ति दीजिए,
मुझे दूसरों का भला करने की हिम्मत और दृढ़ संकल्प दीजिए,
मुझे अपना आशीर्वाद दीजिए कि मैं सुख में भी और दुख में भी,
आपको याद करता रहूँ और आपके स्नेह में पलता रहूँ।
हे प्रभु! मुझसे हुई गलतियों के लिये क्षमा कीजिए और मुझे सद्प्रेरणा देते रहिए।
उन्होंने अपना जीवन अक्षरश: इन उद्गारों के अनुरूप व्यतीत किया। सार्वजनिक जीवन में पदार्पण करने के पश्चात् उन्होंने अपनी प्रखर विचारधारा से, सम्मेलनों, जनसमपर्क एवं सभाओं के माध्यम से, अपने ज्वलन्त उद्बोधनों से, जनता के मन में एक नयी ऊर्जा व नये प्राण का संचार किया। उनकी लोकप्रियता और उनकी ख्याति दिनोंदिन बढ़ती गयी। डॉ० मुखर्जी ने यह भाँप लिया था कि यदि मुस्लिम लीग को निरंकुश रहने दिया गया तो उससे बंगाल और हिन्दू हितों को भयंकर क्षति पहुँचेगी। इसलिए उन्होंने मुस्लिम लीग सरकार का तख्ता पलटने का निश्चय किया और बहुत से गैर कांग्रेसी हिन्दुओं की मदद से कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर प्रगतिशील गठबन्धन का निर्माण किया। इस सरकार में वे वित्तमन्त्री बने। इसी समय वे वीर सावरकर के प्रखर राष्ट्रवाद के प्रति आकिर्षत हुए और हिन्दू महासभा में सिम्मलित हुए।
मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का वातावरण दूषित हो रहा था। वहाँ साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी। साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया। उनके प्रयत्नों से हिन्दुओं के हितों की रक्षा हुई। 1942 में जब ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में ठूँस दिया और देश नेतृत्व विहीन और दिशा विहीन नज़र आने लगा उन परिस्थितियों में डॉ० मुखर्जी ने बंगाल के हक मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र देकर भारत को नयी दिशा दी।
डॉ० मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया। डॉ० मुखर्जी ने अल्प आयु में ही बहुत बड़ी राजनैतिक ऊँचाइयों को पा लिया था। भविष्य का भारत उनकी ओर एक आशा भरी दृष्टि से देख रहा था। उस समय लोग यह अनुभव कर रहे थे कि भारत एक संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है। उन्होंने अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति के साथ भारत के विभाजन की पूर्व स्थितियों का डटकर सामना किया। देश भर में विप्लव, दंगा-फसाद, साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने के लिये भाषाई, दलीय आधार पर बलवे की घटनाओं से पूरा देश आक्रान्त था। उधर इन विषम परिस्थितियों में भी डटकर, सीना तानकर "एकला चलो" के सिद्धान्त का पालन करते हुए डॉ० मुखर्जी अखण्ड राष्ट्रवाद का पावन नारा लेकर महासमर में संघर्ष करते रहे। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट हुई। उस समय कांग्रेस का नेतृत्व सामूहिक रूप से आतंकित था। मुस्लिम लीग की हर माँग को पूरा कर उससे छुटकारा पाना चाहता था। लोग आशंकित और भयभीत थे। किन्तु डॉ० श्यामाप्रसाद उस माहौल में चट्टान की तरह अडिग डटे रहे। वे एक मात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने अपने पुरुषार्थ से देश हित की वाणी को शब्द दिया और मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का विरोध किया।

जनसंघ की स्थापना

ब्रिटिश सरकार की भारत विभाजन की गुप्त योजना और षड्यन्त्र को एक कांग्रेस के नेताओं ने अखण्ड भारत सम्बन्धी अपने वादों को ताक पर रखकर स्वीकार कर लिया। उस समय डॉ० मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की माँग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खण्डित भारत के लिए बचा लिया। गान्धी जी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे खण्डित भारत के पहले मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए। उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गयी। संविधान सभा और प्रान्तीय संसद के सदस्य और केन्द्रीय मन्त्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किन्तु उनके राष्ट्रवादी चिन्तन के चलते अन्य नेताओं से मतभेद बराबर बने रहे। फलत: राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने प्रतिपक्ष के सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निर्वहन को चुनौती के रूप में स्वीकार किया और शीघ्र ही अन्य राष्ट्रवादी दलों और तत्वों को मिलाकर एक नई पार्टी बनायी जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बडा दल था। उन्हें पं० जवाहरलाल नेहरू का सशक्त विकल्प माने जाने लगा। अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ का उद्भव हुआ जिसके संस्थापक अध्यक्ष के रूप में डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नाम इतिहास में दर्ज़ हो गया।

संसद में

संसद में उन्होंने सदैव राष्ट्रीय एकता की स्थापना को प्रथम लक्ष्य रखा। संसद में दिये गये अपने भाषण में उन्होंने पुरजोर शब्दों में कहा था कि राष्ट्रीय एकता की शिला पर ही भविष्य की नींव रखी जा सकती है। देश के राष्ट्रीय जीवन में इन तत्वों को स्थान देकर ही एकता स्थापित करनी चाहिए। क्योंकि इस समय इनका बहुत महत्व है। इन्हें आत्म सम्मान तथा पारस्परिक सामंजस्य के साथ सजीव रखने की आवश्यकता है। है। डॉ० मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आज़म) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। ऐसी परिस्थितियों में डॉ० मुखर्जी ने जोरदार नारा बुलन्द किया - "एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान - नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगें।" संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में डॉ० मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तात्कालिन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया। 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार वे भारत के लिये एक प्रकार से शहीद हो गये। डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी के रूप में भारत ने एक ऐसा व्यक्तित्व खो दिया जो हिन्दुस्तान को नयी दिशा दे सकता था।
(जानकारी मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से साभार) 


 आज स्व॰ डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी की ६१ वीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम उन्हें शत शत नमन करते है |

शनिवार, 21 जून 2014

डॉ. हेडगेवार की ७४ वीं पुण्यतिथि

केशवराव बलिराम हेडगेवार ( जन्म : १ अप्रैल १८८९ - मृत्यु : २१ जून १९४०) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं प्रकाण्ड क्रान्तिकारी थे। उनका जन्म हिन्दू वर्ष प्रतिपदा के दिन हुआ था। घर से कलकत्ता गये तो थे डाक्टरी पढने परन्तु वापस आये उग्र क्रान्तिकारी बनकर। कलकत्ते में श्याम सुन्दर चक्रवर्ती के यहाँ रहते हुए बंगाल की गुप्त क्रान्तिकारी संस्था अनुशीलन समिति के सक्रिय सदस्य बन गये। सन् १९१६ के कांग्रेस अधिवेशन में लखनऊ गये। वहाँ संयुक्त प्रान्त (वर्तमान यू०पी०) की युवा टोली के सम्पर्क में आये। बाद में कांग्रेस से मोह भंग हुआ और नागपुर में संघ की स्थापना कर डाली। मृत्युपर्यन्त सन् १९४० तक वे इस संगठन के सर्वेसर्वा रहे।

संक्षिप्त जीवन परिचय

डॉ. हेडगेवार का जन्म १ अप्रैल, १८८९ को महाराष्ट्र के नागपुर जिले में पण्डित बलिराम पन्त हेडगेवार के घर हुआ था। इनकी माता का नाम रेवतीबाई था। माता-पिता ने पुत्र का नाम केशव रखा। केशव का बड़े लाड़-प्यार से लालन-पालन होता रहा। उनके दो बड़े भाई भी थे, जिनका नाम महादेव और सीताराम था। पिता बलिराम वेद-शास्त्र के विद्वान थे एवं वैदिक कर्मकाण्ड (पण्डिताई) से परिवार का भरण-पोषण चलाते थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुयायी व आर्य समाज में निष्ठा होने के कारण उन्होंने अग्निहोत्र का व्रत लिया हुआ था। परिवार में नित्य वैदिक रीति से सन्ध्या-हवन होता था।

बडे भाई से प्रेरणा

केशव के सबसे बड़े भाई महादेव भी शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता तो थे ही मल्ल-युद्ध की कला में भी बहुत माहिर थे। वे रोज अखाड़े में जाकर स्वयं तो व्यायाम करते ही थे गली-मुहल्ले के बच्चों को एकत्र करके उन्हें भी कुश्ती के दाँव-पेंच थे। महादेव भारतीय संस्कृति और विचारों का बड़ी सख्ती से पालन करते थे। केशव के मानस-पटल पर बडे भाई महादेव के विचारों का गहरा प्रभाव था। किन्तु वे बडे भाई की अपेक्षा बाल्यकाल से ही क्रान्तिकारी विचारों के थे। जिसका परिणाम यह हुआ कि वे डॉक्टरी पढ़ने के लिये कलकत्ता गये और वहाँ से उन्होंने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से प्रथम श्रेणी में डॉक्टरी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की; परन्तु घर वालों की इच्छा के विरुद्ध देश-सेवा के लिए नौकरी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। डॉक्टरी करते करते ही उनकी तीव्र नेतृत्व प्रतिभा को भांप कर उन्हें हिन्दू महासभा बंगाल प्रदेश का उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया |

क्रान्ति का बीजारोपण

कलकत्ते में पढाई करते हुए उनका मेल-मिलाप बंगाल के क्रान्तिकारियों से हुआ। केशव चूँकि कलकत्ता में अपने बडे भाई महादेव के मित्र श्याम सुन्दर चक्रवर्ती के घर रहते थे अत: वहाँ के स्थानीय लोग उन्हें केशव चक्रवर्ती के नाम से ही जानते व सम्बोधित करते थे। उनकी असाधारण योग्यता को मद्देनजर रखते हुए उन्हें पहले अनुशीलन समिति का साधारण सदस्य बनाया गया। उसके बाद जब वे कार्यकुशलता की कसौटी पर खरे उतरे तो उन्हें समिति का अन्तरंग सदस्य भी बना लिया गया। उनकी तीव्र नेतृत्व प्रतिभा को देख कर उन्हें हिन्दू महासभा बंगाल प्रदेश का उपाध्यक्ष भी बनाया गया l इस प्रकार क्रान्तिकारियों की समस्त गतिविधियों का ज्ञान और संगठन-तन्त्र कलकत्ते से सीखकर वे नागपुर लौटे।

कांग्रेस और हिन्दू महासभा में भागीदारी

सन् १९१६ के कांग्रेस अधिवेशन में लखनऊ गये। वहाँ संयुक्त प्रान्त (वर्तमान यू०पी०) की युवा टोली के सम्पर्क में आये। बाद में आपका कांग्रेस से मोह भंग हुआ और नागपुर में संघ की स्थापना कर डाली।
लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद केशव कॉग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों में काम करते रहे। गांधीजी के अहिंसक असहयोग आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलनों में भाग लिया, परन्तु ख़िलाफ़त आंदोलन की जमकर आलोचना की। ये गिरफ्तार भी हुए और सन् १९२२ में जेल से छूटे। नागपुर में १९२३ के दंगों के दौरान इन्होंने डॉक्टर मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया। अगले साल सावरकर के पत्र हिन्दुत्व का संस्करण निकला जिसमें इनका योगदान भी था। इसकी मूल पांडुलिपि इन्हीं के पास थी।

व्यक्तित्व व कृतित्व

१९२१ ई. में अंग्रेजो ने तुर्की को परास्त कर, वहां के सुल्तान को गद्दी से उतार दिया था, वही सुल्तान मुसलमानों के खलीफा/मुखिया भी कहलाते थे, ये बात भारत व अन्य मुस्लिम देशों के मुसलमानों को नागवार गुजरी जिससे जगह-जगह आन्दोलन हुए l हिन्दुस्थान में खासकर केरल के मालाबार जिले में आन्दोलन ने उग्र रूप ले लिया l
१९२२ ई. में भारत के राजनीतिक पटल पर गांधी के आने के पश्चात ही मुस्लिम सांप्रदायिकता ने अपना सिर उठाना प्रारंभ कर दिया। खिलाफत आंदोलन को गांधी जी का सहयोग प्राप्त था - तत्पश्चात नागपुर व अन्य कई स्थानों पर हिन्दू, मुस्लिम दंगे प्रारंभ हो गये तथा नागपुर के कुछ हिन्दू नेताओं ने समझ लिया कि हिन्दू एकता ही उनकी सुरक्षा कर सकती है। ऐसी स्थिति में कई हिंदू नेता केरल की स्थिती जानने एवं वहां के लूटे पिटे हिंदुओं की सहायता के लिए मालाबार-केरल गये, इनमें नागपुर के प्रमुख हिंदू महासभाई नेता डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे, डॉ. हेडगेवार, आर्य समाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद जी आदि थे, उसके थोड़े समय बाद नागपुर तथा अन्य कई शहरों में भी हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए l ऐसी घटनाओं से विचलित होकर नागपुर में डॉ. मुंजे ने कुछ प्रसिद्ध हिंदू नेताओं की बैठक बुलाई, जिनमें डॉ. हेडगेवार एवं डॉ. परांजपे भी थे, इस बैठक में उन्होंने एक हिंदू-मिलीशिया बनाने का निर्णय लिया, उद्देश्य था “हिंदुओं की रक्षा करनाएवं हिन्दुस्थान को एक सशक्त हिंदू राष्ट्र बनाना”l इस मिलीशिया को खड़े करने की जिम्मेवारी धर्मवीर डॉ. मुंजे ने डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार को दी l
डॉ.साहब ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने व्यक्ति की क्षमताओं को उभारने के लिये नये-नये तौर-तरीके विकसित किये। हालांकि प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की असफल क्रान्ति और तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक अर्ध-सैनिक संगठन की नींव रखी। इस प्रकार 28/9/1925 (विजयदशमी दिवस) को अपने पिता-तुल्य गुरु डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे , उनके शिष्य डॉ. हेडगेवार, श्री परांजपे और बापू साहिब सोनी ने एक हिन्दू युवक क्लब की नींव डाली, जिसका नाम कालांतर में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ दिया गया l
यहाँ पर उल्लेखनीय है कि इस मिलीशिया का आधार बना - वीर सावरकर का राष्ट्र दर्शन ग्रन्थ(हिंदुत्व) जिसमे हिंदू की परिभाषा यह की गई थी- आ सिंधु-सिंधु पर्यन्ता, यस्य भारत भूमिका l पितृभू-पुण्यभू भुश्चेव सा वै हिंदू रीती स्मृता ll
इस श्लोक के अनुसार “भारत के वह सभी लोग हिंदू हैं जो इस देश को पितृभूमि-पुण्यभूमि मानते हैं”l इनमे सनातनी, आर्यसमाजी, जैन , बौद्ध, सिख आदि पंथों एवं धर्म विचार को मानने वाले व उनका आचरण करने वाले समस्त जन को हिंदू के व्यापक दायरे में रखा गया था l मुसलमान व ईसाई इस परिभाषा में नहीं आते थे अतः उनको इस मिलीशिया में ना लेने का निर्णय लिया गया और केवल हिंदुओं को ही लिया जाना तय हुआ, मुख्य मन्त्र था “अस्पष्टता निवारण एवं हिंदुओं का सैनिकी कारण”l
ऐसी मिलीशिया को खड़ा करने के लिए स्वंयसेवको की भर्ती की जाने लगी, सुबह व शाम एक-एक घंटे की शाखायें लगाई जाने लगी| इसे सुचारू रूप से चलाने के लिए शिक्षक, मुख्य शिक्षक, घटनायक आदि पदों का सृजन किया गया l इन शाखायों में व्यायाम, शरारिक श्रम, हिंदू राष्ट्रवाद की शिक्षा के साथ- साथ वरिष्ठ स्वंयसेवकों को सैनिक शिक्षा भी दी जानी तय हुई l बाद में यदा कदा रात के समय स्वंयसेवकों की गोष्ठीयां भी होती थी, जिनमें महराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, बंदा बैरागी, वीर सावरकर, मंगल पांडे, तांत्या टोपे आदि की जीवनियाँ भी पढ़ी जाती थीं l वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक(हिंदुत्व) के अंश भी पढ़ कर सुनाये जाते थे l
थोड़े समय बाद इस मिलीशिया को नाम दिया गया राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ- जो आर.एस.एस. के नाम से प्रसिद्ध हुआ l प्रार्थना भी मराठी की बजाय संस्कृत भाषा में होने लगी l वरिष्ठ स्वंय सेवकों के लिए ओ.टी.सी. कैम्प लगाये जाने लगे, जहाँ उन्हें अर्धसैनिक शिक्षा भी दी जाने लगी l इन सब कार्यों के लिए एक अवकाश प्राप्त सैनिक अधिकारी श्री मारतंडे राव जोग की सेवाएं ली गईं l सन् १९३५-३६ तक ऐसी शाखाएं केवल महाराष्ट्र तक ही सीमित थी और इसके स्वंयसेवकों की संख्या कुछ हज़ार तक ही थी, पर सरसंघचालक और स्वंयसेवकों का उत्साह देखने लायक था l स्वयं डॉ. हेडगेवार इतने उत्साहित थे कि अपने एक उदबोधन में उन्होंने कहा की:-
“संघ के जन्मकाल के समय की परिस्थिति बड़ी विचित्र सी थी, हिंदुओं का हिन्दुस्थान कहना उस समय निरा पागलपन समझा जाता था और किसी संगठन को हिंदू संगठन कहना देश द्रोह तक घोषित कर दिया जाता था” l (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ तत्व और व्यवहार पृष्ठ ६४ )
डॉ. हेडगेवार ने जिस दुखद स्थिति को व्यक्त किया, उसमें नवसर्जित राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और हिंदू महासभा के नेतृत्व के प्रयास से- हिंदू युवाओं में साहस के साथ यह नारा गूंजने लगा “हिन्दुस्थान हिंदुओं का- नहीं किसी के बाप का” इस कथन की विवेचना डॉ. हेडगेवार ने इन शब्दों में की:-
“कई सज्जन यह कहते हुए भी नहीं हिचकिचाते की हिन्दुस्थान केवल हिन्दुओ का ही कैसे? यह तो उन सभी लोगों का है जो यहाँ बसते हैं l खेद है की इस प्रकार का कथन/आक्षेप करने वाले सज्जनों को राष्ट्र शब्द का अर्थ ही ज्ञात नहीं l केवल भूमि के किसी टुकड़े को राष्ट्र नहीं कहते l एक विचार-एक आचार-एक सभ्यता एवं परम्परा में जो लोग पुरातन काल से रहते चले आए हैं उन्हीं लोगों की संस्कृति से राष्ट्र बनता है l इस देश को हमारे ही कारण हिन्दुस्थान नाम दिया गया है l दूसरे लोग यदि समोपचार से इस देश में बसना चाहते हैं तो अवश्य बस सकते हैं l हमने उन्हें न कभी मना किया है न करेंगे l किंतु जो हमारे घर अतिथि बन कर आते हैं और हमारे ही गले पर छुरी फेरने पर उतारू हो जाते हैं उनके लिए यहाँ रत्ती भर भी स्थान नहीं मिलेगा l संघ की इस विचारधारा को पहले आप ठीक ठाक समझ लीजिए l” (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पृष्ठ १४)
एक अन्य अवसर पर डॉ. हेडगेवार ने कहा था “संघ तो केवल, हिन्दुस्थान हिंदुओं का- इस ध्येय वाक्य को सच्चा कर दिखाना चाहता है l” दूसरे देशों के सामान, “यह हिंदुओं का होने के कारण”- इस देश में हिंदू जो कहेंगे वही पूर्व दिशा होगी ( अर्थात वही सही माना जाएगा) l यही एक बात है जो संघ जानता है, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के लिए किसी भी अन्य पचड़े में पड़ने की आवश्कता नहीं है l”(तदैव पृष्ठ ३८)
जब वीर सावरकर रत्नागिरी में दृष्टि बंद (नजरबंद) थे, तब डा. हेडगेवार वहां उनसे मिलने गये। तब तक वह वीर सावरकर रचित पुस्तक हिन्दुत्व भी पढ़ चुके थे। डा. हेडगेवार उस पुस्तक के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उसकी सराहना करते हुए बोले कि “वीर सावरकर एक आदर्श व्यक्ति है”।
दोनों (सावरकर एवं हेडगेवार) का विश्वास था कि जब तक हिन्दू अंध विश्वास, पुरानी रूढ़िवादी सोच, धार्मिक आडम्बरों को नहीं छोडेंगे तब तक हिन्दू-जातीवाद , छूत-अछूत, शहरी-बनवासी और छेत्रवाद इत्यादि में बंटा रहेगा, और जब तक वह संगठित एवं एक जुट नही होगा, तब तक वह संसार में अपना उचित स्थान नही ले सकेगा।
सन् 1937 में वीर सावरकर की दृष्टिबंदी (नजरबंदी) समाप्त हो गयी, और उसके बाद वे राजनीति में भाग ले सकते थे। उसी वर्ष वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये जिसके उपाध्यक्ष डा. हेडगेवार थे। 1937 में हिन्दू महासभा का अधिवेशन कर्णावती (अहमदाबाद) में हुआ। इस अधिवेशन में वीर सावरकर के अध्यक्षीय भाषण को “हिन्दू राष्ट्र दर्शन” के नाम से जाना जाता है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापकों में से दो मुख्य व्यक्ति डा. मुंजे एवं डा. हेडगेवार हिन्दू महासभाई थे, और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू एवं हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या को ही अपना आधार बनाया था, साथ ही वीर सावरकर के मूलमंत्र- अस्पर्श्यता निवारण और हिन्दुओं के सैनिकीकरण आदि सिद्धांत को मान्य किया था l
इसी परिपेक्ष्य में हिन्दू महासभा ने भी उस समय एक प्रस्ताव पास कर अपने कार्यकर्ताओ एवं सदस्यों को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। आर.एस.एस. की विस्तार योजना के अनुसार उसके नागपुर कार्यालय से बड़ी संख्या में युवक, दो जोड़ी धोती एवं कुर्ता ले कर संघ शाखाओ की स्थापना हेतु दिल्ली, लाहौर, पेशावर, क्वेटा, मद्रास, गुवाहाटी आदि विभिन्न शहरों में भेजे गये।
दिल्ली में पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग नयी दिल्ली के प्रांगण में हिन्दू सभाई नेता प्राध्यापक राम सिंह की देख रेख में श्री बसंत राव ओक द्वारा संचालित की गयी। लाहौर में शाखा हिन्दू महासभा के प्रसिद्द नेता डा. गोकुल चंद नारंग की कोठी में लगायी जाती थी, जिसका संचालन श्री मुले जी एवं धर्मवीर जी (जो महान हिन्दू सभाई नेता देवता स्वरुप भाई परमानन्द जी के दामाद थे ) द्वारा किया जाता था। पेशावर में आर.एस.एस. की शाखा सदर बाजार से सटी गली के अंदर हिन्दू महासभा कार्यालय में लगायी जाती थी जिसकी देख रेख श्री मेहर चंद जी खन्ना- तत्कालिक सचिव हिन्दू महासभा करते थे।
वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर.एस.एस. में विलय कर दिया। वीर सावरकर के मित्र एवं हजारों ईसाईयों को शुद्धि द्वारा दोबारा हिन्दू धर्म में लाने वाले संत पान्च्लेगॉंवकर ने उस समय अपने 5,000 सदस्यों वाले संगठन “मुक्तेश्वर दल” को भी आर.एस.एस. में विलय करा दिया। उद्देश्य था कि हिन्दुओ का एक ही युवा शक्तिशाली संगठन हो। इस प्रकार संघ की नीतियों, पर हिंदू महासभा व वीर सावरकर के हिन्दुवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था l
इस तरह डा. हेडगेवार के कुशल निर्देशन, हिन्दू महासभा के सहयोग एवं नागपुर से भेजे गये प्रचारकों के अथक परिश्रम एवं तपस्या के कारण संघ का विस्तार होता गया और 1946 के आते-आते संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या करीब सात लाख हो गयी। उन प्रचारको की लगन सराहनीय थी। इनके पास महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी की जीवनी की छोटी छोटी पुस्तके एवं वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक हिंदुत्व रहती थी।
1938 में वीर सावरकर दूसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयं सेवको द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डा. हेडगेवार ने किया था। उन्होंने उस अवसर पर वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे-आगे श्री भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के उच्चतम श्रेणी के स्वयं सेवक थे, वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज ले कर चल रहे थे।
हैदराबाद( दक्षिण) के मुस्लिम शासक निजाम ने वहाँ के हिन्दुओ का जीना दूभर कर रखा था। यहाँ तक कि कोई हिन्दू मंदिर नहीं बना सकता था और यज्ञ आदि करने पर भी प्रतिबन्ध था। 1938 में आर्य समाज ने निजाम हैदराबाद के जिहादी आदेशो के विरुद्ध आन्दोलन करने की ठानी। गाँधीजी ने आर्य समाज को आन्दोलन ना करने की सलाह दी। वीर सावरकर ने कहा कि अगर आर्य समाज आन्दोलन छेड़ता है तो हिन्दू महासभा उसे पूरा-पूरा समर्थन देगी।
आंदोलन चला, लगभग 25,000 सत्याग्रही देश के विभिन्न भागों से आये| निजाम की पुलिस और वहाँ के रजाकारो द्वारा उन सत्याग्रहियों की जेल में बेदर्दी से पिटाई की जाती थी। बीसियों सत्याग्रहियों की रजाकारों की निर्मम पिटाई से मृत्यु तक हो गयी। इन सत्याग्रहियों में लगभग 12,000 हिन्दू महासभाई थे। वीर सावरकर ने स्वयं पूना जा कर कई जत्थे हैदराबाद भिजवाये। पूना से सबसे बड़ा जत्था हुतात्मा नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद भिजवाया, इनमे हिन्दू महासभा कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त संघ के भी कई स्वयं सेवक थे। इस तरह 1940 तक- जब तक डा. हेडगेवार जीवित थे, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को हिन्दू महासभा का युवा संगठन ही माना जाता था।
धर्मवीर डाक्टर मुंजे और वीर सावरकर के सान्निध्य में डाक्टर हेडगेवार ने भारत की गुलामी के कारणों को बडी बारीकी से पहचाना और इसके स्थाई समाधान हेतु हिन्दू महासभा-संघ कार्य प्रारम्भ किया। इन्होंने सदैव यही बताने का प्रयास किया कि नई चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें नये तरीकों से काम करना पड़ेगा और स्वयं को बदलना होगा, अब ये पुराने तरीके काम नहीं आएंगे। 
डॉ.साहब १९२५ से १९४० तक, यानि मृत्यु पर्यन्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे। २१ जून,१९४० को इनका नागपुर में निधन हुआ। इनकी समाधि रेशम बाग नागपुर में स्थित है, जहाँ इनका अंत्येष्टि संस्कार हुआ था।
 (जानकारी विकिपीडिया से साभार)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं प्रकाण्ड क्रान्तिकारी स्व॰ डॉ. हेडगेवार जी की ७४ वीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम उन्हें शत शत नमन करते है |

बुधवार, 18 जून 2014

खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी

आज महाबलिदानी महारानी लक्ष्मी बाई का १५६ वां महाबलिदान दिवस है !

महारानी लक्ष्मी बाई
झाँसी की रानी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,

लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,

नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,

बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,

देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,

नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,

सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।

महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,

ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,

राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,

किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,

तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,

रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,

राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,

फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,

लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।

अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,

व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,

डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,

राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,

वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,

नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,

बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,

यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,

झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,

मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,

जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,

लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,

रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,

अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,

काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,

युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,

किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,

घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,

रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

- सुभद्रा कुमारी चौहान

महाबलिदानी महारानी लक्ष्मी बाई को उन के १५६ वें महाबलिदान दिवस पर हम सब का शत शत नमन !

रविवार, 15 जून 2014

हैप्पी फादर'स डे

आज फादर'स डे है ... मैं इस बहस में नहीं पड़ता कि यह रस्म देशी है या विदेशी ... मुझे यह पसंद है ! आज मैं खुद एक पिता हूँ  और जानता हूँ एक पिता होना कैसा लगता है ... कितनी भावनाएं ... कितने अरमान जुड़े होते है एक पिता और पुत्र के रिश्ते में !





आज के दिन मेरी यही दुआ है कि मेरे पापा और मेरा पुत्र दोनों सदा स्वस्थ रहे और प्रसन्न रहें ! 

हैप्पी फादर'स डे ... पा ... कार्तिक ... 

शनिवार, 14 जून 2014

विश्व रक्तदान दिवस

विश्व रक्तदान दिवस 14 जून को घोषित किया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा हर साल 14 जून को 'रक्तदान दिवस' मनाया जाता है। वर्ष 1997 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 100 फीसदी स्वैच्छिक रक्तदान नीति की नींव डाली है। वर्ष 1997 में संगठन ने यह लक्ष्य रखा था कि विश्व के प्रमुख 124 देश अपने यहाँ स्वैच्छिक रक्तदान को ही बढ़ावा दें। मकसद यह था कि रक्त की जरूरत पड़ने पर उसके लिए पैसे देने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए, पर अब तक लगभग 49 देशों ने ही इस पर अमल किया है। तंजानिया जैसे देश में 80 प्रतिशत रक्तदाता पैसे नहीं लेते, कई देशों जिनमें भारत भी शामिल है, रक्तदाता पैसे लेता है। ब्राजील में तो यह क़ानून है कि आप रक्तदान के पश्चात किसी भी प्रकार की सहायता नहीं ले सकते। ऑस्ट्रेलिया के साथ साथ कुछ अन्य देश भी हैं जहाँ पर रक्तदाता पैसे बिलकुल भी नहीं लेते। 

14 जून ही क्यों ?

बहुत कम लोग जानते हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रक्तदान को बढ़ावा देने के लिए 14 जून को ही विश्व रक्तदाता दिवस के तौर पर क्यों चुना ! दरअसल कार्ल लेण्डस्टाइनर (जन्म- 14 जून 1868 - मृत्यु- 26 जून 1943) नामक अपने समय के विख्यात ऑस्ट्रियाई जीवविज्ञानी और भौतिकीविद की याद में उनके जन्मदिन के अवसर पर दिन तय किया गया है। वर्ष 1930 में शरीर विज्ञान में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित उपरोक्त मनीषि को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने रक्त में अग्गुल्युटिनिन की मौजूदगी के आधार पर रक्त का अलग अलग रक्त समूहों - ए, बी, ओ में वर्गीकरण कर चिकित्साविज्ञान में अहम योगदान दिया।


भारत में रक्तदान की स्थिति

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के तहत भारत में सालाना एक करोड़ यूनिट रक्त की जरूरत है लेकिन उपलब्ध 75 लाख यूनिट ही हो पाता है। यानी क़रीब 25 लाख यूनिट रक्त के अभाव में हर साल सैंकड़ों मरीज़ दम तोड़ देते हैं। राजधानी दिल्ली में आंकड़ों के मुताबिक यहां हर साल 350 लाख रक्त यूनिट की आवश्यकता रहती है, लेकिन स्वैच्छिक रक्तदाताओं से इसका महज 30 फीसदी ही जुट पाता है। जो हाल दिल्ली का है वही शेष भारत का है। यह अकारण नहीं कि भारत की आबादी भले ही सवा अरब पहुंच गयी हो, रक्तदाताओं का आंकड़ा कुल आबादी का एक प्रतिशत भी नहीं पहुंच पाया है। विशेषज्ञों के अनुसार भारत में कुल रक्तदान का केवल 59 फीसदी रक्तदान स्वेच्छिक होता है। जबकि राजधानी दिल्ली में तो स्वैच्छिक रक्तदान केवल 32 फीसदी है। दिल्ली में 53 ब्लड बैंक हैं पर फिर भी एक लाख यूनिट रक्त की कमी है। वहीं तीसरी दुनिया के कई सारे देश हैं जो इस मामले में भारत को काफ़ी पीछा छोड़ देते हैं। मालूम हो हाल में राजशाही के जोखड़ से मुक्त होकर गणतंत्र बने नेपाल में कुल रक्त की जरूरत का 90 फीसदी स्वैच्छिक रक्तदान से पूरा होता है तो श्रीलंका में 60 फीसदी, थाईलेण्ड में 95 फीसदी, इण्डोनेशिया में 77 फीसदी और अपनी निरंकुश हुकूमत के लिए चर्चित बर्मा में 60 फीसदी हिस्सा रक्तदान से पूरा होता है।


रक्तदान को लेकर विभिन्न भ्रांतियाँ

रक्त की महिमा सभी जानते हैं। रक्त से आपकी ज़िंदगी तो चलती ही है साथ ही कितने अन्य के जीवन को भी बचाया जा सकता है। दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में अभी भी बहुत से लोग यह समझते हैं कि रक्तदान से शरीर कमज़ोर हो जाता है और उस रक्त की भरपाई होने में महिनों लग जाते हैं। इतना ही नहीं यह ग़लतफहमी भी व्याप्त है कि नियमित रक्त देने से लोगों की रोगप्रतिकारक क्षमता कम होती है और उसे बीमारियां जल्दी जकड़ लेती हैं। यहाँ भ्रम इस क़दर फैला हुआ है कि लोग रक्तदान का नाम सुनकर ही सिहर उठते हैं। भला बताइए क्या इससे पर्याप्त मात्रा में रक्त की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकती है?

विश्व रक्तदान दिवस समाज में रक्तदान को लेकर व्याप्त भ्रांति को दूर करने का और रक्तदान को प्रोत्साहित करने का काम करता है। भारतीय रेडक्रास के राष्ट्रीय मुख्यालय के ब्लड बैंक की निदेशक डॉ. वनश्री सिंह के अनुसार देश में रक्तदान को लेकर भ्रांतियाँ कम हुई हैं पर अब भी काफ़ी कुछ किया जाना बाकी है।


रक्तदान के सम्बन्ध में चिकित्सा विज्ञान

आम जन को यह पता होना चाहिए कि मनुष्य के शरीर में रक्त बनने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है और रक्तदान से कोई भी नुकसान नहीं होता बल्कि यह तो बहुत ही कल्याणकारी कार्य है जिसे जब भी अवसर मिले संपन्न करना ही चाहिए।
रक्तदान के सम्बन्ध में चिकित्सा विज्ञान कहता है, कोई भी स्वस्थ्य व्यक्ति जिसकी उम्र 16 से 60 साल के बीच हो, जो 45 किलोग्राम से अधिक वजन का हो और जिसे जो एचआईवी, हेपाटिटिस बी या सी जैसी बीमारी न हुई हो, वह रक्तदान कर सकता है।
एक बार में जो 350 मिलीग्राम रक्त दिया जाता है, उसकी पूर्ति शरीर में चौबीस घण्टे के अन्दर हो जाती है और गुणवत्ता की पूर्ति 21 दिनों के भीतर हो जाती है। दूसरे, जो व्यक्ति नियमित रक्तदान करते हैं उन्हें हृदय सम्बन्धी बीमारियां कम परेशान करती हैं।
तीसरी अहम बात यह है कि हमारे रक्त की संरचना ऐसी है कि उसमें समाहित रेड ब्लड सेल तीन माह में स्वयं ही मर जाते हैं, लिहाज़ा प्रत्येक स्वस्थ्य व्यक्ति तीन माह में एक बार रक्तदान कर सकता है। जानकारों के मुताबिक आधा लीटर रक्त तीन लोगों की जान बचा सकता है।
चिकित्सकों के मुताबिक रक्तदान के बारे में कुछ बातें गौरतलब हैं, एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि रक्त का लम्बे समय तक भण्डारण नहीं किया जा सकता है|

पेशेवर रक्तदानकर्ता

आज ब्लड बैंकों में कई पेशेवर डोनर्स जब-तब रक्त बेचते हैं। तमाम शराबी, ड्रगिस्ट अपनी लत की भूख मिटाने के लिए थोड़े से पैसे की खातिर कई-कई बार रक्त बेचते हैं। इनमें से अधिकांश गंभीर रोगों से भी ग्रस्त होते है। अब ऐसा रक्त किसी को चढ़ा दिया जाए तो स्वाभाविक है कि वह बचने की बजाय बेमौत मारा जाएगा। लेकिन होता ऐसा ही है। आज भी दिल्ली, मुंबई सहित कई बड़े शहरों में ऐसे रक्तदाता मिल जाएँगे जो कि चंद रुपयों के लिए अपना रक्त बेच देते हैं। इनमें से अधिकांश का रक्त दूषित होता है या उन्होंने दो चार दिन के भीतर ही रक्त दिया रहता है। जरूरत पड़ने पर व्यक्ति इनसे रक्त तो ले लेता है, परंतु बाद में उसे इसके परिणाम भुगतने पड़ते हैं।
 
रक्तदानकर्ता

वैसे रक्तदान को लेकर विभिन्न ग़लतफहमियों का शिकार लोगों के लिए सुरेश कामदास, जिनकी उम्र फिलहाल 76 साल है, एक जीता जागता जवाब हैं। 1962 से शुरू करके वर्ष 2000 तक वह 150 बार रक्तदान कर चुके हैं। यह अकारण नहीं कि वर्ष 2012 के जून माह में विश्व रक्तदान दिवस (14 जून) पर वे उन गिनेचुने लोगों में शामिल थे, जिन्हें सम्मानित किया गया। वैसे अब चूंकि डाक्टरों ने खुद उन्हें रक्त देने से मना किया है, उन्होंने अपने स्तर पर एक अलग किस्म की प्रचार मुहिम हाथ में ली है, लोगों को रक्तदान के लिए प्रेरित करने की।
वैसे सुरेश कामदास जैसे लोग अकेले नहीं हैं जिन्होंने रक्तदान के प्रचार का बीड़ा उठाया है। रामपुरा फुल एक छोटासा कस्बा है जो वहां की मण्डी के लिए मशहूर है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि पंजाब के भटिण्डा शहर के इस कस्बे में आज से लगभग तीस साल पहले एक अलग किस्म के संगठित प्रयास की नींव पड़ी, जिसका प्रभाव न केवल समूचे ज़िले में बल्कि आसपास की अन्य मण्डियों में भी पहुंचा है। और इसका ताल्लुक किसी लेन-देन से नहीं है बल्कि एक अलग किस्म के दान से है, जिसके बारे में शेष हिन्दोस्तां के लोग बहुत उत्साहित नहीं रहते हैं। दरअसल आम हिन्दोस्तानी भले ही रक्तदान करने से हिचकते हों, लेकिन भटिण्डा में आज दस हज़ार से अधिक स्वैच्छिक रक्तदानकर्ता हैं जो नियमित तौर पर रक्तदान करते हैं। रक्तदान के लिए लोगों के इस बढ़ते उत्साह का ही परिणाम है आम तौर पर अपनी क्षमता से कम रक्त संग्रहित कर सकने वाले ब्लड बैंकों की देशभर की स्थिति के विपरीत यहां के ब्लड बैंकों को अपने यहां एकत्रित रक्त को आसपास के शहरों - फरीदकोट, पटियाला के मेडिकल कॉलेजों में भेजना पड़ता है।

टाईम्स ऑफ़ इण्डिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि रक्तदान के बारे में व्याप्त तमाम मिथकों के टूटने के बाद लोगों में इसे लेकर इतना उत्साह का वातावरण रहता है कि लोग शादी के मण्डप के बाहर रक्तदान शिविर रखते हैं या किसी श्रद्धांजलि सभा के स्थान पर रक्तदान शिविर का आयोजन करते हैं। रक्तदान को अभियान के तौर पर लेने के रामपुर फुल के इस प्रयास की शुरुआत आम भाषा में साधारण कहे जाने वाले व्यक्ति ने की थी, जिनका नाम था हज़ारीलाल बंसल। बताया जाता है कि उनकी बेटी किसी गम्भीर बीमारी से पीड़ित थी और रक्त की अचानक जरूरत पड़ी। अन्तत: रक्त का इन्तज़ाम किसी तरह हुआ और बेटी बच भी गयी, लेकिन इस छोटी सी घटना ने हज़ारीलाल के जीवन को एक नया मकसद प्रदान किया और वह रक्तदान की महत्ता लोगो को बताने के काम में जुटे और लोग भी जुड़ते गए।

सोनीपत हरियाणा के गबरुद्दीन 163 बार रक्त दे चुके हैं। उन्होंने बताया कि उनके जीवन का ध्येय रक्त देकर लोगों की सहायता करना है। रेडक्रास में रक्त देने आए दिल्ली के सरस्वती विहार के पंकज शर्मा पिछले कई सालों से स्वेच्छा से यह काम करते आ रहे है। उनका कहना है कि लोगों को रक्तदान की महत्ता समझनी होगी। यह महादान है।

रक्तदान के लिए जागरूकता
सभ्यता के विकास की दौड़ में मनुष्य भले ही कितना आगे निकल जाए, पर जरूरत पड़ने पर आज भी एक मनुष्य दूसरे को अपना रक्त देने में हिचकिचाता है। रक्तदान के प्रति जागरूकता लाने की तमाम कोशिशों के बावजूद मनुष्य को मनुष्य का रक्त ख़रीदना ही पड़ता है। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि कई दुर्घटनाओं में रक्त की समय पर आपूर्ति न होने के कारण लोग असमय मौत के मुँह में चले जाते हैं। रक्तदान के प्रति जागरूकता जिस स्तर पर लाई जाना चाहिए थी, उस स्तर पर न तो कोशिश हुई और न लोग जागरूक हुए। भारत की बात की जाए तो अब तक देश में एक भी केंद्रीयकृत रक्त बैंक की स्थापना नहीं हो सकी है जिसके माध्यम से पूरे देश में कहीं पर भी रक्त की जरूरत को पूरा किया जा सके। टेक्नोलॉजी में हुए विकास के बाद निजी तौर पर वेबसाइट्स के माध्यम से ब्लड बैंक व स्वैच्छिक रक्तदाताओं की सूची को बनाने का कार्य आरंभ हुआ। इसमें थोड़ी-बहुत सफलता भी मिली, लेकिन संतोषजनक हालात अभी नहीं बने।

डॉ. वनश्री कहती हैं कि रेडक्रास में 85 फीसदी रक्तदान स्वैच्छिक होता है और इसे 95 फीसदी तक करने की कार्ययोजना है। सरकार और विभिन्न संगठनों को ब्लड कैंप और मोबाइल कैंप लगा कर लोगों को रक्तदान के लिए प्रेरित करना चाहिए। लोगों को बताना होगा कि रक्तदान का कोई भी दुष्प्रभाव नहीं बल्कि यह आपको लोगों की जान बचाने वाला सुपरहीरो बनाता है। जागरुक लोगों को इस दिशा में सोचना होगा कि कैसे देश की अधिकांश आबादी को रक्तदान की महिमा समझाई जाए ताकि वे वक्त-हालात को समझ सकें और जब भी जरूरत हो इस परोपकारी कृत्य से पीछे ना हटें।

एड्स के बाद जारूकता

अस्सी के दशक के बाद रक्तदान करते समय काफ़ी सावधानी बरती जाने लगी है। रक्तदाता भी खुद यह जानकारी लेता है कि क्या रक्तदान के दौरान सही तरीके के चिकित्सकीय उपकरण प्रयोग किए जा रहे हैं। वैसे एड्स के कारण जहाँ जागरूकता बढ़ी, वहीं आम रक्तदाता के मन में भय भी बैठा है। इससे भी रक्तदान के प्रति उत्साह में कमी आई। इसका फ़ायदा कई ऐसे लोगों ने उठाया जिनका काम ही रक्त बेचना है।
अन्त में, क्या अब भी आप रक्तदान को लेकर उन्हीं मिथकों के ग़ुलाम बने रहेंगे या बगल ब्लड बैंक में जाकर डाक्टर से कहेंगे कि मैं अब तैयार हूं इस महादान के लिए। 
(जानकारी भारत कोश से साभार) 

बुधवार, 11 जून 2014

'गुमनामी बाबा' की गुमनाम सहयोगी - लीला राय


परिचय : 
लीला नाग का जन्म ढाका के प्रतिष्ठित परिवार में 2 अक्तूबर 1900 ई. में हुआ था। उनके पिता का नाम गिरीश चन्द्र नाग और माता का नाम कुंजलता नाग था | 

लीला नाग (बाद में लीला राय) का भारत की महिला क्रांतिकारियों में विशिष्ट स्थान है। पर दुर्भाग्य से उन्हें अपने योगदान के अनुरूप ख्याति नहीं मिल पाई।

शिक्षा :
उन्होंने ढाका और कलकत्ता में उच्च शिक्षा प्राप्त की। इंग्लिश मे गोल्ड मेडेलिस्ट लीला नाग ढाका विश्वविद्यालय मे दाखिला लेने वाली प्रथम महिला थी | जहां से उन्होने अपनी एमए की डिग्री ली |

समाजसेवा और आंदोलन :
वे शुरू से ही समाजसेवा से जुड़ी रही खास तौर पर उन्होने लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा दीक्षा पर विशेष ज़ोर दिया | वे आत्मरक्षा के लिए लड़कियों और महिलाओं को मार्शल आर्ट्स सीखने के लिए भी प्रेरित करती थी | ढाका में शिक्षा प्राप्त करते हुए वे 'मुक्ति संघ' के सम्पर्क में आई एवं लड़कियों को शिक्षित करने के लिए 'दीपाली संघ' नामक एक संगठन बनाया। इस संगठन की उन्होंने 'दीपाली स्कूल', 'नारी शिक्षा मन्दिर', 'शिक्षा भवन' एवं 'शिक्षा निकेतन' आदि नाम से कई शाखाएँ खोलीं।  अंग्रेज़ों की गुप्तचर रिपोर्ट के अनुसार ऊपर से सीधी- सादी दिखने वाली इन संस्थाओं में लड़कियों को क्रांति की शिक्षा और प्रशिक्षण दिया जाता था। प्रथम महिला शहीद प्रीतिलता वड्डेदार को इन्हीं संस्थाओं में दीक्षा मिली थी।

1921 मे बंगाल मे बाढ़ आई हुई थी उसी दौरान लीला नाग की मुलाक़ात नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से हुई ... जो राहत कार्यों का नेतृत्व करने वहाँ आए हुये थे | लीला नेताजी से प्रभावित हुई और राहत कार्यों मे अपना सहयोग देने के लिए ढाका महिला कमेटी का गठन किया | नेताजी से लीला का जुड़ाव जीवन के अंतिम पलों तक बना रहा |

1931 मे लीला नाग ने "जयश्री" नाम की एक राष्ट्रवादी पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जिस का पूर्ण नियंत्रण महिलाओं के हाथ मे था ... लेखन से ले कर प्रकाशन तक | इस पत्रिका को बहुत जल्द लोकप्रियता मिली और विभिन्न विभूतियों ने लीला के इस प्रयास की भरपूर प्रशंसा की जिस मे प्रमुख्य तौर पर गुरुदेव टेगौर का नाम शामिल है जिन्होने इस पत्रिका का नामकरण किया था |

लीला नाग को असहयोग आंदोलन के दौरान गिरफ्तार भी किया गया और 6 सालों तक वे जेल मे भी रही | 1938 मे तब के कॉंग्रेस अध्यक्ष नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने लीला को काँग्रेस की राष्ट्रीय प्लानिंग कमेटी मे शामिल किया |

1939 मे लीला का विवाह अनिल चन्द्र राय से हुआ | जब नेताजी बोस ने कॉंग्रेस से इस्तीफा दिया तब इन दोनों भी नेताजी के साथ ही फॉरवर्ड ब्लॉक मे शामिल हो गए |

1941 मे जब ढाका मे भीषण सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे तब लीला राय ने शरत चन्द्र बोस के साथ मिल कर यूनिटी बोर्ड और नेशनल सर्विस ब्रिगेड की स्थापना की | 

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान लीला राय और उनके पति अनिल चन्द्र राय को गिरफ्तार कर लिया गया जिस कारण "जयश्री"पत्रिका का प्रकाशन भी रोक देना पड़ा |

1946 मे जेल से रिहा होने के बाद लीला राय को भारत की संविधान सभा के लिए चुना गया |

1947 के विभाजन के दंगों के दौरान लीला राय गांधी जी के साथ नौआखली मे मौजूद थी ... गांधी जी के वहाँ पहुँचने से भी पहले लीला राय ने वहाँ राहत शिविर की स्थापना कर ली थी और 6 दिनों की पैदल यात्रा के दौरान लगभग 400 महिलाओं को बचाया था | 

आज़ादी के बाद लीला राय कलकते मे ही जरुरतमन्द महिलाओं और ईस्ट बंगाल के शरणार्थीयों के लिए कार्य करती रही |

कलकते मे ही 11 जून 1970 को लीला राय जी का निधन हुआ |


लीला राय और नेताजी / गुमनामी बाबा :
ऐसे सबूत मिले है जो यह दर्शाते है कि लीला राय यह जानती थी कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस १९४५ की कथित विमान दुर्घटना मे मारे नहीं गए थे और उत्तर प्रदेश के फैजाबाद मे 'गुमनामी बाबा' के रूप मे अज्ञातवास मे अपना जीवन बिता रहे थे |

बताया जाता है कि खुद 'गुमनामी बाबा' के ही कहने पर उन्होने 7 सितंबर 1963 मे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के परम मित्र दिलीप कुमार रॉय को एक पत्र लिखा था, उन्हीं के शब्दों मे, 

“I wanted to tell you something about your friend… he is alive – in India.”  

यह भी बताया जाता है कि वे समय समय पर फैजाबाद जा कर 'गुमनामी बाबा' से मुलाक़ात भी करती थीं | फैजाबाद के राम भवन से बरामद 'गुमनामी बाबा' के समान मे 1970 का एक पत्र ऐसा भी है जिस मे उन्होने ने लीला राय को "ली" नाम से संबोधित किया है और लीला राय की मृत्यु पर अपनी श्रद्धांजलि दी है | ज्ञात हो कि  नेताजी सुभाष चन्द्र बोस लीला राय को "ली" कह कर ही संबोधित करते थे | गौरतलब है कि मशहूर हैंडराइटिंग एक्सपर्ट बी लाल ने इस पत्र की जाँच के बाद नेताजी और गुमनामी बाबा की हैंडराइटिंग को एक ही पाया है |
 
आज स्व॰ लीला राय जी ४४ वीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम सब उन्हें शत शत नमन करते है |

जय हिन्द !!!

अमर शहीद पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की ११७ वीं जयंती

आज ११ जून है ... अमर शहीद पंडित राम प्रसाद 'बिस्मिल' जी की ११७ वीं जयंती है आज ! आइये आज के दिन हम सब 'बिस्मिल' जी को याद करें उनकी इस नज़्म के साथ :- 
 


( बिस्मिल के मशहूर उर्दू मुखम्मस ) का काव्यानुवाद जज्वये-शहीद

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर,

हमको भी पाला था माँ-बाप ने दुःख सह-सह कर ,
वक्ते-रुख्सत उन्हें इतना भी न आये कह कर,
गोद में अश्क जो टपकें कभी रुख से बह कर ,
तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को !

अपनी किस्मत में अजल ही से सितम रक्खा था,
रंज रक्खा था मेहन रक्खी थी गम रक्खा था ,
किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था,
हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था ,
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को !

अपना कुछ गम नहीं लेकिन ए ख़याल आता है,
मादरे-हिन्द पे कब तक ये जवाल आता है ,
कौमी-आज़ादी का कब हिन्द पे साल आता है,
कौम अपनी पे तो रह-रह के मलाल आता है ,
मुन्तजिर रहते हैं हम खाक में मिल जाने को  !

नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके,
याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके ,
आपके अज्वे-वदन होवें जुदा कट-कट के,
और सद-चाक हो माता का कलेजा फटके ,
पर न माथे पे शिकन आये कसम खाने को !

एक परवाने का बहता है लहू नस-नस में,
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें ,
सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूँ ही रस्में,
भाई खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में ,
बहने तैयार चिताओं से लिपट जाने को !

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं ,
खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं ,
जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !

नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो,
खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो ,
देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो ,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो ,
देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?

अमर शहीद पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की ११७ वीं जयंती पर उनको शत शत नमन ! 
 
वन्दे मातरम !!
 
इंकलाब ज़िंदाबाद !!

रविवार, 8 जून 2014

५ वीं बरसी पर अश्रुपूरित श्रद्धांजलि

देखते ही देखते ५ साल बीत गए ... पर लगता है मानो कल की ही बात हो ...  

आज से ठीक ५ साल पहले हिंदी साहित्य और रंग मंच को घोर कठोर आघात लगा था उससे वह आज तक सदमे में है ! आज ही के दिन हिंदी साहित्य और रंग मंच के ४ धुरंधर खिलाडी मौत के सामने हार गए थे !
  
ज्ञात हो कि ठीक ५ साल पहले आज ही के दिन एक सड़क दुर्घटना में मंच के लोकप्रिय कवि ओम प्रकाश आदित्य, नीरज पुरी और लाड सिंह गुज्जर का निधन हो गया था और ओम व्यास 'ओम' तथा ज्ञानी बैरागी गंभीर रूप से घायल हुए थे | सभी विदिशा से भोपाल एक इनोवा द्वारा म.प्र. संस्मृति विभाग द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में भाग ले कर वापस आ रहे थे |
 
दूसरी ओर जाने माने रंगकर्मी हबीब तनवीर का भी अचानक ही निधन हो गया | सभी कला प्रेमी सदमे में आ गए इन एक के बाद एक लगे झटको से ! कोई भी इन खबरों को पचा नहीं पा रहा था | पर होनी तो घट चुकी थी ! सिवाए शोक के कोई कर भी क्या सकता था ................................ सब ने इन महान कला सेवकों को अपनी अपनी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित की |

आज इस दुखद घटना को घटे ५ साल हो गया है तब भी इन सब विभूतियों के खो जाने का गम एकदम ताज़ा है ...काश यह दिन ना आया करें ... |
 
हबीब तनवीर जी , आदित्य जी, नीरज पुरी जी, और लाड सिंह गुज्जर जी को सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से अश्रुपूरित श्रद्धांजलि |

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